शिष्टाचार “नयी नैतिकता” द्वारा ठुकराए गए?
‘हाय उन पर जो बुरे को भला, अंधियारे को उजियाला और कप्तडवे को मीठा मानते हैं!’—यशायाह ५:२०.
बीसवीं शताब्दी में शिष्टाचार और नीतियों में व्यापक परिवर्तन हुए। दो विश्व युद्धों के बाद की दशाब्दियों में मूल्यों की प्राचीन व्यवस्थाओं को धीरे-धीरे पुराना समझा जाने लगा। मानवीय बर्ताव और विज्ञान के क्षेत्रों में बदलती परिस्थितियों और नए सिद्धान्तों ने अनेक व्यक्तियों को विश्वास दिलाया कि पुराने मूल्य अब मान्य नहीं रहे। शिष्टाचार जो कभी महत्त्वपूर्ण समझे जाते थे, अनचाहा बोझ समझकर फेंक दिए गए। बाइबलीय मार्गदर्शन जिनका कभी सम्मान किया जाता था अब पुराने समझकर ठुकरा दिए गए। वे २०वीं शताब्दी के अत्याधुनिक व्यक्तियों के प्रतिबंधरहित, मुक्त समाज के लिए कुछ ज़्यादा ही प्रतिबंधात्मक थे।
मानव इतिहास में जिस वर्ष ने इस निर्णायक मोड़ को देखा वह १९१४ था। इतिहासकारों के लेख उस वर्ष और प्रथम विश्व युद्ध के बारे में उनकी टिप्पणियों से भरे हुए हैं। उनकी टिप्पणियों में १९१४ को एक ऐसा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का वर्ष और एक वास्तविक चिह्नक वर्ष घोषित किया गया है, जो मानव इतिहास में युगों का विभाजन करता है। युद्ध के बाद तुरंत गरजती बीसादि आयी और लोगों ने युद्ध के वर्षों के दौरान छुटे मज़े की पूर्ति करने का प्रयास किया। प्राचीन मूल्य और असुविधाजनक नैतिक बंधन हटा दिए गए, ताकि सुख-विलास के अतिभोग के लिए रास्ता तैयार हो। एक नयी नैतिकता, अर्थात् भौतिक बातों की तलाश में मग्न होना, सामान्य रूप से स्थापित की गयी—मूल रूप से कुछ-भी-चलेगा मनोवृत्ति। यह नयी नैतिक नियम संहिता निश्चित रूप से अपने साथ शिष्टाचार में परिवर्तन लायी।
इतिहासकार फ्रेड्रिक लुइस एलन इस पर टिप्पणी करता है: “क्रांति का एक और परिणाम यह था कि शिष्टाचार न सिर्फ़ भिन्न हो गए, परंतु—कुछ वर्षों के लिए—अशिष्ट भी हो गए . . . इन दशाब्दियों के दौरान सार्वजनिक भोजनालयों में मेहमानों का स्वागत करनेवाली सत्कारिणियों ने . . . पाया कि उनके मेहमान आते समय या जाते समय उन्हें अभिवादन करने का कोई प्रयास नहीं करते; कि नृत्यों में बिना आमंत्रण के घुसना स्वीकृत आदत बन गयी, लोग दावत के लिए समय पर आने के बजाय देर से आना फैशन समझते थे, सुलगे हुए सिगरेट लापरवाही से छोड़ देते थे, बिना कोई खेद व्यक्त किए कालीनों पर सिगरेट की राख बिखेर देते थे। पुराने प्रतिबंध नहीं रहे, और कोई नए प्रतिबंध लगाए नहीं गए, साथ ही अशिष्ट लोगों को अपनी मनमानी करने की छूट थी। किसी दिन शायद, युद्ध के बाद के दस सालों को उचित रूप से बुरे आचरण की दशाब्दी के तौर पर जाना जाएगा। . . . यदि यह दशाब्दी अशिष्ट थी, तो यह दुःखद भी थी। पुरानी व्यवस्था के साथ वह मूल्य भी जाते रहे जिन्होंने जीवन को महत्त्व और अर्थ प्रदान किया था, और एवज़ी मूल्य आसानी से प्राप्त नहीं किए जा सकते थे।”
एवज़ी मूल्य जो जीवन के महत्त्व और अर्थ को पुनःस्थापित करते कभी प्राप्त नहीं हुए। उन्हें ढूँढा नहीं गया। गरजती बीसादि की उत्तेजक कुछ-भी-चलता-है जीवन-शैली ने लोगों को नैतिक प्रतिबंधों से छुटकारा दिलाया, और यही तो वे चाहते थे। वे नैतिकता को निकाल नहीं रहे थे; वे मात्र उसमें सुधार कर रहे थे, नैतिक प्रतिबंधों में थोड़ी छूट दे रहे थे। कुछ समय बाद उन्होंने इसे ‘नयी नैतिकता’ कहा। इसमें प्रत्येक व्यक्ति जो उसे ठीक सूझ पड़ता है वही करता है। वह अव्वल नम्बर है। वह वही करता है जो उसे अच्छा लगता है। वह अपना रास्ता ख़ुद तैयार करता है।
या उसे ऐसा लगता है। असल में, तीन हज़ार वर्ष पूर्व, बुद्धिमान राजा सुलैमान ने कहा: “सूर्य के नीचे कोई बात नई नहीं है।” (सभोपदेशक १:९) इससे भी पहले, न्यायियों के काल के दौरान, परमेश्वर के नियम को मानने या न मानने की इस्राएलियों को काफ़ी छूट मिली हुई थी: “उन दिनों में इस्राएलियों का कोई राजा न था; जिसको जो ठीक सूझ पड़ता था वही वह करता था।” (न्यायियों २१:२५) लेकिन अधिकांश जन नियम को पालन करने के लिए अनिच्छुक सिद्ध हुए। इस प्रकार बोने के द्वारा इस्राएल ने राष्ट्रीय विपत्तियों के सैकड़ों वर्ष काटे। समान रूप से, आज राष्ट्रों ने दर्द और पीड़ा की कई शताब्दियाँ काटी हैं—और इससे भी बदतर आना बाक़ी है।
“सापेक्षवाद” नामक एक और शब्द है जो नयी नैतिकता की पहचान ज़्यादा स्पष्ट रूप से कराता है। वेबस्टर्स नाइन्थ न्यू कॉलिजिएट डिक्शनरी (अंग्रेज़ी) इसकी परिभाषा इस प्रकार करती है: “एक दृष्टिकोण जिसमें नैतिक सच्चाइयाँ उन्हें माननेवाले व्यक्तियों और समूहों पर निर्भर करती हैं।” संक्षिप्त में कहा जाए तो सापेक्षवाद के अनुयायी तर्क करते हैं कि जो कुछ उनके लिए अच्छा है वह उनके लिए नैतिक भी है। एक लेखक ने सापेक्षवाद को विस्तारपूर्वक समझाया जब उसने कहा: “सापेक्षवाद, सतह के नीचे लंबे समय तक छिपने के बाद, १९७० की ‘मैं दशाब्दी’ की प्रचलित धारणा के रूप में उभरा; इसका बोलबाला अब भी १९८० दशाब्दी के यपीस्, अर्थात् युवाओं के उस शिक्षित वर्ग में है जो ख़ूब पैसा कमाते हैं और उसे महँगी चीज़ों और गतिविधियों में ख़र्च करते हैं। हम शायद अब भी परंपरागत मूल्यों के पक्ष में बोलते होंगे, लेकिन कार्य में, वही सही है जो मेरे लिए अच्छा है।”
और उसमें शिष्टाचार भी सम्मिलित हैं—‘अगर यह मुझे अच्छा लगा, तो मैं करूँगा; अगर नहीं तो नहीं करूँगा। आपके लिए यह शायद ज़्यादा शिष्टतापूर्ण हो, तौभी यह मेरे लिए सही नहीं होगा। यह मेरे मूलभूत व्यक्तिवाद को नष्ट करेगा, मुझे कमज़ोर दिखाएगा, और दब्बू बना देगा।’ स्पष्टतया, ऐसे लोगों के लिए यह मात्र कठोरता के कार्यों पर ही नहीं बल्कि इतनी आसान, प्रतिदिन की छोटी-छोटी बातों को भी लागू होता है, जैसे कि ‘कृपया, मुझे अफ़सोस है, मुझे माफ़ कीजिए, शुक्रिया, मैं आपके लिए दरवाज़ा खोलता हूँ, मेरी जगह पर बैठ जाइए, मैं आपके लिए यह सामान उठा ले चलता हूँ।’ ये और अन्य वाक्यांश तेल के जैसे हैं जो हमारे मानव रिश्तों को ठीक करते और उन्हें सुखद बना देते हैं। ‘मैं-पहले’ मनोवृत्ति रखनेवाला व्यक्ति आपत्ति उठाएगा, ‘लेकिन दूसरों के लिए शिष्टाचार दिखाना मेरे अव्वल नम्बर की लोकप्रिय छवि के अनुसार जीने और उसे व्यक्त करने को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।’
समाजशास्त्री जेम्स् क्यू. विलसन बढ़े हुए मन-मुटाव और अपराधी बर्ताव का श्रेय उन मूल्यों के पतन को देता है जिन्हें आज “तिरस्कारपूर्ण रूप से ‘मध्यम-वर्गीय मूल्य’ कहा जाता है” और रिपोर्ट आगे कहती है: “इन मूल्यों का अन्त—और नैतिक सापेक्षवाद में बढ़ोतरी—बढ़ते अपराध से सम्बन्धित लगते हैं।” आत्माभिव्यक्ति पर किसी भी रोक को ठुकराने की आधुनिक प्रवृत्ति से यह निश्चित ही सम्बन्धित है, चाहे वह आत्माभिव्यक्ति कितनी ही अशिष्ट और घृणित क्यों न हो। एक और समाजशास्त्री जारड टेलर ने ऐसे कहा: “हमारा समाज आत्म-संयम से आत्माभिव्यक्ति की ओर निरन्तर बढ़ा है, और अनेक लोग पुराने मूल्यों को दमनकारी मानकर रद्द करते हैं।”
सापेक्षवाद को व्यवहार में लाना आपको अपने व्यक्तिगत आचरण का निर्णायक बना देता है, और यह किसी भी अन्य व्यक्ति के, परमेश्वर के भी निर्णय की उपेक्षा करता है। आप स्वयं निर्णय करते हैं कि आपके लिए सही और ग़लत क्या है, जैसे पहले मानव जोड़े ने अदन में किया जब उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा को ठुकराया और स्वयं निर्णय किया कि सही क्या है और ग़लत क्या है। सर्प ने हव्वा को यह सोचाने में धोखा दिया कि यदि वह परमेश्वर की अवज्ञा करेगी और निषिद्ध फल खाएगी, तो इसका परिणाम वही होगा जो सर्प ने उस से कहा: “तुम्हारी आंखें खुल जाएंगी, और तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे।” सो हव्वा ने फल तोड़ा और उसे खाया और फिर उसमें से कुछ आदम को भी दिया, और उस ने भी खाया। (उत्पत्ति ३:५, ६) आदम और हव्वा का फल खाने का निर्णय उनके लिए विनाशकारी था और उनकी संतान के लिए अनर्थकारी।
राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, खिलाड़ियों, वैज्ञानिकों, एक नोबेल पुरस्कार विजेता, और एक पादरी के बीच पाए गए भ्रष्टाचार का लंबा सारांश देने के बाद, एक प्रेक्षक ने हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल को भाषण देते वक़्त कहा: “मैं समझता हूँ कि आज हम अपने देश में उस दौर से गुज़र रहे हैं जिसे मैं चरित्र की संकट-स्थिति कहूँगा, यह उन बातों की हानि है जिन्हें परंपरागत रूप से पश्चिमी सभ्यता द्वारा अंदरूनी प्रतिबंध और अंदरूनी सद्गुण समझा जाता था जो हमें स्वयं अपनी नीच प्रवृत्तियों को संतुष्ट करने से रोकती हैं।” उसने उन ‘शब्दों’ का ज़िक्र किया “जो इन परिस्थितियों में बोले जाने पर बहुत ही अजीब लगेंगे, शब्द जैसे कि साहस, सम्मान, कर्त्तव्य, ज़िम्मेदारी, करुणा, शिष्टता—शब्द जो अब लगभग व्यवहार में लाए ही नहीं जाते।”
विश्वविद्यालय के अहातों में १९६० की दशाब्दी में कुछ वाद-विषय भड़क उठे। अनेक लोगों ने दावा किया कि ‘परमेश्वर नहीं है, परमेश्वर मर चुका है, ऐसा कुछ भी नहीं है, कोई उत्कृष्ट मूल्य नहीं है, जीवन बिल्कुल अर्थहीन है, आप जीवन के खोखलेपन को मात्र निर्भीक व्यक्तिवाद से जीत सकते हैं।’ हिप्पियों ने इसे आगे बढ़ने का संकेत समझा और जीवन के खोखलेपन पर विजय पाने के लिए निकल पड़े, वे ‘कोकीन सुड़कने लगे, गाँजा पीने लगे, स्वछंद प्रेम करने और मन की शांति ढूँढने लगे।’ जो उन्हें कभी मिली नहीं।
फिर १९६० की दशाब्दी में विरोध अभियान हुए। मात्र सनक से अधिक, ये अभियान अमरीकी संस्कृति की मुख्य धारा में स्वीकार किए गए और १९७० की ‘मैं दशाब्दी’ की ओर ले गए। इस प्रकार हमने उस दशाब्दी में प्रवेश किया जिसे एक सामाजिक समीक्षक, टॉम वुल्फ ने “मैं की दशाब्दी” कहा। वह १९८० की दशाब्दी की ओर ले गया, जिसे कुछ लोगों द्वारा व्यंग्यात्मक रूप से “लालच का स्वर्ण युग” कहा गया है।
लेकिन इन सब का शिष्टाचार के साथ क्या ताल्लुक़ है? यह अपने आपको पहले रखने के बारे में है, और यदि आप अपने आपको पहले रखते हैं, तो आप दूसरों के सामने आसानी से झुक नहीं सकते, दूसरों को पहले नहीं रख सकते, दूसरों के साथ शिष्टता से व्यवहार नहीं कर सकते। अपने आपको पहले रखने के द्वारा, आप शायद वस्तुतः एक प्रकार की आत्म-उपासना, ‘मैं’ की उपासना में लगे हुए होंगे। ऐसा करनेवाले किसी व्यक्ति का वर्णन बाइबल कैसे करती है? ‘मूरत पूजनेवाले लोभी मनुष्य’ की तरह और ‘मूर्त्ति पूजा के बराबर लोभ’ दिखानेवाले की तरह। (इफिसियों ५:५; कुलुस्सियों ३:५) ऐसे लोग वास्तव में किस की सेवा करते हैं? “उन का ईश्वर पेट है।” (फिलिप्पियों ३:१९) ये स्वार्थी वैकल्पिक जीवन-शैलियाँ जिन्हें अनेक लोगों ने अपने लिए नैतिक रूप से उचित समझकर चुना है और इन जीवन-शैलियों के अनर्थकारी और घातक परिणाम यिर्मयाह १०:२३ की सच्चाई को साबित करते हैं: “हे यहोवा, मैं जान गया हूं, कि मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं है, मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं।”
बाइबल ने इस सब का पूर्वानुमान लगाया और इसे “अन्तिम दिनों” के चेतानेवाले लक्षण के तौर पर पूर्वबताया, जैसे २ तीमुथियुस ३:१-५ (न्यू इंग्लिश बाइबल) में अभिलिखित है: “तुम्हें यह समझना चाहिए: इस संसार का अन्तिम युग संकटों का समय होगा। लोग और किसी से नहीं लेकिन पैसे और स्वयं से प्रेम करेंगे; वे घमंडी, शेख़ीबाज़, और निन्दक होंगे; माता-पिता का कोई आदर नहीं, कोई कृतज्ञता नहीं, कोई पवित्रता नहीं, कोई स्वाभाविक लगाव नहीं; उनकी दुश्मनी में वे कठोर होंगे, चुगलख़ोर, असंयत और हिंस्र होंगे, सारी भलाई से अपरिचित, विश्वासघाती, दुःसाहसी, अहंकार से फूले हुए होंगे। वे ऐसे लोग होंगे जो परमेश्वर का स्थान सुख-विलास को देते हैं, लोग जो धर्म का बाहरी रूप बनाए रखते हैं, लेकिन उसकी सच्चाई का स्पष्ट इनकार हैं। ऐसे लोगों से दूर रहो।”
हमें जो होने के लिए सृष्ट किया गया था, अर्थात् परमेश्वर के स्वरूप और समानता से हम बहुत दूर चले आए हैं। प्रेम, बुद्धि, न्याय और शक्ति के संभावित गुण अब भी हम में हैं लेकिन वे असंतुलित और विकृत हो चुके हैं। लौटने के लिए पहला कदम ऊपर उद्धृत बाइबल पाठ की आख़री पंक्ति में प्रकट है: “ऐसे लोगों से दूर रहो।” नए वातावरण को ढूँढिए, ऐसा वातावरण जो आपकी अंदरूनी भावनाओं को भी बदल देगा। इस सम्बन्ध में डोरथी थॉम्पसन द्वारा द लेडीज़ होम जर्नल (अंग्रेज़ी) में सालों पहले लिखे बुद्धिमत्तापूर्ण शब्द ज्ञानप्रद हैं। उसका उद्धरण इस घोषणा से आरंभ होता है कि बाल-अपराध पर विजय पाने के लिए यह ज़रूरी है कि एक युवा की विचार शक्ति को शिक्षित करने के बजाय उसकी भावनाओं को शिक्षित किया जाए:
“बच्चे के तौर पर उसका बर्ताव और मनोवृत्तियाँ ज़्यादातर वयस्क के तौर पर उसके बर्ताव और मनोवृत्तियों को तय करते हैं। लेकिन यह उसके दिमाग़ द्वारा प्रेरित नहीं होते, बल्कि उसकी भावनाओं द्वारा प्रेरित होते हैं। वह वही बनता है जिसे प्रेम करने, पसंद करने, उपासना करने, प्रिय समझने, और जिसके लिए त्याग करने का उसे प्रोत्साहन और प्रशिक्षण दिया जाता है। . . . इन सब में शिष्टाचार एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, क्योंकि शिष्टाचार और कुछ नहीं दूसरों के लिए लिहाज़ की अभिव्यक्ति ही है। . . . अंदरूनी भावनाएँ बाहरी बर्ताव में प्रतिबिम्बित होती हैं, लेकिन बाहरी बर्ताव भी अंदरूनी भावनाओं को सँवारने में योग देता है। लिहाज़ से व्यवहार करते वक़्त आक्रमणशील होना मुश्किल है। शुरूआत में शायद शिष्टाचार मात्र दिखावटी हों, लेकिन मुश्किल ही वे दिखावटी रहते हैं।”
उसने यह भी टिप्पणी की कि बहुत कम अपवादों को छोड़, अच्छाई और बुराई “दिमाग़ द्वारा नहीं लेकिन भावनाओं द्वारा रूपान्तरित की जाती हैं,” और कि “अपराधी धमनियों की कठोरता से नहीं परन्तु हृदय की कठोरता से अपराधी बनते हैं।” उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि मन से कहीं ज़्यादा भावना हमारे आचरण को नियंत्रित करती है और जिस प्रकार हमें प्रशिक्षण दिया गया है, जिस प्रकार हम बर्ताव करते हैं, चाहे पहले-पहल ज़बरदस्ती क्यों न करनी पड़े, तो भी यह हमारी अंदरूनी भावनाओं को प्रभावित करता है और हमारे हृदय को बदलता है।
लेकिन, हृदय के आंतरिक व्यक्ति को बदलने के लिए उत्प्रेरित नुसख़ा देने में बाइबल उत्कृष्ट है।
पहला, इफिसियों ४:२२-२४: “तुम अगले चालचलन के पुराने मनुष्यत्व को जो भरमानेवाली अभिलाषाओं के अनुसार भ्रष्ट होता जाता है, उतार डालो। . . . अपने मन के आत्मिक स्वभाव में नये बनते जाओ। और नये मनुष्यत्व को पहिन लो, जो परमेश्वर के अनुसार सत्य की धार्मिकता, और पवित्रता में सृजा गया है।”
दूसरा, कुलुस्सियों ३:९, १०, १२-१४: ‘पुराने मनुष्यत्व को उसके कामों समेत उतार डालो। और नए मनुष्यत्व को पहिन लो जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है। इसलिये परमेश्वर के चुने हुओं की नाईं जो पवित्र और प्रिय हैं, बड़ी करुणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता, और सहनशीलता धारण करो। और यदि किसी को किसी पर दोष देने का कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे यहोवा ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो।’
इतिहासकार विल ड्यूरंट ने कहा: “हमारे समय का सबसे बड़ा प्रश्न न तो साम्यवाद के विरुद्ध व्यक्तिवाद है, न यूरोप के विरुद्ध अमरीका है, ना ही पूर्व के विरुद्ध पश्चिम है; बल्कि यह कि क्या मनुष्य परमेश्वर के बिना जी सकते हैं।”
एक सफल जीवन जीने के लिए, हमें उसकी सलाह को मानना चाहिए। “हे मेरे पुत्र, मेरी शिक्षा को न भूलना; अपने हृदय में मेरी आज्ञाओं को रखे रहना; क्योंकि ऐसा करने से तेरी आयु बढ़ेगी, और तू अधिक कुशल से रहेगा। कृपा और सच्चाई तुझ से अलग न होने पाएं; वरन उनको अपने गले का हार बनाना, और अपनी हृदयरूपी पटिया पर लिखना। और तू परमेश्वर और मुनष्य दोनों का अनुग्रह पाएगा, तू अति बुद्धिमान होगा। तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।”—नीतिवचन ३:१-६.
शताब्दियों के अनुभव से सीखे गए कृपापूर्ण और लिहाज़ दिखानेवाले शिष्टाचार आख़िरकार अनचाहा बोझ नहीं हैं, और जीने के बारे में बाइबल के मार्गदर्शन बिल्कुल भी पुराने नहीं हैं लेकिन मानवजाति के अनन्त उद्धार के लिए सिद्ध होंगे। यहोवा के बिना, वे जीवित रहना जारी नहीं रख सकते, क्योंकि ‘जीवन का सोता यहोवा के ही पास है।’—भजन ३६:९.
[पेज 11 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
जिस प्रकार हम बर्ताव करते हैं, चाहे पहले-पहल ज़बरदस्ती क्यों न करनी पड़े, तो भी यह हमारी अंदरूनी भावनाओं को प्रभावित करता है और हमारे हृदय को बदलता है।
[पेज 10 पर बक्स]
दोषरहित भोजन-सम्बन्धी शिष्टाचार जिसकी लोग नक़ल कर सकते हैं
सीडार वैक्सविंग, ख़ूबसूरत, शिष्ट, बहुत ही मिलनसार, सरस फल से लदी हुई झाड़ी पर एक साथ दावत करते हुए। एक टहनी पर कतार बनाए हुए, वे फल को खाते हैं, लेकिन पेटूओं की तरह बिल्कुल नहीं। एक चोंच से दूसरी चोंच, वे सरस फल को एक सिरे से दूसरे सिरे तक आगे-पीछे देते हैं, जब तक कि एक पक्षी उसे शालीनता से खा न ले। वे अपने “बच्चों” को नहीं भूलते, अथक रूप से भोजन लाते हैं, एक के बाद दूसरा सरस फल, जब तक कि सब खाली मुँह भर न जाएँ।
[चित्र का श्रेय]
H. Armstrong Roberts
[पेज 8 पर तसवीर]
कुछ कहते हैं: ‘बाइबल और नैतिक मूल्यों को फेंक दो’
[पेज 9 पर तसवीर]
“परमेश्वर मर चुका है”।
“जीवन का कोई अर्थ नहीं!”
“गाँजा पीयो, कोकीन सुड़को”
[पेज 7 पर चित्र का श्रेय]
Left: Life; Right: Grandville