अंधेपन के बावजूद व्यस्त और खुश
पोलीटीमी वॆनॆटस्यानोस की ज़बानी
मैं अपने तीन भाई-बहनों और एक चचेरी बहन के साथ खेल रही थी और अचानक कोई चीज़ खिड़की से अंदर घुसी। वह एक हथगोला था और जब वह फटा तो मेरे तीनों भाई-बहन मारे गये और मैं पूरी तरह अंधी हो गयी।
वह दिन था जुलाई १६, १९४२, जब मैं सिर्फ पाँच साल की छोटी-सी लड़की थी। कई दिनों तक कभी मैं होश में आती, कभी बेहोश हो जाती। जब मुझे पूरी तरह होश आया तो मैं अपने भाइयों और बहन को ढूँढ़ने लगी। और जब मुझे पता चला कि उनकी मौत हो गयी है तो मैंने सोचा कि काश मैं भी मर गयी होती।
मेरे जन्म के समय हमारा परिवार यूनान के सालमस नामक द्वीप पर रहता था, जो ऐथॆन्स के बंदरगाह पीरॆफ्स के नज़दीक है। गरीब होते हुए भी हम चैन का जीवन जीते थे। लेकिन १९३९ में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और हमारा चैन छिन गया। मेरे पिता भूमध्य सागर में नाविक थे। अकसर उन्हें धुरी-राष्ट्रों और मित्र-राष्ट्रों की पनडुब्बियों, जलपोतों, टॉरपीडो और बमों से बच-बचकर निकलना पड़ता था। यूनान पर फासिस्टवाद और नात्ज़ीवाद का राज था।
मुझे परमेश्वर से घृणा करना सिखाया गया
युद्ध के दौरान खराब स्थिति के कारण माँ का चौथा बच्चा मर गया। वह हताशा में डूब गयीं, उन्हें टीबी हो गयी और अपनी छठी बच्ची को जन्म देने के बाद वह आखिरकार अगस्त १९४५ में मर गयीं। धार्मिक पड़ोसी कहने लगे कि परमेश्वर हमें सज़ा दे रहा है। कुछ ग्रीक ऑर्थोडॉक्स पादरियों ने प्रोत्साहन देने की कोशिश की लेकिन उन्होंने यह कहकर हमारे जले पर नमक छिड़का कि छोटे-छोटे स्वर्गदूत बनाने के लिए परमेश्वर मेरे भाई-बहनों को स्वर्ग ले गया है।
पिताजी बहुत गुस्सा थे। परमेश्वर एक गरीब के घर से चार नन्हे बच्चे क्यों छीनेगा जब उसके पास करोड़ों स्वर्गदूत हैं? ऑर्थोडॉक्स चर्च के इन विश्वासों ने उनके अंदर परमेश्वर और धर्म के विरुद्ध भावनाएँ जगा दीं। उसके बाद वह धर्म के साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते थे। उन्होंने मुझे सिखाया कि परमेश्वर से घृणा और नफरत करूँ और इस बात पर ज़ोर दिया कि परमेश्वर ही हमारे दुःखों और मुसीबतों के लिए ज़िम्मेदार है।
पिंजरे में बंद खूँखार जानवर की तरह
वर्ष १९४५ में मेरी माँ की मौत के कुछ ही समय बाद, पिताजी को भी टीबी हो गयी और उन्हें एक आरोग्य-निवास में रहना पड़ा। मेरी नन्ही बहन को सरकारी शिशुगृह में भेज दिया गया। आरोग्य-निवास से लौटने के बाद जब पिताजी उसे लेने के लिए शिशुगृह गये तो उन्हें बताया गया कि वह मर गयी। मुझे अंधों के स्कूल में रखा गया जहाँ मैंने अपने जीवन के अगले आठ साल बिताए। शुरू-शुरू में तो मेरा दिल टूट गया था। जब मिलने का दिन होता था तो मैं बहुत उदास हो जाती थी। मेरे स्कूल के अधिकतर अंधे बच्चों से कोई-न-कोई मिलने आता था लेकिन मुझसे मिलने आनेवाला कोई नहीं था।
मैं पिंजरे में बंद खूँखार जानवर की तरह व्यवहार करती थी। स्कूल में मुझे आफत की पुड़िया कहा जाता था। मेरी पिटाई होती थी और मुझे उस कुर्सी पर बिठाया जाता था जो नटखट बच्चों के लिए रखी गयी थी। मैं अकसर अपनी जान लेने की सोचती थी। लेकिन कुछ समय बाद मुझे एहसास हो गया कि मुझे आत्म-निर्भर बनना होगा। मुझे स्कूल के दूसरे अंधे बच्चों की मदद करने में संतुष्टि मिलने लगी। मैं तैयार होने और बिस्तर बनाने में अकसर उनकी मदद करती थी।
पादरियों ने हमसे कहा कि परमेश्वर ने हमारे माता-पिता की किसी बड़ी भूल के कारण हमें अंधा बनाया है। इसने हमारे अंदर परमेश्वर के लिए और अधिक घृणा उत्पन्न की और परमेश्वर हमें घटिया और दुर्भावना रखनेवाला प्रतीत हुआ। मैं इस धार्मिक विचार से भयभीत और क्रोधित थी कि मृतजनों की आत्माएँ जीवतों को परेशान करती फिरती हैं। इसलिए, अपने मृत भाई-बहनों और माँ के लिए अपने प्रेम के बावजूद, मैं उनकी “आत्माओं” से डरती थी।
मेरे पिता ने मुझे मदद दी
कुछ समय बाद, पिताजी का संपर्क यहोवा के साक्षियों के साथ हुआ। वह बाइबल से यह सीखकर चकित रह गये कि पीड़ा और मृत्यु लानेवाला शैतान है, यहोवा नहीं। (भजन १००:३; याकूब १:१३, १७; प्रकाशितवाक्य १२:९, १२) ऐसी जानकारी पाकर जल्द ही पिताजी ने यहोवा के साक्षियों की सभाओं में जाना शुरू कर दिया, आध्यात्मिक उन्नति की और १९४७ में बपतिस्मा लिया। उससे कुछ ही महीने पहले उन्होंने दूसरी शादी की थी और अब उनके पास एक बेटा था। कुछ समय बाद, उनकी नयी पत्नी भी यहोवा की उपासना में उनके साथ हो ली।
सोलह साल की उम्र में मैंने अंधों का स्कूल छोड़ दिया। लौटकर एक स्नेही मसीही परिवार में आने से कितनी सांत्वना मिली! पिताजी के घर में पारिवारिक बाइबल अध्ययन होता था और उन्होंने मुझसे भी उसमें बैठने के लिए कहा। मैं आदर और शिष्टाचार दिखाने के लिए बैठ तो जाती थी लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं देती थी। मैं अभी भी परमेश्वर और धर्म के सख्त खिलाफ थी।
घर में परमेश्वर का मार्ग प्रेम है (अंग्रेज़ी) पुस्तिका का अध्ययन किया जा रहा था। पहले-पहल, मैंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी, लेकिन फिर मैंने पिताजी को मृतकों की अवस्था के बारे में चर्चा करते सुना। इसने मेरा ध्यान खींच लिया। बाइबल से सभोपदेशक ९:५, १० पढ़ा गया: “मरे हुए कुछ भी नहीं जानते . . . अधोलोक में जहां तू जानेवाला है, न काम न युक्ति न ज्ञान और न बुद्धि है।”
मुझे समझ आने लगा कि मेरा डर बेबुनियाद है। मेरी मृत माँ, भाई और बहनें मुझे नुकसान नहीं पहुँचा सकते। उसके बाद पुनरुत्थान के विषय पर चर्चा हुई। अब मेरे कान खड़े हो गये। मेरा दिल खुशी से झूम उठा जब मैंने बाइबल की यह प्रतिज्ञा सुनी कि मसीह के शासन में मरे हुए जी उठेंगे! (यूहन्ना ५:२८, २९; प्रकाशितवाक्य २०:१२, १३) अब अध्ययन मुझे बहुत दिलचस्प लगने लगा था। मैं उत्सुकता से उस दिन का इंतज़ार करती जब पारिवारिक चर्चा होती थी और मैं अपने अंधेपन के बावजूद अच्छी तैयारी करती थी।
आध्यात्मिक दृष्टि पाना
जैसे-जैसे मेरा बाइबल ज्ञान बढ़ा, वैसे-वैसे परमेश्वर और उसके व्यवहार के बारे में गलतफहमियाँ दूर हुईं। मैंने सीखा कि परमेश्वर ने न तो मुझे और न ही किसी और को अंधा बनाया है और सभी बुराइयों की जड़ परमेश्वर का विरोधी, शैतान अर्थात् इब्लीस है। मुझे कितना पछतावा हुआ कि अपनी अज्ञानता के कारण मैंने परमेश्वर पर दोष लगाया था! मैं बड़ी उत्सुकता से बाइबल के यथार्थ ज्ञान में बढ़ती गयी। मैं सभी मसीही सभाओं में उपस्थित होती थी और उनमें भाग लेती थी, हालाँकि हम राज्यगृह से कई किलोमीटर दूर रहते थे। मैंने प्रचार कार्य में भी सक्रिय रूप से हिस्सा लिया और अपने अंधेपन को बाधा नहीं बनने दिया।
जुलाई २७, १९५८ के दिन तो मेरी खुशी का ठिकाना न था जब मेरा बपतिस्मा हुआ! यह उस दुःखद घटना के १६ साल बाद की बात है जब मेरी आँखें चली गयी थीं। यह मेरे लिए एक नयी शुरूआत थी और मेरे अंदर आशा और उमंग भरी थी। अब मेरे जीवन में उद्देश्य था—कि अपने प्रेममय स्वर्गीय पिता की सेवा करूँ। उसके ज्ञान ने मुझे झूठी शिक्षाओं से मुक्त कर दिया था और साहस दिया था कि अपने अंधेपन और उससे जुड़ी समस्याओं का सामना दृढ़निश्चय और आशा के साथ करूँ। मैं हर महीने नियमित रूप से ७५ या उससे अधिक घंटे दूसरों को सर्वोत्तम सुसमाचार सुनाने में बिताती थी।
शादी टूट गयी
वर्ष १९६६ में मैंने जिस आदमी से शादी की उसके और मेरे लक्ष्य एकसमान थे। ऐसा प्रतीत हुआ कि हम दोनों सुखी विवाहित जीवन का आनंद लेंगे और एकसाथ मिलकर प्रचार कार्य में और ज़्यादा हिस्सा लेंगे। कई-कई महीने हमने इस जीवन-रक्षक काम में ढेरों घंटे बिताए। हम केंद्रीय यूनान में लिवैडीआ के पास एक दूर इलाके में जा बसे। १९७० से १९७२ के बीच जब हम वहाँ थे तो यूनान में दमनकारी सैनिक शासन के बावजूद, हम कई लोगों को बाइबल सच्चाई सीखने और बपतिस्मा-प्राप्त मसीही बनने में मदद दे सके। उस इलाके में यहोवा के साक्षियों की छोटी-सी कलीसिया की मदद करने में भी हमें खुशी हुई।
लेकिन धीरे-धीरे मेरे पति बाइबल अध्ययन के प्रति लापरवाह हो गये और उन्होंने हमारी मसीही सभाओं में भी जाना छोड़ दिया और आखिरकार बाइबल शिक्षाओं को पूरी तरह त्याग दिया। इससे हमारे वैवाहिक जीवन में बहुत तनाव आ गया और फिर १९७७ में हमारा तलाक हो गया। मैं चूर-चूर हो गयी।
खुशहाल और फलदायी जीवन
अपने जीवन के इस मुकाम पर जब मैं बहुत हताश थी तो यहोवा और उसके संगठन ने एक बार फिर मुझे सहारा दिया। एक भले-से मसीही भाई ने मुझे समझाया कि यदि उस आदमी के कारण आयी परेशानी मुझसे मेरा आनंद छीन लेती है, जो कभी मेरा पति था, तो असल में मैं उसकी दास बन जाऊँगी। मेरी खुशी उसके हाथ में होगी। उसी समय के आस-पास, मसीही कलीसिया की एक बुज़ुर्ग बहन ने अपनी प्रचार क्षमता बढ़ाने के लिए मदद माँगी। जल्द ही मैं उस काम में पूरी तरह लीन हो गयी जिसमें मुझे सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है—सेवकाई में हिस्सा लेना!
फिर एक और मसीही ने यह सुझाव दिया: “आप क्यों न ऐसी जगहों में मदद देना जारी रखें जहाँ आपकी बहुत ज़रूरत है। आपको यहोवा परमेश्वर दीपक की तरह इस्तेमाल कर सकता है।” कितना बढ़िया विचार! एक अंधे इनसान को “यहोवा परमेश्वर दीपक की तरह इस्तेमाल कर सकता है”! (फिलिप्पियों २:१५) समय बरबाद किये बिना, मैं ऐथॆन्स छोड़कर आमारिनदॉस गाँव चली गयी। दक्षिणी ऎवया के उस गाँव में बहुत कम बाइबल शिक्षक थे। वहाँ भाइयों की मदद से मैं एक मकान बनवा सकी और अपनी ज़रूरतों को भी पूरा कर सकी।
सो अब मुझे हर साल कई-कई महीने अधिक प्रचार करने के काम (पायनियर काम) में हिस्सा लेते हुए २० साल से ज़्यादा समय हो गया है। यहोवा से शक्ति पाकर मैं हर तरीके से सेवकाई में हिस्सा ले पाती हूँ, जैसे लोगों के घर जाकर बात करना, दिलचस्पी दिखानेवालों के साथ बाइबल अध्ययन करना, और सड़कों पर लोगों के साथ बात करना। अभी मुझे ऐसे चार व्यक्तियों के साथ बाइबल अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त है जिन्हें हमारे सृष्टिकर्ता में दिलचस्पी है। मैं कितनी खुश हूँ कि इस इलाके में जहाँ २० साल पहले मुट्ठी-भर भाई थे वहाँ आज तीन कलीसियाएँ बन गयी हैं!
मसीही सभाओं में उपस्थित होने के लिए मैं हफ्ते में दो बार एक तरफ का ३० किलोमीटर से ज़्यादा लंबा सफर तय करती हूँ। मैं नहीं चाहती कि एक भी सभा से चूकूँ। सभाओं के दौरान जब—वक्ता को न देख पाने के कारण—मेरा ध्यान भटकने लगता है तो मैं अपनी खास ब्रेल कॉपी में संक्षिप्त नोट्स लेती हूँ। इस तरह मैं पूरा ध्यान लगाने के लिए अपने कानों और मन को मजबूर करती हूँ। इसके अलावा, मुझे यह आशिष मिली है कि मेरे घर में एक कलीसिया सभा होती है। कलीसिया पुस्तक अध्ययन में उपस्थित होने के लिए आस-पास के गाँव के लोग मेरे घर आते हैं। हमेशा यह अपेक्षा करने के बजाय कि लोग मुझसे मिलने के लिए मेरे घर आएँ, मैं पहल करके उनसे मिलने जाती हूँ और इससे एक-दूसरे को प्रोत्साहन मिलता है।—रोमियों १:१२.
किशोरावस्था में जब मैं अपने पिताजी के साथ रहती थी तो उन्होंने कभी मुझे अंधा समझकर मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। धीरज और जतन के साथ उन्होंने मुझे अपना काम खुद करना सिखाया। इस व्यावहारिक प्रशिक्षण ने मुझे अपने बगीचे और कुछेक मवेशियों की अच्छी देखरेख करने में समर्थ किया है। मैं बड़ी मेहनत करके घर को साफ रखती हूँ और खाना पकाती हूँ। मैंने सीखा है कि जीवन में छोटी-छोटी बातों से, जितना हमारे पास है उससे, हमें खुशी मिल सकती है। मैं अपनी बाकी बची चार ज्ञानेंद्रियों—सुनने, सूँघने, चखने और छूने की क्षमता—से अनेक काम कर पायी हूँ और इससे मुझे असीम संतुष्टि मिलती है। इसके कारण भी बाहरवालों को बहुत बढ़िया गवाही मिली है।
मेरे परमेश्वर ने मुझे सहारा दिया है
कई लोग सोचते हैं कि अपनी अपंगता के बावजूद मैं आशावादी और आत्म-निर्भर कैसे रह पायी हूँ। सबसे बढ़कर, इसका श्रेय यहोवा को जाना चाहिए जो “सब प्रकार की शान्ति का परमेश्वर है।” (२ कुरिन्थियों १:३) जब मेरी आँखें चली गयीं तो अकसर मैं आत्महत्या करने की सोचती थी। इसलिए, यदि मुझे यहोवा और बाइबल सच्चाई न मिली होती तो मेरे खयाल से आज मैं जीवित न होती। मैं यह जान गयी हूँ कि हमारे सृष्टिकर्ता ने हमें अनेक वरदान दिये हैं—मात्र दृष्टि नहीं—और यदि हम उनका उपयोग करें तो हम खुश रह सकते हैं। एक बार जब साक्षी मेरे गाँव में प्रचार कर रहे थे तो एक स्त्री ने उनसे मेरे बारे में कहा: “वह जिस परमेश्वर की उपासना करती है वही उसे इतने सारे काम करने में मदद देता है!”
मेरी सारी मुसीबतों ने मुझे परमेश्वर के और नज़दीक खींचा है। इससे मेरा विश्वास और मज़बूत हुआ है। मुझे प्रेरित पौलुस की याद आती है कि उसके भी “शरीर में एक कांटा” था, शायद उसकी आँखों में कोई रोग था। (२ कुरिन्थियों १२:७; गलतियों ४:१३) लेकिन यह उसे “धुन में लगकर” सुसमाचार सुनाने से नहीं रोक सका। उसकी तरह मैं भी कह सकती हूँ: “इसलिये मैं बड़े आनन्द से अपनी निर्बलताओं पर घमण्ड करूंगा . . . क्योंकि जब मैं निर्बल होता हूं, तभी बलवन्त होता हूं।”—प्रेरितों १८:५; २ कुरिन्थियों १२:९, १०.
सबसे बढ़कर, मुझे बाइबल से यह आशा मिली है कि पुनरुत्थान के समय मैं खुद अपनी आँखों से अपनी प्यारी माँ, बहनों और भाइयों को देख सकूँगी। इसका निश्चित ही मुझ पर सकारात्मक और लाभदायक प्रभाव हुआ है। बाइबल प्रतिज्ञा करती है कि “अन्धों की आंखें खोली जाएंगी” और “धर्मी और अधर्मी दोनों का जी उठना होगा।” (यशायाह ३५:५; प्रेरितों २४:१५) ऐसी प्रत्याशाएँ मेरे अंदर आशा जगाती हैं और मैं परमेश्वर के राज्य के अधीन शानदार भविष्य की उत्सुकता से आस देखती हूँ!
[पेज 15 पर तसवीर]
मेरे पिता, जिन्होंने मेरे साथ बाइबल अध्ययन किया
[पेज 15 पर तसवीर]
अपनी रसोई में
[पेज 15 पर तसवीर]
सेवकाई में एक सहेली के साथ