विश्व-दर्शन
कान बेचारा—शोर का मारा
भारत की आबादी लगभग एक अरब होने जा रही है। भारत के चंडीगड़ शहर के पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टिट्यूट के प्रॉफॆसर, डॉ. एस.बी.एस. मान के मुताबिक, १० व्यक्तियों में से एक यानी लगभग दस करोड़ लोगों की सुनने की शक्ति में कोई न कोई दोष है। भारत के एसोसिएशन ऑफ ओटोलारिंगोलॉजिस्ट के वार्षिक कॉन्फ्रॆस की शुरूआत में, डॉ. मान ने इस बड़ी समस्या का दोष, ध्वनि प्रदूषण पर लगाया, जो हॉर्न, इंजनों, मशीनों और हवाई जहाज़ों की वज़ह से होता है। उसने कहा कि इसका काफी दोष उन पटाखों पर भी लगाया जा सकता है जो यहाँ उत्सवों के समय पर बड़े शौक से फोड़े जाते हैं। मसलन, दशहरे के उत्सव पर, देश भर में हिंदू पौराणिक कथाओं के पात्रों के पुतले बनाए जाते हैं जो समाज की दुष्ट शक्तियों को सूचित करती हैं। इन मूर्तियों में सैकड़ों पटाखें भरे जाते हैं और फिर इन्हें आग लगा दी जाती हैं। इन पटाखों के फूटने पर इतना शोर-शराबा होता है कि लगता है कान के परदे ही फट जाएँगे। इसके बाद, पाँच दिन का दीवाली त्योहार होता है जिसके दौरान भी हज़ारों-लाखों पटाखें फोड़े जाते हैं।
दिलचस्पी लेनेवाले पिताओं के बेटे ज़्यादा खुश
लंदन का द टाइम्स अखबार रिपोर्ट करता है, जो पिता अपने बेटों की चिंताओं, स्कूल के काम, और आम ज़िंदगी में दिलचस्पी लेते हैं, उनके बेटे “बड़े होकर बड़े ही आत्म-विश्वासी और आशावादी युवक बनते हैं, साथ ही उन्हें हर काम में दिलचस्पी होती है और वे कोई भी काम करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और वे दूसरों के बारे में चिंता भी किया करते हैं।” टुमॉरोस मैन प्रॉजॆक्ट ने १३ से १९ साल के १,५०० लड़कों पर एक अध्ययन किया। इससे पता चला कि जिन लड़कों को लगता था कि उनके पिता उनके साथ समय बिताते थे और उनकी तरक्की में दिलचस्पी लेते थे, उनमें से ९० प्रतिशत से ज़्यादा लड़कों में “काफी आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास पाया गया, और वे खुश थे।” इसके विपरीत, जिन लड़कों को लगता था कि उनके पिता उनमें कभी-कभार या बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं लेते थे, उनमें से ७२ प्रतिशत लड़कों में “आत्म-सम्मान और विश्वास की बहुत ही कमी पायी गयी। वे अकसर निराश हो जाते थे, स्कूल जाना पसंद नहीं करते थे, या पुलिस के झमेले में पड़ जाते थे।” टुमॉरोस मैन प्रॉजॆक्ट की एड्रीएन केट्ज़ कहती है कि यह ज़रूरी नहीं है कि बाप-बेटे एक साथ बहुत ज़्यादा समय बिताएँ। वह कहती है: “सबसे ज़रूरी है कि बच्चे को यह लगना चाहिए कि उससे प्यार किया जाता है, उसकी ज़रूरत है और उसकी बातें सुनी जाती है।”
चादर ओढ़कर पढ़ना
जर्मन हैल्थ न्यूसलैट्टर ऑपोटेकॆन उमशाउ कहता है कि चादर ओढ़कर, कम रोशनी में किताबें पढ़ना बच्चों की आँखों के लिए ठीक नहीं होता है। टूबिंगन यूनिवर्सिटी में मुर्गियों पर एक अध्ययन चलाया गया था जिससे पता चलता है कि हम जो भी देख रहे हों अगर वो थोड़ा-सा भी विकृत हो और अगर रोशनी भी कम हो, तो आँखों पर इसका बुरा असर पड़ता है। जब बिस्तर पर बच्चा चादर ओढ़कर पढ़ता है, तो ये दोनों ही बातें शामिल होती हैं: पहला, विकृति क्योंकि जब किताब बहुत ही पास होती है तो आँख ठीक से फोकस नहीं कर पाती, और दूसरा है, बहुत ही कम रोशनी। न्यूसलैट्टर कहता है, “पीढ़ियों से किशोरों ने अपनी मनपसंद कहानियों को टॉर्च के सहारे, चादर के नीचे पढ़ने का आनंद उठाया है और ऐसा करने के द्वारा उन्होंने न सिर्फ अपनी स्कूली शिक्षा के लिए बल्कि निकट दृष्टिदोष के लिए भी नींव डाल दी।”
स्टीम लोकोमोटिव की वापसी?
रेलगाड़ियों के कई दीवाने अफसोस और दुःख के साथ पुराने ज़माने की स्टीम से चलनेवाली रेल-गाड़ियों के बारे में सोचते हैं। ये रेल-गाड़ियाँ बहुत कारगर नहीं थीं और इनसे काफी प्रदूषण भी होता था। हालाँकि इन दोनों वज़हों ने इन रेलों को लुप्त होने की दहलीज़ पर लाकर खड़ा कर दिया था, मगर स्विस लोकोमोटिव फैक्ट्री का इंजीनियर, रोझे वालॆर मानता है कि स्टीम या भाप से चलनेवाली गाड़ियों का भविष्य उज्जवल है। बॆरलीनर ज़ाइतुंग रिपोर्ट करता है कि वालॆर की कंपनी की, स्टीम से चलनेवाली आठ कॉग-रेल इंजन आल्प्स पहाड़ों में चल रही हैं, और वालॆर ने हाल ही में एक पुरानी स्टीम इंजन को आम पटरियों पर चलने के लिए फिर से तैयार किया। फिर से बनी यह रेल-गाड़ी का ईंधन कोयले के बजाए हलका पेट्रोलियम है जिससे प्रदूषण कम होता है। घर्षण को कम करने के लिए इसमें रोलर बैरिंग लगाए गए हैं और इसमें अच्छी तरह से इंसूलेशन किया गया है ताकि ऊर्जा की खपत कम हो। वालॆर कहता है, “इसे चलाने में ज़्यादा खर्च नहीं होता और डीज़ल से चलनेवाली किसी भी रेल-गाड़ी की तुलना में, [इससे] वातावरण को भी ज़्यादा नुकसान नहीं होता।”
आइए मुस्कुराएँ!
जापान में कंपनियाँ लोगों को अच्छी सेवा देती हैं और इस बात पर उन्हें गर्व है। मगर अब वहाँ की बहुत सारी कंपनियाँ “अपने-अपने कर्मचारियों को ऐसे स्कूलों में भेज रही हैं जहाँ और ज़्यादा दोस्ताना बनना सिखाया जाता है,” एसाही ईवनिंग न्यूस रिपोर्ट करता है। “कंपनियाँ यह मानती हैं कि जब धंधा मंदा होता है, तो उस समय बिक्री बढ़ाने के लिए मुस्कुराना, हँसना और मज़ाकिया स्वभाव बहुत ही सस्ता और कारगर तरीका है।” इस तरह के एक स्कूल में, विद्यार्थी आइने के सामने बैठकर मुस्कुराने का अभ्यास करते हैं और “चेहरे पर इस तरह की मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हैं जो सबसे हसीन लगे।” उनसे कहा जाता है कि वे उस व्यक्ति के बारे में सोचें जिसे वे सबसे ज़्यादा प्यार करते हों। शिक्षक इसी कोशिश में रहते हैं कि विद्यार्थी तनाव-मुक्त हो जाएँ और इस तरह वे ज़बरदस्ती नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से मुस्कुराएँ। ऐसे स्कूलों के अलावा, कुछ कंपनियाँ अपने कर्मचारियों को फास्ट फूड रेस्तराँओं में कुछ समय के लिए काम करने के लिए भेजती हैं क्योंकि वहाँ के कर्मचारियों को हर समय मुस्कुराते रहने के लिए ट्रेन किया जाता है। क्या मुस्कुराने से धंधा बढ़ता है? अखबार के मुताबिक, एक कॉस्मैटिक कंपनी ने अपने कुछ ३,००० कर्मचारियों को मुस्कुराने की कला सीखने के लिए कोर्स करवाया और उस साल उसकी बिक्री में २० प्रतिशत बढ़ौतरी हुई। एक कर्मचारी ने बताया कि इस कोर्स की वज़ह से उनकी ऑफिस का माहौल भी काफी सुधर गया है। उसने कहा, “अगर आपके चारों तरफ ऐसे बॉस हों जो हर समय मुस्कुराते रहते हों तो माहौल कितना खुशनुमा हो जाता है।”
समय पर किया गया काम रोने से बचाता है
टाइम्स ऑफ ज़ाम्बिया अखबार ने रिपोर्ट की कि “अगर शुरू में ही कैंसर का पता लगा लिया जाए तो उसका सही तरह से इलाज किया जा सकता है, साथ ही इससे भावात्मक रूप से कम तनाव सहना पड़ता है।” मगर अफसोस की बात है कि अफ्रीका के कुछ देशों में अनगिनत लोग कैंसरों की वज़ह से मरते हैं। अगर इन लोगों ने अपनी डॉक्टरी जाँच शुरू में ही करवा ली होती, तो इन्हें अपनी बीमारी का पहले ही पता लग गया होता और वे समय पर अपना इलाज करवा सकते थे। स्त्रियों में इस बीमारी का सबसे आम रूप है गर्भाशय का कैंसर और ब्रैस्ट-कैंसर। पुरुषों में, प्रॉस्टेट ग्रंथि और आँत का कैंसर बहुत आम है। इसी वज़ह से ज़ाम्बिया के सॆंट्रल बोर्ड ऑफ हैल्थ लोगों को सलाह दे रहा है कि वे अस्पतालों में जाकर कैंसर की जाँच करवाएँ। टाइम्स कहता है कि अगर शुरू में ही कैंसर का पता लगा लिया जाता है तो “इससे कम दर्द सहना पड़ता है और मरीज़ और उसके परिवार के लिए भी इससे होनेवाली मानसिक तनाव कम हो जाता है। साथ ही, इसकी वज़ह से डॉक्टर भी सही समय पर इलाज कर पाते हैं।”
यूरोप में जन्म दर घट रहा है
सूदॉइश ज़ाइतुंग रिपोर्ट करता है कि “यूरोपियन यूनियन (EU) में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, पिछले साल ही सबसे कम जन्म दर दर्ज़ किया गया है।” EU की स्टैटिस्टिकल एजेन्सी, यूरोस्टैट ने यह बताया कि करीब १९६५ में हर साल लगभग साठ लाख बच्चे पैदा होते थे, जबकि १९९८ में EU में लगभग चालीस लाख बच्चे पैदा हुए। औसतन देखा जाए तो, EU के देशों में हर साल, हर १,००० लोगों में १०.७ बच्चे पैदा होते हैं। किस राष्ट्र का सबसे कम जन्म दर है? इटली का है, हालाँकि वहाँ रोमन कैथोलिक चर्च, बच्चे कम पैदा करने के खिलाफ ली गयी अपनी राय पर टिका हुआ है। इटली में हर १,००० लोगों में सिर्फ ९.२ बच्चे पैदा होते हैं। आयरलॆंड में सबसे ज़्यादा बच्चे पैदा होते हैं। वहाँ हर १,००० लोगों में १४.१ बच्चे पैदा होते हैं।
दिल का भी ख्याल रखें
द नैशनल पोस्ट अखबार कहता है, “अपनी सेहत का ख्याल रखना तो दूर की बात, कनाडा की स्त्रियाँ तो अपनी सेहत, खासकर अपने हृदयों के प्रति बहुत ही ज़्यादा लापरवाही दिखा रही हैं।” कनाडा में कुछ समय पहले ४५ से ७४ की उम्रवाली ४०० स्त्रियों का सर्वे किया गया जिसे हार्ट एण्ड स्ट्रोक फाउंडेशन ऑफ कैनेडा ने प्रायोजित किया था। इस अध्ययन से पता चला कि “केवल ३० प्रतिशत स्त्रियों का वज़न उनकी उम्र के हिसाब से सही था, ३६ प्रतिशत शारीरिक तौर पर चुस्त थीं, और ७४ प्रतिशत स्त्रियों ने बताया कि वे तनाव में रहती हैं क्योंकि वे एक साथ ढेर सारे और अलग-अलग काम करने के चक्कर में रहती हैं।” उस फाउंडेशन की प्रवक्ता एलीसा फ्रीमैन ने यह कहा कि “स्त्रियाँ अपने से ज़्यादा अपने पतियों का बेहतर ख्याल रखती हैं।” इस रिपोर्ट के मुताबिक, “जितनी भी स्त्रियाँ मरती हैं उनमें से ४० प्रतिशत, यानी ४१,००० से भी ज़्यादा की मौत हृदयरोग या दौरे की वज़ह से होती है।”
एक साथ मिलकर खाना
कई देशों में, माँ-बाप यह रोना रोते हैं कि उनके बच्चे कभी-कभार ही उनके साथ भोजन करते हैं और उन्हें अकसर फास्ट फूड का खाना पसंद है। मगर फ्रांस इन सब से अलग-थलग है। फ्रेंच अखबार ले क्रवे के मुताबिक, हाल में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि फ्रांस के ८४ प्रतिशत परिवार रात का खाना एक साथ मिलकर खाते हैं। दरअसल, अध्ययन से पता चला कि १२ से १९ साल के बच्चों में से ९५ प्रतिशत बच्चे यही महसूस करते हैं कि परिवार के साथ मिलकर खाते वक्त जो माहौल होता है, वह बहुत ही अच्छा होता है और उस समय बच्चे हमेशा कुछ-न-कुछ सीखते हैं। परिवार में एक साथ मिलकर खाना खाने की आदत पर विशेषज्ञ ज़ोर देते हैं। फ्रेंच सेंटर फॉर हैल्थ एजुकेशन के डॉ. फ्राँस्वे बोड्ये कहता है: “यह सिर्फ खाना खाने का समय ही नहीं होता है बल्कि यह खासकर अपने विचारों को आदान-प्रदान करने का समय होता है।”
जानलेवा हैजे का हमला
टाइम्स ऑफ ज़ाम्बिया अखबार रिपोर्ट करता है कि फरवरी में हैजा बीमारी, लोगों की जान पर बन आयी जिसकी वज़ह से ज़ाम्बिया के लूसाका शहर के सिटी काउंसिल ने मज़बूरन “सड़कों पर ताज़े भोजन बेचने” के धंधे पर रोक लगा दी। और तो और, यह रिपोर्ट आगे कहती है कि “जब राजधानी में हैजे से मरनेवालों की संख्या झट से बढ़कर ४२ हो गयी,” तब होटलों और रेस्तरांओं में “२४ घटें निगरानी रखी गयी।” हैल्थ अफसरों ने चिंता व्यक्त की कि दस्त की यह बीमारी “देश के दूसरे भागों में भी फैल रही है।” इस समस्या से निपटने के लिए, हैल्थ एण्ड एजुकेशन मिनिस्ट्री के अधिकारियों ने ‘कॉलेरा टास्क फोर्स’ तैयार किया ताकि वे और ज़्यादा कूड़ा चुननेवालों को किराए पर ले लें। साथ ही, ज़मीन के नीचे से आनेवाला पानी दूषित न हो इसलिए गहरे कुँओं में क्लोरीन रसायन छिड़कें। लूसाका सिटी काउंसिल के प्रवक्ता, डैनियल एमसोका ने कहा: “हैजे की महामारी को कम करना हमारा लक्ष्य है।”