आपका धर्म एक जहाज़ जिसे कभी त्यागा नहीं जाना चाहिए?
एक जहाज़ तूफ़ान के बीच में है। अपने जहाज़ को बचाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे नाविक-दल के सामने एक नाटकीय फ़ैसला है: या तो जहाज़ पर सवार रहें या उसे त्यागकर ख़ुद को बचाएँ। क्या आप जानते थे कि भयभीत करनेवाला यह दृश्य-लेख एक धर्म-वैज्ञानिक दृष्टान्त के रूप में इस्तेमाल किया जाता है?
धर्म-वैज्ञानिक, ख़ासकर कैथोलिक विद्वान, अकसर अपने गिरजे की तुलना एक जहाज़ से करते हैं जो एक तूफ़ान का मुक़ाबला कर रहा है। वे कहते हैं कि यह जहाज़, जिसकी पतवार यीशु या पतरस है, उद्धार के एकमात्र ज़रिए को चित्रित करता है। पादरियों की स्थिति है, ‘जहाज़ को कभी मत त्यागो। गिरजा पहले भी गंभीर संकटों से गुज़रा है, लेकिन यह एक ऐसा जहाज़ है जो इतिहास के सारे तूफ़ानों से बच निकला है।’ कुछ लोग कहते हैं, ‘उसे क्यों त्यागें? और कौन-से विकल्प हैं? क्यों न उसमें रहें और उसे शान्त समुद्र की ओर ले जाने में उसकी मदद करें?’
इस प्रतीकात्मक भाषा के सामंजस्य में, सभी प्रकार के धर्मों के अनेक लोग तर्क करते हैं, ‘मैं जानता हूँ कि मेरा धर्म कई बातों में ग़लत है, लेकिन मैं आशा करता हूँ कि वह बदल जाएगा। मैं उसे त्यागना नहीं चाहता। उसकी कठिनाइयों को पार करने के लिए उसकी मदद करने में मैं हिस्सा लेना चाहूँगा।’ इस तरह का तर्क शायद एक व्यक्ति के पूर्वजों के धर्म के प्रति निष्कपट स्नेह या उससे “विश्वासघात” करने के डर से भी प्रेरित हो सकता है।
एक प्रासंगिक उदाहरण एक जाने-माने कैथोलिक भिन्न-मतावलंबी धर्म-वैज्ञानिक हॉन्स कूँग का है, जिसने विचारपूर्वक कहा: “मैं अब तक जिन लोगों के साथ सफ़र करते आया हूँ, उन्हें तेज़ हवा का सामना करने, पानी उलीचने, और शायद उत्तरजीविता के लिए संघर्ष करने को छोड़कर क्या मैं तूफ़ान के दौरान जहाज़ को त्याग दूँ?” उसने जवाब दिया: “मैं गिरजे के अन्दर अपनी क्रियाशीलता को नहीं छोडूँगा।” दूसरा विकल्प होगा, “ऊँचे मूल्यों के प्रति प्रेम तथा और ज़्यादा प्रामाणिक मसीही होने के लिए गिरजे के कर्त्तव्य-त्याग की वज़ह से उससे जुदा होना।”—डाय हॉफनंग बेवाहरेन।
लेकिन क्या एक व्यक्ति अपने ख़ुद के गिरजे की नाँव में इस उम्मीद में सवार रह सकता है कि, परमेश्वर अपनी दया के कारण सभी धर्मों को सुधरने के लिए असीमित समयावधि देगा? यह एक गंभीर सवाल है। जैसे दृष्टान्त के द्वारा सचित्रित किया गया है, ख़तरे में पड़े एक जहाज़ को जल्दबाज़ी में छोड़कर असुरक्षित रक्षा-नौकाओं में सवार होना उतना ही ख़तरनाक है जितना कि एक डूबते जहाज़ में सवार रहना। क्या हर क़ीमत पर गिरजे में रहना अक्लमंदी है, चाहे उसकी जो भी हालत हो? सुधार की कौन-सी संभावनाएँ आज धर्म पेश करते हैं? परमेश्वर अपनी इच्छा के ख़िलाफ़ इन्हें कब तक काम करने देगा?
[पेज 3 पर चित्रों का श्रेय]
Chesnot/Sipa Press