आधुनिक चिकित्सा कामयाबी की बुलंदियों पर?
कई बच्चे छोटी उम्र में ही सीख जाते हैं कि अगर पेड़ पर लगे संतरों तक उनका हाथ न पहुँचे तो वे अपने साथियों के कंधों पर चढ़कर इन्हें तोड़ लेते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में भी कुछ ऐसी ही बात सच साबित हुई है। इस क्षेत्र के खोजकर्ताओं ने पहले ज़माने के मशहूर डॉक्टरों और इस पेशे से जुड़े लोगों की उपलब्धियों से बहुत कुछ सीखा है। और इस तरह वे इन मशहूर लोगों के कंधों पर खड़े होकर कामयाबी हासिल करते चले जा रहे हैं।
पहले ज़माने के कुछ मशहूर चिकित्सक हिप्पोक्रेटिस्, पास्चर, वेसलिअस और विल्यम मॉर्टन थे। हम में से शायद ही कोई इनके नामों से वाकिफ हो। इन लोगों ने आधुनिक चिकित्सा की तरक्की में कौन-सा बड़ा योगदान दिया है?
पुराने ज़माने में लोगों का इलाज अकसर वैज्ञानिक तरीकों से नहीं बल्कि अंधविश्वास और धार्मिक रस्मों-रिवाज़ों के आधार पर किया जाता था। डॉक्टर फैलिक्स मार्टी-ईबान्यस द्वारा संपादित किताब, दी एपिक ऑफ मेडिसन में यह लिखा गया है: “किसी बीमारी का इलाज करवाने में . . . , मेसोपोटेमिया के लोग धार्मिक रीति-रिवाज़ों और दवाइयों, दोनों का इस्तेमाल करते थे क्योंकि उनका मानना था कि देवताओं ने उन्हें सज़ा देने के लिए बीमारी से पीड़ित किया है।” इसके बाद मिस्रियों द्वारा चिकित्सा की शुरूआत भी धर्म पर आधारित थी। इस तरह, शुरू से चिकित्सकों को धर्म से जोड़ा जाता था और उनकी सराहना की जाती थी।
अपनी किताब, द क्ले पेडेस्टेल में डॉ. थॉमस ए. प्रेस्टन कहते हैं: “प्राचीन समय की कई धारणाओं ने चिकित्सा क्षेत्र में ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि उनका असर आज भी देखा जा सकता है। ऐसी ही एक धारणा थी कि बीमारी पर मरीज़ का कोई बस नहीं चलता। सिर्फ चिकित्सक की चमत्कारी शक्ति से उस बीमारी से ठीक होने की उम्मीद रहती है।”
बुनियाद तैयार करना
जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया ज़्यादातर इलाजों में वैज्ञानिक पद्धति अपनायी जाने लगी। इस तरह के इलाज को शुरू करने में हिप्पोक्रेटिस्, प्राचीन समय के सबसे पहले चिकित्सक थे। उनका जन्म सा.यु.पू. 460 में कोस नाम के एक यूनानी द्वीप में हुआ था। बहुत-से लोग उन्हें पश्चिम देशों के चिकित्सा क्षेत्र का जन्मदाता मानते हैं। हिप्पोक्रेटिस् ने इलाज के बारे में सही नज़रिया रखकर आधुनिक चिकित्सा की नींव डाली। उन्होंने इस धारणा को ठुकराया कि बीमारी किसी देवता की तरफ से एक सज़ा है, और इस बात को साबित करने के लिए कई दलीलें पेश कीं, कि बीमार पड़ना दरअसल स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए, काफी अरसे तक लोगों का मानना था कि मिर्गी, भगवान की तरफ से मिली बीमारी है इसलिए इसका इलाज सिर्फ देवताओं के पास ही है। मगर हिप्पोक्रेटिस् ने लिखा: “पवित्र कहलायी जानेवाली यह बीमारी, मेरे हिसाब से ना तो बाकी बीमारियों से अलग किसी देवता की तरफ से है और ना ही पवित्र है बल्कि यह एक साधारण बीमारी है।” हिप्पोक्रेटिस् को ऐसा सबसे पहला चिकित्सक भी माना जाता था जिन्होंने तरह-तरह की बीमारियों के लक्षणों का पता किया और उन्हें लिखा ताकि ये जानकारी भविष्य में काम आ सके।
सदियों बाद, सा.यु. 129 में पैदा हुआ यूनानी डॉक्टर गेलन ने भी इसी तरह की आधुनिक चिकित्सा की खोज की। उन्होंने इंसानों और जानवरों की शारीरिक रचना का अध्ययन करके शरीर-रचनाविज्ञान पर ऐसी किताब निकाली जिसका इस्तेमाल डॉक्टरों ने सदियों तक किया! सन् 1514 में ब्रस्सल्स शहर में पैदा हुआ आन्ड्रेअस वेसलिअस ने एक किताब लिखी जिसका नाम, ऑन द स्ट्रकचर ऑफ द ह्यूमन बॉडी था। इस किताब का विरोध किया गया क्योंकि उसमें गेलन की कई बातों का खंडन किया गया था। मगर इस सबके बावजूद उनकी किताब आधुनिक शरीर-रचनाविज्ञान का आधार बनी। किताब दि ग्रॉसन (बड़ी-बड़ी हस्तियाँ) के मुताबिक, “चिकित्सा क्षेत्र के इतिहास में सबसे मशहूर खोजकर्ताओं में [वेसलिअस का] नाम भी आता है।”
हृदय और रक्त-संचार के बारे में गेलन के सिद्धांत आगे चलकर गलत साबित हुए।a अँग्रेज़ डॉक्टर विल्यम हार्वी ने जानवरों और पक्षियों की चीर-फाड़ करने और उससे संबंधित अध्ययन करने में कई साल लगा दिए। उन्होंने हृदय के वाल्व की क्रिया पर गौर किया, उसके हर निलय में पाए जानेवाले खून की मात्रा को नापा और पूरे शरीर में खून की मात्रा का अनुमान लगाया। सन् 1628 में हार्वी ने अपनी खोज के बारे में एक किताब छपवायी जिसका नाम था ऑन द मोशन ऑफ द हार्ट एण्ड ब्लड इन ऐनिमल्स। इसके लिए उन्हें निंदा, विरोध, हमला और बेइज़्ज़ती तक सहनी पड़ी। मगर उनकी खोज की वजह से ही चिकित्सा क्षेत्र में एक नया मोड़ आया क्योंकि तब पहली बार शरीर के परिसंचरण तंत्र के बारे में जानकारी हासिल हुई!
हजामत से सर्जरी तक
सर्जरी के क्षेत्र में भी दिन-पर-दिन तरक्की हो रही थी। मध्य युग में अकसर हज्जाम सर्जरी किया करते थे। इसलिए इस बात में कोई हैरानी नहीं कि कुछ लोगों का कहना है कि 16वीं सदी के एक फ्राँसीसी हज्जाम-सर्जन, आँब्राज़ पारे ने आधुनिक सर्जरी की शुरूआत की और वे फ्राँस के चार राजाओं के यहाँ सेवा करते थे। पारे ने सर्जरी में काम आनेवाले कई औज़ारों की भी ईजाद की।
उन्नीसवीं सदी के डॉक्टरों के पास अभी-भी एक समस्या थी कि वह ऑपरेशन के दौरान दर्द को कैसे कम करे। मगर सन् 1846 में दाँतों के डॉक्टर, विलियम मॉर्टन ने बड़े पैमाने पर सर्जरी में एनस्थिज़िया का इस्तेमाल करने का रास्ता तैयार किया।b
सन् 1895 में, बिजली के साथ परीक्षण करते वक्त, जर्मनी के भौतिकविज्ञानी, विल्हेल्म राँटजन ने देखा कि कुछ किरणें उनके शरीर के आर-पार होकर निकली मगर उनकी हड्डियों के आर-पार नहीं निकली। उन्हें पता नहीं था कि इन किरणों की शुरूआत कहाँ से हुई इसलिए उन्होंने इनका नाम एक्स किरणें रख दिया और ये किरणें आज भी इसी नाम से जानी जाती हैं। (जर्मनी में इसे राँटजेनस्ट्रालेन नाम से जाना जाता है।) किताब डी ग्रोसेन डॉशन (जर्मनी के प्रतिष्ठित हस्तियाँ) के मुताबिक राँटजन ने अपनी पत्नी से कहा: “दुनिया कहेगी: ‘राँटजन बिलकुल पागल हो गया है।’” और कुछ लोगों ने ऐसा कहा भी। मगर उनकी खोज की वजह से सर्जरी के क्षेत्र में बड़े-बड़े बदलाव आए। अब डॉक्टर बगैर चीर-फाड़ किए मरीज़ के अंदरूनी हिस्सों की जाँच कर सकते थे।
बीमारियों पर जीत हासिल करना
पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चेचक जैसी संक्रामक बीमारियों की वजह से महामारी फैली थी, चारों तरफ आतंक छाया था और बड़ी तादाद में लोगों की जानें भी जा रही थीं। नौवीं सदी के एक फारसी डॉक्टर, आर-राज़ी ही वे पहले डॉक्टर थे, जिन्होंने चिकित्सा क्षेत्र के हिसाब से, चेचक के बारे में सही वर्णन लिखा। कुछ लोगों का मानना था कि वे उस ज़माने के मुसलमानी समाज के सबसे बड़े डॉक्टर थे। मगर इस बीमारी का इलाज कई सदियों बाद ब्रिटेन के डॉक्टर, एड्वर्ड जेन्नर ने निकाला। जेन्नर ने गौर किया कि अगर एक इंसान को गोचेचक नामक बीमारी लग जाए जो हानिकारक नहीं है तो उसे चेचक से कोई खतरा नहीं रहता। इस अध्ययन के बिनाह पर उन्होंने सन् 1796 में चेचक से लड़ने के लिए गोचेचक के घाव से एक टीका तैयार किया। दूसरे आविष्कारकों की तरह, जेन्नर का भी खंडन और विरोध किया गया। मगर उनकी खोज की बदौलत आगे जाकर इस बीमारी को दूर किया गया और चिकित्सा क्षेत्र को बीमारियों से लड़ने का एक नया और ज़बरदस्त हथियार मिल गया।
फ्राँस के लुई पास्चर ने रेबीज़ और ऐन्थ्रैक्स से लड़ने के लिए टीकों का इस्तेमाल किया। उन्होंने यह भी साबित किया कि बीमारियों को फैलाने में रोगाणुओं का सबसे बड़ा हाथ होता है। सन् 1882 में, रॉबर्ट कॉच ने तपेदिक फैलानेवाले रोगाणु का पता लगाया। एक इतिहासकार के मुताबिक तपेदिक “उन्नीसवीं सदी की सबसे खतरनाक जानलेवा बीमारी थी।” करीब एक साल बाद, कॉच ने हैजे के रोगाणु का भी पता लगाया। लाइफ पत्रिका कहती है: “पास्चर और कॉच के कामों से सूक्ष्मजीव-विज्ञान की शुरूआत हुई और रोगक्षमताविज्ञान, साफ-सफाई और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी काफी तरक्की की गयी। इसलिए पिछले 1,000 सालों में विज्ञान क्षेत्र में हुई प्रगति ने इंसान की आयु बढ़ाने में इतनी कामयाबी हासिल नहीं की जितनी कि इन दोनों के योगदानों ने की है।”
बीसवीं सदी में चिकित्सा
बीसवीं सदी की शुरूआत में चिकित्सा क्षेत्र ने, ऐसे ही कई डॉक्टरों और चिकित्सा पेशे से जुड़े काबिल लोगों के कंधों पर अपने आप को खड़ा हुआ पाया। तब से चिकित्सा क्षेत्र ने एक-के-बाद-एक तरक्की की है। जैसे मधुमेह के लिए इंसुलिन, कैंसर के लिए रसायन चिकित्सा (कीमोथेरेपी), ग्रंथि विकार के लिए हॉर्मोन इलाज, तपेदिक के लिए ऐन्टीबायोटिक दवाइयाँ, कुछ किस्म के मलेरिया के लिए क्लोरोक्विन, गुर्दे की परेशानियों के लिए डायलिसिस, साथ ही ओपन-हार्ट सर्जरी और अंग प्रतिरोपण। यह तो बस चंद उदाहरण हैं।
मगर अब जब हम 21वीं सदी में कदम रख चुके हैं, तो सवाल यह उठता है कि क्या चिकित्सा क्षेत्र “दुनिया के सभी लोगों के लिए अच्छी सेहत लाने” का लक्ष्य कभी पूरा कर पाएगा?
एक नामुमकिन लक्ष्य?
बच्चे यह बात भी सीख लेते हैं कि अपने साथियों के कंधों पर चढ़कर ही पेड़ में लगे हर संतरे को नहीं तोड़ा जा सकता है। कुछ रसीले संतरे पेड़ के इतनी ऊँचाई पर लगे होते हैं कि उन तक पहुँचना नामुमकिन होता है। उसी तरह चिकित्सा क्षेत्र ने भी एक-के-बाद-एक बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की हैं। मगर पेड़ की सबसे ऊँची जगह पर लगे हुए उस संतरे की तरह वह उस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है जिसकी चाह सभी को है यानी सभी के लिए अच्छी सेहत।
इसलिए जबकि सन् 1998 में यूरोपियन कमीशन ने रिपोर्ट की, कि “यूरोप के लोगों ने कभी-भी लंबी और सेहतमंद ज़िंदगी का मज़ा नहीं उठाया है जितना कि वे अब उठा रहे हैं।” मगर यह रिपोर्ट आगे कहती है: “हर पाँच में से एक व्यक्ति की, समय से पहले यानी 65 साल के होते-होते मृत्यु हो जाएगी। इन लोगों में करीब 40 प्रतिशत की मौत कैंसर की वजह से और दूसरी 30 प्रतिशत की मौत हृदय-रक्तवाहिका संबंधी बीमारियों से होगी . . . नयी-नयी बीमारियों के खतरों से बचने के लिए और भी अच्छी सुरक्षा की ज़रूरत है।”
जर्मनी की स्वास्थ्य पत्रिका, गेज़ुन्टहाइट ने नवंबर 1998 में यह रिपोर्ट दी कि हैजा और तपेदिक जैसी संक्रामक बीमारियाँ पहले से भी ज़्यादा खतरा पैदा कर रही हैं। क्यों? इस वजह से कि ऐन्टीबायोटिक दवाइयों का “असर कम होता जा रहा है। ज़्यादा-से-ज़्यादा जीवाणुओं पर कम-से-कम एक आम दवा का कोई असर नहीं पड़ता है, दरअसल बहुत-से जीवाणुओं पर तो एक से भी ज़्यादा दवाइयों का असर नहीं पड़ता है।” सिर्फ पुरानी बीमारियाँ ही वापस नहीं आ रही हैं बल्कि एड्स जैसी नयी-नयी बीमारियाँ भी पैदा हो रही हैं। जर्मनी के औषधीय प्रकाशन आँकड़े ’97 (अँग्रेज़ी) तकाज़ा करते हैं: “अब तक जितनी भी बीमारियों का पता लगाया जा चुका है उनमें से दो-तिहाई यानी करीब 20,000 बीमारियाँ अभी भी लाइलाज हैं।”
क्या जीन चिकित्सा इस समस्या का हल है?
यह बात सच है कि नए-नए इलाज बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए, कई लोगों को लगता है कि जॆनॆटिक इंजीनियरिंग यानी जीन्स में फेरबदल करके अच्छी सेहत पायी जा सकती है। सन् 1990 के दशक में अमरीका में डॉ. डब्ल्यू. फ्रेंच एन्डर्सन जैसे डॉक्टरों द्वारा की गयी खोजबीन के बाद, जीन चिकित्सा को “चिकित्सीय खोजबीन का सबसे अनोखा, दिलचस्प और मशहूर क्षेत्र कहा गया है।” किताब हाइलेन मिट गेनन (जीन्स के साथ इलाज करना) में कहा गया है कि जीन चिकित्सा से “चिकित्सा विज्ञान, शायद एक नए विकास की दहलीज़ पर खड़ा है। इससे खास तौर से उन बीमारियों का इलाज करना मुमकिन हो जाएगा जो अब तक लाइलाज थीं।”
वैज्ञानिक उम्मीद करते हैं कि वे बहुत जल्द जन्मजात बीमारियों को ठीक करनेवाले जीन्स का इंजेक्शन देकर मरीज़ों का इलाज कर पाएँगे। और इससे शायद कैंसर की कोशिकाओं जैसे दूसरी हानिकारक कोशिकाएँ भी खुद-ब-खुद नाश हो जाएँगी। फिलहाल यह जाँच करना मुमकिन हो गया है कि एक व्यक्ति के जीन्स में किसी बीमारी के प्रति कोई झुकाव है कि नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि अगला कदम यह होगा कि किसी मरीज़ को उसके जीन्स की रचना के मुताबिक दवा देना जो उसके लिए सही होगी। एक विख्यात खोजकर्ता कहते हैं कि एक दिन ऐसा आएगा जब डॉक्टर “मरीज़ों की बीमारियों का पता लगाने के साथ-साथ उन्हें DNA का सही अंश देकर उनका इलाज कर पाएँगे।”
लेकिन सभी को इस बात का यकीन नहीं है कि भविष्य में जीन चिकित्सा कोई “चमत्कारी इलाज” कर पाएगी। यहाँ तक कि सर्वेक्षणों से पता चला है कि लोग शायद ही अपनी जीन्स रचना की जाँच करवाना चाहेंगे। बहुत-से लोगों को यह भी डर है इस तरह का इलाज अपनाना, कुदरत के नियमों में दखलअंदाज़ी करना होगा जो कि खतरनाक साबित हो सकता है।
यह तो वक्त ही बताएगा कि चिकित्सा क्षेत्र में जीन्स में फेरबदल करने या इस तरह की दूसरी आधुनिक तकनीक अपनाने से वह अपने किए गए बड़े-बड़े वादों को पूरा कर पाएगा या नहीं। मगर इस सिलसिले में हद-से ज़्यादा उम्मीदें बाँधने की ज़रूरत नहीं है। किताब द क्ले पेडेस्टेल एक ऐसी घटना का ब्यौरा देती है जो बार-बार दोहरायी जाती है: “जब किसी नए इलाज की ईजाद होती है तो उसके बारे में चिकित्सा सभाओं और पत्रिकाओं में ज़ोर-शोर से ऐलान किया जाता है। ईजाद करनेवाले एक ही रात में अंबर पर सितारे बनकर चमकने लगते हैं। टी.वी. और अखबार वगैरह, उनकी तारीफों के पुल बाँधते नहीं थकते। इस असरदार इलाज के बारे में पक्के सबूतों के साथ बयान दिए जाते हैं मगर खुशी का यह आलम बस दो पल का होता है। फिर धीरे-धीरे निराशा छाने लगती है जो महीनों से शुरू होकर दशकों तक पीछा नहीं छोड़ती। फिर एक और नए इलाज की ईजाद होती है और देखते-देखते यह इलाज पुराने इलाज की जगह ले लेता है और पुराने इलाज को तुरंत बेकार समझकर त्याग दिया जाता है।” दरअसल, बहुत-से इलाज जो आज डॉक्टरों के मुताबिक असरदार नहीं है, कुछ समय पहले वही इलाज डॉक्टरों द्वारा मान्य थे।
हालाँकि आजकल के डॉक्टरों की पुराने ज़माने के चिकित्सकों की तरह धार्मिक उपाधि देकर उनकी सराहना नहीं की जाती, मगर आज भी ऐसे कुछ लोग हैं जो डॉक्टरों को भगवान-समान मानते हैं। वे समझते हैं कि विज्ञान के पास हर मर्ज़ की दवा है। मगर कितने दुःख की बात है कि हकीकत उनकी इस सोच से कोसों दूर है। अपनी किताब, हम कैसे और क्यों बूढ़े होते हैं (अँग्रेज़ी) में डॉ. लेनार्ड हेफ्लिक कहते हैं: “सन् 1900 में अमरीका में 75 प्रतिशत लोगों की मृत्यु 65 की उम्र से पहले हो गयी थी। आज ये आँकड़े बिलकुल उलटे हैं: करीब 70 प्रतिशत लोगों की मृत्यु 65 के बाद होती है।” लोगों की आयु में इस अनोखी बढ़ोतरी की क्या वजह है? हेफ्लिक समझाते हैं कि इसकी “सबसे बड़ी वजह है कि नवजात शिशुओं में मृत्यु की दर बहुत कम हो गयी है।” अब मान लीजिए कि चिकित्सा क्षेत्र अगर बुज़ुर्गों की मृत्यु के सबसे बड़े कारणों यानी हृदय रोग, कैंसर और मस्तिष्क आघात जैसी बीमारियों को पूरी तरह खत्म कर सकता तो क्या होता? क्या इससे वे अमर बन जाएँगे? हरगिज़ नहीं। डॉ. हेफ्लिक कहते हैं कि अगर ये बीमारियाँ पूरी तरह से खत्म हो भी जाएँ तो भी “ज़्यादातर लोग लगभग सौ साल तक जीएँगे।” वह आगे कहते हैं: “सौ साल तक जीने के बाद भी यह लोग अमर नहीं होंगे। लेकिन फिर उनकी मृत्यु किस वजह से होगी? वे सिर्फ दिन-पर-दिन कमज़ोर होते चले जाएँगे और एक दिन उनकी मौत हो जाएगी।”
चिकित्सा क्षेत्र की तरफ से की गयी बढ़िया-से-बढ़िया कोशिशों के बावजूद मृत्यु को पूरी तरह मिटा देना इसके बस की बात नहीं है। आखिर क्यों? क्या सभी के लिए अच्छी सेहत का लक्ष्य महज़ एक ख्वाब बनकर रह जाएगा? (g01 6/8)
[फुटनोट]
a द वर्ल्ड बुक इंसाइक्लोपीडिया के मुताबिक, गेलन का मानना था कि कलेजा, भोजन को पचाकर उसे खून में बदल देता था और फिर यह शरीर के दूसरे हिस्सों में जाकर मिल जाता है।
b जनवरी-मार्च 2001 की सजग होइए! का लेख “दर्द से राहत पाने का उपाय—एनस्थिज़िया” देखिए।
[पेज 4 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
“प्राचीन समय की कई धारणाओं ने चिकित्सा क्षेत्र में ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि उनका असर आज भी देखा जा सकता है।”—द क्ले पेडेस्टेल
[पेज 4, 5 पर तसवीरें]
हिप्पोक्रेटिस्, गेलन और वेसलिअस ने आधुनिक इलाज की बुनियाद तैयार की
[चित्रों का श्रेय]
Kos Island, Greece
Courtesy National Library of Medicine
Woodcut by Jan Steven von Kalkar of A. Vesalius, taken from Meyer’s Encyclopedic Lexicon
[पेज 6 पर तसवीरें]
हज्जाम-सर्जन, आँब्राज़ पारे ने आधुनिक सर्जरी की शुरूआत की और वे फ्राँस के चार राजाओं के यहाँ सेवा करते थे
फारसी डॉक्टर आर-राज़ी (बाँयीं तरफ), और ब्रिटेन के डॉक्टर एड्वर्ड जेन्नर (दाँयीं तरफ)
[चित्रों का श्रेय]
पारे और आर-राज़ी: Courtesy National Library of Medicine
From the book Great Men and Famous Women
[पेज 7 पर तसवीर]
फ्राँस के लुई पास्चर ने साबित किया कि रोगाणुओं की वजह से बीमारी फैलती है
[चित्र का श्रेय]
© Institut Pasteur
[पेज 8 पर तसवीरें]
अगर मृत्यु के सबसे बड़े कारणों को दूर भी किया जा सकता तब भी बुढ़ापे का अंत मौत ही होता