विश्व-दर्शन
मातम तो मातम, ऊपर से दिवाला
अखबार टाइम्स ऑफ ज़ाम्बिया रिपोर्ट करता है, “आजकल जीना तो महँगा है ही मगर . . . मरना तो और भी महँगा पड़ रहा है।” कैसे? ज़ाम्बिया की तरह अफ्रीका के कई देशों में, मातम मनाने के रिवाज़ में हिस्सा लेने के लिए जब तक दूर और पास के दोस्त और रिश्तेदार पहुँच नहीं जाते तब तक अंतिम संस्कार को अकसर रोक दिया जाता है। मातम मनाने का रिवाज़ हफ्ते भर या उससे भी अधिक चलता है। अकसर, जो लोग वहाँ आते हैं वे शोकित परिवार से यह उम्मीद करते हैं कि वह उनके खाने-पीने और रहने का भी इंतज़ाम करे। साथ ही, गरीब रिश्तेदारों को घर वापस जाने का किराया भी दे। ऐसी अंत्येष्टियों की वज़ह से कई शोकित परिवार गरीबी के दलदल में और भी धँस जाते हैं। इस अखबार की रिपोर्ट आगे कहती है कि “आजकल की अंत्येष्टियाँ बहुत महँगी होती जा रही हैं क्योंकि मातम मनाने के लिए लोग काफी तादाद में आते हैं और वे किसी भी तरह से मदद नहीं देते।” इसीलिए, अखबार सुझाव देता है कि किसी की मौत होने पर तुरंत उसका अंतिम संस्कार कर देना चाहिए ताकि शोकित परिवार पर ज़्यादा बोझ न पड़े।
ग्रीन टी कैसे कैंसर की कोशिकाओं से लड़ सकती है
अध्ययन से पता लगा है कि जो लोग ग्रीन टी यानी हरी पत्ती से बनी चाय पीते हैं उन्हें कैंसर होने की गुंजाइश कम होती है। साथ ही जानवरों को भी इस चाय से इसी तरह के फायदे होते हैं। साइन्स न्यूस रिपोर्ट करती है कि हाल ही में इंडियाना, अमरीका के पॆरदू यूनिवर्सिटी के शोधकों ने इसका एक कारण ढूँढ़ निकाला है। वे कहते हैं कि ग्रीन टी में एपिगैलोकेटॆचिन गैलेट (EGCg) नाम का एक ऐसा पदार्थ होता है जो एक खास एन्ज़ाइम को बढ़ने से रोक देता है। इस खास एन्ज़ाइम के बिना कैंसर की कोशिकाएँ बढ़ नहीं पातीं। इस एन्ज़ाइम की तुलना में EGCg का आम कोशिकाओं के विभाजन पर कम प्रभाव पड़ता है। लेकिन दुनिया के लगभग ८० प्रतिशत चाय पीनेवाले लोग, ब्लैक टी यानी काली पत्ती से बनी चाय पीना ज़्यादा पसंद करते हैं। ब्लैक टी में EGCg की मात्रा कम होती है। शोधक कहते हैं कि इससे पता चलता है कि क्यों टेस्ट्यूब में पैदा की गयीं कैंसर की कोशिकाओं पर एन्ज़ाइम को बढ़ने से रोकने के लिए ब्लैक टी की तुलना में ग्रीन टी का प्रभाव दस गुना ज़्यादा होता है।
कुत्तों का काटना और बच्चे
यूसी बर्कले वॆलनॆस लेट्टर रिपोर्ट करता है कि अमरीका में कुत्ते अकसर छोटे बच्चों को ही काटते हैं। मगर रिपोर्ट यह भी बताता है कि ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है। इस खतरे को कम करने के लिए, वॆलनॆस लेट्टर कहता है कि माता-पिताओं को कुत्ते के ऐसे पिल्ले चुनने चाहिए जिनका स्वभाव अच्छा हो। उसके बाद, उसे कैस्ट्रेट करना चाहिए यानी उसका अंड-कोष निकाल देना चाहिए। और फिर उसे प्यार से मगर सख्ती से ऐसी ट्रेनिंग देनी चाहिए जिससे वह बात माने और लोगों के साथ, खासकर बच्चों के साथ मिलनसार होकर रहे। वॆलनॆस लेट्टर कहता है: “इस गलतफहमी में मत रहिए कि सबसे अच्छे स्वभाव का कुत्ता नवजात शिशु को देखकर प्यार से दुम हिलाएगा या नन्हे-मुन्ने बच्चों को लिहाज़ दिखाएगा। इसलिए बच्चों पर हमेशा नज़र रखिए।” बच्चों को सिखाया जाना चाहिए कि वे किसी भी कुत्ते के पास अकेले न जाएँ। जब कुत्ते का मालिक आपको कुत्ते से मिलाता है, तब आप पहले कुत्ते से बात कीजिए और उसे अपनी बंद मुट्टी दिखाइए ताकि वह उसको सूंघ सके। अगर कुत्ता गुर्राता है या उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं तो शांत रहिए। पीछे मुड़कर भागने की कोशिश कभी मत कीजिए। क्योंकि, वॆलनॆस लेट्टर कहता है: “भेड़िए की तरह, कुत्ते में भी जन्मजात स्वभाव के कारण, किसी भी भाग रही चीज़ का पीछा करके उस पर हमला बोल देने की आदत होती है।”
अपना संतुलन बनाए रखने के लिए व्यायाम
द न्यू यॉर्क टाइम्स रिपोर्ट करता है कि “६५ से ज़्यादा की उम्र के लगभग एक-तिहाई लोग साल में कम-से-कम एक बार ज़रूर गिर जाते हैं। इससे ज़्यादातर लोगों को ऐसी चोटें आती हैं जो पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो सकती, जैसे कूल्हों का टूट जाना।” जैसे-जैसे हम बूढ़े होते हैं, हमारे लिए अपने शरीर पर काबू रखना मुश्किल होता जाता है, इसलिए हमें शरीर का संतुलन बनाए रखने में बहुत दिक्कत होती है। हाल में यूनिवर्सिटी ऑफ कॉनॆकटिकट स्कूल ऑफ मेडिसिन में इस पर एक अध्ययन किया गया जिससे पता चला कि अगर वृद्ध लोग नियमित रूप से, ‘संतुलन बनाए रखने के व्यायाम’ करें, तो इससे उनको संतुलन बनाए रखने में काफी मदद मिलेगी। ये व्यायाम हैं एक पैर पर खड़े रहना, या ज़मीन से कम ऊँचाई पर रखे गए बीम पर चलना। मगर, सुलीवान एण्ड क्रॉमवॆल कॉरपोरेट फिटनॆस सॆंटर की जीना ऑल्चिन यह सुझाव देती है कि शुरू-शुरू में उन्हें ये व्यायाम कम समय के लिए करने चाहिए जैसे हफ्ते में दो या तीन दिन, दस-दस मिनट के लिए। वह आगे कहती है: “इस प्रकार की ट्रेनिंग बड़ी चुनौती भरी है और अगर आप हद से ज़्यादा व्यायाम कर बैठते हैं तो आप थक कर पस्त हो सकते हैं और आपको कुछ तकलीफें भी हो सकती हैं।”
शिक्षा और शिशुओं की ज़िंदगी
“अगर हर वर्ष सिर्फ २८० अरब रुपए खर्च किए जाएँ तो सन् २०१० तक दुनिया के हर इंसान को बुनियादी [स्कूली] शिक्षा मिल जाएगी,” द स्टेट ऑफ द वर्ल्डस् चिल्ड्रन १९९९—एड्जुकेशन कहती है। यह युनाइटॆड नेशन्स चिल्ड्रन्स फंड द्वारा दी गयी एक रिपोर्ट है। यह आगे कहती है कि “२८० अरब रुपए तो दरअसल बहुत कम हैं क्योंकि हर साल यूरोपीय लोग इससे ज़्यादा रुपए अपनी आइसक्रीम पर और अमरीकी लोग अपने कॉस्मेटिक्स पर खर्च कर देते हैं।” द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, भारत में वयस्क लोगों में सिर्फ ६६ प्रतिशत पुरुष और ३८ प्रतिशत स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी हैं। जिस इलाके में ज़्यादातर स्त्रियों को बुनियादी स्कूली शिक्षा मिल जाती वहाँ शिशुओं की मौत कम होती है। इस तरह की बुनियादी स्कूली शिक्षा लेने के फायदे हम दक्षिण भारत के केरल राज्य में देख सकते हैं जहाँ ९० प्रतिशत लोग पढ़े-लिखे हैं और वहाँ “शिशुओं की मौत की दर दुनिया के विकासशील देशों में से सबसे कम है।”
सबसे ज़्यादा फैलनेवाली दस जानलेवा बीमारियाँ
फैलनेवाली बीमारियों की वज़ह से दुनिया भर में हज़ारों-लाखों लोग हर साल मरते हैं। नैचूरल हिस्ट्री पत्रिका के मुताबिक, निम्नलिखित संक्रामक बीमारियाँ १९९७ में सबसे ज़्यादा जानलेवा साबित हुईं। सबसे पहले नंबर पर एक्यूट लोवर रेस्पीरेट्री इंफैक्शन या साँस की बीमारी जैसे न्यूमोनिया, जिससे ३७ लाख लोग मर गए। दूसरे नंबर पर तपेदिक था जिससे कुछ २९ लाख लोग मरे। कॉलेरा और दस्त संबंधी दूसरी बीमारियाँ तीसरे नंबर पर थी और इससे कुछ २५ लाख लोग मारे गए। एड्स ने २३ लाख लोगों की जानें लीं। १५ लाख से २७ लाख लोग मलेरिया के शिकार हुए। मीसल्स ९,६०,००० लोगों को निगल गयी। हेपाटाइटिस बी ने ६,०५,००० लोगों की जानें लीं। काली खाँसी से ४,१०,००० लोग मारे गए। २,७५,००० लोग टॆटनस की वज़ह से मारे गए। और डेंगू/डेंगू हॆमोर्रहेजिक बुखार से कुछ १,४०,००० लोग मारे गए। इंसान की हर कोशिश के बावजूद भी ज़्यादातर देशों में अब भी पुरानी संक्रामक बीमारियों का खतरा बना हुआ है।
मन बहलाव के लिए पढ़ना
कई लोगों के घर पर किताबों के ढेर लगे रहते हैं मगर वे किताबें पढ़ने के इतने शौकीन नहीं होते। मिसाल के तौर पर दुकानदार क्रिस माथेउस को लीजिए जो कहता है: “मुझे अपनी चारों तरफ किताबों का महल खड़ा करना बहुत पसंद है, मगर मैं किताब पढ़ने का शौकीन नहीं हूँ।” इस इच्छा को पूरा करने के लिए माथेउस ने एक आसान और सस्ता तरीका निकाला है। उसने अपने एक साथी के साथ एक दुकान खोली जो पूरे जर्मनी में अपनी किस्म की पहली दुकान है। इस दुकान में दिखावटी किताबें बिकती हैं, अखबार वॆसॆर-कुरिअर रिपोर्ट करता है। उन्होंने कला, तत्त्वज्ञान और विज्ञान के विषय पर लिखी गयी मशहूर किताबों के “शीर्षक” डालकर कुछ २,८०० दिखावटी किताबें बनायीं। ये दिखावटी किताबें हर डिज़ाइन की होती हैं। ये किताबें जानी-मानी किताबों के कवर की हु-ब-हू नकल होती हैं। और ये कवर मामूली कार्डबोर्ड से बने होते हैं या महँगी सागवान लकड़ी से। कला की इन दिखावटी खूबसूरत किताबों की कीमत बस १० से १५ डॉलर होती हैं जबकि आम तौर पर इन किताबों की कीमत सातवें आसमान को छू जाती हैं। माथेउस कहता है: “इन दिखावटी किताबों की कीमत उनकी मोटाई से आँकी जाती है उनकी विषयवस्तु से नहीं।”
सेहत के लिए अच्छे वीडियो गेम्स्
“वीडियो गेम्स्” नाम सुनते ही कई लोगों के मन में हिंसा से भरे खेलों की ही तस्वीर उभरती है। मगर, शोधकों ने पाया है कि “सही खेलों से डायबिटीज़ और दमे के शिकार बच्चे अपनी बीमारी को काबू में रख सकते हैं,” टॆक्नॉलॉजी रिव्यू कहती है। स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी मेडिकल सॆंटर ने डायबिटीज़ से ग्रस्त, ८ से १६ साल की उम्र के ६० बच्चों पर अध्ययन किया। लगभग ३० बच्चों ने साधारण वीडियो गेम खेला। बाकी के ३० बच्चों ने ‘पैकी और मॉर्लॆन’ नाम का खेल खेला। इस खेल में कार्टून के बने दो चलने-फिरनेवाले हाथी हैं। इस खेल से बच्चों को सही भोजन चुनने, अपने लहू में ग्लूकोस की मात्रा की जाँच करने और इनसुलिन का सही तरह से इस्तेमाल करने में मदद मिली। छः महीनों के दौरान जिन बच्चों ने हाथीवाला खेल खेला, उन्हें साधारण खेल खेलनेवाले बच्चों की तुलना में “७७ प्रतिशत कम बार डॉक्टर के पास या एमरजेंसी रूम में ले जाने की ज़रूरत पड़ी,” टॆक्नॉलॉजी रिव्यू कहती है। इसी तरह के कुछ और वीडियो गेम्स् तैयार किए गए हैं जिनसे बच्चों को दमे को काबू में रखने और सिग्रॆट से दूर रहने में मदद मिलती है।
एड्स ने अब तेज़ी पकड़ ली है
अफ्रीका के दक्षिणी-सहारा के इलाके में, पिछले दस सालों के दौरान, लोगों का जीवनकाल कम-से-कम छः साल घट गया है और लगता है कि ये और घट जाएगा। ऐसा परिवर्तन क्यों? क्योंकि यहाँ के देशों में, “एड्स ने अब तेज़ी पकड़ ली है,” दी यूनॆस्को कुरीएर रिपोर्ट करती है। फिलहाल, इस इलाके की आबादी के १० प्रतिशत लोग HIV वाइरस से ग्रस्त हैं जिससे एड्स होता है। जिन देशों में हालात बहुत ही खराब हैं, उन देशों के नाम हैं ज़ाम्बिया, ज़िम्बाबवे, दक्षिण अफ्रीका, नमीबिया, बोत्सवाना, मलावी और मोज़म्बीक। इसके अलावा, द न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र कहता है कि “अफ्रीका में हर रोज़ एड्स की वज़ह से कुछ ५,५०० मौत होती हैं।”