साइबीरिया में निर्वासित!
वस्यील्यी कल्यिन की ज़बानी
यदि आप एक आदमी को बम के धमाकों के बीच शांति से बैठे बाइबल पढ़ते देखते हैं तो क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि वह इतना शांत कैसे है? मेरे पिता ने ५६ साल से भी पहले बिलकुल ऐसा ही नज़ारा देखा।
जुलाई १९४२ की बात है। दूसरा विश्व युद्ध पूरे उफान पर था। जब जर्मन सेना यूक्रेन में मेरे पिता के गाँव विलशानीट्सा से गुज़री तो मेरे पिता कुछ बुज़ुर्ग लोगों के घर पर रुक गये। चारों ओर बम फट रहे थे और वह आदमी चूल्हे के पास बैठा भुट्टा भून रहा था और बाइबल पढ़ रहा था।
उसके पाँच साल बाद मेरा जन्म पश्चिम यूक्रेन के सुंदर नगर इवाना-फ्रॉनकॉफस्क के निकट हुआ जो उस समय सोवियत संघ का भाग था। वह आदमी एक यहोवा का साक्षी था उससे हुई यादगार मुलाकात और युद्ध के दौरान हुए अत्याचारों के बारे में भी मेरे पिता ने बाद में मुझे बताया। लोग इस सब से थक चुके थे और उलझन में पड़ गये थे और बहुत लोग सोच रहे थे, ‘क्यों इतना अन्याय है? क्यों हज़ारों निर्दोष लोग मर रहे हैं? क्यों परमेश्वर इसकी अनुमति देता है? क्यों? क्यों? क्यों?’
ऐसे प्रश्नों पर पिताजी ने उस बुज़ुर्ग आदमी के साथ काफी देर तक खुलकर बातचीत की। अपनी बाइबल में से एक-के-बाद-एक वचन खोलकर उस आदमी ने उन प्रश्नों के उत्तर दिखाए जिन्होंने लंबे अरसे से पिताजी को परेशान किया हुआ था। उसने समझाया कि परमेश्वर अपने नियत समय में सभी युद्धों का अंत करेगा और यह पृथ्वी एक सुंदर परादीस बन जाएगी।—भजन ४६:९; यशायाह २:४; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४.
पिताजी फौरन घर आये और कहा: “जानते हो क्या हुआ? यहोवा के साक्षियों के साथ एक बार बात करके मेरी आँखें खुल गयी हैं! मुझे सच्चाई मिल गयी है!” जबकि पिताजी नियमित रूप से कैथोलिक चर्च जाया करते थे फिर भी उन्होंने ऐसा कहा क्योंकि पादरी कभी-भी उनके प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाये थे। सो पिताजी बाइबल का अध्ययन करने लगे और मेरी माँ भी उनके साथ हो लीं। उन्होंने अपने तीनों बच्चों को भी सिखाना शुरू कर दिया—मेरी बहन सिर्फ २ साल की थी और मेरा एक भाई ७ साल का और दूसरा ११ साल का था। कुछ ही समय बाद, एक बम से उनका घर तहस-नहस हो गया और उनके रहने के लिए सिर्फ एक कमरा बचा।
माँ का परिवार बड़ा था। उनके घर में छः बहनें और एक भाई था। उनके पिता अपने इलाके के अमीर लोगों में से थे और उन्हें अपना अधिकार और ओहदा बड़ा प्यारा था। सो शुरू-शुरू में रिश्तेदारों ने मेरे परिवार के नये धर्म का विरोध किया। लेकिन कुछ समय बाद इनमें से कई विरोधियों ने अशास्त्रीय धार्मिक प्रथाओं को, जैसे मूर्तियों की पूजा करना छोड़ दिया और सच्ची उपासना में मेरे माता-पिता के साथ हो लिये।
पादरियों ने खुलेआम लोगों को साक्षियों के विरुद्ध उकसाया। इसका नतीजा यह हुआ कि आस-पास के लोग मेरे माता-पिता के घर की खिड़कियाँ तोड़ देते और उन्हें धमकाते। इसके बावजूद, मेरे माता-पिता ने बाइबल का अध्ययन जारी रखा। इसलिए, जब १९४७ में मेरा जन्म हुआ तो उस समय हमारा परिवार आत्मा और सच्चाई से यहोवा की उपासना कर रहा था।—यूहन्ना ४:२४.
निर्वासन में ले जाये गये
अप्रैल ८, १९५१ की सुबह-सुबह की यादें आज भी मेरे मन में ताज़ा हैं जबकि उस समय मैं सिर्फ चार साल का था। सेना के आदमी कुत्ते लिये हुए हमारे घर में घुस आये। उन्होंने निर्वासन-आदेश दिखाया और तलाशी ली। हमारे घर के दरवाज़े पर बंदूकधारी सैनिक और उनके कुत्ते खड़े थे। सेना की वरदी पहने आदमी हमारे घर में बैठकर इंतज़ार करने लगे। हमें दो घंटे की मोहलत दी गयी थी सो हम जल्दी-जल्दी अपना सामान बाँध रहे थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है इसलिए मैं रोने लगा।
मेरे माता-पिता को आदेश दिया गया कि एक कागज़ पर हस्ताक्षर कर दें कि अब वे यहोवा के साक्षी नहीं हैं और आगे से वे साक्षियों के साथ कोई वास्ता नहीं रखेंगे। यदि वे हस्ताक्षर कर दें तो उन्हें अपने ही घर और देश में रहने दिया जाएगा। लेकिन पिताजी ने दृढ़ता से कहा: “मुझे यकीन है कि आप हमें चाहे जहाँ ले जाएँ, हमारा परमेश्वर यहोवा हमारे साथ रहेगा।”
“अपने परिवार के बारे में, अपने बच्चों के बारे में सोचो,” अफसर ने कहा। “आखिर तुम्हें सैर के लिए तो ले जाया नहीं जा रहा है। तुम्हें दूर उत्तरी इलाके में ले जाया जा रहा है, जहाँ हमेशा बर्फ रहती है और जहाँ रास्तों पर ध्रुवीय रीछ घूमते हैं।”
उस समय “साइबीरिया” शब्द सभी के लिए डरावना और रहस्यमयी था। फिर भी, विश्वास और यहोवा के प्रति गहरा प्रेम अनजान जगह के भय से ज़्यादा ताकतवर साबित हुआ। हमारे सामान को एक गाड़ी में लादा गया और हमें शहर ले जाकर वहाँ से २०-३० अन्य परिवारों के साथ रेलगाड़ी में चढ़ाया गया। और इस तरह साइबीरिया के घने टैगा जंगल या वीराने की ओर हमारा सफर शुरू हुआ।
रास्ते में आये स्टेशनों पर हमें दूसरी ट्रेनें दिखायी दीं जिनमें निर्वासित लोगों को ले जाया जा रहा था और ट्रेन के डिब्बों पर लटकी तख्तियों पर लिखा था: “यहोवा के साक्षी सवार हैं।” यह अपने ही किस्म की गवाही थी, क्योंकि इस तरह बहुतों को पता चला कि हज़ारों साक्षियों और उनके परिवारों को उत्तर और सुदूर पूर्व के विभिन्न क्षेत्रों में भेजा जा रहा था।
अप्रैल १९५१ में यहोवा के साक्षियों को इस तरह इकट्ठा करके निर्वासित करने की बात इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज़ है। इतिहासकार वॉल्टर कोलार्स ने इसके बारे में अपनी पुस्तक सोवियत संघ में धर्म (अंग्रेज़ी) में लिखा: “यह रूस में ‘साक्षियों’ का अंत नहीं था बल्कि उनके धर्म-प्रचार के कामों में एक नये अध्याय का आरंभ था। निर्वासन में जाते समय जब वे स्टेशनों पर रुकते तो वहाँ भी वे अपने धर्म का प्रचार करने की कोशिश करते। उन्हें निर्वासित करके सोवियत सरकार ने उनके धर्म के प्रचार को बढ़ावा ही दिया। पहले ‘साक्षी’ अपने गाँव तक ही सीमित थे लेकिन अब उन्हें बड़ी दुनिया में लाया गया था। यह बात अलग है कि वह यातना और दास-श्रम शिविरों की भयंकर दुनिया थी।”
हमारा परिवार शुक्रगुज़ार था कि हमें अपने साथ कुछ भोजन ले जाने दिया गया था जैसे आटा, भुट्टा और मटर। मेरे दादा को तो एक सूअर भी काटने दिया गया जो हमारे और दूसरे साक्षियों के भोजन के काम आया। रास्ते में ट्रेन के डिब्बों से हार्दिक गीतों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। यहोवा ने हमें सहने की शक्ति दी।—नीतिवचन १८:१०.
रूस के दूसरे छोर तक करीब तीन हफ्तों का सफर करने के बाद आखिरकार हम सर्द, सुनसान और सुदूर साइबीरिया पहुँचे। हमें इरकूटस्क ज़िले के चनस्क क्षेत्र में टॉरॆया स्टेशन पर लाया गया। वहाँ से हमें और भी दूर वीराने में एक छोटे-से गाँव ले जाया गया। हमारे दस्तावेज़ों में इस जगह को हमारा “अनंत निवास” कहा गया था। १५ परिवारों का सामान एक हिमगाड़ी पर आराम से अट गया और एक ट्रैक्टर उसे पिघलती बर्फ में घसीटता हुआ ले गया। करीब २० परिवारों को बैरकों में बसाया गया जिनमें लंबे-लंबे गलियारे थे और बीच में कोई दीवार नहीं थी। अधिकारियों ने स्थानीय लोगों को पहले से आगाह कर दिया कि यहोवा के साक्षी बहुत बुरे लोग हैं। सो शुरू-शुरू में, लोग हमसे डरते थे और जान-पहचान बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं करते थे।
निर्वासन में काम
यहोवा के साक्षी पेड़ काटने का काम करते थे और वह भी बहुत ही कठिन परिस्थितियों में। सारा काम हाथ से करना पड़ता था—लट्ठों को आरी से काटना, उनके टुकड़े करना, उन्हें घोड़ा-गाड़ी पर लादना और बाद में उन्हें रेलगाड़ी में लादना। मच्छरों ने स्थिति को और भी कठिन बना दिया था। मच्छरों के मानो बादल छाये रहते थे और उनसे बचना मुश्किल था। मेरे पिताजी ने बहुत दुःख उठाया। उनका पूरा बदन सूज गया था और वह यहोवा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करते थे कि उन्हें सहने की शक्ति दे। लेकिन उन सभी मुश्किलों के बावजूद, अधिकतर यहोवा के साक्षियों का विश्वास अडिग रहा।
जल्द ही हमें इरकूटस्क नगर ले जाया गया और वहाँ हमारे परिवार को उस जगह रखा गया जो पहले युद्ध-बंदी शिविर था। हमसे ईंटों की फैक्ट्री में काम करवाया गया। ईंटों को सीधे ही बड़ी-बड़ी, गरम भट्टियों में से हाथ से निकाला जाता था और आये दिन काम का कोटा बढ़ा दिया जाता था जिसके कारण काम खत्म करने के लिए बच्चों को भी अपने माता-पिता के साथ हाथ बँटाना पड़ता था। हमें प्राचीन मिस्र में इस्राएलियों की गुलामी याद आयी।—निर्गमन ५:९-१६.
यह साफ दिखने लगा कि साक्षी मेहनती और ईमानदार लोग हैं, “लोगों के दुश्मन” नहीं, जैसा उनके बारे में कहा गया था। यह देखा गया कि एक भी साक्षी अधिकारियों की बेइज़्ज़ती नहीं करता था और न ही वे अधिकारियों के फैसलों के विरुद्ध लड़ते थे। धीरे-धीरे अनेक लोग उनके धर्म को भी पसंद करने लगे।
हमारा आध्यात्मिक जीवन
हालाँकि बार-बार साक्षियों की तलाशी ली जाती थी—निर्वासन में ले जाने से पहले, रास्ते में और उनके निर्वासन के स्थान पर—फिर भी कई लोग प्रहरीदुर्ग पत्रिकाओं और यहाँ तक कि बाइबलों को छिपाने में सफल हुए। बाद में, हाथ से और दूसरे साधनों से इनकी प्रतियाँ बनायी गयीं। बैरकों में नियमित रूप से मसीही सभाएँ संचालित की जाती थीं। जब बैरक का कमांडर अंदर आकर देखता कि कुछ लोग मिलकर गाना गा रहे हैं तो वह हमें चुप होने का आदेश देता। हम चुप हो जाते। लेकिन जब वह अगली बैरक में जाता तो हम फिर से गाना शुरू कर देते। हमें चुप कराना असंभव था।
हमारा प्रचार कार्य भी कभी नहीं रुका। साक्षी हर किसी से और हर जगह बात करते थे। मेरे बड़े भाई और मेरे माता-पिता अकसर मुझे बताते कि कैसे वे दूसरों के साथ बाइबल सच्चाइयाँ बाँटते हैं। इस कारण बाइबल सच्चाई धीरे-धीरे अच्छे लोगों के दिल जीतने लगी। और इस तरह दशक १९५० के शुरू में यहोवा के राज्य की घोषणा इरकूटस्क में और उसके आस-पास की गयी।
शुरू में साक्षियों को राजनैतिक शत्रु समझा जाता था, लेकिन बाद में सरकार ने मान लिया कि हमारा संगठन पूर्ण रूप से धार्मिक संगठन है। इसके बावजूद, अधिकारी हमारे काम को रोकने की कोशिश करते थे। सो पकड़े जाने से बचने के लिए हम दो-तीन परिवारों के छोटे-छोटे झुंड बनाकर बाइबल अध्ययन के लिए इकट्ठा हुआ करते थे। फरवरी १९५२ की एक सुबह बड़े ध्यान से तलाशी ली गयी। उसके बाद, दस साक्षियों को गिरफ्तार कर लिया गया और बाकियों को अलग-अलग जगहों पर ले जाया गया। हमारे परिवार को ईसक्रा गाँव भेजा गया। वह इरकूटस्क नगर से करीब ३० किलोमीटर दूर था और वहाँ करीब सौ लोग रहते थे।
अलग-अलग परिस्थितियों में धीरज धरना
गाँव के अधिकारियों ने हमारा स्वागत करके हमें हैरान कर दिया। वहाँ के लोग सीधे-सादे और मिलनसार थे—कई लोग तो हमारी मदद करने के लिए अपने घरों से निकलकर बाहर आये। करीब १७ वर्ग मीटर के एक छोटे-से कमरे में तीन परिवारों को रखा गया। उनमें से एक हमारा परिवार भी था। हमारे पास रोशनी का एक ही ज़रिया था, मिट्टी के तेल से जलनेवाले लैंप।
अगली सुबह चुनाव हो रहे थे। मेरे माता-पिता ने कहा कि वे पहले ही परमेश्वर के राज्य को वोट दे चुके हैं। लोगों को उनकी बात समझ नहीं आयी। सो मेरे परिवार के वयस्क सदस्यों ने पूरा दिन थाने में काटा। उसके बाद, कई लोगों ने उनसे उनके विश्वासों के बारे में पूछा और मेरे परिवार को बढ़िया मौका मिला कि परमेश्वर के राज्य के बारे में बात करें और बताएँ कि वही मानवजाति की एकमात्र आशा है।
ईसक्रा गाँव में हम चार साल रहे और उस दौरान आस-पास कोई दूसरे साक्षी नहीं थे जिनके साथ हम संगति कर सकते। गाँव से बाहर जाने के लिए हमें कमांडर से खास अनुमति माँगनी पड़ती थी और वह शायद ही कभी हाँ कहता था, क्योंकि हमें दूसरे लोगों से अलग रखना ही हमारे निर्वासन का मुख्य कारण था। फिर भी, साक्षी हमेशा एक दूसरे से संपर्क करने की कोशिश करते थे ताकि जो भी ताज़ा आध्यात्मिक भोजन उन्हें मिला हो उसे बाँट सकें।
सन् १९५३ में स्टैलिन की मौत के बाद, सभी दंडित साक्षियों की सज़ा २५ साल से घटाकर १० साल कर दी गयी। जो साइबीरिया में थे उन्हें अब कहीं आने-जाने के लिए खास दस्तावेज़ की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन, अधिकारियों ने जल्द ही तलाशी लेनी शुरू कर दी और फिर यदि उन्हें साक्षियों के पास बाइबलें या बाइबल साहित्य मिलता तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। साक्षियों के लिए खास शिविर बनाये गये और करीब ४०० भाइयों और २०० बहनों को इरकूटस्क के पास इन शिविरों में डाल दिया गया।
सोवियत संघ में हमारी सताहट की खबर दुनिया भर में यहोवा के साक्षियों तक पहुँच गयी। सो १९५६ के मध्य से १९५७ की फरवरी के बीच, दुनिया के सभी भागों में आयोजित १९९ ज़िला अधिवेशनों में हमारी तरफ से एक याचिका पारित की गयी। इन अधिवेशनों में उपस्थित कुल ४,६२,९३६ जनों ने याचिका को मंज़ूरी दी जो सोवियत प्रधानमंत्री न्यिकलाइ ए. बुलगानन के नाम लिखी गयी थी। याचिका में दूसरी बातों के साथ-साथ यह निवेदन भी किया गया कि हमें स्वतंत्र किया जाए और “रूसी, यूक्रेनियन और ऐसी अन्य भाषाओं में जिनकी आवश्यकता पड़े, प्रहरीदुर्ग पत्रिका और साथ ही दुनिया भर में यहोवा के साक्षियों द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले अन्य बाइबल प्रकाशन प्राप्त करने और प्रकाशित करने का अधिकार दिया जाए।”
इस बीच, हमारे परिवार को इरकूटस्क से करीब २० किलोमीटर दूर एक निर्जन गाँव में भेज दिया गया था। हम वहाँ सात साल रहे। मेरा भाई फ्यॉडर १९६० में इरकूटस्क चला गया और उसके अगले साल मेरे बड़े भाई की शादी हो गयी और मेरी बहन कहीं और जाकर बस गयी। फिर १९६२ में फ्यॉडर को प्रचार करने के कारण गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया गया।
मेरी आध्यात्मिक उन्नति
दूसरों के साथ मिलकर बाइबल अध्ययन करने के लिए हमें अपने गाँव खूद्याकॉवा से करीब २० किलोमीटर का रास्ता पैदल या साइकिल पर तय करना पड़ता था। सो हमने इरकूटस्क में बसने की कोशिश की ताकि दूसरे साक्षियों के साथ ज़्यादा नज़दीकी संपर्क रख सकें। लेकिन हमारे गाँव का प्रधान नहीं चाहता था कि हम वहाँ से जाएँ सो उसने हमें रोकने की पूरी कोशिश की। परंतु कुछ समय बाद, हमारे प्रति उसका रुख थोड़ा नरम पड़ गया और हम इरकूटस्क से करीब १० किलोमीटर दूर पीवावारीखा गाँव में जाकर बस सके। वहाँ यहोवा के साक्षियों की एक कलीसिया थी और वहाँ मेरा एक नया जीवन शुरू हुआ। पिवावारीखा में कलीसिया पुस्तक अध्ययन समूहों की निश्चित व्यवस्था थी और ऐसे भाई थे जो आध्यात्मिक गतिविधियों को सँभालते थे। मैं कितना खुश था!
धीरे-धीरे मुझे बाइबल सच्चाई से बहुत प्रेम हो गया था और अब मैं बपतिस्मा लेना चाहता था। अगस्त १९६५ में मेरी यह इच्छा पूरी हुई और मेरा बपतिस्मा छोटी-सी ऑल्खा नदी में हुआ। उस समय के दौरान वहाँ अनेक नये साक्षियों का बपतिस्मा हुआ। दूर से देखनेवाले को ऐसा लगता कि हम पिकनिक मना रहे हैं और नदी में तैरने का मज़ा ले रहे हैं। उसके कुछ ही समय बाद मुझे अपनी पहली नियुक्ति मिली, मुझे ईश्वरशासित सेवकाई स्कूल ओवरसियर बनाया गया। फिर नवंबर १९६५ में हमारी खुशी और भी बढ़ गयी जब फ्यॉडर कैद से लौटा।
काम में प्रगति
सन् १९६५ में सभी निर्वासितों को इकट्ठा किया गया और यह घोषणा की गयी कि हमें यह अधिकार दिया जाता है कि जहाँ चाहें वहाँ जाकर रहें। इस प्रकार हमारे “अनंत निवास” का अंत हो गया। क्या आप हमारी खुशी का अंदाज़ा लगा सकते हैं? उस समय हमारे बीच से अनेक लोग देश के दूसरे भागों में चले गये और दूसरों ने यह फैसला किया कि हम वहीं रहेंगे जहाँ यहोवा ने हमें अपनी आध्यात्मिक उन्नति और गतिविधि में आशिष और मदद दी है। इनमें से बहुतों ने साइबीरिया में ही अपने बच्चों, पोतों और परपोतों को पाला-पोसा है जो कुछ समय बाद आखिरकार उतना डरावना नहीं साबित हुआ।
सन् १९६७ में मेरी मुलाकात मर्यीया से हुई। उसके परिवार को भी यूक्रेन से साइबीरिया में निर्वासित किया गया था। बचपन में हम दोनों यूक्रेन के विलशानीट्सा गाँव में रहते थे। १९६८ में हमारी शादी हुई और फिर हमें एक बेटा, यारॉस्लाफ पैदा हुआ और उसके बाद एक बेटी, ऑक्साना पैदा हुई।
बड़ी संख्या में इकट्ठे होकर आध्यात्मिक संगति करने के लिए हमने अंत्येष्टियों और शादियों के अवसर का लाभ उठाना जारी रखा। वहाँ आये गैर-साक्षी रिश्तेदारों और दोस्तों को बाइबल सच्चाइयाँ बताने के लिए भी हम इन अवसरों का लाभ उठाते थे। अकसर सुरक्षा अधिकारी इन कार्यक्रमों में उपस्थित होते थे, जहाँ हम बाइबल में से पुनरुत्थान की आशा के बारे में या यहोवा ने विवाह का जो प्रबंध किया है और अपने नये संसार में वह कौन-सी आशिषें देगा उनके बारे में खुलकर प्रचार करते थे।
एक बार की बात है, जब मैं एक अंत्येष्टि में भाषण समाप्त कर रहा था तो वहाँ एक कार आकर रुकी, उसके दरवाज़े खुले और उसके अंदर से एक आदमी ने बाहर निकलकर मुझे आदेश दिया कि मैं कार में बैठ जाऊँ। मुझे कोई डर नहीं था। आखिरकार, हम कोई अपराधी तो थे नहीं, हम तो सिर्फ परमेश्वर के भक्त थे। लेकिन, मेरी जेब में हमारी कलीसिया की सेवकाई की रिपोर्टें थीं। इसके लिए मुझे गिरफ्तार किया जा सकता था। सो मैंने पूछा कि क्या मैं उनके साथ जाने से पहले अपनी पत्नी को पैसे दे सकता हूँ। फिर मैंने उनकी आँखों के सामने बड़े आराम से अपना बटुआ और साथ ही कलीसिया की रिपोर्टें अपनी पत्नी के हाथ में थमा दीं।
सन् १९७४ की शुरूआत में, मैंने और मर्यीया ने चुपके-से अपने घर में बाइबल साहित्य तैयार करना शुरू कर दिया। क्योंकि हमारा बेटा छोटा-सा था सो हम यह काम देर रात को करते थे ताकि उसे इसके बारे में पता न चले। लेकिन जिज्ञासु होने के कारण वह सोने का बहाना करता और झाँककर देखता कि हम क्या कर रहे हैं। बाद में उसने कहा: “मुझे पता है कि परमेश्वर की पत्रिकाएँ कौन बनाता है।” हम थोड़ा डर गये लेकिन हम हमेशा यहोवा से बिनती करते थे कि इस महत्त्वपूर्ण काम में हमारे परिवार की रक्षा करे।
आगे चलकर यहोवा के साक्षियों के प्रति अधिकारियों का रुख नरम पड़ गया सो हमने युसॉल्या-सीबिरस्काया नगर के ‘मीर कला एवं मनोरंजन केंद्र’ में एक बड़ी सभा आयोजित करने की योजना बनायी। हमने नगर के अधिकारियों को आश्वासन दिया कि हमारी सभाएँ सिर्फ बाइबल अध्ययन और मसीही संगति के उद्देश्य से रखी जाती हैं। जनवरी १९९० में ७०० से ज़्यादा लोग उपस्थित हुए। हॉल खचाखच भर गया और हमारी तरफ जनता का काफी ध्यान खिंचा।
सभा के बाद एक रिपोर्टर ने पूछा, “आपने अपने बच्चों को कब प्रशिक्षण दिया?” वह रिपोर्टर और वहाँ आये दूसरे लोग यह देखकर हैरान हो गये कि इस पहली जन सभा में बच्चों ने चार घंटे तक बैठकर ध्यान से सुना। जल्द ही स्थानीय अखबार में यहोवा के साक्षियों के बारे में एक बढ़िया लेख छपा। उसमें लिखा था: “एक व्यक्ति [यहोवा के साक्षियों] से सचमुच कुछ सीख सकता है।”
बढ़िया बढ़ोतरी में आनंद मनाना
सन् १९९१ में सोवियत संघ में हमारे सात अधिवेशन हुए जिनमें ७४,२५२ लोग उपस्थित हुए। बाद में, जब सोवियत संघ के भूतपूर्व गणराज्य स्वतंत्र हो गये तो मुझे यहोवा के साक्षियों के शासी निकाय ने मॉस्को जाने के लिए कहा। वहाँ मुझसे पूछा गया कि क्या मैं राज्य कार्य में और ज़्यादा हिस्सा लेने की स्थिति में हूँ। उस समय तक यारॉस्लाफ की शादी हो चुकी थी और उसका खुद का एक बच्चा था और ऑक्साना भी बड़ी हो गयी थी। सो १९९३ में मैंने और मर्यीया ने मॉस्को में अपनी पूर्ण-समय सेवकाई शुरू की। उसी साल, मुझे रूस में यहोवा के साक्षियों के प्रांतीय धार्मिक संगठन के प्रशासनिक केंद्र का समन्वयकर्ता नियुक्त किया गया।
अभी मैं और मर्यीया सेंट पीटर्सबर्ग से कुछ दूरी पर स्थित हमारी नयी शाखा सुविधा में रहते और वहीं काम करते हैं। मैं इसे बड़े सम्मान की बात समझता हूँ कि मुझे भी यह अवसर मिला है कि दूसरे वफादार भाइयों के साथ मिलकर मैं रूस में तेज़ी से बढ़ रहे राज्य उद्घोषकों की सेवा करूँ। आज सोवियत संघ के भूतपूर्व गणराज्यों में २,६०,००० से काफी ज़्यादा साक्षी हैं और अकेले रूस में ही १,००,००० से ज़्यादा हैं!
मैं और मर्यीया अकसर अपने प्यारे रिश्तेदारों और दोस्तों के बारे में सोचते हैं जो साइबीरिया में वफादारी से राज्य सेवा में लगे हुए हैं। साइबीरिया वह जगह है जिसे हमने अपना प्यारा घर बना लिया था। आज वहाँ नियमित रूप से बड़े-बड़े अधिवेशन होते हैं और इरकूटस्क में और उसके आस-पास करीब २,००० साक्षी सक्रिय हैं। सचमुच, यशायाह ६०:२२ की भविष्यवाणी संसार के उस भाग में भी पूरी हो रही है: “छोटे से छोटा एक हजार हो जाएगा और सब से दुर्बल एक सामर्थी जाति बन जाएगा।”
[पेज 12 पर तसवीर]
सन् १९५९ में इरकूटस्क में अपने पिता, अपने परिवार और दूसरे निर्वासितों के साथ
[पेज 15 पर तसवीर]
ईसक्रा में निर्वासित बच्चे
[पेज 17 पर तसवीर]
जिस साल हमारी शादी हुई
[पेज 17 पर तसवीर]
आज मर्यीया के साथ