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  • जब आशा और प्रेम फिर मिल जाता है

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  • जब आशा और प्रेम फिर मिल जाता है
  • सजग होइए!–1998
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सजग होइए!–1998
g98 10/8 पेज 8-10

जब आशा और प्रेम फिर मिल जाता है

युवाओं के साथ व्यवहार करनेवाले माता-पिताओं, शिक्षकों और दूसरों को यह एहसास है कि न तो वे और न युवा और न ही कोई दूसरा इंसान इस संसार को बदल सकता है। ऐसी ताकतें काम कर रही हैं जो तूफानी लहरों की तरह हैं जिन्हें कोई नहीं रोक सकता। फिर भी, हम सब युवाओं को ज़्यादा सुखी, ज़्यादा स्वस्थ और ज़्यादा संतुलित बनाने के लिए काफी कुछ कर सकते हैं।

इलाज से भला बचाव है, इसलिए माता-पिताओं को ध्यान से सोचना चाहिए कि उनकी जीवन-शैली और प्राथमिकताओं का उनके बच्चों की मनोवृत्ति और व्यवहार पर कैसा असर होता है। घर में परवाह और प्यार से भरा माहौल बनाना वह सुरक्षा देता है जो आत्म-विनाशी व्यवहार से बचाने के लिए सबसे बढ़िया है। युवाओं की एक बहुत बड़ी ज़रूरत है कि उनके पास उनकी बात सुननेवाला कोई हो। यदि माता-पिता नहीं सुनते, तो शायद अनचाहे लोग सुनेंगे।

इसका आज माता-पिताओं के लिए क्या अर्थ है? अभी अपने बच्चों के लिए समय निकालिए जब उनको इसकी ज़रूरत है—जब वे छोटे ही हैं। अनेक परिवारों के लिए यह आसान नहीं होता। उन्हें दो जून की रोटी कमाने के लिए जूझना पड़ता है, और माता-पिता दोनों के लिए नौकरी करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं होता। जो अपने बच्चों के साथ ज़्यादा समय बिताने के लिए त्याग करने को तैयार हुए हैं और ऐसा कर भी पाए हैं उन्होंने अकसर अपने बेटे-बेटियों को जीवन में ज़्यादा सफल होते देखने का फल पाया है। लेकिन जैसे पहले बताया गया है, माता-पिता की लाख कोशिशों के बावजूद भी कभी-कभी बच्चों को गंभीर समस्याएँ हो सकती हैं।

मित्र और दूसरे लोग मदद कर सकते हैं

युद्ध, बलात्कार और दुर्व्यवहार का युवाओं पर बहुत बुरा असर पड़ता है। जो लोग इन युवाओं की सचमुच परवाह करते हैं उन्हें बहुत ज़्यादा प्रयास करने की ज़रूरत है ताकि इस असर को कम किया जा सके। ऐसे बुरे अनुभवों से युवाओं को सदमा पहुँचता है, सो जब उनकी मदद करने की कोशिश की जाती है तो भी वे शायद अच्छी प्रतिक्रिया न दिखाएँ। इसके लिए आपको बहुत समय देने और प्रयास करने की ज़रूरत पड़ सकती है। बेशक उनको दुतकारना या ठुकराना बुद्धिमानी या प्रेम की बात नहीं होगी। क्या हम और ज़्यादा भावनात्मक नहीं हो सकते ताकि ऐसे दुःखी युवाओं की मदद करने के लिए ज़रूरी हमदर्दी और प्रेम दिखाने की कोशिश करें?

न सिर्फ माता-पिता को बल्कि मित्रों और भाई-बहनों को भी खासकर सतर्क रहना चाहिए कि युवाओं में ऐसी प्रवृत्तियों पर ध्यान दें जो दिखाती हैं कि वे शायद कमज़ोर या संभवतः असंतुलित भावात्मक अवस्था में हैं। (पृष्ठ ८ पर बक्स “सही मदद की ज़रूरत है” देखिए।) यदि लक्षण दिखायी देते हैं तो उनकी बातें सुनने में देरी मत कीजिए। हो सके तो हमदर्दी-भरे सवाल पूछकर परेशान युवा के दिल की बात निकलवाने की कोशिश कीजिए जिससे उन्हें विश्‍वास हो कि आप सच्चे दोस्त हैं। कठिन स्थितियों का सामना करने में भरोसेमंद दोस्त और रिश्‍तेदार माता-पिता को सहारा दे सकते हैं; लेकिन उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि माता-पिता की भूमिका खुद न अपना लें। अकसर किसी युवा का आत्महत्या की ओर रुख, ध्यान पाने—माता-पिता का ध्यान पाने—की तेज़ पुकार होती है।

सुखी भविष्य की ठोस आशा देना युवाओं के लिए एक बहुत-ही अच्छा उपहार है, जो उन्हें जीने की प्रेरणा देता है। अनेक युवा बाइबल की प्रतिज्ञाओं की सच्चाई को समझ गये हैं कि एक बेहतर दुनिया जल्द ही आनेवाली है।

आत्महत्या करने से बचाए गए

जापान की एक युवती जो अकसर आत्महत्या करने की सोचती थी, यह कहती है: “कितनी ही बार मैंने यह रास्ता अपनाने की सोची है। जब मैं बच्ची थी तो मेरे भरोसे के व्यक्‍ति ने मेरे साथ लैंगिक रूप से दुर्व्यवहार किया। . . . अतीत में, मैंने इतनी चिट्ठियाँ लिखी हैं कि ‘मैं मरना चाहती हूँ’ कि अब मैं उनकी गिनती भी भूल गयी। फिर मैं यहोवा की साक्षी बन गयी और अब पूरे समय राज्य की खुशखबरी सुनाने का काम करती हूँ, लेकिन आज भी कभी-कभी यह भावना मेरे अंदर उठती है। . . . लेकिन यहोवा ने मुझे जीवित रखा है और लगता है कि वह हौले से मुझसे कहता है, ‘जीती रहो।’”

रूस की एक १५-वर्षीय लड़की ने बताया: “जब मैं आठ साल की थी तभी से मुझे महसूस होने लगा कि किसी को मेरी ज़रूरत नहीं। मेरे माता-पिता के पास मुझसे बात करने तक की फुरसत नहीं थी और मैं अपनी समस्याएँ अपने आप सुलझाने की कोशिश करती थी। मैं अपने ही अंदर सिमट गयी। मैं हरदम अपने रिश्‍तेदारों से लड़ती-झगड़ती थी। फिर मेरे मन में आत्महत्या करने का विचार आया। मैं कितनी खुश हूँ कि यहोवा के साक्षियों से मेरी मुलाकात हो गयी!”

और ऑस्ट्रेलिया की कैथी कुछ प्रोत्साहक बातें बताती है जो दिखाती हैं कि निराशा सचमुच आशा में बदल सकती है। उसकी उम्र अभी ३० से ऊपर है। वह कहती है: “मैं अपनी जान लेने के लिए हमेशा तरह-तरह के उपाय सोचती थी और फिर मैं आत्महत्या की कोशिश कर बैठी। मैं दर्द, अशांति और खोखलेपन से भरी इस दुनिया से दूर जाना चाहती थी। मुझे लगता था कि मैं ‘मकड़ी के जाल’ में फँसी हूँ और हताशा ने मेरे लिए उस जाल से बाहर निकलना मुश्‍किल बना दिया था। इसलिए, उस समय मुझे लगा कि आत्महत्या ही समाधान है।

“जब मैंने पहली बार सुना कि पृथ्वी के परादीस बनने की संभावना है जिसमें सभी लोग सुख-शांति से रहेंगे, तो मुझे सचमुच उसकी लालसा होने लगी। लेकिन यह एक असंभवसा सपना लग रहा था। लेकिन, धीरे-धीरे मुझे समझ आने लगा कि जीवन के बारे में यहोवा का क्या दृष्टिकोण है और उसकी नज़रों में हम सब कितने अनमोल हैं। मुझे विश्‍वास होने लगा कि भविष्य के लिए आशा है। आखिर में मुझे उस ‘मकड़ी के जाल’ से बाहर निकलने का रास्ता मिल गया। लेकिन उससे बाहर निकलना मुश्‍किल था। कभी-कभी हताशा मुझे घेर लेती थी और मैं बहुत उलझन में पड़ जाती थी। लेकिन, यहोवा परमेश्‍वर पर ध्यान लगाए रहने से मैं उसके बहुत निकट आ सकी और मैंने सुरक्षित महसूस किया। यहोवा ने मेरे लिए जो कुछ किया है उसके लिए मैं उसका शुक्रिया अदा करती हूँ।”

फिर कभी युवाओं की मौत नहीं होगी

बाइबल का अध्ययन करने के द्वारा एक युवा यह समझ सकता है कि हम बेहतर भविष्य की आस देख सकते हैं—जिसे मसीही प्रेरित पौलुस “सत्य जीवन” कहता है। उसने युवक तीमुथियुस को सलाह दी: “धनवानों को आज्ञा दे, कि . . . चंचल धन पर आशा न रखें, परन्तु परमेश्‍वर पर जो हमारे सुख के लिये सब कुछ बहुतायत से देता है। और भलाई करें, और भले कामों में धनी बनें; . . . और आगे के लिये एक अच्छी नेव डाल रखें, कि सत्य जीवन को वश में कर लें।”—१ तीमुथियुस ६:१७-१९.

असल में पौलुस की सलाह का अर्थ है कि हम दूसरों से संपर्क रखें, भविष्य के लिए ठोस आशा पाने में उनकी मदद करें। “सत्य जीवन” वह है जिसकी प्रतिज्ञा यहोवा ने “नये आकाश और नई पृथ्वी” के अपने नये संसार में की है।—२ पतरस ३:१३.

अनेक युवा जो पहले परेशान थे अब यह समझ गये हैं कि नशीले पदार्थों का दुरुपयोग और अनैतिक जीवन-शैलियाँ और कुछ नहीं बस मौत की ओर ले जानेवाली एक लंबी और टेढ़ी-मेढ़ी सड़क हैं और आत्महत्या करना इसके लिए शॉर्टकट (छोटा रास्ता) है। उन्हें यह एहसास हो गया है कि यह संसार और इसके युद्ध, घृणा, दुर्व्यवहार और प्रेमरहित तरीके जल्द नष्ट हो जाएँगे। उन्होंने सीख लिया है कि इस विश्‍व व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता। उन्होंने इसे दिल में उतार लिया है कि परमेश्‍वर का राज्य एकमात्र सच्ची आशा है क्योंकि वह ऐसा नया संसार लाएगा जिसमें न सिर्फ युवाओं को बल्कि समस्त आज्ञाकारी मानवजाति को कभी मरना नहीं पड़ेगा—न ही वे कभी मरना चाहेंगे।—प्रकाशितवाक्य २१:१-४.

[पेज 8 पर बक्स]

सही मदद की ज़रूरत है

दी अमॆरिकन मॆडिकल असोसिएशन एनसाइक्लोपीडिया ऑफ मॆडिसिन कहती है कि “९० प्रतिशत से ज़्यादा आत्महत्याएँ मानसिक बीमारी के कारण होती हैं।” इसमें कुछ बीमारियाँ बतायी गयी हैं जैसे गहरी हताशा (करीब १५ प्रतिशत), शीज़ोफ्रीनिया (करीब १० प्रतिशत), शराब के बिना न रह पाना (करीब ७ प्रतिशत), समाज में घुल-मिल न पाना (करीब ५ प्रतिशत) और किसी किस्म का पागलपन (५ प्रतिशत से कम)। यह सलाह देती है: “आत्महत्या की सभी कोशिशों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। २० से ३० प्रतिशत लोग जो आत्महत्या करने की कोशिश करते हैं एक साल के अंदर फिर यही कोशिश करते हैं।” डॉ. जैन फॉसॆट लिखता है: “[अमरीका में] ५० प्रतिशत से ज़्यादा आत्महत्याएँ वे लोग करते हैं जिनका किसी मानसिक रोगों के डॉक्टर से कोई संपर्क नहीं रहा है।” एक और पुस्तक कहती है: “इलाज का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि व्यक्‍ति जल्द से जल्द एक मनोविकार चिकित्सक से मिले ताकि अंदर दबी हताशा को दूर किया जा सके।”

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