परमेश्वर के या पशु के स्वरूप में?
प्रथम मनुष्य को ‘परमेश्वर का पुत्र’ कहा गया। (लूका ३:३८) किसी पशु को कभी ऐसी विशिष्टता प्राप्त नहीं हुई। परंतु बाइबल दिखाती है कि कई बातों में मनुष्यों और पशुओं के बीच समानता है। उदाहरण के लिए, मनुष्य और पशु दोनों प्राणी हैं। जब परमेश्वर ने आदम को बनाया, “आदम जीवता प्राणी बन गया,” (तिरछे टाइप हमारे।) उत्पत्ति २:७ कहता है। पहला कुरिन्थियों १५:४५ यही बात दोहराता है: “प्रथम मनुष्य, अर्थात् आदम, जीवित प्राणी बना।” (तिरछे टाइप हमारे।)
पशुओं के बारे में उत्पत्ति १:२४ कहता है: “पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात् घरेलू पशु, और रेंगनेवाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों।” (तिरछे टाइप हमारे।) सो जबकि बाइबल यह प्रकट करने के द्वारा कि हम परमेश्वर के स्वरूप में सृजे गये हैं, मनुष्यों को गरिमा देती है, बाइबल हमें यह भी याद दिलाती है कि पशुओं की तरह हम भी पार्थिव प्राणी मात्र हैं। इसके अलावा, मनुष्यों और पशुओं के बीच एक और समानता है।
बाइबल समझाती है: “जैसी मनुष्यों की वैसी ही पशुओं की भी दशा होती है; दोनों की वही दशा होती है, जैसे एक मरता वैसे ही दूसरा भी मरता है। . . . मनुष्य पशु से बढ़कर नहीं . . . सब एक स्थान में जाते हैं; सब मिट्टी से बने हैं, और सब मिट्टी में फिर मिल जाते हैं।” जी हाँ, मृत्यु के संबंध में भी मनुष्य और पशु एकसमान हैं। दोनों उसी में मिल जाते हैं जिससे वे बने हैं, वे “मिट्टी में फिर मिल जाते हैं।”—सभोपदेशक ३:१९, २०; उत्पत्ति ३:१९.
लेकिन मृत्यु के विचार से मनुष्यों को इतनी अधिक व्याकुलता क्यों होती है? हम सर्वदा जीवित रहने के सपने क्यों देखते हैं? और हम जीवन में उद्देश्य क्यों चाहते हैं? निश्चित ही हम पशुओं से बहुत भिन्न हैं!
किन-किन बातों में हम पशुओं से भिन्न हैं
क्या आपको जीने में खुशी होगी यदि खाने, सोने और बच्चे पैदा करने के अलावा आपके जीवन में कोई उद्देश्य न हो? यह विचार कट्टर विकासवादियों के भी गले नहीं उतरता। विकासवादी टी. डबज़्हान्सकी लिखता है, “आधुनिक मनुष्य, यह प्रबुद्ध संदेहवादी और अज्ञेयवादी [मनुष्य] चाहे गुप्त में ही करे, पर इन पुराने प्रश्नों पर विचार करने से अपने आपको नहीं रोक पाता: जीवित रहने और जीवन चक्र जारी रखने के अलावा क्या मेरे जीवन में कोई अर्थ और उद्देश्य है? मैं जिस विश्वमंडल में रहता हूँ क्या उसका कोई अर्थ है?”
सचमुच, सृष्टिकर्ता के अस्तित्त्व को नकारना मनुष्य की इस तलाश को रोक नहीं देता कि जीवन का अर्थ क्या है। इतिहासकार आर्नल्ड टॉएनबी को उद्धृत करते हुए रिचर्ड लीकी लिखता है: “[मनुष्य की] यह आध्यात्मिक क्षमता उसे जीवन भर के संघर्ष में ढकेल देती है कि उस विश्वमंडल के साथ अपना तालमेल बिठाए जिसमें वह पैदा हुआ है।”
इसके बावजूद मानव स्वभाव, हमारे उद्गम और हमारी आध्यात्मिकता के बारे में मूल प्रश्न वहीं-के-वहीं हैं। यह तो स्पष्ट है कि मनुष्य और पशुओं के बीच बड़ा अंतर है। वह अंतर कितना बड़ा है?
इतना बड़ा अंतर कि मिटाया नहीं जा सकता?
क्रमविकास से जुड़ी एक मूल समस्या है मनुष्यों और पशुओं के बीच बड़ा अंतर। असल में वह अंतर कितना बड़ा है? ऐसी कुछ बातों पर विचार कीजिए जो विकासवादियों ने स्वयं कही हैं।
उन्नीसवीं सदी में क्रमविकास के एक प्रमुख समर्थक, थॉमस एच. हक्सली ने लिखा: मैं इस बारे में पूरी तरह विश्वस्त हूँ कि “मनुष्य और पशुओं . . . के बीच बहुत बड़ा अंतर है . . . क्योंकि केवल [मनुष्य] में सुबोध और तर्कसंगत बोली की आश्चर्यजनक क्षमता है [और] . . . वह उसकी ऊँचाई पर ऐसे खड़ा है मानो पर्वत के शिखर पर खड़ा हो, अपने तुच्छ साथियों के स्तर से कहीं ऊँचा।”
विकासवादी माइकल सी. कॉरबॉलिस कहता है कि “मनुष्यों और दूसरे प्राइमेटों के बीच बड़ा अंतर है . . . ‘हमारा मस्तिष्क हमारे आकार के अन्य प्राइमेटों से तीन गुना बड़ा है।’” तंत्रिका-विज्ञानी रिचर्ड एम. रॆस्टक समझाता है: “[मानव] मस्तिष्क ज्ञात विश्व में एकमात्र ऐसा अंग है जो अपने आपको समझने का प्रयास करता है।”
लीकी स्वीकार करता है: “चेतना वैज्ञानिकों के लिए दुविधा खड़ी करती है, और कुछ लोगों का मानना है कि इसे दूर नहीं किया जा सकता। हम सब आत्म-बोध की भावना का अनुभव करते हैं और यह इतनी तेज़ होती है कि हमारे हर विचार और कार्य को रोशन कर देती है।” वह यह भी कहता है: “भाषा निश्चित ही होमो सेपियन्स [मनुष्यों] और बाकी के प्राकृतिक जगत के बीच अंतर उत्पन्न करती है।”
मानव मन के दूसरे आश्चर्य की ओर संकेत करते हुए पीटर रसल लिखता है: “स्मरण-शक्ति निश्चित ही मनुष्य की एक अति महत्त्वपूर्ण इंद्रिय है। इसके बिना कोई विद्या . . . , कोई बौद्धिक क्रिया, कोई भाषा का विकास न होता, न ही ऐसे कोई गुण होते जो आम तौर पर मनुष्यों से जोड़े जाते हैं।”
इसके अलावा, कोई पशु उपासना नहीं करता। अतः ऎडवर्ड ओ. विल्सन कहता है: “धार्मिक विश्वास की सहज-प्रवृत्ति मानव मन में सबसे जटिल और शक्तिशाली बल है और अति संभव है कि यह मानव स्वभाव का अभिन्न अंग है।”
“मानव व्यवहार डार्विनवाद के लिए अनेक अन्य रहस्य खड़े करता है,” विकासवादी रॉबर्ट राइट स्वीकार करता है। “विनोद-भाव और हँसी के क्या कार्य हैं? लोग मरते समय दिल के राज़ क्यों खोलते हैं? . . . शोक की असल भूमिका क्या है? . . . अब जबकि व्यक्ति जा चुका है तो शोक मनाने से जीवन चक्र को क्या लाभ?”
विकासवादी इलेन मॉर्गन स्वीकार करती है: “मनुष्यों के बारे में चार अति उल्लेखनीय रहस्य हैं: (१) वे दो पैरों पर क्यों चलते हैं? (२) उनके शरीर पर बाल क्यों नहीं रहे? (३) उनका मस्तिष्क इतना बड़ा क्यों हो गया? (४) उन्होंने बोलना क्यों सीखा?”
विकासवादी इन प्रश्नों का उत्तर किस प्रकार देते हैं? मॉर्गन बताती है: “इन प्रश्नों के रूढ़िवादी उत्तर हैं: (१) ‘हम अब तक नहीं जानते’; (२) ‘हम अब तक नहीं जानते’; (३) ‘हम अब तक नहीं जानते’; और (४)‘हम अब तक नहीं जानते।’”
ढुलमुल सिद्धांत
पुस्तक द लॉपसाइडॆड एप का लेखक कहता है कि उसका लक्ष्य “था कालांतर में मानव क्रमविकास की मोटी तसवीर प्रदान करना। अनेक निष्कर्ष अनिश्चित हैं, क्योंकि वे मुख्यतः कुछ पुराने दाँतों, हड्डियों और पत्थरों पर आधारित हैं।” सचमुच, अनेक लोग तो डार्विन के मूल सिद्धांत को भी स्वीकार नहीं करते। रिचर्ड लीकी कहता है: “हमारा क्रमविकास किस प्रकार हुआ इस विषय में डार्विन की व्याख्या मानव-विज्ञान में कुछ वर्ष पहले तक प्रबल थी, और वह गलत निकली।”
इलेन मॉर्गन के अनुसार अनेक विकासवादी “उन उत्तरों में विश्वास खो बैठे हैं जो उनके विचार से उन्हें तीस साल पहले से मालूम थे।” अतः यह आश्चर्य की बात नहीं कि विकासवादियों के कुछ सिद्धांत बिखर गये हैं।
दुःखद परिणाम
कुछ अध्ययनों ने पाया है कि नर पशु जितनी संख्या में मादाओं से मैथुन करता है उसका संबंध नर और मादा के बीच उनके शरीर के आकार में भिन्नता से है। इससे कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य का लैंगिक व्यवहार चिम्पैंज़ी से मिलता-जुलता होना चाहिए, क्योंकि मानव पुरुषों की तरह नर चिम्पैंज़ी मादा से थोड़े-से बड़े होते हैं। सो कुछ लोगों का तर्क है कि चिम्पैंज़ी की तरह मनुष्यों को एक से अधिक साथियों के साथ मैथुन की अनुमति दी जानी चाहिए। और सचमुच अनेक लोग ऐसा करते हैं।
लेकिन जो बात चिम्पैंज़ियों के लिए कारगर प्रतीत होती है वह आम तौर पर मनुष्यों के लिए आफत बन गयी है। तथ्य दिखाते हैं कि लैंगिक स्वच्छंदता ऐसी कँटीली राह है जिसमें टूटे परिवार, गर्भपात, रोग, मानसिक और भावात्मक सदमा, ईर्ष्या, पारिवारिक हिंसा, और ऐसे लावारिस बच्चे हैं जो बड़े होकर असंतुलित होते हैं, और इस पीड़ादायी चक्र को आगे बढ़ाते हैं। यदि पशु स्वभाव सही है, तो यह पीड़ा क्यों?
क्रमविकास विचारधारा मानव जीवन की पवित्रता पर भी संदेह की उँगली उठाती है। यदि हम कहते हैं कि परमेश्वर नहीं है और अपने आपको मात्र उच्च-जाति पशु समझते हैं तो किस आधार पर मानव जीवन पवित्र है? शायद हमारी बौद्धिक क्षमता के आधार पर? यदि ऐसा है, तो पुस्तक द ह्यूमन डिफ्रॆंस में उठाया गया प्रश्न बहुत उपयुक्त होगा: “क्या मनुष्यों को कुत्तों और बिल्लियों से अधिक मूल्यवान समझना उचित है मात्र इसलिए कि संयोग से सारे [क्रमविकास] लाभ हमारे हिस्से में आ गये?”
जैसे-जैसे क्रमविकास विचारधारा की नयी व्याख्या फैलेगी, यह “निश्चित ही नैतिक विचार पर गहराई से असर करेगी,” पुस्तक नैतिक पशु (अंग्रेज़ी) कहती है। लेकिन यह क्रूर नैतिकता है जो इस आधार पर खड़ी है कि हम “प्राकृतिक वरण” द्वारा बने हैं। एच. जी. वॆल्स के शब्दों में इस प्रक्रिया के द्वारा “ताकतवर और चतुर लोग कमज़ोर और सीधे-सादों को पछाड़ देते हैं।”
यह बात महत्त्वपूर्ण है कि विकासवादियों के अनेक सिद्धांत जो सालों के दौरान नैतिकता को धीरे-धीरे चट कर गये हैं वही सिद्धांत विचारकों की अगली तरंग के आगे बिखर गये हैं। लेकिन त्रासदी यह है कि इन सिद्धांतों ने जो नुकसान पहुँचाया है उसकी भरपाई नहीं हो पायी है।
सृष्टि की या सृष्टिकर्ता की उपासना करें?
क्रमविकास उत्तर के लिए नीचे सृष्टि की ओर संकेत करता है, ऊपर सृष्टिकर्ता की ओर नहीं। दूसरी ओर, बाइबल हमारे नैतिक मूल्यों और जीवन में हमारे उद्देश्य के लिए हमें ऊपर सच्चे परमेश्वर की ओर देखने के लिए कहती है। बाइबल यह भी समझाती है कि हमें कुकर्म से बचने के लिए क्यों संघर्ष करना पड़ता है और मृत्यु के विचार से क्यों केवल मनुष्य इतने परेशान होते हैं। इसके अलावा, इस प्रश्न पर कि क्यों हम बुरे काम करने को प्रवृत्त रहते हैं, बाइबल की व्याख्या मनुष्य के मन और हृदय को सही जान पड़ती है। उस संतोषदायी व्याख्या पर विचार करने के लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं।
[पेज 7 पर तसवीरें]
मनुष्य और पशु के बीच कितना बड़ा अंतर है?