नरक का स्रोत
“नरक,” न्यू कैथोलिक एन्साइक्लोपीडिया व्याख्या देती है, “वह शब्द है जो नरकदण्डित लोगों का स्थान सूचित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।” एक प्रोटेस्टेन्ट एन्साइक्लोपीडिया नरक की परिभाषा “दुष्ट लोगों के भावी दण्ड की जगह” के तौर से करती है।a लेकिन मृत्यु के बाद दण्ड की ऐसी जगह में विश्वास सिर्फ़ ईसाईजगत् की मुख्य गिरजाओं तक ही सीमित नहीं है। इसका आरंभ ईसाईजगत् के अस्तित्व में आने से अनेक शताब्दियाँ पहले हुआ।
मेसोपोटेमिया का नरक
यीशु के जन्म के लगभग २,००० वर्ष पहले, सुमेरी और बाबेलोनी लोग एक पाताल-लोक में विश्वास करते थे जिसे उन्होंने यह नाम दिया, “लैंड ऑफ नो रिटर्न,” या ऐसी जगह जहाँ से कोई वापसी नहीं। यह प्राचीन विश्वास सुमेरी और अक्कादी कविताओं में प्रतिबिंबित है, जो कि “दी एपिक ऑफ गिल्गामेश” और “डिसेन्ट ऑफ इश्टार टू दी अंडरवर्ल्ड” के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे मृतकों के इस निवास-स्थान का वर्णन एक अँधेरे के घर के तौर से करते हैं, “एक ऐसा घर जिस में से कोई प्रवेश करनेवाला बाहर निकलता नहीं।”
जहाँ तक वहाँ प्रचलित परिस्थितियों का सवाल है, एक प्राचीन अश्शूरी पाठ में कहा गया है कि “अधोलोक दहशत से भरा था।” जिस अश्शूरी राजकुमार को मृत लोगों के इस भूमिगत निवास-स्थान का दर्शन दिया गया, उसने गवाही दी कि जो कुछ भी उसने देखा उसके कारण उसके “पाँव थरथराने लगे।” अधोलोके के राजा, नर्गल का वर्णन करते हुए, उसने रिकार्ड किया: “एक भीषण तूफान की तरह वह क्रोधभरे खूँखार चीख से मेरी तरफ़ चिल्लाया।”
मिस्री और पूर्वी धर्मों
प्राचीन मिस्री प्राण (सोल) की अमरता में मानते थे, और उन के बीच परलोक की खुद अपनी एक धारणा थी। द न्यू एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटॅनिका कहती है: “मिस्री अंत्येष्टि-संबंधी पाठ अगली दुनिया को जानेवाले रास्ते को इस तरह चित्रित करते हैं कि यह भयानक जोख़िमों से घेरा हुआ है: भयंकर विलक्षण प्राणी, अग्नि कुण्ड, ऐसे फाटक जिसमें से जादूई मंत्रों के बग़ैर गुज़रा नहीं जा सकता, और एक दुष्ट माँझी जिसके बुरे इरादों को जादू से व्यर्थ करना पड़ता है।”
भारतीय-फ़ारसी धर्मों ने मृत्यु के बाद पाए जानेवाले दण्डों पर विविध विश्वासों को विकसित किया। हिन्दू धर्म के संबंध में, फ्रांसीसी एन्सायक्लोपीडिया यूनिवर्सेलिस (विश्वजनीन विश्वकोश) कहता है: “हिन्दुओं के द्वारा कल्पित २१ नरकों के अनगिनत वर्णन हैं। जंगली जानवर और साँप पापियों को खा जाते हैं, उन्हें श्रमसाध्य रूप से भूना जाता है, हिस्सों में काटा जाता है, भूख और प्यास से सताया जाता है, तेल में उबाला जाता है, या लोहे या पत्थर के बरतनों में चूरा बनने तक पीसा जाता है।”
दोनों जैन और बौद्ध धर्मों में नरक के उनके अपने विवरण हैं, जहाँ पश्चातापहीन पापियों को सताया जाता है। इरान, या फ़ारस में प्रारंभ होनेवाले ज़रदुश्त धर्म में भी एक नरक है—एक ठंडी, बदबूदार जगह, जहाँ पापियों के जीव को यातनाएँ दी जाती हैं।
दिलचस्प रूप से, ऐसा प्रतीत होता है कि मिस्री, हिन्दू, जैन, बौद्ध और ज़रदुश्ती नरकों की यातनाओं के विवरण अनन्तकालीन नहीं हैं। इन धर्मों के अनुसार, कष्ट सहन की एक मुद्दत के बाद, पापियों के प्राण किसी और जगह या अवस्था में जाते हैं, जो कि उस विशेष धर्म की मानवी नियति की धारणा पर निर्भर है। नरक के बारे में उनकी कल्पनाएँ कैथोलिक धर्म के पर्गेटरी से मिलती-जुलती हैं।
यूनानी, एट्रस्कन और रोमी नरक
प्राचीन यूनानी लोग प्राण (साइ·खीʹ, जो शब्द वे तितली के लिए भी इस्तेमाल करते थे) की उत्तरजीविता में विश्वास करते थे। वे हेडीज़ को मृतकों का क्षेत्र कहा करते थे और विश्वास करते थे कि उस में उसी नाम का एक देवता राज्य करता है। अपनी किताब ऑर्फियस—अ जेनरल हिस्टरी ऑफ रिलिजियंज़ में, फ्रांसीसी विद्वान् सालोमोन राइनाख़ ने यूनानियों के बारे में लिखा: “एक व्यापक विश्वास यह था कि [प्राण] नारकीय क्षेत्र में बूढ़े मल्लाह शारॉन की नाव में बैठकर स्टिक्स नदी पार करता था, जो कि सवारी के तौर पर एक ऑब्यूलस [सिक्का] वसूल करता था, और जिसे मृत व्यक्ति के मुँह में रखा जाता था। यह नारकीय क्षेत्र में उस जगह के तीन न्यायियों के सामने पेश होता था . . . ; अगर अपने अपराधों के लिए दोषी ठहराया जाता था, तो इसे टार्टरस में कष्ट सहना पड़ता। . . . यूनानियों ने एक लिम्बो, बचपन में मरनेवाले बच्चों के निवास-स्थान, और एक पर्गेटरी की कल्पना की, जिसमें एक विशेष दंड से प्राणों को शुद्ध किया जाता था।” द वर्ल्ड बुक एन्साइक्लोपीडिया के अनुसार, जो जीव टार्टरस में पहुँच गए, उन्होंने “अनन्त यातनाएँ झेलीं।”
इट्ली में एट्रस्कन लोग भी, जिनकी सभ्यता रोमियों की सभ्यता से पहले थी, मृत्यु के बाद दंड-प्राप्ति में विश्वास करते थे। दिक्सियोन्नेर देज़ रेलिजियों (धर्मों का शब्दकोश) कहता है: “एट्रस्कन लोग अपने मृतकों की जो इतनी ज़्यादा देख-रेख करते थे, यह अधोलोक के क्षेत्रों के बारे में उनकी धारणा से समझा जा सकता है। बाबेलियों की तरह, वे इन क्षेत्रों को मानीज़ों [मृतकों की आत्माओं] की यातना और निराशा की जगह मानते थे। उन्हें राहत सिर्फ़ उनके वंशजों द्वारा किए गए प्रायश्चित्तिक बलिदानों से मिलती।” एक और सन्दर्भ-लेख में कहा गया है: “एट्रस्कन क़ब्र संत्रास की ऐसी तस्वीरें दिखाते हैं जिन से नरक की ईसाई तस्वीरें प्रेरित हुईं।”
रोमियों ने एट्रस्कन नरक को अपनाया, और उसे ऑर्कस या इन्फर्नस का नाम दिया। उन्होंने हेडीज़, अधोलोक के राजा के बारे में यूनानी पौराणिक कथाएँ अपना लीं, और उसे ऑर्कस, या प्लूटो नाम दिया।
यहूदी और इब्रानी धर्मशास्त्र
यीशु के समय से पहले के यहूदियों के बारे में क्या? उनके संबंध में हम एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटॅन्निका (१९७०) में पढ़ते हैं: “सा.यु.पू. की पाँचवीं सदी से लेकर, यहूदी लोग फ़ारसियों और यूनानियों के साथ निकट संपर्क रखते थे, जिन दोनों धर्मों में परलोक की विकसित कल्पनाएँ थीं। . . . मसीह के समय तक, यहूदियों ने ऐसा विश्वास प्राप्त किया था कि दुष्ट जीव मृत्यु के बाद गीहेन्ना में दण्ड प्राप्त करते।” परन्तु, एन्साइक्लोपीडिया जूडेइका कहता है: गीहेन्ना की इस उत्तरकालीन धारणा का एक भी संकेत धर्मशास्त्र में नहीं पाया जाता है।”
यह अवरोक्त कथन सही है। इब्रानी शास्त्रों में एक अग्निमय नरक में एक प्राण के मृत्योत्तर दण्ड का कोई संकेत नहीं है। इस डरावने धर्मसिद्धान्त की जड़ें बाबेलानिया के प्रलयोत्तर धर्मों में हैं, और न कि बाइबल में। ईसाईजगत् का नरक में दण्ड पाने का धर्मसिद्धान्त प्रारंभिक बाबेलोनी लोगों के बीच आरंभ हुआ। पर्गेटरी में प्रतिकारी कष्ट सहन की कैथोलिक कल्पना प्रारंभिक मिस्री और पूर्वी धर्मों में शुरु हुई। लिम्बो यूनानी पौराणिक कथाओं से नक़ल की गयी। मृतकों के लिए प्रार्थनाएँ और चढ़ावा एट्रस्कन लोगों का अभ्यास था।
लेकिन मृत्यु के पश्चात् सचेतन दण्ड के ये धर्मसिद्धान्त किस मूलभूत कल्पना पर आधारित हैं?
[फुटनोट]
a म’क्लिन्टॉक और स्ट्रॉन्ग का साइक्लोपीडिया ऑफ बिब्लिकल्, थिओलोजिकल् ॲन्ड एक्क्लीज़िएस्टिकल् लिटरेचर, खण्ड ४, पृष्ठ १६५.
[पेज 5 पर तसवीरें]
स्टिक्स नदी को पार करना, जैसे डान्टे के “इन्फ़र्नो” में वर्णन किया गया है
[चित्र का श्रेय]
Dover Publications, Inc.