क्या धार्मिक सत्य प्राप्य है?
स्वीडन में एक विश्वविद्यालय वाले शहर अपसला में एक धार्मिक तौर पर जिज्ञासु व्यक्ति ने अपने शहर के विभिन्न धर्मों के विश्वासों का अध्ययन करने का, यहाँ तक कि उनके उपासना के स्थलों को भेंट करने का निर्णय किया। जब उनके पादरियों ने प्रचार किया तब उसने सुना, और उसने कुछ सदस्यों का इंटरव्यू लिया। उसने ध्यान दिया कि केवल यहोवा के साक्षी इस बात पर विश्वस्त प्रतीत हुए कि उन्होंने “सत्य को प्राप्त किया है।” धार्मिक मतों की विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए, उसने सोचा कि साक्षी ऐसा दावा कैसे कर सकते हैं।
क्या आप व्यक्तिगत तौर पर सोचते हैं कि धर्म के बारे में सत्य को प्राप्त करना संभव है? क्या जिसे परम सत्य कहा जा सकता है, उसे निश्चित करना संभव होगा?
तत्त्वज्ञान और सत्य
जिन्होंने तत्त्वज्ञान का अध्ययन किया है उन्होंने यह दृष्टिकोण विकसित किया है कि परम सत्य मनुष्यजाति की पहुँच के बाहर है। आप शायद जानते हों कि तत्त्वज्ञान की परिभाषा इस प्रकार की गई है “ऐसा विज्ञान जो अस्तित्व और जीवन के उद्गम को समझाने की कोशिश करता है।” लेकिन, वास्तव में, वह शायद ही ऐसा करता है। फिलोसोफीन्स हिस्टोरीय (तत्त्वज्ञान का इतिहास) में स्वीडिश लेखक आल्फ़ आलबर्ग ने लिखा: “अनेक तत्त्वज्ञानी सवाल इस प्रकार के हैं कि उनका निश्चित जवाब देना संभव नहीं है। . . . अनेक लोग इस मत के हैं कि सभी तात्त्विक समस्याएँ [बातों के मूल और स्वयंसिद्ध सिद्धान्तों से सम्बन्धित] इस . . . वर्ग की हैं।”
परिणामस्वरूप, जिन्होंने तत्त्वज्ञान के ज़रिए जीवन के अति महत्त्वपूर्ण सवालों के जवाब हासिल करने की कोशिश की है, उन्होंने अकसर अपने आपको अंततः असंतुष्ट या मनोव्यथा में पाया है। अपनी किताब टांग्केलिन्यर ओक ट्रुस्फोर्मर (विचारधाराएँ और धार्मिक विश्वास) में स्वीडिश लेखक गन्नार ऑस्पलिन ने कहा: “एक बात जो हम देखते हैं वह यह है कि प्रकृति को तितली या मच्छर से ज़्यादा मनुष्यों में दिलचस्पी नहीं है . . . हम उन शक्तियों के सामने जो विश्वमंडल में और हमारे आंतरिक संसार में अपना खेल खेलती हैं, शक्तिहीन हैं, पूर्णतः शक्तिहीन। जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण एक ऐसी शताब्दी के अन्त के निकट साहित्य में अकसर आया है, जिसमें मनुष्यों ने प्रगति में अपना विश्वास रखा है और एक बेहतर भविष्य के सपने देखे हैं।”
क्या सत्य के प्रकटीकरण की ज़रूरत है?
यह स्पष्ट है कि केवल मानव कोशिशें जीवन के बारे में सत्य का पता लगाने में सफल नहीं हुई हैं, और ऐसा प्रतीत होता है कि वे कभी सफल नहीं होंगी। अतः यह निष्कर्ष निकालने के लिए अच्छा कारण है कि किसी प्रकार का ईश्वरीय प्रकटीकरण ज़रूरी है। जिसे अनेक लोग प्रकृति की किताब कहते हैं वह कुछ प्रकटीकरण प्रदान करती है। चाहे यह जीवन के उद्गम के बारे में निर्णायक विवरण प्रदान नहीं करती, फिर भी यह ज़रूर दिखाती है कि ऐसा कुछ है जो जीवन के बारे में केवल एक भौतिकवादी स्पष्टीकरण से कहीं ज़्यादा संतोषप्रद है। घास की एक पत्ती जो ऊपर की ओर उगती है वास्तव में नीचे धसते गड्ढे में पत्थरों के ढेर को नियंत्रित करनेवाले नियमों से भिन्न नियमों का पालन करती है। प्रकृति में जीवित वस्तुएँ अपने आपको मृत चीज़ों से भिन्न तरीक़े से बनाती और व्यवस्थित करती हैं। अतः क़ानून और धर्म के एक विख्यात विद्यार्थी के पास यह निष्कर्ष निकालने के लिए एक आधार था: ‘[परमेश्वर] के अनदेखे गुण जगत की सृष्टि के समय से उसके कामों के द्वारा देखने में आते हैं।’—रोमियों १:२०.
लेकिन यह पता लगाने के लिए कि इस बनाने और व्यवस्थित करने के पीछे कौन है, हमें एक और प्रकटीकरण की ज़रूरत है। क्या हमें एक ऐसे प्रकटीकरण के अस्तित्व में होने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए? क्या यह अपेक्षा करना तर्कसंगत नहीं होगा कि वह व्यक्ति जो पृथ्वी पर जीवन के लिए ज़िम्मेदार है, वह अपने प्राणियों पर ख़ुद को प्रकट करेगा?
बाइबल ऐसा एक प्रकटीकरण होने का दावा करती है। इस पत्रिका में हमने अकसर इस दावे को स्वीकार करने के अच्छे कारण प्रस्तुत किए हैं और अनेक विचारशील लोगों ने इस दावे को स्वीकार किया है। यह तथ्य अपने आप में बहुत उल्लेखनीय है कि बाइबल को लिखनेवाले पुरुष यह स्पष्ट करने के लिए उत्सुक थे कि जो उन्होंने लिखा वह उनका अपना नहीं था। ३०० से अधिक बार, हम बाइबल के भविष्यवक्ताओं को ऐसी अभिव्यक्तियाँ प्रयोग करते हुए पाते हैं जैसे कि, ‘यहोवा यों कहता है।’ (यशायाह ३७:३३; यिर्मयाह २:२; नहूम १:१२) आप संभवतः जानते हैं कि पुरुष और स्त्री जो किताबें या लेख लिखते हैं अकसर अपनी रचना पर हस्ताक्षर करने के लिए काफ़ी उत्सुक होते हैं। लेकिन, जिन्होंने बाइबल लिखी उन्होंने ख़ुद को पृष्ठभूमि में रखा; कुछ जगहों पर यह निश्चित करना मुश्किल है कि बाइबल के कुछेक भागों को किसने लिखा है।
बाइबल का एक और पहलू जो आपको शायद महत्त्वपूर्ण लगे उसका आंतरिक ताल-मेल है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि बाइबल की ६६ किताबें १६०० सालों की अवधि के दौरान लिखी गई थीं, यह वास्तव में उल्लेखनीय है। मान लीजिए कि आप एक सार्वजनिक पुस्तकालय में जाते हैं और ६६ धार्मिक किताबें चुन लेते हैं जो १६ शताब्दियों की अवधि के दौरान लिखी गई थीं। फिर आप इन अलग-अलग किताबों को एक खंड में सजिल्द करवाते हैं। क्या आप अपेक्षा करेंगे कि उस खंड का एक समान विषय और एक सुसंगत संदेश हो? निश्चय ही नहीं। इसके लिए एक चमत्कार की ज़रूरत होगी। इस बात पर विचार कीजिए: बाइबल की किताबों का एक समान विषय है, और वे एक दूसरे की पुष्टि करती हैं। यह दर्शाता है कि बाइबल लेखकों को क्या लिखना है इसका निर्देशन देनेवाली एक महान-बुद्धि, या लेखक होना चाहिए।
लेकिन, आप ऐसी एक विशेषता पाएँगे जो बाइबल के ईश्वरीय उद्गम का सबसे ठोस सबूत देती है। भविष्यवाणियाँ—भविष्य में जो निश्चय ही होगा उसकी पूर्वलिखित जानकारी। अभिव्यक्तियाँ जैसे कि, ‘उस समय होगा,’ “अन्त के दिनों में ऐसा होगा” केवल बाइबल में ही पायी जाती हैं। (यशायाह २:२; ११:१०, ११; २३:१५; यहेजकेल ३८:१८; होशे २:२१-२३; जकर्याह १३:२-४) यीशु के इस पृथ्वी पर आने के सैकड़ों साल पहले इब्रानी शास्त्र की भविष्यवाणियों ने उसके जीवन के—उसके जन्म से मृत्यु तक—विवरण प्रदान किए। इसके अलावा और कोई तर्कसंगत निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि बाइबल जीवन के बारे में सत्य का स्रोत है। स्वयं यीशु इन शब्दों से इस बात की पुष्टि करता है: “तेरा वचन सत्य है।” —यूहन्ना १७: १७.
धर्म और सत्य
बाइबल में विश्वास रखने का दावा करनेवालों में से भी अनेक लोग विश्वास करते हैं कि परम सत्य प्राप्य नहीं है। अमरीका के पादरी, जॉन एस. स्पाँग ने टिप्पणी की: “हमें . . . यह विचार बदलना चाहिए कि हमारे पास सत्य है और दूसरों को हमारा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि परम सत्य हम सब की पहुँच के बाहर है।” सत्य को पाने के बारे में ऐसे नकारात्मक विचारों के लिए एक कारण एक रोमन कैथोलिक लेखक, क्रिस्टफर डेरिक देता है: “धार्मिक ‘सत्य’ का कोई भी ज़िक्र किसी तरह की जानकारी के दावे का संकेत करता है . . . आप संकेत करते हैं कि कोई और शायद ग़लत हो सकता है; और यह बिलकुल भी नहीं चलेगा।”
लेकिन, एक विचारशील व्यक्ति के तौर पर, कुछ उपयुक्त सवालों पर विचार करना आपके लिए लाभकारी होगा। यदि सत्य प्राप्य नहीं होता तो यीशु मसीह क्यों कहता: “[तुम] सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा”? और यीशु के प्रेरितों में से एक क्यों कहता कि परमेश्वर की इच्छा है कि “सब मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान लें”? मसीही यूनानी शास्त्र में विश्वास के सम्बन्ध में शब्द, “सत्य,” सौ से अधिक बार क्यों आता है? जी हाँ, क्यों, यदि सत्य अप्राप्य है?—यूहन्ना ८:३२; १ तीमुथियुस २:३, ४.
वास्तव में, यीशु ने न केवल इसकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया कि सत्य प्राप्य है, बल्कि उसने दिखाया कि यदि हमारी उपासना को परमेश्वर को स्वीकार्य होना है तो उसे ढूँढना ज़रूरी है। जब एक सामरी स्त्री ने संदेह व्यक्त किया कि उपासना का सही तरीक़ा कौन-सा था—यरूशलेम में यहूदियों द्वारा की गई उपासना या सामरियों द्वारा गरीज्जीम पर्वत पर की गई उपासना—तब यीशु ने यह कहते हुए जवाब नहीं दिया कि सत्य अप्राप्य है। इसके बजाय उसने कहा: “सच्चे भक्त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढता है। परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।”—यूहन्ना ४:२३, २४, तिरछे टाइप हमारे।
अनेक लोग दावा करते हैं, ‘बाइबल की व्याख्या कई तरीक़ों से की जा सकती है, अतः एक व्यक्ति संभवतः निश्चित नहीं हो सकता कि सत्य क्या है।’ लेकिन क्या बाइबल वास्तव में इतने अस्पष्ट तरीक़े से लिखी गई है कि आप निश्चित नहीं हो सकते कि उसे कैसे समझा जाना चाहिए? मान लिया कि कुछ भविष्यसूचक और सांकेतिक भाषा समझने में मुश्किल हो सकती है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर ने भविष्यवक्ता दानिय्येल से कहा कि उसकी किताब को, जिसमें बहुत अधिक सांकेतिक भाषा है, “अन्तसमय” तक पूरी तरह से नहीं समझा जाना था। (दानिय्येल १२:९) और यह स्पष्ट है कि कुछ दृष्टांतों और प्रतीकों के मतलब को व्याख्या की ज़रूरत है।
लेकिन यह स्पष्ट है कि मूल मसीही शिक्षाओं और नैतिक मूल्यों के बारे में, जो सच्चाई से परमेश्वर की उपासना करने के लिए अनिवार्य हैं, बाइबल बिलकुल स्पष्ट है। यह विरोधात्मक व्याख्याओं के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती। इफिसियों को लिखी पत्री में यह दिखाते हुए कि अनेक विश्वास नहीं होने थे, मसीही विश्वास को “एक” कहा गया है। (इफिसियों ४:४-६) शायद आप सोचेंगे, ‘यदि बाइबल की व्याख्या सही रीति से अनेक भिन्न तरीक़ों से नहीं की जा सकती तो इतने सारे भिन्न “मसीही” संप्रदाय क्यों हैं?’ हमें जवाब हासिल होता है यदि हम उस समय की ओर देखें जब यीशु के प्रेरित मरे ही थे और सच्चे मसीही विश्वास में से एक धर्मत्याग का विकास हुआ था।
‘अच्छा बीज और जंगली बीज’
यीशु ने अच्छे बीज और जंगली बीज के अपने दृष्टांत में इस धर्मत्याग को पूर्वबताया था। यीशु ने स्वयं समझाया कि ‘अच्छे बीज’ सच्चे मसीहियों को चित्रित करते हैं; “जंगली बीज” झूठे, या धर्मत्यागी मसीहियों को चित्रित करते हैं। “जब लोग सो रहे थे,” यीशु ने कहा, एक “बैरी” गेंहू के खेत में जंगली बीज बोता। यह बोने का कार्य प्रेरितों की मृत्यु में सो जाने के बाद शुरू हुआ। यह दृष्टांत दिखाता है कि सच्चे मसीहियों का झूठे मसीहियों के साथ संभ्रमित होना ‘रीति व्यवस्था की समाप्ति’ तक चलता। अतः, शताब्दियों के दौरान, सच्चे मसीहियों की पहचान अस्पष्ट रही है क्योंकि धार्मिक क्षेत्र में मुख्यतः वे लोग बहुसंख्यक रहे हैं जो केवल नाम-मात्र मसीही हैं। लेकिन ‘रीति व्यवस्था की समाप्ति’ के समय एक बदलाहट होता। झूठे मसीहियों को सच्चे मसीहियों से अलग करने के लिए ‘मनुष्य का पुत्र अपने स्वर्गदूतों को भेजता।’ इसका अर्थ था कि तब मसीही कलीसिया की पहचान आसानी से की जाती, और उसे वही स्थान हासिल होता जो प्रेरितों के समय में उसका था।—मत्ती १३:२४-३०, ३६-४३, NW.
यशायाह और मीका दोनों की ही भविष्यवाणियाँ “अंत के दिनों में” सच्चे उपासकों के एक ऐसे पुनःएकत्रीकरण को पूर्वबताती हैं। यशायाह कहता है: “अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊंचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा की नाईं उसकी ओर चलेंगे। और बहुत देशों के लोग आएंगे, और आपस में कहेंगे: आओ, हम यहोवा के पर्वत पर चढ़कर, याकूब के परमेश्वर के भवन में जाएं; तब वह हमको अपने मार्ग सिखाएगा; और हम उसके पथों पर चलेंगे।” तथ्यों पर एक स्पष्ट दृष्टि दिखाती है कि यशायाह की भविष्यवाणी हमारे समय में पूरी हो रही है।—यशायाह २:२, ३; मीका ४:१-३.
लेकिन, मसीही कलीसिया की वृद्धि किसी मानव कोशिशों द्वारा नहीं हो रही है। यीशु ने पूर्वबताया कि एकत्रीकरण का कार्य करने के लिए वह ‘अपने स्वर्गदूतों को भेजता।’ उसने इसके एक बहुत ही ख़ास उद्देश्य की ओर भी संकेत किया: “उस समय धर्मी अपने पिता के राज्य में सूर्य की नाईं चमकेंगे।” (मत्ती १३:४३) यह दिखाता है कि मसीही कलीसिया द्वारा एक प्रबोधित करने का, या शैक्षिक कार्य संसार-भर में किया जाता।
यहोवा के साक्षी इन भविष्यवाणियों की पूर्ति उस शैक्षिक कार्य में देखते हैं जो वे आज २३२ देशों में कर रहे हैं। साक्षियों के विश्वास, चालचलन के स्तर, और संगठन की बाइबल के साथ तुलना करने पर निष्पक्ष लोग स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि ये वैसे ही हैं जैसे पहली शताब्दी मसीही कलीसिया में थीं। साक्षी अपने विश्वास को “सत्य” कहते हैं लेकिन व्यक्तिगत श्रेष्ठता की किसी धारणा के कारण नहीं। इसके बजाय, वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्होंने विस्तृत रूप से परमेश्वर के वचन, बाइबल, का अध्ययन किया है, और धर्म को सही रीति से आँकने के एकमात्र मापदंड के तौर पर उसका अनुकरण करते हैं।
प्रारंभिक मसीहियों ने अपने विश्वास को ‘सत्य’ कहा। (१ तीमुथियुस ३:१५; २ पतरस २:२; २ यूहन्ना १) जो उनके लिए सत्य था वह आज हमारे लिए भी सत्य होना चाहिए। बाइबल का अध्ययन करने के द्वारा इस बात को ख़ुद निश्चित करने के लिए यहोवा के साक्षी सबको आमंत्रित करते हैं। हम आशा करते हैं कि ऐसा करने से आप भी उस आनन्द का अनुभव करेंगे जो न केवल एक ऐसे धर्म को पाने से मिलता है जो दूसरों से श्रेष्ठ है, परन्तु जो सत्य को पाने से मिलता है!
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कुछ तत्त्वज्ञान बनाम सत्य
प्रत्यक्षवाद: यह दृष्टिकोण कि धार्मिक स्वभाव के सभी विचार अप्रमाणिक बकवास हैं और कि तत्त्वज्ञान का उद्देश्य एक पूर्ण विज्ञान बनाने के लिए प्रत्यक्ष विज्ञानों को एक करना है।
अस्तित्ववाद: उसके समर्थक दूसरे विश्व युद्ध के संत्रासों से बहुत ही प्रभावित थे और इस कारण जीवन के प्रति एक नकारात्मक दृष्टिकोण रखने लगे। यह मनुष्य के संतापों का अवलोकन, मृत्यु और जीवन के खोखलेपन को ध्यान में रखते हुए करने पर ज़ोर देता है। अस्तित्ववादी लेखक ज़ान-पॉल सारट्रे ने कहा कि क्योंकि कोई परमेश्वर नहीं है, मनुष्य परित्यक्त है और एक ऐसे विश्व में जीता है जो पूर्णतः भावशून्य है।
संशयवाद: मानता है कि अवलोकन और तर्क के ज़रिए अस्तित्व के बारे में किसी लक्ष्य, परम ज्ञान—किसी भी सत्य—तक पहुँचना असंभव है।
व्यावहारिकतावाद: हमारे विश्वासों के सही मूल्य का अनुमान केवल मानव हितों पर उनके व्यावहारिक प्रासंगिकता से लगाता है। जैसे कि शिक्षा, नैतिक स्तरों, और राजनीति को नया रूप देने में इनकी प्रासंगिकता। यह इस बात को नहीं मानता कि सत्य का अपने आप में कुछ मूल्य है।
[पेज 2 पर चित्र का श्रेय]
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