धार्मिक स्वतंत्रता—आशिष या शाप?
धार्मिक स्वतंत्रता की धारणा का जन्म मसीहीजगत में बड़ी प्रसव-पीड़ा के बाद हुआ। यह मतांधता, पक्षपात और असहनशीलता के विरुद्ध संघर्ष था। इसके कारण खूनी धार्मिक लड़ाइयों में हज़ारों लोगों की जानें गयीं। यह दुःखद इतिहास हमें क्या सिखाता है?
“सताहट मसीही इतिहास का अभिन्न अंग रही है,” रॉबिन लेन फॉक्स विधर्मी और मसीही (अंग्रेज़ी) पुस्तक में लिखता है। आरंभिक मसीहियों को कुपंथ कहा गया और उन पर समाज में गड़बड़ी मचाने का आरोप लगाया गया। (प्रेरितों १६:२०, २१; २४:५, १४; २८:२२) इसके फलस्वरूप, कुछ लोगों ने यातना सही और रोमी अखाड़ों में जंगली जानवरों ने उन्हें फाड़ खाया। ऐसी कड़ी सताहट का सामना करते हुए, कुछ लोगों ने धार्मिक स्वतंत्रता माँगी, जैसे धर्मविज्ञानी टर्टुलियन (पृष्ठ ८ पर तसवीर देखिए) ने। सा.यु. २१२ में उसने लिखा: “यह मूलभूत मानव अधिकार है, स्वभाव में प्राप्त विशेषाधिकार है कि हर मनुष्य अपने विश्वासों के अनुसार उपासना करे।”
कॉन्सटॆंटीन के राज में रोमियों ने मसीहियों को सताना बंद कर दिया। सा.यु. ३१३ में मिलन धर्मादेश जारी किया गया जिसमें मसीहियों और विधर्मियों को समान रूप से धर्म की स्वतंत्रता दी गयी। रोमी साम्राज्य में “मसीहियत” के कानूनी बनाये जाने से सताहट रुक गयी। लेकिन, सा.यु. ३४० के करीब एक तथाकथित मसीही लेखक ने विधर्मियों को सताने की पुकार लगायी। आखिरकार, सा.यु. ३९२ में कॉन्सटॆंटीनोपल धर्मादेश जारी किया गया और सम्राट थिओडॉसिअस प्रथम ने साम्राज्य के अंदर विधर्मों पर प्रतिबंध लगा दिया और धार्मिक स्वतंत्रता की असमय मृत्यु हो गयी। रोमी “मसीहियत” देश का धर्म बन गयी। चर्च और सरकार ने सताहट का एक अभियान शुरू किया जो सदियों तक चला। वह ११वीं से १३वीं सदी तक चले खूनी क्रूसेड धर्मयुद्धों में और १२वीं सदी में शुरू हुए धर्माधिकरण की क्रूरता में अपनी चरमसीमा पर पहुँचा। जिन्होंने स्थापित रूढ़िवाद, धर्ममत के एकाधिकार पर प्रश्न उठाने की हिम्मत की उन्हें अपधर्मी ठहराया गया और ढूँढ़-ढूँढ़कर मारा गया। यही उस समय का माहौल था। ऐसी युक्तियों के पीछे क्या था?
धार्मिक असहनशीलता को इस आधार पर माफ कर दिया गया कि धार्मिक एकता देश को सबसे ठोस नींव देती है और धार्मिक भिन्नताएँ समाज में गड़बड़ी फैलाती हैं। १६०२ में इंग्लॆंड की महारानी इलज़बॆथ के एक मंत्री ने तर्क दिया: “देश में दो धर्म हों तो देश कभी सुरक्षित नहीं होता।” असल में, धार्मिक विरोधियों पर प्रतिबंध लगाना यह पता लगाने से कहीं ज़्यादा आसान था कि वे सचमुच देश के लिए या स्थापित धर्म के लिए खतरा हैं या नहीं। द कैथोलिक एनसाइक्लोपीडिया कहती है: “सरकारी अधिकारियों और धर्म-गुरुओं ने खतरनाक और नुकसान न पहुँचानेवाले अपधर्मियों के बीच कोई फर्क नहीं किया।” लेकिन, जल्द ही बदलाव आनेवाला था।
सहनशीलता का पीड़ादायी जन्म
प्रोटॆस्टॆंटवाद ने जो उथल-पुथल मचायी वही यूरोप में बदलाव लाने का कारण बनी। प्रोटॆस्टॆंटवाद एक सांप्रदायिक क्रांति थी जो दबी नहीं। प्रोटॆस्टॆंट सुधार ने धर्म के आधार पर यूरोप को बहुत तेज़ी से विभाजित कर दिया और अंतःकरण की स्वतंत्रता की धारणा सामने आयी। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध सुधारक मार्टिन लूथर ने १५२१ में अपने विचारों को यह कहते हुए उचित ठहराया: “मेरा अंतःकरण परमेश्वर के वचन के अधीन है।” विभाजन ने तीस वर्षीय युद्ध (१६१८-४८) को भी चिंगारी लगायी। उस दौरान एक-के-बाद-एक कई क्रूर धार्मिक युद्धों ने यूरोप को बरबाद कर दिया।
लेकिन युद्ध के बीच अनेक लोगों को एहसास हुआ कि लड़ने से प्रगति नहीं होगी। इसलिए कई धर्मादेश जारी किये गये, जैसे फ्रांस में नैनट्स धर्मादेश (१५९८)। इन धर्मादेशों के ज़रिये युद्ध-ग्रस्त यूरोप में शांति स्थापित करने की कोशिश असफल रही। इन्हीं धर्मादेशों में से धीरे-धीरे सहनशीलता की आधुनिक धारणा विकसित हुई। पहले, “सहनशीलता” का नकारात्मक अर्थ था। प्रसिद्ध मानवतावादी इरैसमस ने १५३० में लिखा: “यदि अमुक परिस्थितियों में हमें संप्रदायों को सहन करना पड़े . . . , तो यह निःसंदेह बुरा होगा—असल में, बहुत बुरा होगा—लेकिन युद्ध के जितना बुरा नहीं होगा।” इस नकारात्मक अर्थ के कारण कुछ लोगों ने, जैसे १५६१ में फ्राँसीसी पॉल ड फ्वा ने “सहनशीलता” के बदले “धार्मिक स्वतंत्रता” के बारे में बात करना ज़्यादा पसंद किया।
लेकिन समय बीतने पर सहनशीलता को बुरा नहीं समझा गया, बल्कि उसे आज़ादी का रक्षक माना गया। उसे अब रिआयत नहीं बल्कि गारंटी माना गया। जब अलग-अलग विश्वास रखने और अलग-अलग तरह से सोचने के अधिकार को आधुनिक समाज का आधार मानकर सराहा जाने लगा तो कट्टरवाद को मजबूरन दबना पड़ा।
अठारहवीं सदी के अंत में सहनशीलता स्वतंत्रता और समानता से जुड़ गयी। इसे कानूनों और घोषणाओं के रूप में व्यक्त किया गया, जैसे फ्रांस में प्रसिद्ध ‘मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा’ (१७८९), या अमरीका में ‘अधिकार पत्र’ (१७९१)। जैसे-जैसे १९वीं सदी में इन दस्तावेज़ों ने उदार सोच-विचार को प्रभावित करना शुरू किया, वैसे-वैसे सहनशीलता को और इस प्रकार स्वतंत्रता को शाप नहीं बल्कि आशिष समझा जाने लगा।
सापेक्ष स्वतंत्रता
स्वतंत्रता बहुत अनमोल है पर फिर भी सापेक्ष है। सभी को ज़्यादा स्वतंत्रता देने के नाम पर सरकार नियम बनाती है जो व्यक्तिगत आज़ादी को सीमित कर देते हैं। नीचे स्वतंत्रता से जुड़े हुए कुछ मुद्दे दिये गये हैं जिन पर अभी अनेक यूरोपीय देशों में बहस चल रही है: सरकारी कानून को किस हद तक निजी जीवन को नियंत्रित करना चाहिए? यह कितना प्रभावकारी है? यह स्वतंत्रता को कैसे प्रभावित करता है?
समाचार माध्यमों ने सार्वजनिक और निजी स्वतंत्रता पर चल रही बहस पर रोशनी डाली है। कुछ धार्मिक समूहों के विरुद्ध दिमाग खराब करने, पैसे ऐंठने, बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने और ढेरों अन्य गंभीर अपराधों के आरोप लगाये गये हैं, लेकिन आरोप लगानेवालों के पास अकसर कोई ठोस प्रमाण नहीं होता। अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों के बारे में कोई बात हो तो समाचार माध्यम उसे बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। निंदात्मक नाम जैसे “पंथ” या “संप्रदाय” अब आये दिन इस्तेमाल होने लगे हैं। जन मत के दबाव में आकर सरकारों ने तथाकथित खतरनाक पंथों की सूची भी बना डाली है।
फ्रांस एक ऐसा देश है जिसे गर्व है कि वहाँ सहनशीलता की परंपरा है और धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। वह गर्व के साथ अपने आपको “स्वतंत्रता, समानता, मित्रता” का देश कहता है। लेकिन धर्म और विश्वास की स्वतंत्रता—विश्व रिपोर्ट (अंग्रेज़ी) पुस्तक के अनुसार, इस देश में “स्कूलों में एक शिक्षा अभियान” की सिफारिश की गयी है “ताकि नये धार्मिक आंदोलनों का तिरस्कार करने के लिए उकसाया जाए।” लेकिन अनेक लोग सोचते हैं कि इस तरह का कदम धार्मिक स्वतंत्रता के लिए खतरा खड़ा करता है। वह कैसे?
धार्मिक स्वतंत्रता को खतरा
सच्ची धार्मिक स्वतंत्रता केवल तभी होती है जब कानून का आदर करनेवाले और उसे माननेवाले सभी धार्मिक समूहों के साथ सरकार एकसमान व्यवहार करती है। जब सरकार मनमाने ढंग से फैसला करती है कि धार्मिक समूहों में से कौन-सा समूह मान्यता-प्राप्त धर्म नहीं है और इस कारण उसे वे लाभ नहीं देती जो सरकार द्वारा धर्मों को दिये जाते हैं तब स्थिति बदल जाती है। “जब सरकार यह अधिकार अपने पास रखती है कि धर्मों को मान्यता वह देगी मानो ड्राइवरों को लाइसॆंस दे रही हो, तो धार्मिक स्वतंत्रता का बहुमूल्य विचार खोखला दिखायी पड़ता है,” टाइम पत्रिका ने १९९७ में कहा। फ्रांस में एक अपील अदालत ने हाल ही में कहा कि ऐसा करना “जानबूझकर या अनजाने में सर्वाधिकारवाद की ओर ले जाता है।”
मूल स्वतंत्रता को तब भी खतरा होता है जब समाचार माध्यमों पर किसी समूह का एकाधिकार होता है। दुःख की बात है कि अनेक देशों में यही दशा बढ़ती जा रही है। उदाहरण के लिए, पंथ-विरोधी संगठनों ने यह बताने की कोशिश की है कि धार्मिक रूप से क्या सही है, और ऐसा करते समय उन्होंने अपने आपको अभियोगकर्ता, न्यायी और जूरी बना लिया है और फिर अपने पक्षपाती विचार को समाचार माध्यमों के ज़रिये जनता पर थोपने की कोशिश की है। लेकिन जैसा फ्राँसीसी अखबार ल मॉन्ड ने कहा, ऐसा करने के द्वारा ये संगठन कभी-कभी “वही सांप्रदायिकता” दिखाते हैं “जिसके विरुद्ध वे लड़ने का दावा कर रहे हैं और ‘संदिग्ध लोगों की तलाश’ वाला माहौल बनाने का खतरा पैदा करते हैं।” इस अखबार ने पूछा: “अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों पर सामाजिक कलंक लगाने से क्या . . . मूल स्वतंत्रता को खतरा नहीं है?” ज़ाइत्शरिफ्त फुर रेलीग्योन्सप्सूखोलोगी (धर्म मनोविज्ञान पत्रिका) में उद्धृत मार्टिन क्रियेल ने कहा: “संदिग्ध लोगों की तरह संप्रदायों की तलाश करना संप्रदायों की संख्या से भी ज़्यादा बड़ी चिंता का विषय है। सरल शब्दों में कहें तो: जो नागरिक कानून का उल्लंघन नहीं करते उन्हें तंग नहीं किया जाना चाहिए। धर्म और सिद्धांतवाद को स्वतंत्र होना चाहिए और स्वतंत्र रहना चाहिए, जर्मनी में भी।” आइए एक उदाहरण पर विचार करें।
“सबसे ईमानदार नागरिक”—“खतरनाक” कहलाए
कैथोलिक अधिकारियों के विचार में जिनका उद्धरण स्पेन के लोकप्रिय एबीसी अखबार में दिया गया, किस धार्मिक समूह को “सबसे खतरनाक संप्रदाय” कहा गया? आप यह जानकर शायद दंग रह जाएँ कि एबीसी यहोवा के साक्षियों के बारे में बात कर रहा था। क्या उनके विरुद्ध लगाये गये आरोपों का निष्पक्ष, प्रमाणिक आधार है? दूसरे सूत्रों ने जो घोषणाएँ कीं उन पर ध्यान दीजिए:
“साक्षी लोगों को सिखाते हैं कि ईमानदारी से कर अदा करें, युद्धों अथवा युद्ध की तैयारियों में हिस्सा न लें, चोरी न करें और आम तौर पर वैसा जीवन जीएँ जो यदि दूसरे भी अपनायें तो समाज में रहन-सहन के स्तर में सुधार होगा।”—सरजीओ अलबीसानो, टैलॆंटो, नवंबर-दिसंबर १९९६.
“कुछ मौकों पर जो अफवाहें उड़ायी गयी हैं उनके उलट, मुझे नहीं लगता कि [यहोवा के साक्षी] देश की संस्थाओं के लिए ज़रा-भी खतरा हैं। वे शांतिप्रिय, कर्त्तव्यनिष्ठ और अधिकारियों का आदर करनेवाले नागरिक हैं।”—बॆलजियम का एक संसद सदस्य।
“यह देखा जा सकता है कि यहोवा के साक्षी जर्मनी में सबसे ईमानदार लोग हैं।”—जर्मन अखबार ज़िनडलफिंगर त्साइतुंग।
“आप [यहोवा के साक्षियों को] आदर्श नागरिक मान सकते हैं। वे बिना चूके कर देते हैं, बीमारों की सेवा करते हैं, निरक्षरता को हटाने की कोशिश करते हैं।”—अमरीकी अखबार सैन फ्रानसिस्को इक्ज़ैमिनर।
“दूसरे धर्मों की तुलना में यहोवा के साक्षियों को स्थायी वैवाहिक बंधन बनाये रखने में ज़्यादा सफलता मिलती है।”—अमॆरिकन ऎथनॉलोजिस्ट।
“यहोवा के साक्षी अफ्रीकी देशों में सबसे खरे और परिश्रमी नागरिकों में से हैं।”—डॉ. ब्रायन विल्सन, ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी।
“उस धर्म के सदस्यों ने दशकों से अंतःकरण की स्वतंत्रता को फैलाने में बहुत बड़ा योग दिया है।”—नैट हॆनटफ, मुझे बोलने की स्वतंत्रता—लेकिन आपको नहीं (अंग्रेज़ी)।
“उन्होंने . . . हमारे लोकतंत्र की कुछ बहुत ही अनमोल बातों को सुरक्षित रखने में निश्चित योग दिया है।”—प्रोफॆसर सी. एस. ब्रेडन, ये भी मानते हैं (अंग्रेज़ी)।
जैसा कि ऊपर दिये गये उद्धरण दिखाते हैं, दुनिया भर में यह माना जाता है कि यहोवा के साक्षी आदर्श नागरिक हैं। इसके अलावा, वे अपने मुफ्त बाइबल शिक्षा कार्य के लिए और पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए मशहूर हैं। उनकी साक्षरता क्लासों ने लाखों लोगों की मदद की है और दशकों से उनके मानवतावादी कार्यों ने हज़ारों लोगों की मदद की है, खासकर अफ्रीका में।
प्रमाणिकता का महत्त्व
समाज ऐसे ओछे लोगों से भरा पड़ा है जो निर्दोष लोगों को अपना शिकार बनाते हैं। इसके फलस्वरूप, जब धर्म के बारे में दावे किये जाते हैं तो सतर्क रहने की बहुत ज़रूरत है। लेकिन जब कुछ पत्रकार प्रमाणिक विशेषज्ञों से परामर्श लेने के बजाय चर्चों से मिली जानकारी पर विश्वास करते हैं जिनकी सदस्यता घटती जा रही है या जब वे संप्रदाय-विरोधी संगठनों से जानकारी लेते हैं जिनकी प्रमाणिकता संदेहास्पद है तो यह धार्मिक स्वतंत्रता के लिए कितना प्रमाणिक और कितना सहायक होता है? उदाहरण के लिए, जिस अखबार ने यहोवा के साक्षियों को “सबसे खतरनाक संप्रदाय” कहा उसने स्वीकार किया कि उसने जो परिभाषाएँ दी थीं वे “[कैथोलिक] चर्च के महारथियों” से मिली थीं। इसके अलावा, एक फ्राँसीसी पत्रिका ने कहा कि कथित संप्रदायों के बारे में अधिकतर लेख संप्रदाय-विरोधी संगठनों से आये थे। क्या आपको लगता है कि यह प्रमाणिक जानकारी पाने का सबसे निष्पक्ष तरीका है?
मूलभूत मानव अधिकारों से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय अदालतों और संगठनों, जैसे संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि “धर्म और संप्रदाय के बीच का भेद इतना काल्पनिक है कि उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।” तो फिर कुछ लोग निंदात्मक शब्द “संप्रदाय” का प्रयोग करना क्यों नहीं छोड़ते? यह इसका अतिरिक्त प्रमाण है कि धार्मिक स्वतंत्रता को खतरा है। तो फिर इस मूल स्वतंत्रता की रक्षा कैसे की जा सकती है?
[पेज 8 पर बक्स/तसवीरें]
धार्मिक स्वतंत्रता के समर्थक
सोलहवीं सदी में यूरोप की धार्मिक लड़ाइयों में हुए खून-खराबे को देख धार्मिक स्वतंत्रता के लिए ज़ोरदार पुकारें उठने लगीं। ये पुकारें आज भी धार्मिक स्वतंत्रता की चर्चा करते समय अर्थ रखती हैं।
सेबासट्याँ शाटेयों (१५१५-६३): “अपधर्मी किसे कहते हैं? हम उन सबको अपधर्मी समझते हैं जो हमारे विचार से सहमत नहीं हैं, इसके अलावा मुझे कुछ और कारण नहीं दिखता। . . . यदि इस नगर या इलाके में आपको सच्चा विश्वासी माना जाता है तो अगले में आपको अपधर्मी माना जाएगा।” मशहूर फ्राँसीसी बाइबल अनुवादक और सहनशीलता का जोशीला समर्थक, शाटेयों धार्मिक स्वतंत्रता के वाद-विवाद में एक मुख्य बात को सामने लाया: कौन फैसला करता है कि कौन अपधर्मी है?
डर्क वॉलकर्टसन कोर्नहर्ट (१५२२-९०): “हम पढ़ते हैं कि अतीत में . . . यरूशलेम में मसीह ने भी और फिर यूरोप में अनेक शहीदों ने . . . सत्य के अपने वचनों से [समाज] में गड़बड़ी मचा दी। . . . ‘गड़बड़ी मचाने’ के अर्थ को सही-सही और साफ-साफ समझाने की ज़रूरत है।” कोर्नहर्ट ने तर्क किया कि यह नहीं समझना चाहिए कि धार्मिक भिन्नता समाज में गड़बड़ी फैलाने के बराबर है। उसने पूछा: क्या वे लोग जो बड़े ध्यान से कानून को मानते और उसका आदर करते हैं सचमुच समाज के लिए खतरा हैं?
प्यॆर ड बॆलवा (१५४०-१६११): यह “मानना अज्ञानता है कि धर्मों की भिन्नता देश में अशांति लाती और उसे बढ़ाती है।” बॆलवा एक फ्राँसीसी वकील था। उसने ‘वार्स ऑफ रिलिजन’ (१५६२-९८) धर्मयुद्धों के दौरान लिखते हुए यह तर्क किया कि देश में शांति होना धार्मिक एकरूपता पर आधारित नहीं है, सरकार धार्मिक दबावों में आ जाए तो बात अलग है।
टॉमस हॆलविस (लगभग १५५०-लगभग १६१६): “यदि उसकी [राजा की] प्रजा सभी मानव नियमों के प्रति आज्ञाकारी और वफादार है तो उसे और कोई माँग नहीं करनी चाहिए।” हॆलविस इंग्लिश बैपटिस्टों के संस्थापकों में से एक था। उसने चर्च को सरकार से अलग करने के पक्ष में लिखा। उसने राजा से आग्रह किया कि सभी चर्चों और संप्रदायों को धार्मिक स्वतंत्रता दे और जनता तथा संपत्ति पर सरकारी अधिकार रखकर संतुष्ट रहे। उसके लेखों ने एक प्रश्न पर ज़ोर दिया जो आज भी बना हुआ है: सरकार को लोगों के आध्यात्मिक जीवन पर किस हद तक नियंत्रण रखना चाहिए?
अज्ञात लेखक (१५६४): “अंतःकरण की स्वतंत्रता देने के लिए यह काफी नहीं कि व्यक्ति को उस धर्म का पालन न करने की अनुमति दी जाए जिसे वह नहीं मानता, यदि उसे उस धर्म का खुलकर पालन करने की अनुमति नहीं दी जाती जिसे वह मानता है।”
[तसवीर]
टर्टुलियन
शाटेयों
ड बॆलवा
[चित्र का श्रेय]
सभी चित्र: © Cliché Bibliothèque Nationale de France, Paris