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  • ‘इपिकूरियों’ से सावधान

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  • ‘इपिकूरियों’ से सावधान
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
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  • मिलते-जुलते लेख
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    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1997
w97 11/1 पेज 23-25

‘इपिकूरियों’ से सावधान

“वह कितना अच्छा है! वह उच्च नैतिक स्तरों के अनुसार जीता है। वह धूम्रपान नहीं करता, नशीले पदार्थों का दुरुपयोग नहीं करता, अथवा गंदी बोली नहीं बोलता।असल में, वह ऐसे कितनों से अच्छा है जो मसीही होने का दावा करते हैं!”

अनुचित मित्रता करने पर उसकी सफ़ाई में क्या आपने किसी को ऐसा तर्क करते सुना है? क्या शास्त्रीय जाँच के अधीन यह खरा उतरता है? एक आरंभिक मसीही कलीसिया का एक उदाहरण इस विषय पर प्रकाश डालता है।

प्रथम शताब्दी में, प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थी कलीसिया को चिताया: “धोखा न खाना, बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।” शायद, कुछ मसीही उन व्यक्‍तियों के साथ बहुत संगति कर रहे थे जो यूनानी तत्त्वज्ञान से प्रभावित थे, जिसमें इपिकूरियों की शिक्षा भी सम्मिलित थी। इपिकूरी कौन थे? वे कुरिन्थ के मसीहियों के लिए आध्यात्मिक ख़तरा क्यों खड़ा करते? क्या आज उनके जैसे लोग हैं, जिनसे हमें सतर्क रहना चाहिए?—१ कुरिन्थियों १५:३३.

इपिकूरी कौन थे?

इपिकूरी यूनानी तत्त्वज्ञानी इपिकूरस के अनुयायी थे, जो सा.यु.पू. ३४१ से सा.यु.पू. २७० तक जीया। उसने सिखाया की सुख जीवन में एकमात्र या मुख्य लाभ है। क्या इसका यह अर्थ है कि इपिकूरी सिद्धांतरहित, स्वच्छंद जीवन जीते थे, हर समय मौज-मस्ती करने की तलाश में घृणित कामों का सहारा लेते थे? हैरानी की बात है कि इपिकूरस ने अपने अनुयायियों को उस तरह जीने की शिक्षा नहीं दी! इसके बजाय, उसने सिखाया कि समझ, साहस, आत्म-संयम और न्याय के अनुसार जीने से सबसे सच्चा सुख मिलता है। उसने तात्कालिक और क्षणिक सुख की खोज का नहीं, परंतु उस सुख की खोज का प्रोत्साहन दिया जो जीवन भर बना रहता है। अतः घोर पाप करनेवालों से तुलना करने पर इपिकूरी शायद सद्‌गुणी दिखे हों।—तीतुस १:१२ से तुलना कीजिए।

मसीहियत से मिलता-जुलता?

यदि आप आरंभिक कुरिन्थी कलीसिया के सदस्य होते, तो क्या आप इपिकूरियों से प्रभावित हुए होते? कुछ लोगों ने शायद तर्क किया हो कि इपिकूरियों के प्रत्यक्षतः उच्च मूल्यों के कारण मसीहियों का उनके साथ संगति करना सुरक्षित है। इसी पर और तर्क करते हुए, कुरिन्थियों ने शायद इपिकूरी स्तरों और परमेश्‍वर के वचन के स्तरों में प्रतीयमान समांतरों को नोट किया हो।

उदाहरण के लिए, इपिकूरी मौज-मस्ती को संतुलन में रखते थे। वे शारीरिक सुखों से अधिक मानसिक सुखों को महत्त्व देते थे। व्यक्‍ति ने क्या खाया यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना कि उस व्यक्‍ति के साथ उसका संबंध, जिसके साथ उसने खाया। इपिकूरी राजनैतिक संबंध और गुप्त कुकर्म से भी दूर रहते थे। यह मान लेना कितना आसान होता: “वे काफ़ी कुछ हमारी तरह हैं!”

लेकिन, क्या इपिकूरी सचमुच आरंभिक मसीहियों की तरह थे? बिलकुल नहीं। जिनकी ज्ञानेन्द्रियाँ अभ्यास करते करते पक्की हो गयी थीं वे बड़े-बड़े भेद देख सकते थे। (इब्रानियों ५:१४) क्या आप देख सकते हैं? आइए इपिकूरस की शिक्षाओं को और पास से देखें।

इपिकूरीवाद का अंधकारमय पहलू

लोगों को देवी-देवताओं और मृत्यु के भय पर जय पाने में मदद देने के लिए, इपिकूरस ने सिखाया कि ईश्‍वरों को मानवजाति में कोई दिलचस्पी नहीं है और वे मानव मामलों में दख़ल नहीं देते। इपिकूरस के अनुसार, विश्‍वमंडल को ईश्‍वरों ने नहीं सृजा, जीवन संयोग से अस्तित्त्व में आ गया। क्या यह स्पष्ट रूप से बाइबल की शिक्षा के विरोध में नहीं कि “एक ही परमेश्‍वर” है, जो सृष्टिकर्ता है और वह अपनी मानव सृष्टि की परवाह करता है?—१ कुरिन्थियों ८:६; इफिसियों ४:६; १ पतरस ५:६, ७.

इपिकूरस ने यह भी सिखाया कि मृत्यु के बाद कोई जीवन नहीं हो सकता। निश्‍चित ही, यह पुनरुत्थान के बारे में बाइबल की शिक्षा के विरुद्ध था। असल में, जब प्रेरित पौलुस ने अरियुपगुस में भाषण दिया, तब संभवतः इपिकूरी उन लोगों में थे जो पुनरुत्थान के धर्मसिद्धांत को लेकर पौलुस से असहमत थे।—प्रेरितों १७:१८, ३१, ३२; १ कुरिन्थियों १५:१२-१४.

इपिकूरस के तत्त्वज्ञान की सबसे ख़तरनाक बात शायद सबसे भ्रामक बात भी थी। मरणोपरांत जीवन को नकारने के कारण वह इस निष्कर्ष पर भी पहुँचा कि मनुष्य को पृथ्वी पर अपने थोड़े-से समय में यथासंभव सुख भोगना चाहिए। जैसा हमने देखा है, उसका विचार था कि ज़रूरी नहीं कि पापमय जीवन जीएँ, परंतु यह कि वर्तमान का सुख भोगें क्योंकि हमारे पास बस यही समय है।

अतः, भेद खुलने के डर से मुक्‍त रहने के लिए इपिकूरस ने गुप्त कुकर्म का प्रोत्साहन नहीं दिया, जो वर्तमान सुख के लिए एक निश्‍चित ख़तरा होता। अतिसेवन के परिणामों से बचने के लिए उसने संतुलन का प्रोत्साहन दिया, जो कि वर्तमान सुख में एक और बाधा है। उसने दूसरों के साथ अच्छे संबंध रखने का भी प्रोत्साहन दिया क्योंकि बदले में उनके व्यवहार से लाभ ही होगा। निःसंदेह, गुप्त कुकर्म से दूर रहना, संतुलन रखना और मित्रता करना अपने आपमें अच्छे काम हैं। सो इपिकूरस का तत्त्वज्ञान एक मसीही के लिए ख़तरनाक क्यों था? क्योंकि उसकी सलाह उसके विश्‍वासहीन दृष्टिकोण पर आधारित थी: “आओ, खाए-पीए, क्योंकि कल तो मर ही जाएंगे।”—१ कुरिन्थियों १५:३२.

माना, बाइबल लोगों को दिखाती है कि अभी सुख से कैसे जीएँ। लेकिन, यह सलाह देती है: “अपने आप को परमेश्‍वर के प्रेम में बनाए रखो; और अनन्त जीवन के लिये हमारे प्रभु यीशु मसीह की दया की आशा देखते रहो।” (यहूदा २१) जी हाँ, बाइबल अनंत भविष्य पर अधिक बल देती है, क्षणिक वर्तमान पर नहीं। एक मसीही के लिए, परमेश्‍वर की सेवा करना मुख्य काम है और वह पाता है कि जब वह परमेश्‍वर को पहला स्थान देता है तब वह सुखी और संतुष्ट रहता है। उसी तरह, अपने व्यक्‍तिगत कामों में व्यस्त होने के बजाय, यीशु ने अपनी शक्‍ति को निःस्वार्थ रूप से यहोवा की सेवा करने और लोगों को मदद देने में लगाया। उसने अपने शिष्यों को सिखाया कि दूसरों के साथ भलाई करें, बदले में कुछ पाने के लिए नहीं, बल्कि उनके प्रति सच्चे प्रेम के कारण ऐसा करें। स्पष्ट है कि इपिकूरीवाद और मसीहियत की मूल प्रेरणाएँ एकदम भिन्‍न हैं।—मरकुस १२:२८-३१; लूका ६:३२-३६; गलतियों ५:१४; फिलिप्पियों २:२-४.

भ्रामक ख़तरा

विडंबना है कि सुखी होने पर इतना बल देने के बावजूद इपिकूरियों का सुख सीमित ही था। “यहोवा का आनन्द” न होने के कारण, इपिकूरस ने जीवन को “दुःखद देन” कहा। (नहेमायाह ८:१०) इसकी तुलना में आरंभिक मसीही कितने सुखी थे! यीशु आत्मकष्ट से भरे दुःखी जीवन का प्रोत्साहन नहीं दे रहा था। असल में, उसके पथ पर चलना सर्वाधिक सुख का मार्ग है।—मत्ती ५:३-१२.

यदि कुरिन्थ में कलीसिया के कुछ सदस्यों ने सोचा कि वे अपने विश्‍वास को ख़तरे में डाले बिना इपिकूरी विचार से प्रभावित लोगों के साथ संगति कर सकते हैं, तो वे भूल कर रहे थे। जिस समय पौलुस ने कुरिन्थियों को अपनी पहली पत्री लिखी, उस समय तक कुछ लोग पुनरुत्थान में विश्‍वास खो बैठे थे।—१ कुरिन्थियों १५:१२-१९.

आज इपिकूरीवाद?

हालाँकि इपिकूरीवाद सा.यु. चौथी शताब्दी में लुप्त हो गया, फिर भी आज ऐसे लोग हैं जो उससे मिलता-जुलता जो-है-सो-अभी-है दृष्टिकोण अपनाते हैं। ये लोग अनंत जीवन की परमेश्‍वर की प्रतिज्ञा पर थोड़ा अथवा कोई विश्‍वास नहीं रखते। फिर भी, उनमें से कुछ लोगों के आचरण-स्तर काफ़ी ऊँचे हैं।

एक मसीही ऐसे लोगों के साथ निकट संबंध बनाने के लिए प्रलोभित हो सकता है। वह यह तर्क कर सकता है कि उन लोगों के अच्छे गुण इस मित्रता को उचित ठहराते हैं। लेकिन, जबकि हम अपने को बड़ा नहीं समझते, फिर भी हमें याद रखना चाहिए कि सभी “बुरी संगति”—उनकी भी जिनका प्रभाव अधिक भ्रामक है—“अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।”

जो-है-सो-अभी-है विचारधारा कुछ व्यवसाय सम्मेलनों, आत्म-निर्भरता पुस्तकों, उपन्यासों, फ़िल्मों, टॆलिविज़न कार्यक्रमों और संगीत में भी प्रकट होती है। जबकि यह सीधे-सीधे पापमय व्यवहार को बढ़ावा नहीं देता, फिर भी क्या यह विश्‍वासहीन दृष्टिकोण भ्रामक तरीक़ों से हमें प्रभावित कर सकता है? उदाहरण के लिए, क्या हम आत्म-संतुष्टि में इतने व्यस्त हो सकते हैं कि हम यहोवा की सर्वसत्ता का वाद-विषय भूल जाएँ? क्या हम ‘प्रभु के काम में सर्वदा बढ़ते जाने’ के बजाय ‘आराम से करो’ मनोवृत्ति अपना सकते हैं? या क्या हम यहोवा के स्तरों के औचित्य और लाभों पर संदेह करने के लिए बहकाये जा सकते हैं? हमें सरासर अनैतिकता, हिंसा और प्रेतात्मवाद के संपर्क में आने और उन लोगों के संपर्क में आने के विरुद्ध सतर्क रहना चाहिए जो सांसारिक दृष्टिकोणों से प्रभावित हैं!—१ कुरिन्थियों १५:५८; कुलुस्सियों २:८.

इसलिए, आइए मुख्यतः उनके साथ संगति बढ़ाएँ जो पूरे हृदय से यहोवा के मार्गदर्शन पर चल रहे हैं। (यशायाह ४८:१७) फलस्वरूप, हमारा अच्छा चरित्र मज़बूत होगा। हमारा विश्‍वास दृढ़ होगा। हम न सिर्फ़ अभी, बल्कि भविष्य में, अनंत जीवन की आशा रखते हुए सुखपूर्वक जीएँगे।—भजन २६:४, ५; नीतिवचन १३:२०.

[पेज 24 पर तसवीर]

इपिकूरस ने सिखाया कि ईश्‍वरों को मानवजाति में कोई दिलचस्पी नहीं है

[चित्र का श्रेय]

ब्रिटिश संग्रहालय के सौजन्य से

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