चालीस से भी ज़्यादा वर्षों तक कम्युनिस्टों के प्रतिबंध के तहत
मीखाएल वासीलवीच सावीटस्की की ज़बानी
अप्रैल १, १९५६ की द वॉचटावर में बताया गया कि सन् १९५१ में, अप्रैल १, ७ और ८ के दिन यहोवा के साक्षियों को “बड़ी तादाद में देशनिकाला दिया गया।” इसमें आगे कहा गया कि “रूस में रहनेवाले यहोवा के साक्षी इन तारीखों को कभी नहीं भूल सकते। इन तीनों दिन पश्चिम यूक्रेन, वाइट रूस [बेलारूस], बस्सारेबिया, मॉलडैविया, लैटविया, लिथुएनिया और एस्टोनिया से जितने भी यहोवा के साक्षी मिल सके, उन सभी को . . . गाड़ियों में डालकर रेलवे स्टेशन ले जाया गया और वहाँ से उन्हें मवेशियों की बोगी में ठूँसकर दूर भेज दिया गया। इनमें तकरीबन सात हज़ार से भी ज़्यादा स्त्री-पुरुष शामिल थे।”
अप्रैल ८, १९५१ में यूक्रेन राज्य के टारनोपल शहर और उसके आस-पास के इलाकों से, कई दूसरे साक्षियों को और साथ ही मेरी पत्नी और मेरे आठ महीने के लड़के, मेरे माता-पिता और मेरे छोटे भाई को घर से ले जाया गया। इन्हें मवेशियों की बोगी में भरकर दो हफ्ते के सफर के बाद, आखिरकार साइबेरियन टाइगा (आर्टिक क्षेत्र के दक्षिण के जंगल) में, लेक बाइकल के पश्चिम में उतार दिया गया।
इन लोगों में मैं क्यों नहीं था? यह बताने से पहले कि मैं उस वक्त कहाँ था और बाद में हम सबके साथ क्या हुआ, मैं यह बताना चाहूँगा कि मैं यहोवा का साक्षी कैसे बना।
बाइबल सच्चाई पाना
हम टारनोपल से लगभग ५० किलोमीटर दूर एक छोटे-से गाँव, स्लावीयातिन में रहते थे। सितंबर १९४७ में जब मैं केवल १५ साल का था तब दो यहोवा की साक्षी हमारे घर आईं। उन दो जवान साक्षियों में से एक का नाम था मरीया। जब मैंने और माँ ने उनकी बातें सुनीं तभी मुझे यह एहसास हो गया था कि इन लोगों के धर्म में सच्चाई है। उन्होंने अपने विश्वास के बारे में हमें समझाया और बाइबल से हमने जो भी सवाल पूछे उनका अच्छी तरह जवाब दिया।
हालाँकि मैं मानता था कि बाइबल परमेश्वर का वचन है लेकिन मैं चर्च से बहुत ही निराश था। नानाजी कहा करते थे: “ये चर्च के पादरी, लोगों को तो यह कहकर डराते हैं कि नरक की आग में उनको तड़पाया जाएगा, पर खुद किसी बात से नहीं डरते। वे बस गरीबों को लूटते हैं और उन्हें छलते हैं।” मुझे अच्छी तरह याद है कि दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत में कैसे हमारे गाँव के पोलिश लोगों के घरों को जला दिया था, उन्हें मारा-पीटा गया था। हैरत की बात थी कि इन हमलों के पीछे ग्रीक कैथोलिक पादरी का हाथ था। मैंने बाद में दर्जनों लोगों को मरे-कटे पड़े देखा और मैं इस बेरहमी की वज़ह जानने के लिए बेचैन होने लगा।
जब मैं साक्षियों के साथ बाइबल स्टडी करने लगा तो मुझे बहुत कुछ समझ में आने लगा। मैंने बाइबल की बुनियादी सच्चाई सीखी, जिसमें यह भी सीखा कि नरक जैसी कोई जगह है ही नहीं और शैतान यानी इब्लीस झूठे धर्म के ज़रिए युद्ध और खून-खराबा करवाता है। जब कभी मैं अकेले बैठकर स्टडी करता तो मैं अकसर बीच में ही रुककर जो बातें सीख रहा होता उनके लिए परमेश्वर को दिल से धन्यवाद करता। बाइबल के बारे में ये सच्चाइयाँ मैं अपने छोटे भाई स्टॉख को बताने लगा और मैं बेहद खुश हुआ जब उसने उन बातों को स्वीकार किया।
सीखी हुई बातों पर अमल करना
मैंने इस बात को समझा कि मुझे कुछ परिवर्तन करने होंगे और मैंने तुरंत सिगरेट पीना छोड़ दिया। मैंने यह भी समझा कि मेरा लगातार सभाओं में जाना ज़रूरी है जहाँ लोग मिलकर बाइबल स्टडी करते हैं। सो मैं सभाओं में जाने लगा जो चोरी-छिपे चलायी जाती थीं और वहाँ पहुँचने के लिए मुझे घने जंगल से १० किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था। सभाओं में कभी-कभी सिर्फ कुछ बहनें ही आ पाती थीं और जबकि मेरा बपतिस्मा नहीं हुआ था फिर भी मुझे सभा चलाने को कहा जाता था।
बाइबल और उस पर आधारित किताबें रखना मना था और अगर पकड़े जाते तो इसकी सज़ा २५ साल की कैद हो सकती थी। लेकिन मैं चाहता था कि मेरी खुद की एक लाइब्रेरी हो। हमारे एक पड़ोसी ने यहोवा के साक्षियों के साथ स्टडी की थी, लेकिन डर के कारण उसने स्टडी छोड़ दी और अपनी किताबें अपने बगीचे में गाड़ दीं। मैंने उस दिन यहोवा को कितना धन्यवाद दिया, जब उस व्यक्ति ने गड्ढा खोदकर सारी किताबें और पत्रिकाएँ निकालकर मुझे दे दीं! मैंने उन्हें अपने पिता की मधुमक्खी पालने की पेटी में छुपा दिया, जहाँ लोग कभी भूलकर भी कुछ ढूँढ़ने नहीं जाते।
जुलाई १९४९ में मैंने यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया और बपतिस्मा लेकर अपना समर्पण ज़ाहिर किया। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी खुशी का दिन था। जिस साक्षी ने चोरी-छिपे यह बपतिस्मा दिया था, उसने साफ-साफ कहा था कि एक सच्चा मसीही बने रहना आसान नहीं और आगे बहुत-सी परीक्षाएँ भी आएँगी। और उसकी बात कितनी सच थी यह मैंने जल्द ही जान लिया! फिर भी, मेरे नए जीवन की शुरूआत खुशियों से भरी थी। बपतिस्मे के दो महीने बाद मैंने मरीया से शादी कर ली, जिसने मुझे और माँ को सच्चाई बताई थी।
एकाएक मेरी पहली परीक्षा
सोलह अप्रैल, १९५० में जब मैं पाडगीटसी के छोटे-से शहर से, घर की तरफ लौट रहा था तब अचानक कुछ सिपाहियों ने मुझे घेर लिया। जब उनको मेरे पास से कुछ बाइबल की किताबें मिलीं, जो मैं अपनी स्टडी ग्रूप के लिए ले जा रहा था तो उन्होंने मुझे गिरफ्तार कर लिया। कैद में, पहले कुछ दिनों तक तो मुझे बेंत से खूब पीटा गया। न मुझे सोने दिया गया और न ही कुछ खाने। मुझसे कहा गया कि हाथ को सिर पर रखकर सौ बार उठक-बैठक करो, पर मैं इतना पस्त हो गया कि उसे पूरा नहीं कर पाया। इसके बाद मुझे ठंडे, सीलन-भरे तहखाने में २४ घंटे के लिए बंद कर दिया गया।
वे मुझे इस तरह इसलिए सता रहे थे ताकि मैं कमज़ोर पड़ जाऊँ जिसके बाद उनके लिए मुझसे जानकारी उगलवाना आसान हो जाए। उन्होंने सख्ती से पूछा: “तुम्हें ये किताबें कहाँ से मिलीं और ये किसे देने जा रहे थे?” मैंने कुछ भी बताने से मना कर दिया। फिर उन्होंने मुझे यह पढ़कर सुनाया कि मैंने कौन-सा कानून तोड़ा है जिसकी बिनाह पर वे मेरे खिलाफ मुकद्दमा चलाएँगे। इस कानून के मुताबिक ऐसी कोई भी किताब रखना या बाँटना एक संगीन जुर्म था जिसे रूस देश में वर्जित किया गया था। इस जुर्म की सज़ा २५ साल की कैद या मौत होती।
उन्होंने पूछा: “बोलो, तुम्हें इन दोनों में से कौन-सी सज़ा चाहिए?”
मैंने कहा: “कोई-सी भी नहीं। लेकिन अगर यहोवा की मरज़ी है तो मैं कोई भी सज़ा भुगतने के लिए तैयार हूँ। मुझे पूरा भरोसा है कि वह मेरी मदद करेगा।“
मुझे तो यकीन ही नहीं हुआ जब उन्होंने मुझे सात दिन के बाद रिहा कर दिया। इस बात से मुझे एहसास हुआ कि यहोवा का यह वादा वाकई कितना सच है, “मैं तुझे कभी न छोड़ूंगा, और न कभी तुझे त्यागूंगा।”—इब्रानी १३:५.
लेकिन घर लौटने पर मेरी हालत बहुत खराब हो चुकी थी। पिताजी मुझे डॉक्टर के पास ले गए और मैं जल्द ही ठीक हो गया। हालाँकि पिताजी परिवार के बाकी सदस्यों की तरह साक्षी नहीं थे फिर भी उन्होंने हमारी उपासना का कभी विरोध नहीं किया।
हवालात और फिर देशनिकाला
कुछ महीनों बाद रूस की सेना में भरती होने के लिए मेरा नाम लिख दिया गया। मैंने समझाया कि मैं इस काम को नहीं कर सकता क्योंकि यह मेरे विवेक के खिलाफ है। (यशायाह २:४) फिर भी, उन्होंने फरवरी १९५१ में मुझे चार साल की कैद की सज़ा सुनाकर टारनोपल के जेल में भेज दिया। इसके बाद मुझे करीब १२० किलोमीटर दूर इससे बड़े शहर लवीफ भेज दिया गया। और इस जेल में सज़ा काटते वक्त ही मुझे पता चला कि बहुत-से साक्षियों को देशनिकाला देकर साइबेरिया भेज दिया गया।
सन् १९५१ की गर्मियों में, मेरे साथ कुछ लोगों को साइबेरिया से भी काफी दूर पूर्वी इलाके में भेज दिया गया। हमें एक महीने तक सफर करना पड़ा, जिसमें हमने करीब ११,००० किलोमीटर यानी ११ टाइम ज़ोन पार कीं! ट्रेन में बिना रुके दो हफ्ते से भी ज़्यादा समय तक सफर करने के बाद ही हम एक जगह पर रुके जहाँ एक बड़े सार्वजनिक बाथरूम में हमें नहाने की इज़ाज़त दी गई। यह साइबेरिया के नोवोसबिर्स्क शहर में था।
वहीं कैदियों की बड़ी भीड़ में, मैंने एक आदमी को ज़ोर से यह कहते सुना: “यहाँ यहोनादाब परिवार से कौन-कौन है?” उस समय शब्द “यहोनादाब” उन लोगों की पहचान के लिए इस्तेमाल होता था, जिन्हें पृथ्वी पर सर्वदा जीने की आशा थी। (२ राजा १०:१५-१७; भजन ३७:११, २९) तुरंत ही कई कैदियों ने आगे बढ़कर अपनी पहचान करायी कि वे साक्षी हैं। और हम कितनी खुशी से एकदूसरे के गले मिले!
कैद में बाइबल ज्ञान लेते रहना
यहीं नोवोसबिर्स्क में हमने तय किया कि अपनी नियत जगह पर पहुँचने पर हम इस पासवर्ड के ज़रिए एकदूसरे को पहचानेंगे। हम सबको एक ही कैम्प में कैद रखा गया जो व्लाडीवॉस्टाक से कुछ दूर जापान सागर के तटवर्ती इलाके में था। हमने वहाँ बाइबल स्टडी के लिए नियमित सभा का आयोजन किया। उनमें कुछ आध्यात्मिक रूप से मज़बूत, उमरदराज़ भाई भी थे, जिन्हें लंबी कैद की सज़ा सुनाई गई थी और उनकी संगति के कारण मैं भी आध्यात्मिक रूप से मज़बूत हुआ। वे बारी-बारी से सभाओं को चलाते थे। वे बाइबल के वचन और उससे संबंधित वॉचटावर का मुद्दा जो उन्हें याद होता, उनका उपयोग करते हुए सभा चलाते।
सवाल पूछे जाते थे और भाई जवाब देते। हममें से कई सीमेंट की खाली बोरियों से कागज़ के टुकड़े काटकर उस पर अपने नोट्स लिखते थे। हम इन नोट्स को इकट्ठा करके किताब की तरह सिल देते और ज़रूरत के वक्त इनका इस्तेमाल करते। कुछ महीनों बाद, जिन्हें लंबी कैद सुनाई गई थी उन्हें साइबेरिया के उत्तर में, दूसरे कैम्प भेज दिया गया। हम तीन जवान भाइयों को पास के नकोट्का शहर भेज दिया गया। यह शहर जापान से ६५० किलोमीटर दूर है। मैंने वहाँ जेल में दो साल काटे।
हमें कभी-कभी द वॉचटावर की कॉपी मिल जाती थी और यही हमारे लिए कई महीनों तक आध्यात्मिक भोजन थी। कुछ समय के बाद हमें कुछ खत भी मिले। अपने परिवार से (जो अब कैद में थे) जो पहला खत मिला उसे पढ़ते ही मेरी आँखें भर आईं। इस खत के मुताबिक जैसा कि शुरू में बताया गया था, साक्षियों के घरों पर छापा मारकर वहाँ के सब परिवारों को दो घंटे के अंदर-अंदर घर से निकल जाने का हुक्म दिया गया था।
आखिरकार अपने परिवार के साथ
मुझे चार साल की सज़ा सुनाई गई थी, पर दो साल खत्म होने से पहले ही दिसंबर १९५२ में मुझे रिहा कर दिया गया। मैं अपने परिवार के साथ रहने के लिए साइबेरिया के टुलून शहर के करीब एक छोटे गाँव गाडाली गया, जहाँ उन्हें जबरन भेज दिया गया था। अब एक बार फिर अपने परिवार से मिलना कितना अच्छा लग रहा था। मेरा बेटा आइवन करीब तीन साल का हो गया था और बेटी ऐन्ना लगभग दो साल की। लेकिन अभी भी मुझे पूरी आज़ादी नहीं मिली थी। मेरा पासपोर्ट वहाँ के अधिकारियों ने ज़ब्त कर लिया था और मुझ पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। मुझे अपने घर से तीन किलोमीटर से ज़्यादा दूर जाने की इज़ाज़त नहीं थी। लेकिन बाद में टुलून मार्केट तक जाने के लिए घुड़सवारी की छुट दी गई। बड़ी सावधानी बरतकर मैं वहाँ के अपने संगी साक्षियों से मिला।
तब तक हमारी दो बेटियाँ, ऐन्ना और नाड्या, और दो बेटे आइवन और कोल्या हो चुके थे। सन् १९५८ में हमें एक और लड़का हुआ वलोड्या और १९६१ में हमें एक और लड़की हुई गाल्या।
केजीबी (रूस की पहले की स्टॆट सैक्योरिटी ऐजैंसी) अकसर मुझे पकड़कर पूछताछ करती। उनका मकसद केवल कलीसिया के बारे में मुझसे जानकारी उगलवाना ही नहीं था बल्कि वे भाइयों में यह शक भी पैदा करवाना चाहते थे कि मैं उनके साथ मिला हुआ हूँ। इसलिए वे मुझे एक बढ़िया रेस्तराँ में ले जाते और अपने साथ मेरी हँसते, मौज उड़ाते फोटो खिंचवाने की कोशिश करते। लेकिन मैंने उनका इरादा ताड़ लिया और हमेशा अपनी तेवर चढ़ाकर यह दिखाने की कोशिश करता कि मुझे अच्छा नहीं लग रहा। जितनी बार मुझे पकड़ा जाता मैं अपने भाइयों को जाकर ठीक-ठीक बता देता कि मेरे साथ क्या हुआ। इसलिए उन्होंने मेरी वफादारी पर कभी शक नहीं किया।
प्रिज़न कैम्पों में भाइयों के साथ संपर्क
साल-दर-साल सैकड़ों साक्षियों को दूर-दूर के प्रिज़न कैम्पों में कैद रखा जाता था। उस दौरान हमने अपने बंदी भाइयों के साथ बराबर संपर्क बनाए रखा और उन्हें किताबें देते रहे। हम यह कैसे कर पाते थे? जब भाई या बहन प्रिज़न-कैम्प से रिहा होते तो हम उनसे उन तरीकों का पता लगा लेते जिनसे कि कड़ी निगरानी के बावजूद किताबों को चोरी से अंदर तक पहुँचाया जा सके। करीब दस सालों तक हम इन कैम्पों में अपने भाइयों को पत्रिकाएँ और किताबें पहुँचाते रहे जो हमें पोलैंड और दूसरे देशों से मिलती थीं।
हमारी कई बहनें घंटों बैठकर पत्रिकाओं की नकल उतारती थीं। वे बड़ी मेहनत से इतने छोटे-छोटे अक्षरों में लिखतीं कि पूरी पत्रिका को एक छोटे-सी माचिस की डिब्बी में छुपाया जा सके! सन् १९९१ में प्रतिबंध के हटने के बाद जब हमें सुंदर रंगीन पत्रिकाएँ मिलने लगीं तो हमारी एक बहन ने कहा, “अब तो हमें कोई याद नहीं करेगा।” लेकिन यह सच नहीं था। हाँ, एक इंसान भले ही ऐसे वफादार लोगों के कामों को भूल जाए मगर यहोवा कभी नहीं भूल सकता!—इब्रानियों ६:१०.
नया घर और मातम के बाद मातम
सन् १९६७ में, इरकुट्स में मेरे छोटे भाई के घर की तलाशी ली गई। वहाँ कुछ फिल्म के नॆगटीव और बाइबल की किताबें मिलीं। बाद में उसे दोषी करार दिया गया और तीन साल की कैद की सज़ा सुनायी गई। मगर हमारे घर की तलाशी के वक्त कुछ हाथ नहीं लगा। फिर भी, अधिकारियों को पूरा यकीन था कि हमारा हाथ भी इस काम में ज़रूर है इसलिए हमें वह जगह छोड़ देनी पड़ी। हम पश्चिम में, करीब ५,००० किलोमीटर दूर नेवीनमिस्क शहर में चले गए जो कोकसस प्रांत में बसा है। वहाँ हम हर मौके पर लोगों को गवाही देते रहे।
जून १९६९ में, स्कूल की छुट्टियों के पहले ही दिन एक दुःखद हादसा हुआ। हमारा १२ साल का बेटा कोल्या जब हाई-वोल्टेजवाले इलैक्ट्रिक ट्राँन्सफॉर्मर के पास बॉल ढूँढ़ रहा था तभी उसे ज़ोरदार करंट लगा। उसका लगभग पूरा शरीर जल गया। जब वह अस्पताल में था, तो उसने मुझसे पूछा: “क्या हम फिर से एकसाथ टापू पर जा सकेंगे?” (वह उस टापू की बात कर रहा था, जहाँ हम अकसर घूमने जाया करते थे।) मैंने कहा: “क्यों नहीं कोल्या; हम ज़रूर जाएँगे। जब यीशु मसीह तुम्हें दोबारा ज़िंदगी देगा तब हम फिर से वहाँ ज़रूर जाएँगे।” वह पूरे होश में नहीं था फिर भी लेटे-लेटे अपना मनपसंद राज्य गीत गुनगुनाता रहा। उसे वह गीत कलीसिया की ऑर्केस्ट्रा में ट्रम्पेट पर बजाना बहुत अच्छा लगता था। तीन दिन के बाद वह चल बसा, अपने इस पक्के विश्वास के साथ कि वह ज़रूर दोबारा जी उठेगा।
उसके अगले ही साल हमारे २०-वर्षीय बेटे आइवन का नाम सेना में भरती होने के लिए भेज दिया गया। जब उसने वहाँ काम करने से इंकार कर दिया तो उसे गिरफ्तार करके तीन साल के लिए जेल में डाल दिया गया। सन् १९७१ में मेरा भी नाम लिख दिया गया और जब मैंने वहाँ काम करने से इंकार कर दिया तो मुझे दोबारा कैद की धमकी दी गई। मेरा मुकद्दमा महीनों तक चलता रहा। इस बीच मेरी पत्नी को कैंसर हो गया और उसकी देखभाल की ज़रूरत आ पड़ी। इसलिए उन्होंने मेरा केस खारिज कर दिया। मरीया १९७२ में चल बसी। वह ऐसी हमसफर थी जिसने मरते दम तक मेरा साथ दिया और यहोवा की वफादार भी रही।
परिवार विदेश में जा बसा
सन् १९७३ में मैंने नीना से शादी की। उसके पिता ने उसे १९६० में घर से निकाल दिया था क्योंकि वह एक साक्षी बन गई थी। वह जोश के साथ प्रचार करती थी और उसने भी कैम्प के भाई-बहनों के लिए पत्रिका की नकल उतारने में कड़ी मेहनत की थी। मेरे बच्चे उसे बहुत प्यार करने लगे।
नेवीनमिस्क के अधिकारियों को हमारा प्रचार काम पसंद नहीं था इसलिए उन्होंने हमसे वह जगह छोड़ देने के लिए कहा। सो १९७५ में, मैं अपनी पत्नी और बेटियों के साथ जोर्जिया के कोकसस क्षेत्र के दक्षिणी भाग में चला गया। उस वक्त मेरे बेटे आइवन और वलोड्या, जामबुल शहर चले गए जो कज़कस्तान के दक्षिणी बॉर्डर में है।
जोर्जिया में यहोवा के साक्षियों के काम की बस शुरूआत ही हुई थी। हमने काला सागर के तटीय इलाकों गाग्रा, सुकुमी और आस-पास के क्षेत्रों में लोगों को गवाही दी और लगभग एक साल में ही दस नए साक्षियों ने एक पहाड़ी नदी में बपतिस्मा ले लिया। जल्द ही, वहाँ के अधिकारी भी उस जगह को छोड़ देने के लिए हमारे पीछे पड़ गए सो हम पूर्वी जोर्जिया चले गए। वहाँ हमने भेड़-समान लोगों को ढूँढ़ निकालने की जी-तोड़ मेहनत की और यहोवा ने हमें आशीष भी दी।
हम छोटे-छोटे ग्रूप में मिलते थे। हमें भाषा की समस्या थी क्योंकि हम जोर्जियाई भाषा नहीं बोल पाते थे और कुछ जोर्जियाई लोग रूसी भाषा ठीक से बोल नहीं पाते थे। शुरू में तो, हम सिर्फ रूसी लोगों के साथ ही बाइबल स्टडी करते थे। लेकिन, जल्दी ही जोर्जीयाई भाषा में प्रचार का काम और सिखाने का काम तेज़ी से बढ़ा और अब जोर्जिया में राज्य की घोषणा करनेवाले हज़ारों लोग हैं।
सन् १९७९ में केजीबी के दबाव में आकर मेरे मालिक ने मुझसे वह देश छोड़ देने के लिए कहा। उसी दौरान मेरी बेटी नाड्या का कार ऐक्सीडैंट हो गया, जिसमें वह और उसकी बेटी दोनों मारे गए। इसके एक साल पहले नेवीनमिस्क में मेरी माँ चल बसी। वह मरते दम तक यहोवा की वफादार सेवक बनी रही। अब पिताजी और भाई अकेले रह गये थे, सो हमने नेविनमिस्क लौटने का फैसला किया।
धीरज धरने की आशीषें
नेवीनमिस्क में हम चोरी-छिपे बाइबल पर आधारित किताबें छापते रहे। एक बार सन् १९८५ के करीब अधिकारियों ने पूछताछ करने के लिए मुझे बुलाया था। तब मैंने उनसे कहा था कि मैंने एक सपना देखा जिसमें मैं अपनी पत्रिकाएँ छुपा रहा था। वे हँसने लगे। जैसे ही मैं जाने लगा तो एक अधिकारी ने मुझसे कहा: “उम्मीद करता हूँ कि आगे से तुम्हें किताबें छुपाने के बारे में सपने देखने न पड़ें।” फिर कहा: “बहुत जल्दी ही सारी किताबें, सामने तुम्हारे शेल्फ पर रखी होंगी और तुम अपनी पत्नी के साथ, खुलेआम हाथ में बाइबल लिए सभाओं में जाओगे।”
सन् १९८९ में हमें एक भारी सदमा पहुँचा जब हमारी बेटी ऐन्ना की मौत हो गई। उसके दिमाग में ऐन्युरिज़म हो गया था। वह बस ३८ साल की थी। उसी साल अगस्त के महीने में नेवीनमिस्को के साक्षियों ने पोलैंड के वॉरसो शहर में अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में जाने के लिए एक ट्रेन किराए पर ली थी। वहाँ ६०,३६६ साक्षी मौजूद थे जिसमें रूस से भी हज़ारों लोग आए थे। हमें तो ऐसा लग रहा था कि हम सपना देख रहे हैं! फिर दो साल के अंदर ही मार्च २७, १९९१ को यहोवा के साक्षियों के धार्मिक संगठन को कानूनी तौर पर मान्यता मिली! इस संबंध में मुझे और रूस के और चार भाइयों को जो काफी अरसे से कलीसिया के प्राचीन रहे थे, मॉस्को में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
मैं खुश हूँ कि मेरे सारे बच्चे यहोवा की सेवा वफादारी से कर रहे हैं। मैं परमेश्वर की नई दुनिया का इंतज़ार कर रहा हूँ जहाँ मैं ऐन्ना, नाड्या और उसकी बेटी, साथ ही कोल्या को फिर से देख सकूँ। जब कोल्या फिर से ज़िंदा होगा तो मैं अपना वादा निभाऊँगा और उसे उस टापू पर ले जाऊँगा जहाँ कई साल पहले हम मिलकर खूब मज़े उड़ाते थे।
इस बीच इस बड़े देश में यह देखकर कितनी खुशी होती है कि काफी तादाद में लोग सच्चाई अपना रहे हैं! मैंने अपनी ज़िंदगी में इतना कुछ पाया है कि मैं वाकई बहुत खुश हूँ और यहोवा का बहुत धन्यवाद करता हूँ कि उसने मुझे अपना एक साक्षी बनाया। मुझे इस बात का यकीन हो गया है कि भजन ३४:८ की बात पूरी तरह सच है: “परखकर देखो कि यहोवा कैसा भला है! क्या ही धन्य है वह पुरुष जो उसकी शरण लेता है।”
[पेज 25 पर तसवीर]
उस साल जब मैं टुलून में अपने परिवार से फिर से मिला
[पेज 26 पर तसवीर]
ऊपर: साइबेरिया के टुलून शहर में घर के बाहर मेरे पिता और मेरे बच्चे
ऊपर दाहिनी ओर: मेरी बेटी नाड्या और मेरी पोती जो कार ऐक्सीडैंट में मारे गए
दाहिने: सन् १९६८ में परिवार का एक फोटो