बाइबल का दृष्टिकोण
पति-पत्नी का एक ही धर्म होना—क्यों ज़रूरी है
रात हो गई है और सारा परिवार खाना खाने बैठता है। पिता सबके लिए प्रार्थना करता है, मगर उसी समय माँ किसी और ईश्वर को मन-ही-मन प्रार्थना करती है। दूसरा एक है जिसमें पत्नी चर्च जाती है तो पति मंदिर। कुछ ऐसे परिवार भी हैं जिनमें पिता बच्चों को सांताक्लॉस के बारे में सिखाता है तो माँ दिवाली के बारे में बताती है।
हाल में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि ऐसी वाकयात बहुत आम हो चुके हैं क्योंकि आजकल बहुत-से लोग अपने से अलग धर्म के व्यक्ति से शादी करते हैं। एक सर्वे के मुताबिक अमरीका में २१ प्रतिशत केथोलिक अब अपने धर्म से बाहर के लोगों से शादी कर रहे हैं; उसी तरह ३० प्रतिशत मॉर्मन, ४० प्रतिशत मुसलमान और ५० प्रतिशत से भी ज़्यादा यहूदी, अपने धर्म से बाहर शादी कर रहे हैं। सदियों से धर्म को लेकर जो हिंसा और झगड़े हुए हैं उसे देखते हुए कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह की शादियाँ साबित करती हैं कि अब लोगों में दूसरे धर्मों के लिए सहनशीलता बढ़ गयी है। एक अखबार ने लिखा कि “जब दो अलग-अलग धर्म के लोगों की शादी होती है तो जश्न मनाना चाहिए।” क्या बाइबल भी ऐसा ही कहती है?
इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि बाइबल में जाति-भेद के लिए कोई जगह नहीं है। परमेश्वर का वचन सब जाति के लोगों को बराबर दर्जा देता है। प्रेरित पतरस ने इस बारे में बिलकुल साफ-साफ कहा था, “अब मुझे निश्चय हुआ, कि परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।” (प्रेरितों १०:३४, ३५) मगर, इसके साथ-साथ बाइबल यह भी कहती है कि यहोवा के सच्चे उपासकों को “केवल प्रभु में” शादी करनी चाहिए। (१ कुरिन्थियों ७:३९) ऐसा क्यों?
शादी का मकसद
परमेश्वर चाहता था की शादी का बंधन बाकी सब रिश्तों से ज़्यादा मज़बूत हो। (उत्पत्ति २:२४) परमेश्वर ने जब शादी की शुरूआत की तो सिर्फ इसलिए नहीं की कि एक अकेले व्यक्ति को एक साथी मिल जाए। इसके बजाय, परमेश्वर चाहता था कि पति-पत्नी दोनों कंधे-से-कंधा मिलाकर उसकी इच्छा पूरी करें। परमेश्वर ने उन्हें बच्चों को पालने-पोसने और पृथ्वी की देखभाल करने का काम दिया। (उत्पत्ति १:२८) और जब यह जोड़ा मिलकर परमेश्वर की इच्छा पूरी करता, तो वे न सिर्फ साथ-साथ रहते बल्कि वे एक दूसरे के बहुत करीब आते और सदा तक एक-दूसरे के बने रहते।—मलाकी २:१४ से तुलना कीजिए।
यीशु ऐसे ही करीबी रिश्ते का ज़िक्र कर रहा था जब उसने ये जाने-माने शब्द कहे: “वे अब दो नहीं, परन्तु एक तन हैं: इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, [जूए में जोता है, NW] उसे मनुष्य अलग न करे।” (मत्ती १९:६) जब यीशु ने शादी के बंधन की बात की तो उसके मन में एक ही जूए में जुते दो जानवरों की तसवीर थी जो साथ मिलकर कोई बोझ ढोते हैं। ज़रा सोचिए, इन जानवरों को कितनी मुश्किल होगी अगर वे अलग-अलग दिशा में जाने की कोशिश करेंगे! ऐसा ही उन लोगों के साथ होता है जो प्रभु में शादी नहीं करते, क्योंकि वे खुद तो बाइबल के उसूलों के मुताबिक जीने की पूरी कोशिश करते हैं मगर उनका साथी इसका विरोध करता है। इसलिए बाइबल बिलकुल सही कहती है: “अविश्वासियों के साथ असमान जूए में न जुतो।”—२ कुरिन्थियों ६:१४.
एक बेहतर शादी
अगर पति-पत्नी दोनों ही सच्चे परमेश्वर की उपासना करते हैं तो इससे उनकी शादी का बंधन और भी मज़बूत होगा। एक लेखक ने कहा: “परिवार तब खासकर बहुत ही खुशहाल और मज़बूत होता है जब सब मिलकर उपासना करते हैं।” सभोपदेशक ४:९, १० कहता है: “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है। क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा।”
सो जब मसीही पति-पत्नी परमेश्वर की उपासना को पहला स्थान देते हैं तो इससे वे न सिर्फ शारीरिक रूप से बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी एक हो जाते हैं। जब वे साथ-साथ प्रार्थना करते हैं, परमेश्वर के वचन का मिलकर अध्ययन करते हैं, सभाओं में दूसरे भाई-बहनों के साथ इकट्ठा होते हैं और दूसरों को अपने विश्वास के बारे में बताते हैं तो वे ऐसा मज़बूत आध्यात्मिक बंधन बाँध लेते हैं जिससे उनका शादी का बंधन भी और मज़बूत हो जाता है। एक मसीही स्त्री ने कहा: “सच्चे परमेश्वर की उपासना ही मेरी ज़िंदगी है। मैं किसी ऐसे आदमी से शादी करने की सोच भी नहीं सकती जो मेरी ज़िंदगी के आधार को ही मानने से इनकार कर देता है।”—मरकुस ३:३५ से तुलना कीजिए।
“प्रभु में” विवाह करनेवाले यीशु के नक्शेकदम पर चलते हैं। जैसे यीशु कलीसिया के साथ प्यार से पेश आया, उसी तरह मसीही पति को अपनी पत्नी के साथ पेश आना चाहिए। और मसीही पत्नी को भी अपने पति की इज़्ज़त करनी चाहिए। (१ कुरिन्थियों ११:३; इफिसियों ५:२५, २९, ३३) मसीही पति-पत्नी सिर्फ एक-दूसरे को खुश करने के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर को खुश करने के लिए इस तरह व्यवहार करते हैं क्योंकि परमेश्वर पति-पत्नी दोनों से उनके व्यवहार का लेखा लेगा।—मलाकी २:१३, १४; १ पतरस ३:१-७.
जब पति-पत्नी दोनों का विश्वास एक ही होता है, तो आपस की समस्याओं को ठंडे दिमाग से सुलझाना भी बहुत आसान होता है। बाइबल मसीहियों को सलाह देती है कि “हर एक अपनी ही हित की नहीं, बरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे।” (फिलिप्पियों २:४) इसलिए चाहे पति-पत्नी के विचार अलग-अलग ही क्यों न हों, अगर उनका धार्मिक विश्वास एक है तो वे किसी भी झगड़े को खत्म करने के लिए बाइबल की ही मदद लेते हैं। (२ तीमुथियुस ३:१६, १७) इस तरह वे बाइबल की यह सलाह मानते हैं जो कहती है कि मसीहियों को “एक ही मन” का होना चाहिए।—१ कुरिन्थियों १:१०; २ कुरिन्थियों १३:११; फिलिप्पियों ४:२.
प्यार और एक-से विचार
यह सच है कि एक ही धार्मिक विश्वास होने से दो व्यक्तियों का रिश्ता अपने आप ही मज़बूत नहीं हो जाता। इसके लिए आपसी प्यार भी ज़रूरी है। (श्रेष्ठगीत ३:५; ४:७, ९; ५:१०) लेकिन शादी के लिए जो बात निहायत ज़रूरी है, वह है एक-सा सोच-विचार। क्या आप मेरे लिए बने हैं? किताब के मुताबिक, “ऐसे पति-पत्नी, जिनके सोच-विचार और पसंद-नापसंद काफी मिलते हैं, वे ज़्यादा खुश रहते हैं, उनमें ज़्यादा तालमेल होता है और उनका रिश्ता ज़्यादा मज़बूत होता है।”
अफसोस की बात यह है कि जो एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं वे कई मामलों के बारे में अपने बिलकुल अलग-अलग विचारों पर शादी से पहले शायद बात ही न करें। यह ऐसा है मानो आप एक ऐसा मकान खरीद लेते हैं जो देखने में बहुत ही सुंदर है। मगर जब आप मकान में रहने लगे तभी आपको पता चला कि उसकी नींव बिलकुल भी मज़बूत नहीं। ऐसी कमज़ोर नींव का मकान चाहे बाहर से कितना ही सुंदर क्यों न हो, उसकी सुंदरता आपके कोई काम की नहीं। उसी तरह, हो सकता है कि एक व्यक्ति अपने धर्म से बाहर के किसी व्यक्ति को पसंद करने लगे और उसे लगे कि दोनों की खूब निभेगी, मगर शादी के बाद ही शायद पता चले कि इस रिश्ते में बहुत बड़ी-बड़ी कमियाँ हैं।
गौर कीजिए कि अलग-अलग धर्म माननेवाले व्यक्तियों की शादी के बाद कौन-से सवालों पर मुश्किलें पैदा हो सकती हैं: परिवार उपासना के लिए कहाँ जाएगा? बच्चों को कौन-से धर्म की शिक्षा दी जाएगी? किस धर्म के लिए चंदा दिया जाएगा? क्या एक साथी ऐसे धार्मिक रिवाज़ मानने या ऐसे त्योहार मनाने पर ज़ोर देगा जिसे दूसरा साथी अपने विश्वास के खिलाफ मानता है? (यशायाह ५२:११) सभी शादियों में पति-पत्नी को कुछ हद तक समझौता तो करना ही पड़ता है। मगर परमेश्वर यह नहीं चाहता कि हम अपने परिवार को खुश रखने के लिए बाइबल के उसूलों का समझौता करें। किसी भी सूरत में परमेश्वर हमसे यह नहीं चाहता।—व्यवस्थाविवरण ७:३, ४; नहेमायाह १३:२६, २७ से तुलना कीजिए।
शादीशुदा ज़िंदगी में शांति बनाए रखने के लिए कुछ पति-पत्नी अपने साथी के धर्म में दखल दिए बिना, अपने-अपने धर्म को मानते हैं। मगर, अफसोस कि इस तरह अलग-अलग अपने-अपने धर्म को मानने से पति-पत्नी के बीच आध्यात्मिक रूप से दरार पड़ जाती है। एक मसीही बहन ने किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी की। वह कहती है: “हमारी शादी को ४० साल हो गए थे मगर मेरे पति मुझे सही मायनों में नहीं जानते थे।” दूसरी ओर, जब पति-पत्नी मिलकर “आत्मा और सच्चाई से” परमेश्वर की उपासना करते हैं तब उनकी शादीशुदा ज़िंदगी में परमेश्वर का स्थान सबसे पहला होता है। बाइबल में लिखी एक कविता में भी कहती है, “जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती।”—यूहन्ना ४:२३, २४; सभोपदेशक ४:१२.
बच्चों के बारे में क्या?
जो लोग अलग धर्म के किसी व्यक्ति से शादी करने की सोचते हैं, उनका कहना है कि वे बच्चों को दोनों धर्मों के बारे में सिखाएँगे और किसे मानना है किसे नहीं यह चुनने का फैसला उन पर छोड़ देंगे। यह सच है कि माता-पिता दोनों का यह कानूनन और नैतिक हक है कि वे अपने बच्चे को अपने-अपने धर्म की शिक्षा दें। और आगे जाकर बच्चा अपनी मर्ज़ी के मुताबिक धर्म का चुनाव करता भी है।a
बाइबल बच्चों को आदेश देती है कि “प्रभु में” अपने माता-पिता की आज्ञा मानें। (इफिसियों ६:१) नीतिवचन ६:२० इस तरह कहता है, “हे मेरे पुत्र, मेरी आज्ञा को मान, और अपनी माता की शिक्षा को न तज।” जिन बच्चों के माता-पिता के धार्मिक विश्वास एक हैं उन्हें अलग-अलग धर्म की शिक्षाएँ सीखनी नहीं पड़तीं। इस तरह वे अपने माता-पिता के साथ ‘एक ही प्रभु, एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मे’ को मानते हैं।—इफिसियों ४:५; व्यवस्थाविवरण ११:१९.
वाकई “प्रभु में”
अगर एक-से सोच-विचार और पसंद-नापसंद होने से शादीशुदा ज़िंदगी खुशहाल हो सकती है तो क्या ऐसे किसी भी व्यक्ति से शादी करना अकलमंदी होगी जो मसीही होने का दावा करता है? बाइबल इसका जवाब देती है: “जो कोई यह कहता है, कि मैं [यीशु] में बना रहता हूं, उसे चाहिए, कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था।” (१ यूहन्ना २:६) इस तरह जो मसीही शादी की सोच रहा है उसे ऐसे भाई या बहन से शादी करनी चाहिए जो सही मायनों में यीशु के नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करता है। ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर को समर्पण करके बपतिस्मा लेना चाहिए। वह यीशु की तरह ही प्रेम करनेवाला और उसी की तरह जोश से परमेश्वर के राज्य का प्रचार करनेवाला होना चाहिए। जैसे यीशु की ज़िंदगी में परमेश्वर की इच्छा पूरी करना ही पहले स्थान पर आता था उसी तरह उसकी ज़िंदगी में भी इसे पहले स्थान पर आना चाहिए।—मत्ती ६:३३; १६:२४; लूका ८:१; यूहन्ना १८:३७.
जो शादी करना चाहते हैं जब वे सच्चे परमेश्वर के उपासकों के परिवार में से ही अपने लिए सही जीवन-साथी मिलने का इंतज़ार करते हैं तो वे यह दिखाते हैं कि उनकी ज़िंदगी में परमेश्वर की इच्छा पूरी करना पहले स्थान पर आता है। ऐसा करते रहने से, उन्हें भविष्य में शादीशुदा ज़िंदगी में ज़्यादा संतोष मिलेगा और वह खुशियों से भरी होगी।—सभोपदेशक ७:८; यशायाह ४८:१७, १८.
[फुटनोट]
a बाइबल का दृष्टिकोण: अप्रैल ८, १९९७ के सजग होइए! के पेज १४-१५ पर दिया गया लेख, “क्या बच्चों को अपना धर्म ख़ुद चुनना चाहिए?” देखिए। इसके अलावा, वॉच टावर बाइबल ऐन्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित यहोवा के साक्षी और शिक्षा (अंग्रेज़ी) ब्रोशर के पेज २४-५ भी देखिए।
[पेज 19 पर बक्स]
अलग-अलग धर्म की वज़ह से विभाजित परिवारों के लिए मदद
कई शादीशुदा जोड़े, आज अलग-अलग धर्म मानते हैं जिसकी कई वज़हें हैं। कुछ लोगों ने शायद खुद ही दूसरा धर्म माननेवाला जीवन-साथी चुना हो। मगर कई ऐसे पति-पत्नी हैं जो पहले एक ही धर्म को मानते थे, मगर बाद में उनके साथी ने एक अलग धर्म मानना शुरू किया। और भी कई हालात हैं जिनकी वज़ह से परिवार में अलग-अलग धर्म माने जाते हैं। कारण चाहे जो भी हो, शादी के समय दिए गए वचन तब भी निभाने जाने चाहिए जब पति-पत्नी एक-दूसरे के धर्म को मानना नहीं चाहते। बाइबल के मुताबिक, शादी जीवन भर का बंधन है और बहुत ही पवित्र रिश्ता है, चाहे पति-पत्नी अलग-अलग धर्म को ही क्यों न मानते हों। (१ पतरस ३:१, २) प्रेरित पौलुस ने लिखा: “यदि किसी भाई की पत्नी विश्वास न रखती हो, और उसके साथ रहने से प्रसन्न हो, तो वह उसे न छोड़े।” (१ कुरिन्थियों ७:१२) अगर बाइबल के उसूल लागू किए जाएँ तो कोई भी शादीशुदा जोड़ा इस प्यार और आदर के बंधन में बेहद सुख पा सकता है।—इफिसियों ५:२८-३३; कुलुस्सियों ३:१२-१४; तीतुस २:४, ५; १ पतरस ३:७-९.