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सजग होइए!–1994
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शिष्टाचार की अवनति

लाखों लोग अब भी शिष्टाचार का पालन करते हैं। अन्य करोड़ों लोग उन्हें पाँवों तले रौंदते हैं।

इस शताब्दी के आरंभ में, शिष्टता की एक बुरी शुरूआत हुई। द न्यू एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार: “उन्‍नीसवीं शताब्दी की समाप्ति में और २०वीं शताब्दी के आरंभ में समाज के कुलीन वर्ग के लोग, शिष्टाचार की सबसे मामूली आवश्‍यकताओं का पालन करना मन-बहलाव समझते थे और साथ-ही-साथ स्त्रियों के लिए प्रमुख रुचि का कार्य भी मानते थे। अधिकाधिक परिष्कृत औपचारिकताएँ तैयार की गयीं ताकि कुलीन वर्ग के नए सदस्यों के लिए अनन्यता का भाव पैदा किया जाए और अयोग्य लोगों को, जो इन परिष्कृत औपचारिकताओं से अनजान थे, उस वर्ग से दूर रखा जाए।”

शिष्टाचार को जैसा होना चाहिए, उससे यह काफ़ी भिन्‍न है। शिष्टाचार के विषय पर एक प्रतिष्ठित प्राधिकारी है एमी वैन्डरबिल्ट, और वह अपनी शिष्टाचार की संपूर्ण नयी पुस्तक (अंग्रेज़ी) में लिखती है: “आचरण के सर्वोत्तम नियम पहले कुरिन्थियों के अध्याय १३ में पाए जाते हैं, संत पौलुस द्वारा प्रेम का सुंदर निबंध। ये नियम ना तो फ़ैशन के जटिल विवरणों से ना ही दिखावटी शिष्टाचार से सम्बन्ध रखते हैं। ये भावनाओं और मनोवृत्तियों, कृपालुता, और दूसरों के प्रति लिहाज़ से सम्बन्ध रखते हैं।”

एमी वैन्डरबिल्ट ने जिस बाइबलीय उद्धरण का उल्लेख किया वह १ कुरिन्थियों १३:४-८ में है, जो कहता है: “प्रेम धीरजवन्त है, और कृपाल है; प्रेम डाह नहीं करता; प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं। वह अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुंझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता। कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है। वह सब बातें सह लेता है, सब बातों की प्रतीति करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज धरता है। प्रेम कभी टलता नहीं।”

ऐसे प्रेम को आज कार्यान्वित होते देखना कितनी असाधारण बात होगी! किसी जगह शिष्टाचार में कोई दोष नहीं होगा! ऐसे शिष्टाचार को सिखाने और सीखने के लिए शुरूआत मसीही घर है। परिवार एक नाज्प्ताक मशीन की तरह है जिसके पुरज़े एक दूसरे के निकट संपर्क में होते हैं। मात्र अच्छी तरह तेल देने के द्वारा ही इस मशीन को बाधारहित चलनेवाली अवस्था में रखा जा सकता है। एक सुखी घर बनाने में यह जानना एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि कैसे सहायक, भद्र, प्रीतिकर, और शिष्ट बनें। भद्रता और लिहाज़ की स्वीकृत रोज़मर्रा की अभिव्यक्‍तियों को—जैसे कि “शुक्रिया,” “कृपया,” “क्षमा चाहता हूँ,” “मुझे अफ़सोस है”—व्यक्‍त करना सीखना, लोगों के साथ हमारे सम्पर्क में विनाशकारी मनमुटाव को मिटाने के लिए काफ़ी सहायक होगा। ये छोटे शब्द बड़े अर्थ रखते हैं। प्रत्येक व्यक्‍ति उन्हें उचित रूप से कह सकता है। इनसे हमारा कुछ नहीं जाता, लेकिन इनके द्वारा हम दोस्त हासिल कर सकते हैं। यदि हम अपने घरों में प्रतिदिन शिष्टाचार का पालन करें, तो ये तब भी हमारा साथ देंगे जब हम अपने पारिवारिक दायरे से बाहर निकलकर लोगों से मिलते-जुलते हैं।

दूसरों की भावनाओं का लिहाज़ करना, उन्हें आदर देना, उनके साथ ऐसे पेश आना जैसे हम चाहेंगे कि वे हमारे साथ पेश आएँ, शिष्टाचार में यह सब शामिल है। लेकिन, अनेक लोगों ने टिप्पणी की है कि शिष्टाचार की अवनति हुई है। एक लेखिका ने कहा: “हमारे बीच भद्रता का अभाव है क्योंकि व्यक्‍तिवाद इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया है।” दार्शनिक आरतुर शोपेनहाउर ने लिखा: “स्वार्थ इतनी भद्दी चीज़ है कि उसे छुपाने के लिए हमने शिष्टता का आविष्कार किया।” आज अनेक लोग यह मानते हैं कि “शिष्ट” का अर्थ है “कमज़ोर” और दूसरों को पहला स्थान देना दब्बूपन। क्या वह १९७० की “मैं पहले” की दशाब्दी नहीं थी जिससे वर्तमान की मैं-पहले जीवन-चर्या शुरू हुई? एक महानगर समाचार-पत्र ने कहा: “समस्या अब इस हद तक पहुँच चुकी है जब सामान्य शिष्टाचार को सामान्य नहीं कहा जा सकता।”

लंडन की डेली मेल (अंग्रेज़ी) रिपोर्ट करती है कि पाँच साल के बच्चे भी अधिकाधिक झगड़ालू, अन्य बच्चों की सम्पत्ति के प्रति निरादरपूर्ण हो रहे हैं, उनमें बड़ों के लिए आदर की कमी है और वे अश्‍लील भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। जिन शिक्षकों का सर्वेक्षण लिया गया उनमें से अधिकांश महसूस करते हैं कि माता-पिता अपने बच्चों को बिगाड़ रहे हैं और यह असामाजिक बर्ताव में बढ़ोतरी का मूल कारण है। एक सर्वेक्षण में जिन शिक्षकों का इन्टरव्यू लिया गया, उनमें से ८६ प्रतिशत शिक्षक “घर में सुस्पष्ट स्तरों और अपेक्षाओं की कमी” को दोष देते हैं। बयासी प्रतिशत शिक्षक जनकीय उदाहरण की ग़ैर-मौजूदगी को दोषी ठहराते हैं। विभाजित परिवार, तलाक़, नाजायज़ रिश्‍ते, बहुत ज़्यादा टेलिविज़न देखना, कोई अनुशासन नहीं, कोई बाध्यकारी नियम नहीं—इन सब का आख़री परिणाम होता है परिवार का विनाश।

एक प्राथमिक स्कूल प्राध्यापिका ने कहा: “आज बच्चों में आदर की कमी के बारे में मैं चिन्तित हूँ। ऐसा लगता है कि अपने समकक्षों का अपमान करने या बड़ों को नाराज़ करने की वे परवाह नहीं करते। . . . वे अनेक तरीक़ों से अनादर दिखाते हैं—आपत्तिजनक हाव-भाव, अश्‍लीलता, सरल आदेशों को मानने से इनकार . . . , खेल के वक़्त गेंद को अपने वश में रखने की उत्सुकता . . . [दूसरी ओर,] कुछ घरों के बच्चों में दूसरों का आदर करने का रुझान होता है। यह ज़रूरी नहीं कि वे शिक्षक के चहेते हों . . . , लेकिन वे दूसरों से आदरपूर्ण रूप से व्यवहार करते हैं। लाइन में जबकि दूसरे धक्का-मुक्की करते हैं वे अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं . . . यह स्पष्ट होता है कि [बच्चे को] आदर देना सिखाया गया है या नहीं।”

अनेक वर्षों का अनुभवी, एक और प्राथमिक स्कूल प्राध्यापक और भी जानकारी देता है: “हम सुस्पष्ट घटियापन को ज़्यादा देख रहे हैं। खेल के मैदान में बच्चे वैसे नहीं खेलते प्रतीत होते जैसे वे पहले खेला करते थे; वे दल बनाकर घूमते हैं। वे जल्द ही कमज़ोर बच्चों को पहचान लेते हैं, ऐसे बच्चे जो ग़ैर समझे जाते हैं, बच्चे जो सही स्पोर्टस्‌ जूते या जीन्स्‌ नहीं पहनते हैं। वे उनको अपना निशाना बनाते हैं, ताना मारते हैं; और उसमें एक विद्वेषपूर्ण कठोरता होती है। हमने इसे रोकने की कोशिश की है, लेकिन बहुत ज़्यादा सफल नहीं हुए हैं।”

“अनेक लोग वाहन चलाते वक़्त अविश्‍वसनीय रूप से अशिष्ट होते हैं,” कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय का प्रोफ़ेसर जोनाथन फ्रीडमन कहता है। “राजमार्ग क़रीब-क़रीब रणभूमि बन चुके हैं।” रॉयल बैंक ऑफ कनाडा का मन्थली लेटर (अंग्रेज़ी) “रास्तों पर निर्मम संहार” के बारे में बात करता है और निष्कर्ष निकालता है कि “समस्या की जड़ असभ्य बर्ताव है। भद्रता, लिहाज़, धैर्य, सहनशीलता और मानव अधिकारों के प्रति आदर, जिनसे सभ्यता बनती है, का शर्मनाक रूप से अभाव है।”

द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌ (अंग्रेज़ी) न्यू यॉर्क शहर के रास्तों की विशेषता इस प्रकार बताता है: “मोटर चालक बनाम ऐम्बुलेन्स।” उस शहर में अधिकाधिक मोटर चालक आपातकालीन वाहनों, जैसे कि ऐम्बुलेन्स और फायरब्रिगेड को रास्ता देने से इनकार करते हैं—और बुरी तरह से बीमार या घायल व्यक्‍ति के मरने के ख़तरे को बढ़ा देते हैं क्योंकि उस तक जल्दी से पहुँचा नहीं जा सकता या उसे अस्पताल जल्दी नहीं पहुँचाया जा सकता। आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं के कैप्टन एलन शिबेली ने एक व्यक्‍ति के बारे में बताया जो ब्रान्क्स में पेलम पार्कवे पर गाड़ी चला रहा था, और उसने एक ऐसी ऐम्बुलेन्स के लिए रास्ता देने से इनकार कर दिया जो एक दिल के दौरे की शिकार की सहायता करने जा रही थी जिसने सहायता माँगी थी। “वह हठी हो रहा था और हटना नहीं चाहता था, लेकिन जब वह अपने घर पहुँचा तब उसने महसूस किया कि वह कितनी मूर्खता की बात थी। उसकी माँ को दिल का दौरा पड़ा था और वह ऐम्बुलेन्स उस तक पहुँचने की कोशिश कर रही थी।”

द न्यू यॉर्क टाइम्स्‌ इन्टरनैशनल (अंग्रेज़ी) ने पोलाइट सोसाइटी नामक एक अंग्रेज़ी संगठन के बारे में कहा, जो इसलिए बनाया गया था क्योंकि “लोग एक दूसरे के प्रति आक्रमक रूप से कठोर बन गए हैं और कुछ-न-कुछ किया जाना चाहिए।” दी इवनिंग स्टैन्डर्ड (अंग्रेज़ी) के एक स्तंभ में एक प्रसारण पत्रकार यह शिकायत करने के लिए प्रेरित हुआ: “एक राष्ट्र जो कभी अपनी सभ्यता के लिए प्रसिद्ध था अब गँवारों का देश बनता जा रहा है।” स्कॉटलैन्ड की एक बीमा कंपनी ने “निष्कर्ष निकाला कि रास्तों पर हुई सभी दुर्घटनाओं में से ४७ प्रतिशत अभद्रता के किसी कार्य से जोड़ी जा सकती हैं।”

शिष्टाचार की क्षति में टेलीविज़न ने भारी योगदान दिया है, विशेषकर बच्चों और किशोरों के सम्बन्ध में। लोग कैसे कपड़े पहनते हैं, कैसे बात करते हैं, कैसे मानवी रिश्‍तों से निपटते हैं, कैसे बार-बार हिंसा से समस्याओं को सुलझाते हैं—टेलीविज़न इसका शिक्षक है। यदि हम और हमारे बच्चे नियमित रूप से काल्पनिक और ओछे कार्यक्रमों को देखते रहें, तो आख़िरकार हमारा व्यवहार उन पात्रों की ढीठ, निरादरपूर्ण, और व्यंग्यात्मक मनोवृत्तियों को व्यक्‍त करेगा जिन्हें हम देखते हैं। माता-पिता को अकसर मूर्ख दिखाया जाता है और बच्चों को चतुर।

यह संसार ऊँची, अधिकारपूर्ण धमकी-भरी आवाज़ से बात करने में संतुष्टि पाता है—टोकना, दबंग होने का घमंड करना, ऊधम मचाना, अभिमानी होना, उत्तेजनात्मक, और ललकारपूर्ण होना। ऐसा वक़्त था जब कठोर बर्ताव पर सामान्य रूप से समुदाय द्वारा अप्रसन्‍नता व्यक्‍त की जाती थी, और अपराधी का बहिष्कार किया जाता था। आज के समाज में मुजरिम पर बिना कोई कलंक लगे, कठोर काम किया जा सकता है। और यदि कोई व्यक्‍ति आपत्ति उठाता है, तो वह शायद मौखिक या शारीरिक हमले का शिकार हो सकता है! कुछ युवजन शोर मचानेवाले समूहों में घूमते हैं और माहौल को गंदी भाषा, अश्‍लील हाव-भाव से भर देते हैं, तथा अपने असभ्य आचरण से देखनेवालों को नाराज़ करते हैं। यह सब जानबूझकर किया जाता है ताकि वे अपनी अक्खड़ विद्रोही भावना की ओर ध्यान आकर्षित कर सकें और कठोरता के अपने स्पष्ट प्रदर्शन से बड़ों को आघात पहुँचा सकें। लेकिन, जैसा कहा गया है, “कठोरता दुर्बल मनुष्य द्वारा बल की नक़ल है।”

मानवजाति के आचरण को नियंत्रित करने के लिए मनुष्यों ने जो नियम एकत्रित किए हैं उनसे एक पुस्तकालय भर सकता है, फिर भी उनसे वह मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हुआ है जिसकी आवश्‍यकता मानवजाति को है। क्या हमें और अधिक नियम चाहिए? या शायद इनसे कम? यह कहा गया है कि जितना बेहतर समाज, उतने कम नियम की आवश्‍यकता। मात्र एक नियम हो तो कैसा? उदाहरण के लिए यह नियम: “इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो, कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यद्वक्‍ताओं की शिक्षा यही है।”—मत्ती ७:१२.

उस नियम के प्रति आज्ञाकारिता अधिकांश वर्तमान समस्याओं का अंत कर देगी, लेकिन फिर भी, समाज की आवश्‍यकताओं को पूरा करने के लिए, एक ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नियम जोड़ा जाना चाहिए: “तू प्रभु [यहोवा, NW] अपने परमेश्‍वर से अपने सारे मन से और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्‍ति से प्रेम रखना।”—मरकुस १२:३०.

आज का समाज इन दोनों बाइबलीय माँगों के साथ-साथ, बाइबल में मौजूद किसी भी अन्य मार्गदर्शन को अनावश्‍यक समझकर रद्द कर देता है। ऐसे व्यक्‍तियों के बारे में बाइबल यिर्मयाह ८:९ में कहती है: “बुद्धिमान लज्जित हो गए, . . . उन्हों ने यहोवा के वचन को निकम्मा जाना है, उन में बुद्धि कहां रही?” जिन सच्चे मूल्यों को परंपरागत रूप से हमारे मार्गदर्शन के लिए आवश्‍यक समझा गया है, उन पर वे लोगों की सर्वसम्मति की भी ज़रूरत महसूस नहीं करते। उनकी नयी नैतिकता एक ऐसा चौड़ा रास्ता है, जो ऐसी किसी भी वैकल्पिक जीवन-शैली की अनुमति देता है जिसे शायद व्यक्‍ति चुने—ऐसा चौड़ा रास्ता जिसकी पहचान यीशु ने विनाश की ओर ले जानेवाले रास्ते के तौर पर करायी—और अनेक जन उस पर चल रहे हैं।—मत्ती ७:१३, १४.

एक परिपूर्ण उदाहरण

यीशु मसीह, वह व्यक्‍ति “जो पिता की गोद में है,” अनुकरण करने योग्य एक उत्कृष्ट उदाहरण है। (यूहन्‍ना १:१८) लोगों से व्यवहार करते वक़्त, वह एक तरफ कोमल और करुणामय था, और दूसरी तरफ ओजस्वी और दृढ़ था; फिर भी वह किसी के प्रति कभी कठोर या निर्दयी नहीं था। “सभी प्रकार के लोगों के साथ निश्‍चिन्त रहने की उसकी असाधारण योग्यता” पर टिप्पणी करते हुए, नासरत से वह पुरुष (अंग्रेज़ी) पुस्तक यीशु के बारे में कहती है: “लोगों के बीच और अकेले में भी उसने स्त्रियों और पुरुषों के साथ बराबर संगति की। भोले-भाले छोटे बच्चों के साथ वह निश्‍चिन्त रहता और अजीब बात है कि वह जक्कई जैसे अंतरात्मा-प्रताड़ित घूसखोरों के साथ भी निश्‍चिन्त रहता। घर-गृहस्थी सँभालनेवाली आदरणीय स्त्रियाँ जैसे कि मरियम और मरथा उसके साथ स्वाभाविक स्पष्टवादिता से बात कर सकती थीं, लेकिन वेश्‍याएँ भी उसे ढूँढ निकालती थीं मानो विश्‍वस्त हों कि वह उन्हें समझेगा और उनकी सहायता करेगा . . . सामान्य लोगों पर रोक लगानेवाली सीमाओं के प्रति उसकी विचित्र अनभिज्ञता, उसके विशिष्ट गुणों में से एक है।”

यहोवा परमेश्‍वर अपने से कम लोगों के साथ व्यवहार करते वक़्त हमेशा शिष्टाचारी रहता है, और अकसर अपने निवेदनों में “कृपया” जोड़ता है। अपने मित्र इब्राहीम को आशीष देते वक़्त, उसने कहा: “कृपया आँख उठाकर, जिस स्थान पर तू है वहाँ से . . . दृष्टि कर।” (NW) और फिर: “कृपया आकाश की ओर दृष्टि करके, तारागण को गिन।” (उत्पत्ति १३:१४; १५:५, NW) मूसा को अपनी शक्‍ति का चिह्न देते वक़्त, परमेश्‍वर ने कहा: “कृपया अपना हाथ अपने वस्त्र की ऊपरी तह में ढांप।” (निर्गमन ४:६, NW) अनेक वर्षों बाद, यहोवा ने अपने भविष्यवक्‍ता मीका के द्वारा अपने हठधर्मी लोगों को भी यह कहा: ‘हे याकूब के प्रधानो, हे इस्राएल के घराने के न्याइयो, कृपया सुनो! हे प्रधानो, कृपया सुनो।’ (मीका ३:१, ९, NW) इस सम्बन्ध में, दूसरों के साथ व्यवहार करते वक़्त क्या हम कृपया कहने में ‘परमेश्‍वर के सदृश्‍य बने’ हैं?—इफिसियों ५:१.

इस प्रकार, जो बाइबलीय मार्गदर्शन और नैतिक नियम वे अस्वीकार्य मानकर ठुकरा देते हैं, उनके बदले में सांसारिक रूप से बुद्धिमान व्यक्‍ति कौन-से नैतिक नियम प्रस्तुत करते हैं? अगला लेख इस पर चर्चा करता है।

[पेज 4 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“सामान्य शिष्टाचार को अब सामान्य नहीं कहा जा सकता”

[पेज 5 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

ऐम्बुलेन्स उसकी माँ तक पहुँचने का प्रयास कर रही थी

[पेज 6 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“कठोरता दुर्बल मनुष्य द्वारा बल की नक़ल है”

[पेज 3 पर चित्र का श्रेय]

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