उद्धार—वास्तव में इसका जो अर्थ है
‘क्या आपका उद्धार हो गया है?’ अकसर, जो लोग यह सवाल पूछते हैं, ऐसा महसूस करते हैं कि उनका उद्धार हो चुका है क्योंकि उन्होंने ‘यीशु को अपने व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया है।’ फिर भी अन्य लोग महसूस करते हैं कि उद्धार पाने के विभिन्न रास्ते हैं और जब तक ‘यीशु आपके दिल में है’ तब तक इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप क्या विश्वास करते हैं या फिर आप किस गिरजे से हैं।
बाइबल कहती है कि यह परमेश्वर कि इच्छा है कि “सब मनुष्यों का उद्धार हो।” (१ तीमुथियुस २:३, ४) इसलिए उद्धार उन सभी के लिए उपलब्ध है जो इसे स्वीकार करेंगे। लेकिन बचाए जाने का आख़िर क्या अर्थ है? क्या यह वाक़ई एक ऐसी बात है जो बस यूँ ही आपके लिए हो जाती है चाहे आप थोड़ा या कोई भी प्रयास न करें?
शब्द “उद्धार” का अर्थ है “ख़तरे या विनाश से छुटकारा।” इसलिए असली उद्धार का अर्थ एक शांत मानसिक स्थिति से कहीं बढ़कर है। इसका अर्थ है, इस वर्तमान दुष्ट रीति-व्यवस्था के विनाश से और अंत में ख़ुद मृत्यु से बचाए जाना! लेकिन आख़िर वह कौन है जिसे परमेश्वर बचाएगा? इसके जवाब में, आइए हम उस बात की जाँच करें जो यीशु ने इस विषय में सिखाई। हमारी जाँच के परिणाम शायद आपको अचंभित कर दें।
उद्धार—क्या यह सभी धर्मों में पाया जाता है?
एक अवसर पर, यीशु ने एक सामरी स्त्री से बातचीत की। हालाँकि वह एक यहूदी नहीं थी, वह सही रीति से विश्वास करती थी कि मसीहा आएगा “जो ख्रीस्तुस कहलाता है।” (यूहन्ना ४:२५) क्या ऐसा विश्वास उसे बचाने के लिए काफ़ी था? जी नहीं, क्योंकि यीशु ने निडरता से उस स्त्री को बताया: “तुम उसकी आराधना करते हो जिसे नहीं जानते।” यीशु जानता था कि यदि इस स्त्री को उद्धार पाना था तो उसे अपनी आराधना के तरीक़े में समंजन करना होता। इसलिए यीशु ने समझाया: “परन्तु वह समय आ रहा है, वरन् आ गया है, जब सच्चे आराधक पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिए ऐसे ही आराधक चाहता है।”—यूहन्ना ४:२२, २३, NHT.
एक अन्य अवसर जिस पर यीशु ने उद्धार के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रकट किया, उन फरीसियों को लेकर था, जो यहूदीवाद का एक मुख्य धार्मिक पंथ थे। फरीसियों ने उपासना की रीति तैयार की थी और उन्हें विश्वास था कि वह परमेश्वर को स्वीकृत थी। लेकिन फरीसियों को कहे गए यीशु के शब्द सुनिए: “हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक की। कि ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं।”—मत्ती १५:७-९.
आज उन अनेक धार्मिक समूहों के बारे में क्या जो मसीह पर विश्वास रखने का दावा करते हैं? क्या यीशु इन सभी को उद्धार पाने के जायज़ तरीक़े बताकर इनका समर्थन करेगा? हमें इस मामले में अनुमान लगाने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि यीशु ने स्पष्ट रूप से कहा: “जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।”—मत्ती ७:२१-२३.
यीशु का यथार्थ ज्ञान उद्धार के लिए अनिवार्य
यीशु के ये शब्द गंभीर अर्थ रखते हैं। ये सूचित करते हैं कि अनेक श्रद्धालु लोग ‘पिता की इच्छा पर चलने’ से चूक रहे हैं। तब, कैसे एक व्यक्ति असली उद्धार प्राप्त कर सकता है? पहला तीमुथियुस २:३, ४ जवाब देता है: “[परमेश्वर] यह चाहता है, कि सब मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान [“यथार्थ ज्ञान,” NW] लें।” (तिरछे टाइप हमारे।)—कुलुस्सियों १:९, १० से तुलना कीजिए।
ऐसा ज्ञान उद्धार पाने के लिए निर्णायक है। जब एक रोमी जेलर ने पौलुस और उसके साथी सीलास से पूछा, “उद्धार पाने के लिये मैं क्या करूं?” उन्होंने जवाब दिया: “प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उद्धार पाएगा।” (प्रेरितों १६:३०, ३१) क्या इसका यह अर्थ था कि जेलर और उसके परिवार को बस अपने दिल में एक भावना महसूस करनी थी? जी नहीं, एक कारण यह था कि वे तब तक “प्रभु यीशु” पर सचमुच विश्वास नहीं कर सकते थे जब तक कि उन्हें इस बारे में कुछ समझ न होती कि यीशु कौन था, उसने क्या किया था, और उसने क्या शिक्षा दी।
उदाहरण के लिए, यीशु ने एक स्वर्गीय सरकार—“परमेश्वर के राज्य”—की स्थापना की शिक्षा दी। (लूका ४:४३) उसने मसीही नैतिकता और आचरण के बारे में सिद्धांत भी दिए। (मत्ती, अध्याय ५-७) उसने उस स्थिति के बारे में बताया जो उसके चेले राजनैतिक मामलों में धारण करते। (यूहन्ना १५:१९) उसने विश्वव्यापी शिक्षण कार्यक्रम स्थापित किया और अपने अनुयायियों को उसमें हिस्सा लेने के लिए नियुक्त किया। (मत्ती २४:१४; प्रेरितों १:८) जी हाँ, ‘यीशु पर विश्वास करने’ का अर्थ बहुत सारी बातों को समझना था! तो फिर इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि पौलुस और सीलास ने इन नए विश्वासियों के बपतिस्मा पाने से पहले “[जेलर] और उसके सारे घर के लोगों को प्रभु का वचन सुनाया।”—प्रेरितों १६:३२, ३३.
परमेश्वर का यथार्थ ज्ञान भी अनिवार्य
यीशु में सचमुच विश्वास करने का एक आवश्यक भाग है, उस परमेश्वर की उपासना करना जिसकी उपासना ख़ुद यीशु करता है। यीशु ने प्रार्थना की: “अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें।”—यूहन्ना १७:३.
अपनी पार्थिव सेवकाई के दौरान, परमेश्वर के पुत्र ने हमेशा अपने पिता की ओर ध्यान आकर्षित किया न कि अपनी ओर। उसने कभी-भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर होने का दावा नहीं किया। (यूहन्ना १२:४९, ५०) अनेक अवसरों पर यीशु ने परमेश्वर के प्रबंध में अपने स्थान को स्पष्ट किया जब उसने कहा कि वह अपने पिता के अधीन था। (लूका २२:४१, ४२; यूहन्ना ५:१९) यीशु ने घोषित किया: “पिता मुझ से बड़ा है।” (यूहन्ना १४:२८) क्या आपके गिरजे ने आपको परमेश्वर और मसीह के बीच असली रिश्ते के बारे में सिखाया है? या क्या आपको यह विश्वास करवाया गया है कि ख़ुद यीशु ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर है? सही समझ रखने पर आपका उद्धार निर्भर करता है।
प्रभु की प्रार्थना में, यीशु ने अपने चेलों से यह प्रार्थना करने का आग्रह किया: “तेरा नाम पवित्र माना जाए।” (मत्ती ६:९) बाइबल के अधिकांश अनुवादों ने परमेश्वर के नाम को मिटा दिया है और उसकी जगह “प्रभु” डाल दिया है। लेकिन “पुराने नियम” की प्राचीन प्रतियों में परमेश्वर का नाम छः हज़ार बार से भी ज़्यादा आया है! इसलिए भजन ८३:१८ कहता है: “जिसे से यह जानें कि केवल तू जिसका नाम यहोवा है, सारी पृथ्वी के ऊपर परमप्रधान है।” (तिरछे टाइप हमारे।) क्या आपको परमेश्वर के नाम, यहोवा का प्रयोग करना सिखाया गया है? यदि नहीं, तो आपका उद्धार संकट में है, क्योंकि “जो कोई प्रभु [“यहोवा,” NW] का नाम लेगा, वही उद्धार पाएगा”!—प्रेरितों २:२१. योएल २:३२ से तुलना कीजिए।
आत्मा और सच्चाई से
यीशु मसीह ने परमेश्वर के वचन, बाइबल की ओर भी ध्यान आकर्षित किया। कुछ मामलों पर परमेश्वर का दृष्टिकोण समझाते समय, वह अकसर कहता: “लिखा है।” (मत्ती ४:४, ७, १०; ११:१०; २१:१३) अपनी मृत्यु से पिछली रात, यीशु ने अपने चेलों के लिए प्रार्थना की: “सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है।”—यूहन्ना १७:१७.
इस प्रकार परमेश्वर के वचन, बाइबल की शिक्षाओं की समझ होना उद्धार के लिए एक और माँग है। (२ तीमुथियुस ३:१६) केवल बाइबल ऐसे सवालों के जवाब देती है जैसे: जीवन का अर्थ क्या है? परमेश्वर ने दुष्टता को इतने दिन क्यों रहने दिया है? जब एक व्यक्ति मरता है तो उसके साथ क्या होता है? क्या परमेश्वर लोगों को सचमुच एक अग्निमय नरक में पीड़ा देता है? पृथ्वी के लिए परमेश्वर का उद्देश्य क्या है?a एक व्यक्ति इन विषयों की सही समझ के बिना उचित रूप से परमेश्वर की उपासना नहीं कर सकता, क्योंकि यीशु ने कहा: “सच्चे आराधक पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे।”—यूहन्ना ४:२३, NHT.
विश्वास कार्य के लिए प्रेरित करता है
उद्धार में मात्र जानकारी हासिल करने से भी ज़्यादा शामिल है। एक प्रतिक्रियाशील हृदय में, परमेश्वर का यथार्थ ज्ञान विश्वास उत्पन्न करता है। (रोमियों १०:१०, १७; इब्रानियों ११:६) ऐसा विश्वास एक व्यक्ति को कार्य के लिए प्रेरित करता है। उदाहरण के लिए, बाइबल ताड़ना देती है: “इसलिये, मन फिराओ और लौट आओ कि तुम्हारे पाप मिटाए जाएं, जिस से प्रभु के सन्मुख से विश्रान्ति के दिन आएं।”—प्रेरितों ३:१९.
जी हाँ, उद्धार में ख़ुद को आचरण और नैतिकता के परमेश्वर के स्तरों के अनुसार चलाना शामिल है। परमेश्वर के वचन के कायापलट प्रभाव के अधीन, झूठ बोलने और धोखा देने जैसी जीवन-भर की आदतों की जगह ईमानदारी और सच्चाई ले लेती है। (तीतुस २:१०) अनैतिक आदतें, जैसे समलैंगिकता, परस्त्रीगमन, और व्यभिचार, त्याग दिए जाते हैं और उनकी जगह पवित्र नैतिक आचरण ले लेता है। (१ कुरिन्थियों ६:९-११) यह भावना पर आधारित दो पल का परहेज़ नहीं है बल्कि परमेश्वर के वचन के ध्यानपूर्ण अध्ययन और प्रयोग से होनेवाला स्थायी परिवर्तन है।—इफिसियों ४:२२-२४.
कुछ समय बाद, परमेश्वर के लिए प्रेम और मूल्यांकन एक सत्यहृदयी व्यक्ति को परमेश्वर के प्रति एक पूर्ण समर्पण करने और उसे पानी के बपतिस्मे द्वारा चिन्हित करने के लिए प्रेरित करता है। (मत्ती २८:१९, २०; रोमियों १२:१) बपतिस्मा-प्राप्त मसीही परमेश्वर की दृष्टि में बचाए हुए हैं। (१ पतरस ३:२१) इस दुष्ट संसार के आनेवाले विनाश में, उस क्लेश में सुरक्षित रखने के द्वारा परमेश्वर उन्हें पूरी रीति से बचाएगा।—प्रकाशितवाक्य ७:९, १४.
आपके लिए उद्धार का जो अर्थ हो सकता है
इस संक्षिप्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि उद्धार हासिल करने में ‘प्रभु यीशु को अपने हृदय में रखने’ से ज़्यादा शामिल है। इसका अर्थ यहोवा परमेश्वर और यीशु मसीह के बारे में यथार्थ ज्ञान लेना और अपने जीवन में ज़रूरी परिवर्तन करना है। ऐसा करना शायद बहुत कठिन जान पड़े, लेकिन यहोवा के साक्षी इस कार्य में आपकी मदद करने के शिक्षार्थी हैं। मुफ़्त गृह बाइबल अध्ययन द्वारा, वे सच्चे उद्धार के रास्ते पर चलना शुरू करने में आपकी मदद कर सकते हैं।b
परमेश्वर के आनेवाले न्याय के दिन की नज़दीकी को मद्देनज़र रखते हुए, ऐसा करना पहले से कहीं अधिक अत्यावश्यक है! भविष्यवक्ता के वचनों पर ध्यान देने का अभी समय है: “इस से पहिले कि . . . यहोवा के क्रोध का दिन तुम पर आए, तुम इकट्ठे हो। हे पृथ्वी के सब नम्र लोगो, हे यहोवा के नियम के माननेवालो, उसको ढूंढ़ते रहो; धर्म को ढूंढ़ो, नम्रता को ढूंढ़ो; सम्भव है तुम यहोवा के क्रोध के दिन में शरण पाओ।—सपन्याह २:२, ३.
[फुटनोट]
a इन विषयों पर चर्चा के लिए, कृपया वॉच टावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित, ज्ञान जो अनन्त जीवन की ओर ले जाता है, देखिए।
b यदि आप एक गृह बाइबल अध्ययन चाहते हैं, तो कृपया यहोवा के साक्षियों की स्थानीय कलीसिया से संपर्क कीजिए। या फिर आप इस पत्रिका के प्रकाशकों को लिख सकते हैं।
[पेज 6 पर बक्स]
उद्धार मिलता है
◻ परमेश्वर और यीशु के बारे में यथार्थ ज्ञान पाने से।—यूहन्ना १७:३.
◻ विश्वास जताने से।—रोमियों १०:१७; इब्रानियों ११:६.
◻ पश्चाताप करने और मन फिराने से।—प्रेरितों ३:१९; इफिसियों ४:२२-२४.
◻ समर्पण और बपतिस्मे से।—मत्ती १६:२४; २८:१९, २०.
◻ सार्वजनिक उद्घोषणा करना जारी रखने से।—मत्ती २४:१४; रोमियों १०:१०.
[पेज 7 पर तसवीरें]
बाइबल का अध्ययन करना, जो सीखा है उसे लागू करना, समर्पण, और बपतिस्मा उद्धार की ओर ले जानेवाले क़दम हैं