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क्या नरक तपित है?

“उन्‍नीस सौ साठ के दशक के दौरान किसी समय पर, नरक ग़ायब हो गया।” इस प्रकार ब्रिटिश लेखक डेविड लॉज ने अपनी किताब सॉल्स ॲन्ड बॉडीज़ में कहा, और उसके शब्द दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद वाले दशकों के दौरान जीनेवाले अनेक कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट लोगों की विचारणा को प्रतिबिंबित करते हैं। कुछ समय के लिए, अनेक मुख्य धारा गिरजाओं ने आधुनिक विचार प्रणालियों के अनुकूल बनने की अपनी कोशिशों में खुद अपने अग्निमय नरक का औपचारिक उपदेश के महत्त्व को कम किया।

लोगों को मृत्यु के पश्‍चात्‌ दण्ड दिए जाने का विचार ख़ास तौर से अस्वीकार्य था, इसलिए कि स्वयं पाप की धारणा उनके मन में धुँधली हो चुकी थी। १९८४ में लिए एक साक्षात्कार में, रोम के कार्डिनल रॅटज़िंगर ने कहा: “हमारी सभ्यता में . . . लोगों के अपराध और पाप की भावना को हटाने की कोशिश में शमक परिस्थितियों और अन्यत्र-स्थितियों पर ध्यानकेंद्रित किया जाता है . . . , वही वास्तविकता जिसके साथ नरक और पर्गेटरी (पापमोचन-स्थान) के विश्‍वास जुड़े हुए हैं।”

क्या आज यह संभव है कि मृत्यु के बाद पर्गेटरी और नरक में दण्ड पाने के उपदेश को स्वीकार किए बिना ही पाप की वास्तविकता में विश्‍वास किया जा सकता है? एक नयी किताब, आब्रेजे द ला फोई कॅथोलीक (कैथोलिक विश्‍वास का सारांश) में, जिसका प्राक्कथन फ्रांसीसी कार्डिनल दकूर्तरे ने लिखा, यह सवाल सीधे-सीधे पूछा गया: “क्या नरक में विश्‍वास करना ज़रूरी है?” जवाब: “नरक के भयप्रद सवाल से बच निकलना संभव नहीं है।” वॅटिकन काउन्सिल II—मोर पोस्टकॉन्सिलियर डॉक्यूमेन्टस्‌ (१९८२) नामक रचना “परमेश्‍वर के लोगों के धर्मसार” का उद्धरण करती है, कि यह यूँ कहता है: “हम विश्‍वास करते हैं . . . [कि] जिन लोगों ने परमेश्‍वर के प्रेम और करुणा के प्रति अनुकूल अनुक्रिया दिखायी है, वे अनन्त जीवन पाएँगे। जिन लोगों ने आख़िर तक उन्हें अस्वीकार किया है, वे एक ऐसी अग्नि में डाल दिए जाएँगे जो कभी बुझायी नहीं जाती।”

तो, इसके विपर्याय को साबित करने के सभी धर्मवैज्ञानिक कोशिशों के बावजूद भी, नरकाग्नि अब भी बहुत अधिक हद तक औपचारिक कैथोलिक धर्मसिद्धान्त का एक हिस्सा है। फिर भी, अ न्यू डिक्शनरी ऑफ क्रिस्चियन थीऑलोजी (१९८३) उस “लज्जा” और “असुविधा” के बारे में बताती है जो ईसाईजगत्‌ के गिरजाओं के अनेक सदस्यों को अनन्त नरकदण्ड के उपदेश के कारण महसूस होती है। इस धर्मसिद्धान्त और एक प्रेम के परमेश्‍वर की धारणा में सामंजस्य स्थापित करने में उन्हें कठिनाई होती है। वे जानने के लिए उत्सुक होते हैं कि: ‘क्या एक तपित नरक सचमुच एक ख्रीस्तीय और बाइबलीय उपदेश है? अगर नहीं, तो इसका आरंभ कहाँ से हुआ?’

[पेज 3 पर तसवीर]

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