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सजग होइए!–1998
g98 12/8 पेज 8-9

एड्‌स—कल क्या होगा?

ऐसे कई कारण हैं जो बीमारी को पूरी तरह खत्म करने में मुसीबतें खड़ी करते हैं। इनमें से एक है HIV इन्फॆक्शन को रोकने या ठीक करने के लिए दवाओं की कमी। दूसरी बात यह है कि कई लोग अपने जीने का ढंग नहीं बदलना चाहते, हालाँकि उन्हें इस इन्फॆक्शन का खतरा मोल लेना मंज़ूर है। मिसाल के तौर पर, अमरीका में इन्फॆक्शन की दर न तो बढ़ी है, और न घटी है, लेकिन वहाँ उन मरीज़ों की संख्या में कमी आयी है जिन्हें पूरी तरह एड्‌स हो चुका है। ‘असोशिएटॆड प्रॆस’ सुझाव देता है कि इसकी वज़ह यह हो सकती है कि “कई लोग रोकथाम के बारे में चेतावनियों को नहीं मान रहे हैं।”

दुनिया के विकासशील देशों में इस बीमारी से लड़ने में और भी कई मुश्‍किलें सामने आती हैं। इन्हीं विकासशील देशों में करीब ९३ प्रतिशत HIV इन्फॆक्शनवाले लोग रहते हैं। इनमें से कई देश तो इतने गरीब हैं कि वो अपने लोगों को छोटे-मोटे इलाज की सुविधा भी मुहैय्या नहीं करा सकते। अगर इन देशों में कोई नयी दवा आ भी जाए—जैसा कि अकसर नहीं होता—तो भी हर साल के इलाज का खर्चा इतना ज़्यादा होगा जितना वो अपनी ज़िंदगी भर में भी नहीं कमा सकेंगे!

फिर भी, चलो मान लेते हैं एक सस्ती दवा बना ली जाती है जो बीमारी को पूरी तरह ठीक कर सकती है। तो भी क्या यह नयी दवा उन सभी लोगों तक पहुँच पाएगी जिन्हें इसकी ज़रूरत है? शायद नहीं। संयुक्‍त राष्ट्र बाल निधि के मुताबिक, हर साल चालीस लाख बच्चे ऐसी पाँच बीमारियों की वज़ह से मरते हैं जिन्हें सस्ते, और बाज़ार में मिलनेवाले टीकों से ठीक किया जा सकता है।

कुछ देशों में रहनेवाले उन लोगों के बारे में क्या जिन्हें HIV इन्फॆक्शन है, और जहाँ इलाज के लिए दवाइयाँ नहीं मिलतीं? सैंटा क्रूज़, कैलिफॉर्निया के इंटरनैशनल हॆल्थ प्रोग्राम्स की रूत मोटा ने कई विकासशील देशों में HIV की रोकथाम और देखभाल के लिए प्रोग्राम्स आयोजित किए हैं। वो कहती हैं: “मेरा तज़ुर्बा कहता है कि एक सही नज़रिया उतना ही ज़रूरी है जितना दवाइयाँ मिलना। मैं ऐसे लोगों को जानती हूँ जिन्हें HIV इन्फॆक्शन हुए १०-१५ साल गुज़र चुके हैं, मगर जिन्होंने अभी तक एक भी दवा नहीं ली है। हाँ, दवाइयाँ फायदेमंद हैं, मगर ठीक होने का मतलब सिर्फ दवाइयाँ लेना नहीं है। इसका मतलब नज़रिया, लोगों का सहारा, आध्यात्मिकता और अच्छा खाना-पीना भी है।”

वो सुबह ज़रूर आएगी

क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि एड्‌स एक दिन हमेशा-हमेशा के लिए मिट जाएगा? जी हाँ, कर सकते हैं। सबसे बड़ी उम्मीद तो हमारे प्रभु की प्रार्थना में बतायी गयी है। यह प्रार्थना मत्ती की पुस्तक में लिखी गयी है। इस प्रार्थना में हम दुआ माँगते हैं कि परमेश्‍वर की इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे ही पृथ्वी पर भी हो। (मत्ती ६:९, १०) और परमेश्‍वर की इच्छा यह नहीं है कि इंसान हमेशा के लिए बीमारी से तड़पता रहे। परमेश्‍वर इस प्रार्थना का जवाब ज़रूर देगा। उस समय वो न सिर्फ एड्‌स को, बल्कि उन सभी बीमारियों को जड़ से खत्म कर देगा जिनकी वज़ह से दुनिया भर के लोग कराह रहे हैं। तब “कोई निवासी न कहेगा कि मैं रोगी हूं।”—यशायाह ३३:२४.

तब तक के लिए सबसे बढ़िया इलाज है इस इन्फॆक्शन से पूरी तरह बचे रहना। कई बीमारियों के लिए आपके पास बस दो रास्ते होते हैं: या तो आप उस बीमारी से बचे रहिए, या हो सके तो इलाज करवाइए। जब HIV की बात आती है तो आपके पास ऐसा कोई चारा नहीं होता, क्योंकि आप इससे बचे तो रह सकते हैं, मगर अभी तक इसका कोई इलाज नहीं है। तो फिर खामखाह क्यों जान खतरे में डालें? जब कोई इलाज उपलब्ध नहीं है, तो बीमारी से बचे रहना ही अक्लमंदी है।

[पेज 9 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“ठीक होने का मतलब सिर्फ दवाइयाँ लेना नहीं है। इसका मतलब नज़रिया, लोगों का सहारा, आध्यात्मिकता और खाना-पीना भी है।”—रूत मोटा

[पेज 9 पर बक्स/तसवीर]

“हमारे भाइयों का जवाब नहीं”

प्रेरित पौलुस ने अपने संगी मसीहियों से कहा: “हम सब के साथ भलाई करें; विशेष करके विश्‍वासी भाइयों के साथ।” (गलतियों ६:१०) पिछले लेख की केरन को याद कीजिए। उसकी माँ ने बताया कि जब यहोवा के साक्षियों की उनकी कौंग्रिगेशन को पता चला कि केरन और बिल को HIV है, तो उन्होंने क्या किया। वो कहती हैं: “कौंग्रिगेशन के हमारे भाइयों का जवाब नहीं। जब बिल को निमोनिया हो गया, तब केरन खुद बीमार थी। उसे अपने पति की और बच्चों की देखभाल करने में बहुत दिक्कत हो रही थी। ऐसे वक्‍त पर भाइयों ने आकर उनके घर की सफाई की, गाड़ी की मरम्मत की, और उनके कपड़े धोए। उन्होंने कुछ कानूनी मामलों वगैरह में और घर बदलने में भी मदद की। वो उनके लिए राशन-पानी लेकर आए, और उनके लिए खाना पकाया। सभी भाई-बहन दिल से उन्हें आध्यात्मिक और भौतिक सहारा दे रहे थे।”

[पेज 8 पर तसवीर]

अगर पति-पत्नी वफादार हैं तो HIV इन्फॆक्शन से बचा जा सकता है

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