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सजग होइए!–1999
g99 12/8 पेज 30

हमारे पाठकों से

परमेश्‍वर का अस्तित्त्व “क्या परमेश्‍वर सचमुच अस्तित्त्व में है?” (मार्च ८, १९९९) इस विषय पर दिए गए लेखों से मुझे कितनी मदद मिली, यह बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इससे मुझे उस परमेश्‍वर को जानने का मौका मिला जिसके बारे में मैंने सुना तो बहुत कुछ था मगर उसे ढूँढ़ नहीं पायी थी। मुझ जैसे लोगों को सच्चाई की राह दिखाने के लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ।

सी. पी., ब्राज़ील

अंधेपन के बावजूद व्यस्त और खुश मार्च ८, १९९९ के अंक में छपे पोलीटीमी वॆनॆटस्यानोस की जीवन कहानी “अंधेपन के बावजूद व्यस्त और खुश” के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद। उसके साहस और परमेश्‍वर पर अटल विश्‍वास ने मेरे दिल को छू लिया। इस स्त्री को अपनी ज़िंदगी में मुसीबतें ही मुसीबतें सहनी पड़ी और उसे काफी नुकसान भी उठाना पड़ा। मगर, उसे बहुमोल आशीषें भी मिली हैं। मुझे विश्‍वास है कि उसकी कहानी से ऐसे लोगों का बहुत ही हौसला बढ़ेगा और मदद मिलेगी जिन्हें इसी तरह ज़िंदगी में मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

के. आर., रूस

कपड़े मैं ११ साल की हूँ और आपके लेख “हम जिस तरह के कपड़े पहनते हैं—क्या उससे सचमुच कोई फर्क पड़ता है?” (मार्च ८, १९९९) में दी गयी बढ़िया सलाह के लिए धन्यवाद कहना चाहती हूँ। पहले मैं अपनी क्लास की सहेलियों की तरह ही कपड़े पहनना चाहती थी। मगर इस लेख ने मुझे यह समझने में मदद दी कि हमारे कपड़ों को शालीन होना चाहिए ना की बहुत ही बेहूदा या अश्‍लील।

ए. एस., एस्टोनिया

जब दूसरे लोग मेरे कपड़े को देखकर कहते हैं कि यह फैशन तो बाबा आदम के ज़माने का है या यह तो औपचारिक कपड़े हैं, तो मुझे कभी-कभी दुःख होता है। आपके लेख से मुझे बहुत ही प्रोत्साहन मिला क्योंकि इसने इस बात को पुख्ता कर दिया कि बाइबल के सिद्धांतों को मानना ही सबसे फायदेमंद है।

आर. एल., ब्राज़ील

कई सालों से यहोवा के साक्षियों के बारे में मेरी मिली-जुली भावना थी। कभी मुझे उन पर हँसी आती, तो कभी उन पर दया। एक दिन एक सहेली ने मुझे सजग होइए! का मार्च ८, १९९९ का अंक दिया। इस पत्रिका को पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा और साक्षियों के बारे में मेरी राय बदल गयी। कपड़ों पर दिया गया लेख मुझे सबसे अच्छा लगा क्योंकि इसमें कपड़े खरीदते वक्‍त मेरे रवैये का बखूबी वर्णन किया गया था। भविष्य में मैं किसी खास और बड़ी कंपनी के ही कपड़े खरीदने की ज़िद्द नहीं करूँगी। और मैं अपनी सहेली से इसी तरह की और भी पत्रिकाएँ माँगूगी!

यू. बी., जर्मनी

गपशप “युवा लोग पूछते हैं . . . गपशप में इतनी भी क्या बुराई है?” (मार्च ८, १९९९) लेख के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद। कुछ समय पहले, जब किसी ने मेरे बारे में यह अफवाह फैला दी थी कि कलीसिया से डिस्फेलोशिप होनेवाला अगला व्यक्‍ति मैं हूँ, तो मैंने अनुभव किया कि गपशप से दिल को कितनी चोट पहुँचती है। उस झूठ ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया! हालाँकि जिसने यह अफवाह फैलायी थी, उसने मुझसे माफी तो माँग ली, मगर उस पर से मेरा भरोसा हमेशा के लिए उठ चुका है।

आर. एम., स्विट्‌ज़रलैंड

मेरे स्कूल में हमेशा गपशप होती रहती है। इसलिए यह मेरे लिए हौसला और विश्‍वास बढ़ानेवाला लेख था। यह कहते हुए मुझे शर्म तो आ रही है कि मैंने भी ऐसी कई अफवाहें फैलायी हैं जिससे दूसरों के नाम पर बहुत ही कीचड़ उछली। जब सहेलियाँ दूसरों के बारे में गपशप करतीं तो मैं भी कान गड़ाए रहती थीं और कभी-कभी उनकी बातों में शामिल भी हो जाती थी। सो जब मैंने यह लेख पढ़ा तो मैं दंग रह गयी। मुझे लगा कि इस लेख का हर वाक्य मानो मुझे ही ताड़ना दे रहा हो क्योंकि मैं यही सब करती थी। लेख पढ़कर मुझे अपने सारे किए पर बहुत ही शर्मिंदगी महसूस हुई। मुझे मालूम है कि मेरे स्कूल में गपशप बंद तो नहीं होनेवाली है मगर मैंने अपने मन में ठान लिया है कि मैं उसमें कभी हिस्सा नहीं लूँगी।

एम. डब्ल्यू., जापान

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