युद्ध क्या ये कभी खत्म होंगे?
युद्ध के इतिहास का अध्ययन करनेवाले इतिहासकार जॉन कीगन ने कहा, “पिछले ४००० सालों के दरमियान, युद्ध करना एक आदत-सी बन गयी है।” क्या इस आदत को तोड़ा जा सकता है? इन रगड़ों-झगड़ों में अनगिनत लोगों की जानें बलि चढ़ गयीं हैं। इन युद्धों में जो काफी पैसा, मेहनत, कच्चा माल और ऊर्जा लगाए जाते हैं, उससे युद्ध करने की प्रवृत्ति और बढ़ती है। दूसरों को मार गिराने और उन्हें बरबाद करने के नए-नए और बेहतर तरीके खोज निकालने में, हज़ारों सालों से, कई ज्ञानवानों ने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी है। मगर जब शांति लाने या इसे बढ़ाने की बात आती है तो क्या इंसान उतना ही जोश-खरोश दिखाता है? शायद नहीं! फिर भी, कई लोगों के पास यह उम्मीद करने का कारण है कि ऐसा समय ज़रूर आएगा जब युद्ध का नामो-निशान नहीं रहेगा।
युद्ध के बारे में लोगों की मनोवृत्ति क्यों बदल रही है
वे ऐसा इसलिए उम्मीद करते हैं क्योंकि आज लोगों का सोच-विचार बदल गया है और युद्ध के बारे में उनका दृष्टिकोण पहले जैसा नहीं रहा। माना जाता है कि १३वीं सदी में मंगोल सैनिक चंगेज़ खाँ ने कहा था: “अपने दुश्मनों पर फतह हासिल करने में, अपने आगे उन्हें दुम-दबाकर भागते हुए देखने में, उनकी ज़मीन जायदाद हड़पने में, उनकी दुर्दशा को देखकर मज़ा लूटने में, उनकी बीवी-बेटियों की इज़्ज़त लूटने में ही खुशी है।”
क्या आज का कोई बड़ा नेता ऐसा कह सकता है? क्या हम यह सोच भी सकते हैं कि वह ऐसा कहेगा? शायद नहीं। ए हिस्ट्री ऑफ वारफैर किताब कहती है: “दुनिया के किसी भी कोने में आज किसी ऐसे व्यक्ति या समूह को ढूँढ़ निकालना बहुत मुश्किल है जो इस निष्कर्ष से सहमत होगा कि युद्ध करना वाजिब है।” आजकल लोग पहले की तरह यह नहीं मानते कि युद्ध करना स्वाभाविक है, या इसकी भावना हमारे अंदर ही है, या युद्ध शोहरत हासिल करने या किसी नेक काम के लिए लड़ा जाता है। २०वीं सदी के युद्धों में जिस तरह बेतहाशा लोगों की जानें ली गयी हैं, इससे लोगों के मन में युद्ध के अंजाम का खौफ समा गया है और उन्हें युद्ध से घृणा होती है। एक लेखक कहता है कि हिंसा के प्रति इस खौफ और घृणा की वज़ह से ही कई देशों के कानून ने मृत्युदंड के नियम को खत्म कर दिया है और जो लोग सेना में भर्ती नहीं होना चाहते, उन्हें लोग गलत नहीं समझते।
लोगों के सोच-विचार में इस तरह के बदलाव आने का कारण, सिर्फ जन-संहार के प्रति उनकी नफरत नहीं है। एक और भी ज़रूरी कारण है कि उन्हें अपनी जान प्यारी है। और आज के न्यूक्लियर और बाकी सभी हथियार इतने बड़े पैमाने पर नाश कर सकते हैं कि आज के बड़े-बड़े देशों के बीच अगर जंग छिड़ जाए, तो दोनों तरफ के देशों का नामो-निशान ही मिट सकता है। आज अगर कोई देश, बहुत बड़े पैमाने पर जंग छेड़ देता है तो यह पागलपन या खुदकुशी करनेवाली बात होगी। कई लोग तर्क करते हैं कि इसी वज़ह से तो पिछले ५० सालों में न्यूक्लियर युद्ध नहीं हुआ है।
एक और कारण है कि क्यों कुछ लोग यह सोचते हैं कि भविष्य में युद्ध खत्म हो जाएगा। वह यह है कि बड़े पैमाने पर युद्ध करना बड़ा महँगा पड़ेगा क्योंकि इससे तबाही तो होगी ही, साथ ही कोई आर्थिक लाभ भी नहीं मिलेगा। जंग छिड़ने की गुंजाइश कम है, इसके लिए यह दलील दी जाती है: दुनिया के रईस और ताकतवर देशों को आर्थिक रूप से सहयोग मिलता है जिससे उन्हें काफी फायदा होता है। शांति के समय इन देशों को जितना भौतिक लाभ मिलता है, उतना इन्हें जंग छिड़ जाने पर नहीं मिलता। इसीलिए, बड़े-बड़े और ताकतवर देश एक-दूसरे के साथ शांति बनाए रखना चाहते हैं जिससे उन्हें फायदा होता रहे। और तो और, जब कमज़ोर देशों में जंग छिड़ जाती है, तब उनमें शांति स्थापित करने के लिए बड़े-बड़े और ताकतवर देश आपस में हाथ मिला लेते हैं, क्योंकि अगर जंग चलती रहे तो इससे उनकी अपनी आर्थिक स्थिति के डाँवाँडोल होने का खतरा रहता है।
शांति लाने की सबकी कोशिश
संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की प्रस्तावना में लिखी बातों से पता चलता है कि इसके सदस्य-राष्ट्र युद्ध खत्म करने की इच्छा रखते हैं। उस चार्टर में उन्होंने संकल्प करते हुए कहा कि “[हम] आनेवाली पीढ़ियों को युद्ध के दुःखद अंजाम से बचाएँगे क्योंकि इसने हमारे जीवनकाल में ही [दो विश्वयुद्धों के ज़रिए] मानवजाति को बेहिसाब दुःख-तकलीफें दी हैं।” आनेवाली पीढ़ियों को युद्ध के दुःखद अंजाम से बचाने का उनका यह संकल्प उस धारणा में दिखता है जिसे उन्होंने कलैक्टिव सेक्यूरिटी नाम दिया। इस कलैक्टिव सेक्यूरिटी का मतलब है, सभी देशों का एक हो जाना, यानी जब कोई देश किसी दूसरे देश पर हमला करता है तो उसे रोकने के लिए बाकी सभी देश एक हो जाएँगे। सो, अगर कोई देश युद्ध करना चाहता भी है तो उसे इन सब संयुक्त देशों के प्रकोप का सामना करना पड़ेगा।
यह विचार सुनने में तो सही और आसान लगता है मगर इसे लागू करना दूसरी बात है। दी एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है: “यह कलैक्टिव सेक्यूरिटी, राष्ट्र संघ के समझौते का एक मुख्य लक्ष्य था और यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर में भी पाया जाता है, मगर दोनों ही इस लक्ष्य को हासिल करने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इसका कारण है कि ऐसी कोई अंतर्राष्ट्रीय सरकार नहीं थी जो असल मसले पर सहमत होती। इसलिए देश-देश के बीच जंग छिड़ जाने पर कलैक्टिव सेक्यूरिटी के सभी देश एक ही फैसले पर सहमत नहीं हो पाते कि कौन-सा देश असल में कसूरवार है और कौन-सा नहीं। साथ ही, वे असल में अपने इस सिद्धांत को लागू नहीं करते कि कसूर चाहे किसी भी देश का क्यों न हो, उसके खिलाफ कार्यवाही ज़रूर की जानी चाहिए। और इसीलिए इन देशों ने कार्यवाही करने के लिए जिस अंतर्राष्ट्रीय कलैक्टिव सेक्यूरिटी के बारे में सोच रखा था, उसे बना ही नहीं पाए।”
शांति स्थापित करने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पूरे इतिहास में एकदम नया था। उन लोगों के लिए जो शांति की लालसा करते हैं, संयुक्त राष्ट्र के नीली टोपी और वर्दी पहने हुए ‘शांति बनाए रखनेवाले खास सैनिक’ आशा के प्रतीक हैं। शांति की लालसा करनेवाले लोगों की भावना उस पत्रकार की तरह ही है जिसने “शांति बनाए रखनेवाले सैनिकों की धारणा” की तारीफ की और कहा कि “इन खास सैनिकों को लड़ाई के इलाके में लड़ने के लिए नहीं, बल्कि शांति स्थापित करने के लिए भेजा जाता है, इन्हें दुश्मनों से लड़ने के लिए नहीं, बल्कि दोस्तों की मदद करने के लिए भेजा जाता है।”
रूस और अमरीका के बीच काफी सालों तक शीत युद्ध चलता रहा जिसकी वज़ह से, संयुक्त राष्ट्र दो सत्ता प्रखण्डों (power blocs) में विभाजित हो गया। ये दोनों सत्ता प्रखण्ड एक दूसरे के कामों पर पानी फेरने की फिराक में रहते थे। अब शीत युद्ध तो खत्म हो चुका है मगर उससे देश-देश के बीच लड़ाई, अविश्वास, और शक करने की आदत पूरी तरह से नहीं मिटी है। इसके बावजूद कई लोग मानते हैं कि आज के राजनैतिक हालात से संयुक्त राष्ट्र को एक अच्छा मौका मिलता है कि वह अपने उन उद्धेश्यों को सर-अंजाम दे जिसके लिए ही उसे बनाया गया था।
इस २०वीं सदी में और भी कई प्रगतियाँ हुई हैं जिनसे शांति की लालसा करनेवाले लोगों को आशा मिलती है। मसलन, अगर दो देशों में अनबन शुरू हो जाती है तो फौरन युद्ध करने के बजाय, अब वे पहले शांति से समस्या को सुलझाने की कोशिश करते हैं। साथ ही, कुछ देश उन देशों को पैसे, दवा-दारू, खाना-लत्ता वगैरह देकर मदद करते हैं जहाँ जंग छिड़ी हुई थी ताकि उनकी स्थिति सामान्य हो सके। शांति से सुलझाने और इंसानियत दिखाने के ऐसे काम फॉरॆन पॉलिसी के ज़रूरी पहलू हैं। साथ ही, शांति को बढ़ावा देनेवालों को सम्मानित किया जाता है।
क्या भविष्य में युद्ध कभी खत्म होंगे
यूँ तो आशा की किरण नज़र आती है मगर हकीकत भी कुछ कम खौफनाक नहीं है। जब १९८९ में रूस और अमरीका के बीच का शीत युद्ध खत्म हुआ, तो कइयों ने सोचा कि अब दुनिया भर में शांति और अमनचैन छा जाएगा। मगर, युद्ध चलते रहे। अगले सात सालों के दरमियान, अलग-अलग देशों में अंदाजन १०१ लड़ाइयाँ हुईं। अधिकतर लड़ाइयाँ देश-देश के बीच में नहीं बल्कि देश के अंदर की जाति-जाति के बीच हुईं जिसे गृह-युद्ध कहा जाता है। और ऐसी लड़ाइयों में कोई बड़े-बड़े हथियार नहीं बल्कि मामूली हथियार ही इस्तेमाल किए गए। मिसाल के तौर पर रूवाण्डा में, ज़्यादातर हत्याएँ बड़ी-बड़ी चाकू-छूरियों से ही की गयी थीं।
आजकल जंग के मैदान अकसर गाँव या शहर ही होते हैं और इसमें हमलावरों और जनता में कुछ ज़्यादा फरक नहीं होता। इंटरनैशनल पीसबिल्डिंग केंद्र के अध्यक्ष, माइकल हारबॉटॆल ने लिखा: “पहले के ज़माने में लड़ाइयों की वज़हें साफ पता चल जाती थीं, मगर आज ये बहुत ही जटिल हैं, साथ ही इन्हें काबू में भी नहीं रखा जा सकता। और ऐसी लड़ाइयाँ हद से ज़्यादा हिंसक होती हैं और काफी मासूम लोग बेवज़ह मारे जाते हैं। जिस तरह लड़ाके मारे जाते हैं, उसी तरह निर्दोष जनता भी उनकी गोलियों का निशाना बन जाते हैं।” मामूली हथियारों से की जानेवाली ऐसी लड़ाइयों के खत्म होने का कोई आसार नहीं दिखता।
इस दरमियान, दुनिया के रईस देशों में बड़े-बड़े और बेहतर हथियारों का निर्माण बहुत ही तेज़ी से बढ़ रहा है। आकाश में, अंतरिक्ष में, समुंदर में या ज़मीन पर तैनात सेंसर्स के द्वारा, आज की सेना, जंगल जैसे ऊबड़-खाबड़ इलाकों में भी सब कुछ, बहुत जल्दी और पहले से भी कहीं ज़्यादा साफ-साफ देख सकती है। सेंसर्स जब अपने निशाने को पहचान लेते हैं, तब मिसाइल, टारपीडो या लेज़र-नियंत्रित बम उस चीज़ को उड़ा सकते हैं और अकसर इनका निशाना अचूक होता है। इन सभी टॆक्नॉलॉजियों को और भी विकसित करके अगर एक साथ इस्तेमाल किया जाए, तो “दूर-दूर स्थित दो देशों के बीच भी युद्ध” लड़े जा सकते हैं। क्योंकि सेना सभी कुछ अच्छी तरह देख सकती है, और किसी भी चीज़ पर निशाना लगाकर उसे उड़ा सकती है और दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचा सकती है।
भविष्य में युद्ध की गुंजाइश के बारे में विचार करते वक्त, हमें याद रखना चाहिए कि आजकल खतरनाक न्यूक्लियर शस्त्र भी मौजूद हैं। द फ्यूचरिस्ट पत्रिका कहती है: “जिस तेज़ी से अणु बम बनाए जा रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि अगले ३० सालों के दौरान, कम-से-कम एक या ज़्यादा न्यूक्लियर युद्ध ज़रूर छिड़ेंगे। साथ ही, आतंकवादी भी ये अणु बम इस्तेमाल कर सकते हैं।”
आखिर फसाद की जड़ क्या है?
दुनिया भर में शांति लाने की कोशिशों पर किस बात ने पानी फेर दिया है? सबसे बड़ी वज़ह तो यह है कि इंसान आपस में बँटा हुआ है, उनमें एकता नाम की कोई चीज़ नहीं है। इंसान आज अपने-अपने रीति-रिवाज़ों और जातियों में इस कदर बँटा हुआ है कि वे एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते, एक दूसरे से नफरत करते हैं और एक दूसरे से खौफ भी खाते हैं। उनकी संस्कृतियाँ, विश्वास और लक्ष्य भी अलग-अलग हैं। और तो और, हज़ारों सालों से लोगों ने अपने देश की खातिर कुछ कर गुज़रने के लिए सैन्य-शक्ति का रास्ता अख्तियार किया है। और इसे वाजिब भी माना जाता है। इस स्थिति को देखते हुए, यू.एस. आर्मी वार कॉलॆज के स्ट्रैटॆजिक स्टडीज़ इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट ने कहा: “कई लोगों को लगता है कि शांति तभी आएगी जब सब एक हो जाएँगे और पूरी दुनिया में बस एक ही सरकार होगी।”
कुछ लोग सोचते हैं कि संयुक्त राष्ट्र ही वह विश्व सरकार हो सकती है। मगर संयुक्त राष्ट्र को तो विश्व सरकार बनने के लिए कभी बनाया ही नहीं गया था क्योंकि उस पर उसके सदस्य-राष्ट्रों का अधिकार चलता है। यह उतना ही ताकतवर है जितनी शक्ति उसके सदस्य-राष्ट्र उसे देते हैं। और इन राष्ट्रों के बीच अब भी शक और असहमती है और जो समर्थन वे संयुक्त राष्ट्र को देते हैं वह बहुत ही कम है। इसीलिए, यह संयुक्त राष्ट्र दुनिया के हालात को सुधारने के बजाय, खुद ही दुनिया के इशारों पर नाचता है।
फिर भी, दुनिया भर में शांति होने का सपना ज़रूर साकार होगा। अगला लेख बताएगा कि यह कैसे मुमकिन है।
[पेज 5 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“अगर इंसान युद्ध को खत्म न करे, तो युद्ध इंसान को ही खत्म कर डालेगा”—जॉन एफ. कॆनडी
[पेज 7 पर तसवीर]
संयुक्त राष्ट्र विश्व सरकार नहीं बन पाया है
[चित्र का श्रेय]
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