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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1992
w92 11/1 पेज 3-4

जीवन परमेश्‍वर की एक देन

दिन के चौबीस घंटे, हमारा हृदय हमारी देह में बहुमूल्य लहू पम्प करता है। हम सो जाते हैं, और हमारे फेफड़े फूलते और सिकुड़ते रहते हैं। हम खाना खाते हैं, और हमारा भोजन अपने आप हज़म हो जाता है। यह सब हमारी ओर से थोड़ा या बिना किसी जानकार प्रयास के हर दिन होता है। ये रहस्यमय और अनोखी प्रक्रियाएँ, जो मामूली समझी जाती हैं, उस देन का भाग हैं जिसे हम जीवन कहते हैं। एक प्रकार से यह ऐसी देन है जिसे चमत्कारी कहा जा सकता है।

मानवी गर्भाधान और जन्म की प्रक्रिया पर ग़ौर कीजिए। हालाँकि आम तौर पर देह बाह्‍य ऊतक को अस्वीकार करती है, गर्भ निषेचित डिम्ब के मामले में अपवाद करती है। बाह्‍य ऊतक समझकर इस बढ़ते हुए भ्रूण को अस्वीकार करने के बजाय, एक शिशु के रूप में तैयार होकर निकलने तक गर्भ इसे पोषित करके इसकी रक्षा करता है। बाह्‍य ऊतक अस्वीकार करने के नियम में यह निर्णायक अपवाद करने की गर्भ की क्षमता के बिना, मानवी जन्म असंभव होता।

फिर भी, जब भ्रूण लगभग चार महीने का होता है तब गर्भ में अगर एक तरह का विकास नहीं होता, तो नवजात शिशु के लिए जीवन अल्पकालीन होता। उस समय वह अपना अँगूठा चूसना शुरू करता है, जिससे वह उन पेशियों को प्रयोग में लाता है जो बाद में उसे उसके माँ के स्तन से दूध पीने के क़ाबिल करेंगी। और यह तो उन ज़िंदगी-और-मौत के मामलों में से एक है जो शिशु के जन्म से पहले ही निश्‍चय किए जाते हैं।

जब भ्रूण गर्भ में है, उसके हृदय के भीत में एक छेद होता है। लेकिन, जन्म के समय यह छेद अपने आप बंद हो जाता है। इसके अतिरिक्‍त, जब भ्रूण गर्भ में है तब एक बड़ी रुधिरवाहिका जो फेफड़ों से बाहर-बाहर निकलती है अपने आप जन्म के समय सिकुड़ जाती है; लहू अब फेफड़ों में जाता है, जहाँ जब शिशु अपनी पहली साँस लेता है तो लहू में ऑक्सीजन भर जाता है।

यह सब तो सिर्फ़ शुरुआत ही है। जीवन भर, सुन्दर ढंग से रचे तंत्रों की श्रेणी (जैसे श्‍वसन-तंत्र, परिसंचरण-तंत्र, तंत्रिका-तंत्र, और अंतःस्रावी तंत्र) इंसानी समझ को हैरान करनेवाले दक्षता के साथ अपने कार्यों को पूरा एवं समन्वित करेंगे—यह सब जीवन के स्थायीकरण के लिए। यह कोई ताज्जुब की बात नहीं कि परमेश्‍वर के सम्बन्ध में एक प्राचीन लेखक ने यूँ लिखा: “मैं तेरा धन्यवाद करूंगा, इसलिये कि मैं भयानक और अद्‌भुत रीति से रचा गया हूं। तेरे काम तो आश्‍चर्य के हैं, और मैं इसे भली भांति जानता हूं।”—भजन १३९:१४.

स्पष्ट रूप से, उन सुन्दर शब्दों के लेखक ने इस बात पर यक़ीन नहीं किया कि जीवन बस अंधाधुंध, विकासवादी संयोग या इत्तफ़ाक़ का नतीजा है। अगर बात ऐसी होती, तो अपना जीवन कैसे इस्तेमाल किया जाना चाहिए इसके प्रति हमारा कोई वास्तविक दायित्व या ज़िम्मेवारी नहीं होती। बहरहाल, जीवन की प्रक्रिया साफ़-साफ़ ढंग से डिज़ाइन दिखाती है, और डिज़ाइन के लिए एक डिज़ाइन बनानेवाले की ज़रूरत होती है। बाइबल यह सिद्धांत देती है: “हर एक घर का कोई न कोई बनानेवाला होता है, पर जिस ने सब कुछ बनाया वह परमेश्‍वर है।” (इब्रानियों ३:४) “यहोवा ही परमेश्‍वर है! उसी ने हम को बनाया, और न कि हम अपने को,” यह जानना अत्यावश्‍यक है। (भजन १००:३, फुटनोट) हाँ, जीवन एक हितकर संयोग से कहीं ज़्यादा है; यह ख़ुद परमेश्‍वर की एक देन है।—भजन ३६:९.

इसलिए, जीवन-दाता के प्रति हमारे क्या दायित्व हैं? वह हम से अपना जीवन किस तरह उपयोग करने की अपेक्षा रखता है? ये और अन्य सम्बन्धित सवालों पर अगले लेख में ग़ौर किया जाएगा।

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