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सजग होइए! ब्रोशर (1993) (gbr-6)
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प्रजाति क्या है?

प्रजाति! इस शब्द से मन में क्या विचार आता है? कुछ लोगों के लिए इसका अर्थ है भेदभाव और अत्याचार। दूसरों के लिए इसका अर्थ घृणा, उपद्रव, और यहाँ तक कि हत्या भी है।

अमरीका में प्रजाति उपद्रवों से लेकर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद (apartheid) तक, पूर्वी यूरोप में नृजातीय समूहों के बीच युद्धों से लेकर श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों में संघर्ष तक—प्रजाति अत्यधिक मानव दुःख और बरबादी का केंद्रीय बिन्दु बन गयी है।

लेकिन ऐसा क्यों है? उन देशों में भी जहाँ लोग लगभग हर बात के प्रति सहनशील प्रतीत होते हैं, प्रजाति क्यों एक इतना नाज्प्ताक वादविषय है? क्या बात प्रजाति को एक फ़्यूज़ बनाती है जो इतनी ज़्यादा अशांति और अन्याय की आग भड़काता है? सरल शब्दों में कहा जाए तो, भिन्‍न प्रजातियों के लोग मेल मिलाप से क्यों नहीं रह सकते?

इन प्रश्‍नों का उत्तर देने के लिए, हमें इससे ज़्यादा जानने की ज़रूरत है कि प्रजाति क्या है और किन तरीक़ों से प्रजातियाँ भिन्‍न हैं। हमें यह भी समझना चाहिए कि वर्तमान प्रजाति सम्बन्धों में इतिहास क्या भूमिका निभाता है। लेकिन, पहले आइए देखें कि इस विषय के बारे में विज्ञान हमें क्या बता सकता है।

मनुष्यों का वर्गीकरण करने में समस्या

संसार के भिन्‍न भागों में रहनेवाले लोगों की विविध शारीरिक विशेषताएँ होती हैं। इनमें त्वचा का रंग, चेहरे की आकृति, बालों की संरचना, इत्यादि सम्मिलित हैं। ऐसी शारीरिक भिन्‍नताएँ एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति से अलग करती हैं।

अतः, लोग सामान्यतः श्‍वेत और अश्‍वेत लोगों के बारे में बोलते हैं, और इस प्रकार त्वचा के रंग की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन लोग स्पेनी, ऐशियाई, स्कैंडिनेवियाई, यहूदी, और रूसी लोगों के बारे में भी बोलते हैं। ये दूसरी पहचान शारीरिक विशेषताओं से ज़्यादा भौगोलिक, राष्ट्रीय, या सांस्कृतिक भिन्‍नताओं को सूचित करती हैं। इसलिए अधिकांश लोगों के लिए, प्रजाति केवल शारीरिक विशेषताओं से ही नहीं बल्कि रिवाजों, भाषा, संस्कृति, धर्म, और राष्ट्रीयता से भी निश्‍चित की जाती है।

लेकिन यह दिलचस्पी की बात है कि इस विषय के कुछ लेखक “प्रजाति” शब्द का बिलकुल ही प्रयोग करने से हिचकिचाते हैं; जब भी यह शब्द आता है वे इसे उद्धरण चिह्नों में डाल देते हैं। अन्य लोग इस शब्द का बिलकुल ही प्रयोग नहीं करते और इसके बजाय “नृजातीय वर्ग,” “समूह,” “जनसमुदाय,” और “उपजातियाँ” जैसी अभिव्यक्‍तियों का प्रयोग करते हैं। क्यों? यह इसलिए कि “प्रजाति” शब्द, जैसा कि इसे सामान्यतः समझा जाता है, व्यंजना और निहितार्थों से इतना लदा हुआ है कि, बिना सही स्पष्टीकरण के इसका प्रयोग अकसर चर्चा के मुद्दे को धुँधला कर देता है।

जीवविज्ञानियों और मानवविज्ञानियों के लिए, अकसर प्रजाति की सरल परिभाषा होती है, “एक जाति का प्रविभाजन जो शारीरिक विशेषताओं को विरासत में पाता है और ये जाति के अन्य सदस्यों से उसकी अलग पहचान कराती हैं।” लेकिन, प्रश्‍न यह है कि मानव जाति में भिन्‍न समूहों का वर्णन करने के लिए किन विशेषताओं को प्रयोग किया जा सकता है?

त्वचा का रंग, बालों का रंग और संरचना, आँखों और नाक की आकृति, मस्तिष्क का आकार, लहू की क़िस्म जैसे तत्त्वों का सुझाव दिया गया है, लेकिन इनमें से एक भी तत्त्व मानवजाति की विविधताओं के वर्गीकरण कर्त्ता के रूप में पूरी तरह संतोषजनक साबित नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक रूप से लोगों का कोई ऐसा समूह नहीं होता है जिसमें सभी सदस्य ऐसी विशेषताओं में एक समान हों।

त्वचा के रंग पर विचार कीजिए। अधिकांश लोगों का विश्‍वास है कि त्वचा के रंग द्वारा मानवजाति को आसानी से पाँच प्रजातियों में विभाजित किया जा सकता है: श्‍वेत, अश्‍वेत, भूरे, पीले, और लाल। आम तौर पर समझा जाता है कि श्‍वेत प्रजाति के लोगों की श्‍वेत त्वचा, हल्के रंग के बाल, और नीली आँखें होती हैं। फिर भी, असलियत में, तथाकथित श्‍वेत प्रजाति के सदस्यों के बीच बालों के रंग, आँखों के रंग, और त्वचा के रंग में बहुत विविधता है। पुस्तक द ह्‍यूमन स्पीशीस्‌ (The Human Species) रिपोर्ट करती है: “यूरोप में आज ऐसे कोई जनसमुदाय नहीं हैं जिनमें अधिकांश सदस्य एक क़िस्म के हों; और न ही कभी ऐसे जनसमुदाय थे।”

सचमुच, मानव जाति का वर्गीकरण करना कठिन है, जैसे कि पुस्तक द काइन्डस्‌ ऑफ़ मैनकाइन्ड (The Kinds of Mankind) कहती है: “प्रतीत होता है कि हम सिर्फ़ इतना ही कह सकते हैं: जबकि सभी मनुष्य सभी अन्य मनुष्यों के समान नहीं दिखते, और जबकि हम स्पष्ट रूप से ऐसे अनेक तरीक़े देख सकते हैं जिनमें लोग भिन्‍न दिखते हैं, वैज्ञानिक अभी-भी इस बात पर सहमत नहीं हैं कि मानवजाति के ठीक कितने वर्ग हैं। उन्होंने यह भी निश्‍चित नहीं किया है कि लोगों को प्रजातियों में विभाजित करने के लिए हम किस आधार का प्रयोग कर सकते हैं। कुछ वैज्ञानिक इस खोजबीन को यह कहते हुए छोड़ना चाहते हैं कि यह समस्या बहुत कठिन है—इसका कोई समाधान नहीं है!”

यह सब उलझन भरा लग सकता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि वैज्ञानिकों को स्पष्टतया पशुओं और पेड़-पौधों का वर्ग, जाति, और उपजाति में वर्गीकरण करने में कोई कठिनाई नहीं होती, उन्हें मानवजाति को प्रजातियों में विभाजित करने में इतनी समस्या क्यों होती है?

“मनुष्य की सबसे ख़तरनाक कल्प-कथा”

मानवविज्ञानी ऐशली मॉनटागू के अनुसार, अनेक लोग यह विश्‍वास करते हैं कि “शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं, कि शारीरिक भिन्‍नताएँ मानसिक क्षमताओं में सुस्पष्ट भिन्‍नताओं से सम्बन्धित हैं, और कि ये भिन्‍नताएँ बौद्धिक स्तर-परीक्षाओं और इन जनसमुदायों की सांस्कृतिक उपलब्धियों द्वारा नापी जा सकती हैं।”

अतः, अनेक लोगों का विश्‍वास है कि क्योंकि प्रजातियों में भिन्‍न शारीरिक विशेषताएँ होती हैं, कुछ प्रजातियाँ प्रज्ञात्मक रूप से श्रेष्ठ होती हैं और अन्य हीन होती हैं। लेकिन, मॉनटागू ऐसे विचार को “मनुष्य की सबसे ख़तरनाक कल्प-कथा” कहता है। अन्य विशेषज्ञ सहमत हैं।

मॉर्टन क्लास और हैल हेलमन द काइन्डस्‌ ऑफ़ मैनकाइन्ड में समझाते हैं: “व्यक्‍तियों में भिन्‍नता होती है; हर जनसमुदाय में प्रतिभासम्पन्‍न व्यक्‍ति होते हैं और अल्पबुद्धि व्यक्‍ति होते हैं। लेकिन, सारे अनुसंधान के बाद, विश्‍वसनीय विद्वानों ने बुद्धि या योग्यता के सम्बन्ध में जनसमुदायों के बीच आनुवंशिक भिन्‍नता का ऐसा प्रमाण नहीं देखा जिसे वे स्वीकार कर सकें।”

फिर क्यों इतने सारे लोग इस बात पर विश्‍वास करते जाते हैं कि ऊपरी शारीरिक भिन्‍नताओं का अर्थ है कि प्रजातियाँ मूलतः भिन्‍न हैं? असल में, प्रजाति इतना बड़ा वादविषय कैसे बन गई? इन बातों पर हम अगले लेख में विचार करेंगे।

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