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  • मनुष्य हम कौन हैं?
  • सजग होइए!–1998
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g98 7/8 पेज 3-4

मनुष्य हम कौन हैं?

ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यों को अपनी पहचान की समस्या है। विकासवादी रिचर्ड लीकी कहता है: “सदियों से तत्त्वज्ञानियों ने मानवता, मानव स्वभाव के पहलुओं पर विचार किया है। लेकिन आश्‍चर्य की बात है कि मानव स्वभाव की कोई भी एकमत परिभाषा नहीं।”

फिर भी, कोपनहेगन चिड़ियाघर ने अपने प्राइमेट-घर में एक प्रदर्शन के द्वारा साहसपूर्वक अपना मत व्यक्‍त किया। १९९७ ब्रिटानिका बुक ऑफ द इयर बताती है: “एक डेनिश दंपति चिड़ियाघर के एक बाड़े में कुछ समय के लिए इस इरादे से आ बसे कि पर्यटकों को महावानरों के साथ मनुष्य के निकट संबंध का एहसास दिलाएँ।”

संदर्भ रचनाएँ अमुक पशुओं और मनुष्यों के बीच निकट संबंध के ऐसे दावे का समर्थन करती हैं। उदाहरण के लिए, द वर्ल्ड बुक एनसाइक्लोपीडिया कहती है: “महावानरों, लीमरों, बंदरों और टार्सियरों के साथ-साथ मनुष्यों को भी स्तनधारियों के प्राइमेट्‌ज़ गण में रखा गया है।”

इसके बावजूद सच्चाई यह है कि मनुष्यों में अनेकानेक ऐसे अनोखे गुण हैं जो पशु स्वभाव से मेल नहीं खाते। इनमें से कुछ गुण हैं: प्रेम, अंतःकरण, नैतिकता, आध्यात्मिकता, न्याय, दया, विनोद-भाव, रचनात्मकता, समय का बोध, आत्म-बोध, सौंदर्य का बोध, भविष्य की चिंता, पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान बटोरने की क्षमता, और यह आशा कि मृत्यु हमारे अस्तित्त्व का पूर्ण अंत नहीं।

इन गुणों को पशु स्वभाव से मिलाने की कोशिश में कुछ लोग विकास-मनोविज्ञान (इवोलूशनरी साइकॉलजी) की ओर संकेत करते हैं, जो क्रमविकास, मनोविज्ञान और सामाजिक विज्ञान का मिश्रण है। क्या विकास-मनोविज्ञान ने मानव स्वभाव की पहेली पर रोशनी डाली है?

जीवन का उद्देश्‍य क्या है?

“विकास-मनोविज्ञान का पूर्वानुमान सरल-सा है,” विकासवादी रॉबर्ट राइट कहता है। “किसी दूसरे अंग की तरह, मानव मन को भी इस उद्देश्‍य से रचा गया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने जीन आगे बढ़ाए; मानव मन जो भावनाएँ और विचार उत्पन्‍न करता है उनकी सबसे सही व्याख्या इसी पूर्वानुमान पर दी जा सकती है।” दूसरे शब्दों में, हमारे जीवन का पूरा उद्देश्‍य ही प्रजनन है। यही हमारे जीन निर्धारित करते हैं और यही हमारे मन के कामों से प्रतिबिंबित होता है।

सचमुच, विकास-मनोविज्ञान के अनुसार “कठोर आनुवंशिक आत्म-हित ही मानव स्वभाव का सार है।” पुस्तक नैतिक पशु (अंग्रेज़ी) कहती है: “प्राकृतिक वरण ‘चाहता’ है कि पुरुष अनगिनत स्त्रियों के साथ संभोग करें।” इस क्रमविकास धारणा के अनुसार, अमुक परिस्थितियों में स्त्रियों के लिए भी अनैतिकता स्वाभाविक समझी जाती है। माता-पिता के प्रेम को भी जीन-प्रेरित नीति के रूप में देखा जाता है जो निश्‍चित करता है कि संतान का पालन-पोषण हो। इस प्रकार, यह निश्‍चित करने के लिए कि मानव परिवार बढ़ता रहे, एक विचार है जो आनुवंशिक विरासत के महत्त्व पर ज़ोर देता है।

कुछ गाइड पुस्तकें आजकल विकास-मनोविज्ञान की नयी तरंग पर सवार हैं। इनमें से एक पुस्तक मानव स्वभाव का वर्णन इस प्रकार करती है कि वह “चिम्पैंज़ी स्वभाव, गोरिल्ला स्वभाव, या बबून स्वभाव से बहुत भिन्‍न नहीं।” उसमें यह भी कहा गया है: “जब क्रमविकास की बात आती है, . . . तो प्रजनन का ही महत्त्व है।”

दूसरी ओर, बाइबल सिखाती है कि परमेश्‍वर ने मनुष्यों को सिर्फ प्रजनन के उद्देश्‍य से नहीं सृजा। हमें परमेश्‍वर के “स्वरूप” में बनाया गया है। हममें उसके गुणों खासकर प्रेम, न्याय, बुद्धि और सामर्थ को प्रतिबिंबित करने की क्षमता है। इसमें मनुष्यों के उन अनोखे गुणों को जोड़िए जिनका ज़िक्र पहले किया गया है, और यह स्पष्ट हो जाता है कि क्यों बाइबल मनुष्यों को पशुओं से ऊँचा कहती है। असल में, बाइबल प्रकट करती है कि परमेश्‍वर ने मनुष्यों को सर्वदा जीवित रहने की इच्छा के साथ बनाया, साथ ही उन्हें परमेश्‍वर के धर्मी नये संसार में उस इच्छा की पूर्ति का आनंद लेने की क्षमता भी दी।—उत्पत्ति १:२७, २८; भजन ३७:९-११, २९; सभोपदेशक ३:११; यूहन्‍ना ३:१६; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४.

हमारे विश्‍वास से बड़ा फर्क पड़ता है

यह निश्‍चित करना कि हम असल में कौन हैं, किताबी बात नहीं, क्योंकि अपने उद्‌गम के बारे में हमारा विश्‍वास इस पर प्रभाव डाल सकता है कि हम कैसा जीवन जीते हैं। इतिहासकार एच. जी. वॆल्स ने उन निष्कर्षों को नोट किया जो १८५९ में चार्ल्स डार्विन की ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ के प्रकाशन के बाद अनेक लोगों ने निकाले थे।

“लोगों का मनोबल सचमुच टूट गया। . . . १८५९ के बाद विश्‍वास सचमुच चला गया। . . . उन्‍नीसवीं शताब्दी के अंत के निकट प्रबल लोगों का विश्‍वास था कि वे अस्तित्त्व के संघर्ष के कारण प्रबल हैं, जिसमें ताकतवर और चतुर लोग कमज़ोर और सीधे-सादों को पछाड़ देते हैं। . . . उन्होंने फैसला किया कि भारत के शिकारी कुत्ते की तरह मनुष्य एक सामाजिक पशु है। . . . उन्हें यह बात सही लगी कि मानवी झुंड के बड़े कुत्ते रोब और अधिकार जताएँ।”

स्पष्टतया, यह महत्त्वपूर्ण है कि हम इस बारे में सही विचार जानें कि असल में हम कौन हैं। क्योंकि जैसा एक विकासवादी ने पूछा, “यदि पुराने मौलिक डार्विनवाद ने . . . पाश्‍चात्य सभ्यता की नैतिक शक्‍ति चूस ली, तो तब क्या होगा जब [विकास-मनोविज्ञान की] नयी व्याख्या पूरी तरह समझ में आ जाएगी?”

क्योंकि अपने उद्‌गम के बारे में हमारा क्या विश्‍वास है इससे जीवन के बारे में और सही-गलत के बारे में हमारे मूल विचारों पर असर पड़ता है, तो यह अत्यावश्‍यक है कि हम इस संपूर्ण विषय को करीब से देखें।

[पेज 4 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

इतिहासकार एच. जी. वॆल्स ने उन निष्कर्षों को नोट किया जो १८५९ में चार्ल्स डार्विन की ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़ के प्रकाशन के बाद अनेक लोगों ने निकाले थे: “लोगों का मनोबल सचमुच टूट गया। . . . १८५९ के बाद विश्‍वास सचमुच चला गया”

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