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  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1995
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1995
w95 7/1 पेज 5-8

सत्य की खोज क्यों करें?

अनेक धार्मिक संगठन दावा करते हैं कि उनके पास सत्य है, और वे इसे दूसरों को उत्सुकता से पेश करते हैं। लेकिन, आपस में वे प्रचुर मात्रा में उलझानेवाले “सत्य” पेश करते हैं। क्या यह मात्र एक और सबूत है कि सभी सत्य सापेक्ष हैं, कि कोई निरपेक्ष सत्य नहीं है? जी नहीं।

अपनी पुस्तक सोचने की कला (अंग्रेज़ी) में, प्रोफ़ेसर वी. आर. रूजेरो अपना आश्‍चर्य व्यक्‍त करता है कि अक्लमंद लोग भी कभी-कभी कहते हैं कि सत्य सापेक्ष है। वह तर्क करता है: “यदि हर व्यक्‍ति अपना सत्य ख़ुद निर्धारित करता है, तब किसी भी व्यक्‍ति का विचार दूसरे व्यक्‍ति के विचार से बेहतर नहीं हो सकता। सभी को बराबर होना चाहिए। और यदि सभी विचार बराबर हैं, तो किसी भी विषय पर खोजबीन करने की तुक क्या है? पुरातत्त्वीय सवालों के जवाबों के लिए खुदाई क्यों करें? मध्य पूर्व में तनाव की वजहों की तहक़ीक़ात क्यों करें? कैंसर का इलाज क्यों ढूँढें? मंदाकिनी में छान-बीन क्यों करें? ये गतिविधियाँ केवल तभी तर्कसंगत होंगी जब कुछ जवाब दूसरों से बेहतर हैं, जब सत्य व्यक्‍तिगत दृष्टिकोण से कुछ अलग, और उनसे अप्रभावित बात है।”

दरअसल, कोई भी वास्तव में विश्‍वास नहीं करता कि कोई सत्य नहीं है। जब भौतिक वास्तविकताओं की बात आती है, जैसे चिकित्सा, गणित, या भौतिक विज्ञान के नियम, तब सबसे कट्टर सापेक्षतावादी भी विश्‍वास करेगा कि कुछ बातें सच हैं। हम में से ऐसा कौन है जो वायुयान में सैर करने का साहस करेगा यदि हम यह नहीं सोचते कि वायुगतिकी के नियम निरपेक्ष सत्य हैं? प्रमाणनीय सत्य वाक़ई अस्तित्व में हैं, वे हमारी चारों तरफ़ हैं, और हम इन के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देते हैं।

सापेक्षतावाद की क़ीमत

लेकिन, यह नैतिक क्षेत्र में है जहाँ सापेक्षतावाद की त्रुटियाँ सबसे ज़्यादा प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि यहीं पर ऐसे सोच-विचार ने सबसे ज़्यादा हानि की है। दी एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना यह कहती है: “इस बात पर गम्भीर रूप से संदेह किया गया है कि ज्ञान, या ज्ञात सत्य, मानवीय रूप से प्राप्य है या नहीं . . . लेकिन, यह निश्‍चित है कि जब भी सत्य और ज्ञान के दोहरे आदर्श को काल्पनिक या हानिकारक समझकर ठुकराया जाता है, तब मानव समाज का क्षय होता है।”

शायद आपने ऐसा क्षय देखा है। उदाहरण के लिए, बाइबल की नैतिक शिक्षाएँ, जो स्पष्ट रूप से कहती हैं कि लैंगिक अनैतिकता ग़लत है, अब सच्चाई के तौर पर केवल विरले ही मानी जाती हैं। स्थिति नीतिशास्त्र—“स्वयं निर्णय कीजिए कि आपके लिए क्या सही है”—प्रचलित विचार है। क्या कोई व्यक्‍ति दावा कर सकता है कि सामाजिक क्षय इस सापेक्षतावादात्मक दृष्टिकोण से परिणित नहीं हुआ है? निश्‍चय ही लैंगिक रूप से फैलनेवाली बीमारियों की विश्‍वव्यापी महामारियाँ, विभाजित घर, और किशोर-गर्भावस्थाएँ नैतिक क्षय का पर्याप्त सबूत पेश करती हैं।

सत्य क्या है?

सो आइए हम सापेक्षतावाद के मैले जल को छोड़ें और संक्षिप्त में उसे जाँचें जिसका बाइबल सत्य के शुद्ध जल के रूप में वर्णन करती है। (यूहन्‍ना ४:१४; प्रकाशितवाक्य २२:१७) बाइबल में, “सत्य” बिलकुल भी उस दुर्बोध, अस्पष्ट धारणा की तरह नहीं है जिस पर तत्वज्ञानी बहस करते हैं।

जब यीशु ने कहा कि उसके जीवन का पूरा उद्देश्‍य सत्य के बारे में बात करना था, तब वह उसके बारे में बात कर रहा था जिसकी क़दर विश्‍वासी यहूदियों ने शताब्दियों से की थी। अपने पवित्र लेखनों में, यहूदियों ने “सत्य” के बारे में काफ़ी समय से पढ़ा था कि वह प्रत्यक्ष है, न कि सैद्धान्तिक। बाइबल में, इब्रानी शब्द “इमॆत” (ʼemeth’) को “सत्य” अनुवाद किया गया है, जो उसे सूचित करता है जो दृढ़, ठोस, और संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण बात, विश्‍वसनीय है।

सत्य के बारे में वैसा दृष्टिकोण रखने के लिए यहूदियों के पास अच्छा कारण था। वे अपने परमेश्‍वर, यहोवा को ‘सत्य का परमेश्‍वर’ कहते थे। (भजन ३१:५, NHT) ऐसा इसलिए था क्योंकि जो भी बात यहोवा ने कही कि वह करेगा, उसने वह की। जब वह प्रतिज्ञाएँ करता था, तो वह उन्हें पूरा करता था। जब वह भविष्यवाणियाँ उत्प्रेरित करता था, तो वे पूरी होती थीं। जब वह अन्तिम न्यायदंड सुनाता था, तो वो दिया जाता था। लाखों इस्राएली इन वास्तविकताओं के चश्‍मदीद गवाह थे। बाइबल के उत्प्रेरित लेखकों ने इन्हें इतिहास के निर्विवाद तथ्यों के तौर पर अभिलिखित किया। पवित्र समझी जानेवाली अन्य पुस्तकों से भिन्‍न, बाइबल पौराणिक कथा या कल्प-कथा की पृष्ठभूमि में लिखी नहीं गयी है। यह प्रमाणनीय तथ्यों—ऐतिहासिक, पुरातत्त्वीय, वैज्ञानिक, और समाजवैज्ञानिक वास्तविकताओं—पर सुस्थापित है। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि भजनहार यहोवा के बारे में कहता है: “तेरी व्यवस्था सत्य है। . . . तेरी सब आज्ञाएं सत्य हैं। . . . तेरा सारा वचन सत्य ही है”!—भजन ११९:१४२, १५१, १६०.

यीशु मसीह ने उस भजन के शब्दों को प्रतिध्वनित किया जब उसने यहोवा से प्रार्थना में कहा: “तेरा वचन सत्य है।” (यूहन्‍ना १७:१७) यीशु जानता था कि जो भी बात उसके पिता ने कही वह पूरी तरह से पक्की और विश्‍वसनीय थी। उसी तरह, यीशु “सच्चाई से परिपूर्ण” था। (यूहन्‍ना १:१४) चश्‍मदीद गवाहों के तौर पर उसके अनुयायियों ने जाना, और सब भावी पीढ़ियों के लिए अभिलिखित किया कि जो भी वह कहता था वह विश्‍वसनीय, अर्थात्‌ सत्य था।a

लेकिन, जब यीशु ने पीलातुस से कहा कि वह पृथ्वी पर सत्य बताने आया था, तब उसके मन में एक विशिष्ट सत्य था। यीशु ने पीलातुस के सवाल: “क्या तू राजा है?” के उत्तर में यह कथन किया। (यूहन्‍ना १८:३७) जब यीशु पृथ्वी पर था तब परमेश्‍वर का राज्य, और उसके राजा के तौर पर यीशु की भूमिका यीशु की शिक्षा का विषय, अर्थात्‌ सार था। (लूका ४:४३) यह शिक्षा कि यह राज्य यहोवा के नाम का पवित्रीकरण करेगा, उसकी सर्वसत्ता का दोषनिवारण करेगा, और विश्‍वासी मनुष्यजाति को अनन्त और सुखी जीवन फिर से देगा, वह “सत्य” है जिसमें सभी सच्चे मसीही आशा रखते हैं। चूँकि परमेश्‍वर की सभी प्रतिज्ञाओं की पूर्ति में यीशु की भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण है, और चूँकि उसी की वजह से परमेश्‍वर की सभी भविष्यवाणियाँ “आमीन,” या सच बनती हैं, यीशु भली-भाँति कह सका: “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं।”—यूहन्‍ना १४:६; २ कुरिन्थियों १:२०; प्रकाशितवाक्य ३:१४.

मसीहियों के लिए आज इस सत्य को पूरी तरह से विश्‍वसनीय समझकर मानना बहुत अर्थपूर्ण है। इसका अर्थ है कि परमेश्‍वर में उनका विश्‍वास और उसकी प्रतिज्ञाओं में उनकी आशा तथ्यों, और वास्तविकताओं पर आधारित है।

क्रियाशील रूप में सत्य

इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि बाइबल सत्य को क्रिया के साथ जोड़ती है। (१ शमूएल १२:२४; १ यूहन्‍ना ३:१८) परमेश्‍वर का भय माननेवाले यहूदियों के लिए, सत्य तत्त्वनिरूपण करने का विषय नहीं था; यह एक जीवन-रीति थी। “सत्य” के लिए इब्रानी शब्द का अर्थ “वफ़ादारी” भी हो सकता है, और इसे एक ऐसे व्यक्‍ति का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जिस पर अपने वचन के अनुसार काम करने का भरोसा किया जा सकता है। यीशु ने अपने अनुयायियों को सिखाया कि सत्य को उसके दृष्टिकोण से देखें। उसने क्रोधित होकर फरीसियों के पाखण्ड, और उनके दंभपूर्ण शब्दों तथा उनके अधर्मी कार्यों के बीच के बड़े फ़ासले की निन्दा की। और जिन सच्चाइयों को उसने सिखाया, उनके अनुसार जीने के द्वारा उसने एक उदाहरण रखा।

ऐसा ही मसीह के सभी अनुयायियों के लिए होना चाहिए। उनके लिए, परमेश्‍वर के वचन का सत्य, अर्थात्‌ यीशु मसीह के शासन के अधीन परमेश्‍वर के राज्य का आनन्दमय सुसमाचार, मात्र जानकारी से बढ़कर, कहीं बढ़कर है। यह सत्य उन्हें क्रियाशील होने के लिए प्रेरित करता है, इसके अनुसार जीने और इसे दूसरों के साथ बाँटने के लिए बाध्य करता है। (यिर्मयाह २०:९ से तुलना कीजिए।) प्रथम-शताब्दी मसीही कलीसिया के लिए, मसीह के अनुयायियों के तौर पर जो जीवन-रीति उन्होंने अपनायी थी, उसे कभी-कभी “सत्य” या “सत्य के मार्ग” के नाम से जाना गया।—२ यूहन्‍ना ४; ३ यूहन्‍ना ४, ८; २ पतरस २:२.

किसी भी क़ीमत के योग्य ख़ज़ाना

सचमुच, परमेश्‍वर के वचन की सच्चाइयों को स्वीकार करना क़ीमत वसूल करता है। पहले, मात्र सच्चाई को सीखना ही एक स्तब्ध करनेवाला अनुभव हो सकता है। एनसाइक्लोपीडिया अमेरिकाना कहती है: “सत्य अकसर अस्वीकार्य होता है, क्योंकि यह पूर्वधारणा या पौराणिक कथा का समर्थन नहीं करता है।” हमारे विश्‍वासों को असत्य के रूप में पर्दाफ़ाश होते देखना मोहभंग करनेवाला हो सकता है, ख़ासकर यदि हम विश्‍वसनीय धार्मिक अगुओं द्वारा शिक्षित किए गए हैं। कुछ लोग शायद इस अनुभव को यह पता लगाने के साथ तुलना करें कि विश्‍वसनीय माता-पिता, असल में, गुप्त अपराधी हैं। लेकिन क्या धार्मिक सच्चाई का पता लगाना भ्रम में जीने से बेहतर नहीं है? क्या तथ्यों को जानना झूठ द्वारा बहकाए जाने से बेहतर नहीं है?b—यूहन्‍ना ८:३२ से तुलना कीजिए; रोमियों ३:४.

दूसरा, धार्मिक सत्य के अनुसार जीने से शायद हमें ऐसे कुछ दोस्तों की स्वीकृति न मिले जो पहले हमारे दोस्त थे। एक ऐसे संसार में जहाँ इतने ज़्यादा लोगों ने “परमेश्‍वर की सच्चाई के बदले झूठ को अपनाया” है, वे लोग जो परमेश्‍वर के वचन के सत्य का दृढ़ता से पालन करते हैं अजीब लगते हैं और कभी-कभी उनसे दूर रहा जाता है और उन्हें ग़लत समझा जाता है।—रोमियों १:२५, NHT; १ पतरस ४:४.

लेकिन सत्य इस दोहरी क़ीमत के योग्य है। सत्य जानना हमें झूठ, भ्रम, और अंधविश्‍वास से मुक्‍त करता है। और जब हम उसके अनुसार जीते हैं, तो सत्य हमें कठिनाइयों को सहने की शक्‍ति देता है। परमेश्‍वर का सत्य इतना विश्‍वसनीय और सुस्थापित है, और वह हमें आशा से इतना प्रेरित करता है कि यह हमें किसी भी परीक्षा में दृढ़ रहने में समर्थ करता है। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं कि प्रेरित पौलुस ने सत्य की तुलना उस चौड़े, मज़बूत चमड़े के कमरबन्द, या पेटी से की, जिसे लड़ाई में जाते वक़्त सैनिक पहनते हैं!—इफिसियों ६:१३, १४.

बाइबल नीतिवचन कहता है: “सच्चाई को मोल लेना, बेचना नहीं; और बुद्धि और शिक्षा और समझ को भी मोल लेना।” (नीतिवचन २३:२३) सत्य को सापेक्ष या अस्तित्वहीन समझकर ख़ारिज कर देने का अर्थ है जीवन की सबसे रोमांचक और संतुष्टिदायक तलाश से वंचित रह जाना। इसे पाने का अर्थ है आशा पाना; इसे जानने और इससे प्रेम करने का अर्थ है विश्‍व के सृष्टिकर्त्ता और उसके एकलौते पुत्र को जानना और प्रेम करना; इसके अनुसार जीने का अर्थ है उद्देश्‍य और मन की शान्ति के साथ, अब और सर्वदा के लिए जीना।—नीतिवचन २:१-५; जकर्याह ८:१९; यूहन्‍ना १७:३.

[फुटनोट]

a सुसमाचार वृत्तान्तों में ७० से अधिक स्थान हैं जहाँ वह अनोखी अभिव्यक्‍ति अभिलिखित है जिसे यीशु ने अपने शब्दों की सच्चाई पर ज़ोर देने के लिए इस्तेमाल किया। एक वाक्य की शुरूआत करने के लिए वह अकसर “आमीन” (“सच,” OHV) कहता। इससे मेल खानेवाले इब्रानी शब्द का अर्थ था “निश्‍चित, सच।” द न्यू इंटरनैशनल डिक्शनरी ऑफ़ न्यू टॆस्टामेंट थियॉलॉजी (अंग्रेज़ी) कहता है: “अपने शब्दों को आमीन से शुरूआत करने के द्वारा यीशु ने उन पर निश्‍चित और विश्‍वसनीय होने की छाप लगाई। उसने अपने शब्दों को स्वयं माना और उन्हें अपने और अपने सुननेवालों पर बाध्यकारी किया। वे उसके प्रभुत्व और अधिकार की अभिव्यक्‍ति हैं।”

b “सत्य” के लिए यूनानी शब्द, एलीथीया (a·leʹthei·a), एक ऐसे शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है “छिपा न होना,” सो सत्य में अकसर उस बात का प्रकटन शामिल होता है जो पहले छिपा हुआ था।—लूका १२:२ से तुलना कीजिए।

[पेज 6 पर बक्स]

क्या सत्य कभी बदलता है?

यह दिलचस्प प्रश्‍न वी. आर. रूजेरो द्वारा अपनी पुस्तक सोचने की कला में उठाया गया था। उसका जवाब है, नहीं। वह विस्तार से कहता है: “यह शायद कभी-कभी बदलता प्रतीत हो, लेकिन नज़दीकी से जाँच करने पर यह पता चलेगा कि यह बदला नहीं है।”

वह कहता है, “बाइबल की पहली पुस्तक, उत्पत्ति की पुस्तक के कर्तृत्व के मामले पर विचार कीजिए। शताब्दियों तक मसीही और यहूदी समान रूप से विश्‍वास करते थे कि इस पुस्तक का एक ही लेखक था। कुछ समय बाद इस दृष्टिकोण को चुनौती दी गयी, और अंततः इसकी जगह इस विश्‍वास ने ले ली कि पाँच लेखकों ने उत्पत्ति के लेखन में सहयोग दिया। फिर, १९८१ में, उत्पत्ति के ५-वर्षीय भाषाई विश्‍लेषण के परिणाम प्रकाशित हुए, जिसमें लिखा था कि एकल कर्तृत्व की संभावना ८२ प्रतिशत थी, जैसे शुरू में सोचा गया था।

“क्या उत्पत्ति के कर्तृत्व के बारे में सत्य बदल गया है? जी नहीं। केवल हमारा विश्‍वास बदला है। . . . सत्य हमारे ज्ञान या हमारी अज्ञानता से नहीं बदलेगा।”

[पेज 7 पर बक्स]

सत्य के लिए श्रद्धा

“सत्य के लिए श्रद्धा हमारे युग की मात्र कूट-दोषदर्शिता नहीं है जो हर चीज़ को इस विश्‍वास से ‘बेनक़ाब’ करने की कोशिश करती है कि कोई भी व्यक्‍ति या चीज़ यथार्थता से यह दावा नहीं कर सकती है कि उसके पास सत्य है। सत्य के लिए श्रद्धा वह मनोवृत्ति है जो इस आनन्दमय विश्‍वास को कि सत्य वाक़ई पाया जा सकता है, सत्य को नम्रतापूर्वक स्वीकार करने के साथ जोड़ती है। सत्य के लिए यह श्रद्धा जब भी और जहाँ भी सत्य प्रकट होता है, तब सत्य को नम्रतापूर्वक स्वीकार करने के द्वारा दिखाया जाता है। सत्य के परमेश्‍वर की उपासना करनेवालों से सत्य के प्रति ऐसे खुलेपन की माँग की जाती है; जबकि सत्य के लिए उचित श्रद्धा अपने पड़ोसी के साथ एक व्यक्‍ति के बर्ताव में, दोनों कथनी और करनी में, ईमानदारी निश्‍चित करती है। यही मनोवृत्ति है, जो हमने देखा है, जिसके बारे में दोनों, पुराना नियम और नया नियम गवाही देता है।”—द न्यू इंटरनैशनल डिक्शनरी ऑफ न्यू टॆस्टामेंट थियॉलॉजी खण्ड ३, पृष्ठ ९०१.

[पेज 7 पर तसवीरें]

वैज्ञानिक प्रगति वैज्ञानिक सच्चाइयों को उघारने पर आधारित है

[पेज 8 पर तसवीरें]

सत्य में राज्य और उसकी आशिषें समाविष्ट हैं

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