विश्व शक्तियों की लम्बी दौड़ अपने अन्त के समीप पहुँचती हैं
बाइबल सात महान विश्व शक्तियों के बारे में बताती है—महान साम्राज्य जो इस संसार के इतिहास के हज़ारों साल के दौरान एक दूसरे के बाद अस्तित्व में आए हैं। इस सिलसिले में दिए हुए पहले के लेखों ने यह प्रदर्शित किया कि इन में से हम अन्तिम साम्राज्य के समय में जी रहे हैं—अर्थात हमारे दिनों की एन्गलो-अमरीकी विश्वशक्ति।a—प्रकाशितवाक्य १७:९, १०.
प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में इसी एन्गलो-अमरीकी विश्वशक्ति को एक पशु के समान बताया है, जिसके “दो सींग” है। यह दो भागीय विश्व-शक्ति “पृथ्वी के रहनेवालों से कहती है कि वे” उस राजनैतिक पशु की जो सारी सात विश्व शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है, “मूर्ति बनाए।”—प्रकाशितवाक्य १३:११, १४.
इन भविष्यवाणियों की पूर्ति कैसे हुई, और आज ये हमारे लिए क्या अर्थ रखती हैं? इन का दिलचस्प उत्तर इस निम्न दिए हुए लेख का विषय है
जैसे ही पहले विश्व युद्ध का चार वर्षीय संन्नास समाप्त हुआ, अमरीकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन और ब्रिटेन के प्रधान मंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज ने राष्ट्रों के संघटन का प्रस्ताव रखा। इसका लक्ष्य था कि वह “अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को हासिल करें” और इस प्रकार के युद्ध के संन्नास को फिर कभी घटित न होने दें।
यह दिलचस्पी की बात है कि किसने पहल की। ये दो नेता अंग्रेज़ी भाषा बोलनेवाली एन्गलो-अमरीकी विश्वशक्ति के दो भाग, जो बाइबल इतिहास में सातवीं शक्ति है, इसके प्रधान थे। इस अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की संस्था आश्चर्यजनक रीति से इस और दूसरी बात के अनुकूल है, जो बाइबल पुस्तक प्रकाशितवाक्य ने अल्पकाल के लिए मौजूद रहने वाले “आठवें राजा” के बारे में बताती है जो हमारे समय में उदय होगा और अस्त भी होगा। इनमें कौनसी कुछेक दिलचस्प समानान्तर बातें है?—प्रकाशितवाक्य १७:११.
प्रकाशितवाक्य में हुई भविष्यवाणी बताती है कि एक “पशु” जिसके “मेम्ने के से दो सींग हैं,” “पृथ्वी के रहनेवालों” से कहता है कि वे उस वन्य पशु की, बाइबल इतिहास के सात महान विश्व-शक्तियाँ रही हैं, “सिर मूर्ति बनाएँ।”
एन्गलो-अमरीकी विश्व-शक्ति ने ठीक यही किया। उसने “पृथ्वी के रहनेवालों” को उत्तेजित किया कि वे एक संघटन की स्थापना करें जो उसी प्रकार दिखाई दे और कार्य करें जैसा कि महान सरकारें दिखाई देती हैं और कार्य करती हैं। परन्तु वास्तव में मात्र “वन्य पशु की मूर्ति” थी। उसकी अपने आप में कोई शक्ति नहीं थी, वह शक्ति हासिल थी जो उसके सदस्य राष्ट्रों ने उसे प्रदान की थी। उसे किसी महान सैनिक विजय के द्वारा शक्ति प्राप्त नहीं हुई थी, जैसे कि विश्व शक्तियों ने प्राप्त किया था। इसके बजाय, वे इन सात विश्व शक्तियों में से उदय या अस्तित्व में आती है। उसका अस्तित्व मात्र इन में से सातवीं पर ही आधारित नहीं है बल्कि दूसरे सदस्य राष्ट्रों पर भी आधारित है, जिनमें पिछले छः विश्व-शक्तियों के कुछ अवशेष हैं। क्या यह राजनैतिक मूर्ति उन उच्च लक्ष्यों तक पहुँचेगी जिसकी आशा उसके संस्थापनों ने की थी?—प्रकाशितवाक्य १३:११, १४; १७:११.
लीग ऑफ नेशन्स की विफलता
सामाजिक क्षेत्रों में लीग ऑफ नेशन्स ने बहुत कुछ किया। तथापि उसका असली लक्ष्य, जिसकी औपचारिक अभिव्यक्ति “लीग ऑफ नेशन्स की प्रसंविदा” थी, यह थी कि “अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दें और अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को हासिल करें।” इसमें वह असफल रही।
१९३१ में यह लीग जापान को मानचुरिया पर चढ़ाई करने से नहीं रोक सकी। १९३३ में वह बोलिविया और पारागुए को युद्ध करने से नहीं रोक सकी। १९३६ में वह ईथीओपिया के ऊपर मुसोलिनी के विजय को रोकने में असफल रही। तथापि लीग ने सितम्बर ९, १९३९ को प्राणघातक चोट खाई जब दूसरा विश्व युद्ध टूट पड़ा—सामूहिक विनाश और दुर्गति की एक ऐसी खलबली जिसे रोकने के लिए ही लीग को स्थापित किया गया था। उस युद्ध में मरनेवालो की संख्या? एक करोड़ ६० लाख सैनिको और ३ करोड़ ९० लाख असैनिक नागरिकों ने जीवन खोया, कुल मिलाकर ५ करोड़ ५० लाख लोग मरे या पहले विश्व युद्ध में मरनेवालों की संख्या से लगभग चार गुणा अधिक थे!
तथापि, १९१९ में, इससे पहले कि लीग की प्रसंविंदा लागू हो, यहोवा के गवाहों ने (जिन्हें उस समय बाइबल स्टयूदेन्टस के नाम से जाना जाता था) यह सार्वजनिक घोषणा की थी कि लीग का असफल होना आवश्य है क्योंकि शांति मनुष्यों के प्रयासों से नहीं आ सकती थी। बाद में, लन्डन, इंग्लैंड में अपने १९२६ के महा सम्मेलन में, यह बताया गया कि प्रकाशितवाक्य १७ के अनुसार, “आठवाँ राजा” विश्व शक्तियों की पंक्ति में आखिरी दिखाई पड़ता है। जैसा कि वक्ता ने बताया, “प्रभु ने उसका जन्म, उसका अल्प-कालीन अस्तित्व और उसकी अनन्त समाप्ति की भविष्यसूचना दी थी।”
वह वापस आता है!
इस आठवें राजा के विषय में उत्प्रेरित भविष्यवाणी ने कहा: “जिस वन्य पशु को तू ने देखा, वह था, पर अब नहीं है और वह अथाह कुंड से निकलने ही वाला है, और वह विनाश में चला जाएगा।”—प्रकाशितवाक्य १७:८. न्यू. व.।
१९४२ के मध्य-युद्ध वर्ष से, यहोवा के गवाहों ने समझ लिया था कि उस समय निष्क्रिय शांति और सुरक्षा की संस्था अपनी निष्क्रियता के अथाह कुंड में से निकल आएगा। उस वर्ष वॉचटावर सोसायटी के प्रेसिडेन्ट ने ५२ नगरों में श्रोतागणों से कहा: “चूकिं चालीस सदस्य अब भी यह दावा करते हैं कि वे उस लीग के नियमों का आदर करते हैं, तो लीग व्यवहारिक रीति से निलम्बित कार्य सजीवता की स्थिति में है . . . यह ‘अब नहीं है’” परन्तु क्या वह “अथाह कुंड में से निकलने” पर है? अपने शब्दों को बाइबल की इस भविष्यवाणी पर आधारित करते हुए उन्होंने घोषणा की: “सांसारिक राष्ट्रों का यह संघ फिर उठेगा।”
जैसा कि भविष्यवाणी ने कहा था, यह आठवां राजा १९२० से लेकर १९३९ तक “था”। वह १९३९ से लेकर १९४५ तक अर्थात दूसरे विश्व युद्ध के अन्त तक वह “नहीं था’। फिर उस लीग का उत्तराधिकारी, संयुक्त राष्ट्र सक्रिय हो जाने से वह “अथाह कुंड में से” निकला।
ऊंची आशाओं की पूर्ति नहीं हुई
५० राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने जून २६, १९४५ को सेन फ्रान्सिस्को में संयुक्त राष्ट्र के राज-पत्र पर हस्ताक्षर किया। उसकी प्रस्तावना का प्रारम्भ इस प्रकार था: “हम, संयुक्त राष्ट्र के लोगों ने ठान लिया है कि हम आनेवाली पीढ़ियों को युद्ध की महाविपत्ति से बचाएंगे, जिसने हमारे जीवन काल में दो बार मनुष्यजाति को अनकहा दुःख पहुँचाया है . . .।”
संयुक्त राष्ट्र के लिए जो आशाएँ बनाई गई वे हर वास्तविकता से बढ़कर थी। भूतपूर्व अमरीकी सेक्रेटेरी ऑफ स्टेट कॉरडेल हल ने कहा कि वह “हमारी सभ्यता के बचाव” की कुंजी रखता है। अमरीकी राष्ट्रपति हेरी ट्रूमेन ने उसे “परमेश्वर के निर्देश के अधीन अनन्त शांति स्थापित करने के लिए . . . सर्वश्रेष्ठ अवसर” बताया। संयुक्त राष्ट्र के राज-पत्र को “शायद मनुष्यों द्वारा बनाई सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़” और “सभ्यता के इतिहास में एक नया मोड़” देने वाला बताया गया। चालीस वर्ष बाद यू. एस. दिपार्टमेन्ट ऑफ स्टेट के ग्रगोरी जे. न्यूबेल ने कहा: “उस योजना को हद से ज्यादा महत्व दिया गया: निराशा अनिवार्य थी।”
लीग की तरह, संयुक्त राष्ट्र ने सामाजिक क्षेत्रों में बहुत कुछ सफलता प्राप्त की है। परन्तु न ही उसने शांति की गारंटी दी है और न युद्ध को रोका है। ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधान मंत्री हेरल्ड मेकमिलन ने १९६२ में ब्रिटेन के संसद को बताया कि “जिस नींव पर संयुक्त राष्ट्र को बनाया गया है वह उखड़ गई है।”
प्रारम्भ में कई लोग इस संस्था को धार्मिक उत्साह की दृष्टि से देखते थे। उनका विश्वास था कि यह “मूर्ति” वही करेगी जो बाइबल कहती है कि केवल परमेश्वर का राज्य करेगा: स्थायी शांति, न्याय, और एक सचमुच संयुक्त संसार को स्थापित करेगी। वे बाइबल की भविष्यवाणीयों से, जो यह प्रदर्शित करती थी कि मनुष्यों के प्रयास शांति का सच्चा स्रोत नहीं हो सकते हैं, तीव्र रूप से असहमत थे। परन्तु जैसे संयुक्त राष्ट्र ४० वर्ष की आयु तक पहुँचा इतिहासकार थोमस एम. फ्रेंक ने कहा कि “जैसे हमने १९४५ में आशा की थी, उससे वह बहुत कम प्रभावशाली सिद्ध हुआ है।” जैसे अमरीकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जॉर्ज पी. शुल्ट्ज़ ने टीका की: “स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र के जन्म ने संसार को परादीस में परिवर्तित नहीं किया।”
संयुक्त राष्ट्र सफल नहीं हुआ है क्योंकि मानव सरकारों ने शांति लाने के लिए वास्वतिक बाधाओं को नहीं हटाया है: राष्ट्रवाद, लोभ, दरिद्रता, जातिवाद, निरंकुश शासन, और संसार पर शैतान का प्रभाव। लोग इन सरकारों से मिले रहते हैं, इसलिए नहीं क्योंकि आशा उज्ज्वल है बल्कि इसलिए कि उनके पास कोई बेहतर आशा नहीं है।—प्रकाशितवाक्य १२:१२.
संयुक्त राष्ट्र का अस्तित्व और जो मेहनत इतने सारे लोगों ने उसमें लगाई है, यह बताते हैं कि कितनी गहराई के साथ पृथ्वी के लोग परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस कर रहे हैं। वह परिवर्तन आएगा परन्तु एक भिन्न और अधिक प्रभावशाली रीति से। कौनसी रीति से?
स्थायी शासन
याद कीजिए कि बाइबल कहती है कि क्रमानुसार मात्र सात “राजा” या विश्व शक्तियाँ होंगी। उसके बाद किसी प्रधान विश्व शक्ति का ज़िक्र नहीं किया गया है। बाइबल यह भी कहती है कि अस्थायी “आठवाँ राजा . . . विनाश में चला जाता है।”—प्रकाशितवाक्य १७:१०, ११.
परन्तु बाइबल यह भी कहती है कि एक बहत्तर आशा है। वह प्रतिज्ञा करती है कि किसी दूसरी ओर से वह शांति, न्याय और संयुक्त संसार लाएगा जिसकी खोज लोग इतनी घोर रीति से करते हैं। वह कहती है: “और उन राजाओं के दिनों में स्वर्ग का परमेश्वर, एक ऐसा राज्य उदय करेगा जिसका कभी विनाश न होगा . . . वह उन सब (विफल मानवी) राज्यों को चूर चूर करेगा और उनका अन्त कर डालेगा, और वह अपने आप अनिश्चित काल तक स्थिर रहेगा।”—दानिय्येल २:४४. न्यू.व.
यह वही शासन है जिसके बारे में यीशु ने बताया था और जिस के लिए उनके अनुयायियों ने प्रार्थना की हैं जब वे कहते थे: “आप का राज्य आए।” (मत्ती ६:१०) यह राज्य मात्र मनुष्यों क हृदयों में भलाई के लिए कोई प्रभाव नहीं है। इसके बजाय, यह एक वास्तविक स्वर्गीय शासन है, आत्मिक क्षेत्र से पृथ्वी पर शासन। पृथ्वी हम जिस रीति से रहते हैं वह उसे बदल देगा।—प्रकाशितवाक्य २१:१-४.
उस रोमांचकारी नए शासन के बारे में बाइबल क्या कहती है, वह कैसे काम करेगा, और जो शांति, न्याय और संयुक्त संसार को वह स्थापित करेगा, वह इस सिलसिले में अगले और अन्तिम लेख का विषय होगा।
[फुटनोट]
a इस पत्रिका के पिछले अंको में इन विश्व शक्तियों का ज़िक्र हो चुका है: (१) मिस्र, मार्च १, १९८९ (२) अश्शूर, अगस्त १, १९८९ (३) बाबेलोन, सितंबर १, १९८९ (४) मादि-फ़ारस, अक्टूबर १, १९८९ (५) यूनानी, नवम्बर १, १९८९ (६) रोम, दिसम्बर १, १९८९ (७) एन्गलो-अमरीकी विश्व शक्ति, जनवरी १, १९९०
[पेज 30 पर बक्स]
युद्ध का विस्तार
दूसरे विश्व युद्ध में, जिसने लीग ऑफ नेशन्स की मृत्यु को चिन्हित किया, जानों का विस्मयकारक नुकसान हुआ। एनसाइक्लोपिडिया ब्रिटेनिका (१९५४ संस्करण) ने युद्ध के दौरान सैनिक मृतको की संख्या का भिन्न देशों में १९४० की जनसंख्या से तुलना करके मरनेवालों के विस्तार को दर्शाया। अंको में से कुछेक इस प्रकार हैं: अमरीका ने अपने १९४० की जनसंख्या में हर ५०० व्यक्तियों के हिसाब से युद्ध में एक सैनिक को खोया; चीन, २०० में से एक; ब्रिटेन, १५० में से एक; फ्रांस, २०० में से एक; जापान, ४६ में से एक; जर्मनी, २५ में से एक; और रूस, २२ में से एक को। जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि बहुदा असैनिक मृतकों की संख्या सैनिक मृतकों की संख्या से बढ़कर थी, तब हम सहज से देख सकते हैं कि कैसे मनुष्यों के प्रयास सच्ची शांति और सुरक्षा लाने में सचमुच कितने असफल रहे।
[पेज 31 पर बक्स]
‘संयुक्त राष्ट्र की रचना के समय से, दो करोड़ लोग युद्ध में मरे हैं, यह उस विफलता की कीमत को अनुप्रमाणित करते हुए एक शोकाकुल तथ्य है।’ —थॉमस एक फ्रेंक द्वारा “राष्ट्र के विरुद्ध राष्ट्र”