प्रजाति इतना बड़ा वादविषय क्यों है?
अभिलिखित इतिहास के आरम्भ से ही “वे” और “हम” की धारणा ने लोगों के विचारों पर प्रभुत्व चलाया है। अनेक लोगों ने अपने आपको विश्वस्त कर लिया है कि केवल वे ही सामान्य लोग हैं जिनके हर कार्य करने के तरीक़े सही हैं। इसी को वैज्ञानिक नृजातिकेंद्रण (ethnocentrism) कहते हैं, यह विचार कि एक व्यक्ति के केवल अपने लोग और तरीक़े ही महत्त्व रखते हैं।
उदाहरण के लिए, प्राचीन यूनानी लोग “बर्बर लोगों” को हीन समझते थे, और इस शब्द का प्रयोग वे किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए करते थे जो यूनानी नहीं था। जिस तरह विदेशी भाषाएँ यूनानियों को सुनने में लगती थीं, मानो कि दुर्बोध “बर-बर” हो, उसी से यह शब्द “बर्बर” विकसित हुआ है। उनसे पहले मिस्री लोग और उनके बाद रोमी लोग भी अपने आपको अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझते थे।
सदियों से चीनी लोग अपने देश को द्रूंग गूऔ (Zhong Guo), या मध्य राज्य कहते थे, क्योंकि वे विश्वस्त थे कि चीन यदि विश्व-मंडल का नहीं तो संसार का केंद्र तो था ही। बाद में, जब लाल बाल, हरी आँखों, और लाल रंगवाले यूरोपीय मिशनरी चीन आए तो चीनियों ने उन्हें “विदेशी राक्षस” नाम दिया। उसी समान, जब पूर्वी लोग यूरोप और उत्तरी अमरीका में पहुँचे, तो उनकी तिरछी आँखों और उनके रिवाजों ने, जो विचित्र समझे जाते थे, उन्हें उपहास और संदेह का आसान निशाना बनाया।
फिर भी, एक महत्त्वपूर्ण तथ्य पर विचार किया जाना चाहिए, जैसे कि पुस्तक द काइन्डस् ऑफ़ मैनकाइन्ड कहती है: “अपनी [प्रजातीय] श्रेष्ठता में विश्वास करना एक बात है; लेकिन विज्ञान की खोजों का प्रयोग करते हुए उसे साबित करने की कोशिश करना एकदम अलग बात है।” एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति से श्रेष्ठ साबित करने के लिए किए जा रहे प्रयास अपेक्षाकृत नए हैं। मानवविज्ञानी ऐशली मॉनटागू ने लिखा कि “यह धारणा कि मानवजाति की प्राकृतिक या जैविक प्रजातियाँ हैं जो मानसिक और साथ ही शारीरिक रूप से भी एक दूसरे से भिन्न हैं एक ऐसा विचार है जो अठारवीं सदी के दूसरे भाग तक विकसित नहीं हुआ था।”
प्रजातीय श्रेष्ठता का वादविषय १८वीं और १९वीं सदियों के दौरान इतना विशिष्ट क्यों बन गया?
दास व्यापार और प्रजाति
एक प्रमुख कारण यह है कि उस समय तक लाभकारी दास व्यापार अपने शिखर तक पहुँच गया था, और सैकड़ों हज़ारों अफ्रीकियों को ज़बरदस्ती यूरोप और अमरीका ले जाकर उन्हें दासता में धकेला जा रहा था। परिवार अकसर तोड़े जा रहे थे क्योंकि पुरुषों, स्त्रियों, और बच्चों को संसार के अलग-अलग भागों में भेजा जा रहा था जो फिर कभी एक दूसरे को नहीं देखते। दास व्यापारी और दास मालिक, जिनमें से अधिकांश ने मसीही होने का दावा किया, ऐसे अमानवीय कार्यों की सफ़ाई किस प्रकार दे सकते थे?
इस विचार को फैलाने के द्वारा कि अश्वेत अफ्रीकी स्वाभाविक रूप से हीन थे। “मैं यह संदेह करने में संगत हूँ कि सभी हबशी, और सामान्य रूप से मनुष्यों की सभी अन्य जातियाँ श्वेत लोगों से स्वाभाविक रूप से हीन हैं,” १८वीं सदी के स्कॉटिश दार्शनिक, डेविड ह्यूम ने लिखा। असल में, ह्यूम ने दावा किया कि एक व्यक्ति “[हबशियों] के बीच कोई बढ़िया आविष्कार, कला, [या] विज्ञान नहीं पा सकता।”
लेकिन, ऐसे दावे ग़लत थे। द वर्ल्ड बुक एन्साइक्लोपीडिया (१९७३) कहती है: “सैकड़ों साल पहले अफ्रीका के विभिन्न भागों में अत्यन्त विकसित हबशी राज्य थे। . . . पश्चिम अफ्रीका में टिमबक्टू में १२०० और १६०० के बीच, एक हबशी-अरबी विश्वविद्यालय समृद्ध हुआ और यह पूरे स्पेन, उत्तरी अफ्रीका, और मध्य पूर्व में प्रसिद्ध हो गया।” तोभी, दास व्यापार में अन्तर्ग्रस्त लोगों ने ह्यूम जैसे दार्शनिकों का मत शीघ्रता से अपनाया कि अश्वेत प्रजाति श्वेत प्रजाति से हीन थी, जी हाँ, यहाँ तक कि अवमानवीय थी।
धर्म और प्रजाति
दास व्यापारियों को अपने प्रजातिवादी विचारों के लिए धार्मिक नेताओं से काफ़ी समर्थन मिला। दशक १४५० में, रोमन कैथोलिक पोप लोगों के धर्मादेशों ने “विधर्मियों” और “अविश्वासियों” के अधीनीकरण और दासकरण की अनुमति दी ताकि “परमेश्वर के राज्य” के लिए उनकी “आत्माएँ” बचाई जा सकें। गिरजे की आशिष प्राप्त करके, आरंभिक यूरोपीय अन्वेषकों और दास व्यापारियों को स्थानीय लोगों के साथ अपने क्रूर व्यवहार के बारे में कोई पापशंका नहीं हुई।
“दशक १७६० में, और जैसा कि आनेवाले अनेक दशकों में भी सच होता, कैथोलिक, ऐंग्लिकन, लूथरन, प्रेसबिटेरियन, और रिफॉर्म्ड गिरजेवालों और धर्मशास्त्रियों ने अश्वेत दासता को अनुमति दी,” ‘दासता और मानव प्रगति’ (Slavery and Human Progress) पुस्तक कहती है। “किसी भी आधुनिक गिरजे या संप्रदाय ने अपने सदस्यों को अश्वेत दास का मालिक होने या यहाँ तक कि उनका व्यापार करने से निरुत्साहित नहीं किया।”
जबकि कुछ गिरजों ने विश्वव्यापी मसीही भाईचारे के बारे में बात की, उन्होंने ऐसी शिक्षाओं को भी फैलाया जिन्होंने प्रजातीय विवाद को बढ़ाया। उदाहरण के लिए, एन्साइक्लोपीडिया जुडाइका (Encyclopaedia Judaica) कहती है कि “लम्बे संघर्षों और धर्मशास्त्रीय चर्चाओं के बाद ही स्पेनी लोगों ने स्वीकार किया कि जो स्थानीय प्रजातियाँ उन्हें अमरीका में मिलीं उन लोगों में भी आत्मा थी।”
निहितार्थ यह था कि जब तक कि ऐसी स्थानीय प्रजातियों की “आत्माओं” को मसीहियत में धर्मपरिवर्तित करके “बचाया” जा रहा था, यह महत्त्वहीन था कि शारीरिक रूप से उनके साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा था। और जब अश्वेत लोगों की स्थिति की बात आयी, तो अनेक धार्मिक नेताओं ने तर्क किया कि वे तो वैसे भी परमेश्वर द्वारा शापित थे। इसे साबित करने की कोशिश करने के लिए शास्त्रवचनों का दुरुपयोग किया गया। पादरी रॉबर्ट जेमसन, ए. आर. फॉसेट, और डेविड ब्राउन अपनी बाइबल टीका-टिप्पणी में दावा करते हैं: “कनान शापित हो [उत्पत्ति ९:२५]—यह दण्डादेश कनानियों के विनाश में—मिस्र के निम्नीकरण में, और हाम के वंशज, अर्थात् अफ्रीकियों के दासत्व में पूरा हुआ है।”—कमेंन्ट्री, क्रिटिकल एण्ड एक्सप्लेनेटरि, ऑन द होल बाइबल, (Commentary, Critical and Explanatory, on the Whole Bible).
यह शिक्षा कि अश्वेत प्रजाति का पूर्वज शापित था बाइबल में सिखाई ही नहीं गई है। सच्चाई यह है कि अश्वेत प्रजाति कूश का वंशज है न कि कनान का। अठारहवीं सदी में, जॉन वुलमन ने तर्क किया कि अश्वेतों के दासत्व को उचित सिद्ध करने के लिए इस बाइबलीय श्राप का प्रयोग करना, उन्हें उनके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित करना, “किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए जो निष्कपटता से ठोस सिद्धान्तों द्वारा नियंत्रित होना चाहता है अपने मन में यह विचार रखना भी एक अति गंभीर कल्पना है।”
कूट विज्ञान और प्रजाति
कूट विज्ञान ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन करने के प्रयास में अपनी आवाज़ उठाई कि अश्वेत एक हीन प्रजाति है। उन्नीसवीं सदी के लेखक, जोसफ़ ड गोबीनो की पुस्तक ‘प्रजातियों की असमानता पर निबन्ध’ (Essay on the Inequality of Races) ने आगे लिखी जानेवाली अनेक ऐसी साहित्यिक रचनाओं के लिए आधारकार्य कर दिया। उसमें गोबीनो ने मानवजाति को श्रेष्ठता के अवरोही क्रम में तीन अलग प्रजातियों में विभाजित किया: श्वेत, पीले, और अश्वेत। उसने दावा किया कि हर प्रजाति के विशिष्ट गुण उनके ख़ून में होते हैं और इसलिए अंतर्विवाह के द्वारा कोई भी मिश्रण निम्नीकरण और उच्च गुणों की क्षति में परिणित होगा।
गोबीनो ने तर्क किया कि एक समय श्वेत, लम्बे, सुनहले-बालवाले और नीली-आँखोंवाले लोगों की एक शुद्ध प्रजाति थी जिन्हें उसने आर्य कहा। उसने तर्क किया कि आर्य लोग ही भारत में सभ्यता और संस्कृत लाए, और वे आर्य ही थे जिन्होंने प्राचीन यूनान और रोम की सभ्यताओं को स्थापित किया। लेकिन हीन स्थानीय लोगों के साथ अंतर्विवाह द्वारा ये कभी-महान सभ्यताएँ, आर्य प्रजाति की प्रतिभा और उत्तम गुणों के साथ-साथ समाप्त हो गईं। गोबीनो ने दावा किया कि शुद्ध आर्यों के अभी-भी बचे हुए निकटतम लोग उत्तरी यूरोप में, अर्थात्, नार्डिक और विस्तार द्वारा जर्मन लोगों के बीच पाए जाते हैं।
तीन-प्रजाति विभाजन, ख़ून वंशावली, आर्य प्रजाति—गोबीनो के इन मूल विचारों का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं था, और वे आज के वैज्ञानिक समुदाय द्वारा पूरी तरह अस्वीकार किए जाते हैं। फिर भी, दूसरे लोगों ने उन्हें जल्द ही अपना लिया। उनमें से एक था अंग्रेज़, हूस्टन स्टीवर्ट चेमबरलेन, जो गोबीनो के विचारों से इतना मोहित हुआ कि वह जर्मनी में रहने लगा और उसने इस पक्ष का समर्थन किया कि सिर्फ़ जर्मन लोगों के द्वारा ही आर्य प्रजाति की शुद्धता बचाए रखने की आशा है। स्पष्टतया, चेमबरलेन के लेखों को जर्मनी में व्यापक रूप से पढ़ा गया, और परिणाम घिनौना था।
प्रजातिवाद का घिनौना परिणाम
अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ (Mein Kampf) में एडॉल्फ हिटलर ने दावा किया कि जर्मन प्रजाति आर्यों की सर्वोच्च प्रजाति थी जो संसार पर शासन करने के लिए नियत थी। हिटलर को लगा कि यहूदी लोग इस शानदार नियति में बाधा थे और उसने कहा कि वे जर्मन अर्थव्यवस्था को बिगाड़ने के लिए ज़िम्मेदार थे। इसलिए यहूदियों और यूरोप के अन्य अल्पसंख्यक वर्गों का संहार शुरू हुआ, जो कि निर्विवाद रूप से मानव इतिहास का एक सबसे अन्धकार पूर्ण समय था। यह था प्रजातिवादी विचारों का विनाशकारी परिणाम, जिसमें गोबीनो और चेमबरलेन के विचार सम्मिलित थे।
लेकिन, ऐसा घिनौनापन यूरोप तक ही सीमित नहीं था। महासागर के पार तथाकथित नए संसार में, इसी क़िस्म के बेबुनियाद विचार निर्दोष लोगों पर पीढ़ियों तक असीम दुःख लाए। जबकि अमरीका में गृह युद्ध के बाद अफ्रीकी दासों को आख़िरकार मुक्त कर दिया गया, अनेक राज्यों में ऐसे क़ानून जारी किए गए जिनमें अश्वेत लोगों को अनेक ऐसे विशेषाधिकारों से वर्जित किया गया जिनका आनन्द दूसरे नागरिकों को प्राप्त था। क्यों? श्वेत नागरिकों ने सोचा कि अश्वेत प्रजाति के पास नागरिक कार्यों और सरकार में भाग लेने के लिए बौद्धिक क्षमता नहीं थी।
ऐसी प्रजातीय भावनाएँ कितनी गहरी तरह संस्थापित थीं इसे एक जाति-मिश्रण विरोधी क़ानून से सम्बन्धित एक मुक़दमे के द्वारा सचित्रित किया जा सकता है। इस क़ानून ने अश्वेत और श्वेत लोगों के बीच विवाह वर्जित किया। एक दम्पति को यह क़ानून तोड़ने के लिए दोषी ठहराते समय एक न्यायाधीश ने कहा: “सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने श्वेत, अश्वेत, पीली, मलय और लाल प्रजातियाँ बनाईं, और उसने उन्हें अलग-अलग महाद्वीपों पर रख दिया, और यदि उसके प्रबन्ध में कोई हस्तक्षेप न किया जाए तो ऐसे विवाहों के लिए कोई कारण नहीं होगा।”
न्यायाधीश ने यह १९वीं सदी में नहीं और न ही किसी पिछड़े हुए क्षेत्र में कहा, बल्कि १९५८ में—और अमरीका के संसद भवन से १०० किलोमीटर से भी कम दूरी पर कहा! सचमुच, १९६७ में जाकर कहीं अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय ने अंतर्जातीय विवाहों के विरुद्ध सारे क़ानून अमान्य किए।
ऐसे भेदकारी क़ानून—साथ ही साथ स्कूलों, गिरजों, और अन्य सार्वजनिक संस्थानों में अलगाव और रोज़गार तथा गृह-व्यवस्था में भेदभाव—नागरिक हलचल, विरोध, और हिंसा की ओर ले गए जो अमरीका और अनेक अन्य स्थानों में जीवन की वास्तविकताएँ बन गई हैं। जीवन और सम्पत्ति की हानि को एक तरफ़ रखें तोभी, जो मनोव्यथा, घृणा, और व्यक्तिगत अपमान तथा दुःख परिणित हुए हैं उन्हें तथाकथित सभ्य समाज की लज्जा और अपमान ही समझा जा सकता है।
अतः, प्रजातिवाद मानव समाज को पीड़ित करनेवाला एक सबसे विभाजक प्रभाव बन गया है। निश्चित ही, यह हम सब के लिए आवश्यक बनाता है कि स्वयं अपना हृदय जाँचें, और अपने आप से पूछें: क्या मैं किसी भी ऐसी शिक्षा को ठुकराता हूँ जो घोषित करती है कि एक प्रजाति दूसरी प्रजाति से श्रेष्ठ है? क्या मैं ने अपने आपको प्रजातीय श्रेष्ठता की ऐसी किसी भी संभव बची हुई भावनाओं से मुक्त किया है?
यह भी उपयुक्त है कि हम पूछें: क्या आशा है कि प्रजातीय पक्षपात और तनाव जो आज इतना व्याप्त है, कभी-भी समाप्त किया जा सकता है? क्या भिन्न राष्ट्रीयताओं, भाषाओं, और रिवाजों के लोग एक साथ मिलकर शान्ति में रह सकते हैं?
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अश्वेतों को अनेक श्वेत अवमानव समझते थे
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Reproduced from DESPOTISM—A Pictorial History of Tyranny
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नात्सी संहार शिविर प्रजातिवादी विचारों का एक विनाशकारी परिणाम थे
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U.S. National Archives photo