समर्पण और चुनने की आज़ादी
“मसीह ने स्वतंत्रता के लिये हमें स्वतंत्र किया है।”—गलतियों ५:१.
१. इब्रानी और यूनानी में “समर्पण,” “प्रतिष्ठापन” या “अर्पण” अनुवादित शब्द ख़ासकर किसके लिए इस्तेमाल किया जाता है?
किसी पवित्र उद्देश्य को पूरा करने के लिए अलग किए जाने, या अलग रखे जाने को समझाने के लिए बाइबल लिखनेवालों ने कई इब्रानी और यूनानी शब्दों का इस्तेमाल किया। अंग्रेज़ी बाइबलों में इनका अनुवाद “समर्पण,” “प्रतिष्ठापन” या “अर्पण” के तौर पर किया गया है। कभी-कभार इन शब्दों को ढाँचे के सिलसिले में इस्तेमाल किया जाता है, यानी की आम तौर पर पुराने यरूशलेम में परमेश्वर का मंदिर और वहाँ की जानेवाली उपासना। शायद ही कभी इन शब्दों को गैर-धार्मिक मायने में इस्तेमाल किया जाता है।
“इस्राएल के परमेश्वर” को समर्पण
२. यहोवा को क्यों हक़ था कि वह ‘इस्राएल का परमेश्वर’ कहलाए?
२ सामान्य युग पूर्व १५१३ में परमेश्वर ने इस्राएलियों को मिस्र की ग़ुलामी से आज़ाद किया। फिर उसके कुछ ही समय बाद उसने उन्हें अपने ख़ास लोगों के तौर पर अलग किया, और उनके साथ एक वाचा बाँधकर रिश्ता जोड़ा। उनसे कहा गया था: “अब यदि तुम निश्चय मेरी मानोगे, और मेरी वाचा को पालन करोगे, तो सब लोगों में से तुम ही मेर निज धन ठहरोगे; समस्त पृथ्वी तो मेरी है।” (निर्गमन १९:५; भजन १३५:४) इस्राएलियों को अपना निज धन बनाने के बाद, यहोवा को पूरा हक़ था कि ‘इस्राएल का परमेश्वर’ कहलाए।—यहोशू २४:२३.
३. इस्राएल को अपने लोगों के तौर पर चुनने के द्वारा यहोवा तरफ़दारी क्यों नहीं कर रहा था?
३ इस्राएल को अपने समर्पित लोग बनाकर यहोवा तरफ़दारी नहीं कर रहा था, क्योंकि उसने प्रेम से ग़ैर-इस्राएलियों की भी परवाह की। उसने अपने लोगों को हिदायत दी: “यदि कोई परदेशी तुम्हारे देश में तुम्हारे संग रहे, तो उसको दुःख न देना। जो परदेशी तुम्हारे संग रहे वह तुम्हारे लिये देशी के समान हो, और उस से अपने ही समान प्रेम रखना; क्योंकि तुम भी मिस्र देश में परदेशी थे; मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूं।” (लैव्यव्यवस्था १९:३३, ३४) सदियों बाद, परमेश्वर के नज़रिए को प्रेरित पतरस के दिल में पूरी तरह बिठाया गया, और उसने क़बूल किया: “मुझे निश्चय हुआ, कि परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।”—प्रेरितों १०:३४, ३५.
४. परमेश्वर और इस्राएल के बीच के रिश्ते की शर्तें क्या थीं, और क्या इस्राएलियों ने उन्हें पूरा किया?
४ इस बात पर भी ग़ौर कीजिए कि परमेश्वर के समर्पित लोग होने के लिए शर्तें थीं। अगर वे परमेश्वर की बातों का सख़्ती से पालन करते और उसकी वाचा में बने रहते, सिर्फ़ तब वे उसका “निज धन” ठहरते। मगर अफ़सोस की बात है, इस्राएली इन माँगों पर खरे नहीं उतरे। सा.यु. पहली सदी में परमेश्वर द्वारा भेजे गए मसीहा को ठुकराने के बाद से वे अपने विशेषाधिकार के पद से हाथ धो बैठे। यहोवा अब ‘इस्राएल का परमेश्वर’ नहीं रहा। और जन्मजात इस्राएली भी परमेश्वर के समर्पित लोग नहीं रहे।—मत्ती २३:२३ से तुलना कीजिए।
“परमेश्वर के इस्राएल” का समर्पण
५, ६. (क) मत्ती २१:४२, ४३ में दर्ज़ किए गए यीशु के भविष्यसूचक शब्दों का क्या अर्थ था? (ख) ‘परमेश्वर का इस्राएल’ कब और कैसे अस्तित्त्व में आया?
५ क्या इसका मतलब यह था कि अब यहोवा के पास समर्पित लोग नहीं होते? जी नहीं। भजनहार की बातों को दोहराते हुए, यीशु मसीह ने पहले से ही कहा: “क्या तुम ने कभी पवित्र शास्त्र में यह नहीं पढ़ा, कि जिस पत्थर को राजमिस्त्रियों ने निकम्मा ठहराया था, वही कोने के सिरे का पत्थर हो गया? यह प्रभु की ओर से हुआ, और हमारे देखने में अद्भुत है, इसलिये मैं तुम से कहता हूं, कि परमेश्वर का राज्य तुम से ले लिया जाएगा; और ऐसी जाति को जो उसका फल लाए, दिया जाएगा।”—मत्ती २१:४२, ४३.
६ वह ‘फल लानेवाली जाति’ मसीही कलीसिया साबित हुई। पृथ्वी पर अपने जीवन के दौरान यीशु ने उस कलीसिया के पहले भावी सदस्यों को चुना। मगर सा.यु. ३३ के पिन्तेकुस्त के दिन, ख़ुद यहोवा परमेश्वर ने ही मसीही कलीसिया की स्थापना की जब उसने उस कलीसिया के पहले १२० सदस्यों पर पवित्र आत्मा उँडेली। (प्रेरितों १:१५; २:१-४) जैसे कि प्रेरित पतरस ने बाद में लिखा, यह नयी-नयी बनी हुई कलीसिया “एक चुना हुआ वंश, और राज-पदधारी, याजकों का समाज, और पवित्र लोग, और . . . निज प्रजा” बनी। किस ख़ातिर चुने गए? ताकि वे ‘जिस ने उन्हें अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट करें।’ (१ पतरस २:९) परमेश्वर की आत्मा से अभिषिक्त होकर मसीह के अनुयायी, अब एक समर्पित जाति, यानी “परमेश्वर के इस्राएल” बन गए थे।—गलतियों ६:१६.
७. परमेश्वर के इस्राएल को क्या मिलना था, और इसलिए उन्हें किस चीज़ से दूर रहने के लिए कहा गया था?
७ हालाँकि इस पवित्र जाति के सदस्य “निज प्रजा” थे, उन्हें ग़ुलामी में नहीं रखा जाना था। इसके बजाय, उन्हें और भी बड़ी आज़ादी मिलनी थी, जन्मजात इस्राएल की समर्पित जाति से भी बड़ी। यीशु ने इस नयी जाति के भावी सदस्यों से वादा किया: “[तुम] सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।” (यूहन्ना ८:३२) प्रेरित पौलुस ने बताया कि मसीही व्यवस्था वाचा की माँगों से आज़ाद किए गए थे। इस मामले में उसने गलतिया के संगी विश्वासियों को सलाह दी: “मसीह ने स्वतंत्रता के लिये हमें स्वतंत्र किया है; सो इसी में स्थिर रहो, और दासत्व के जूए में फिर से न जुतो।”—गलतियों ५:१.
८. मसीही प्रबंध लोगों को किस मामले में ज़्यादा आज़ादी देता है जो व्यवस्था वाचा के तहत नहीं थी?
८ पुराने ज़माने के जन्मजात इस्राएल के विपरीत, परमेश्वर के इस्राएल ने आज तक अपने समर्पण की माँगों को सख़्ती से पूरा किया है। इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसके सदस्य अपनी मर्ज़ी से पालन करने का चुनाव करते हैं। जबकि जन्मजात इस्राएल के सदस्य जन्म की वज़ह से समर्पित बनते थे, परमेश्वर के इस्राएल के सदस्य अपनी मर्ज़ी से समर्पण करते हैं। इस तरह मसीही प्रबंध उस यहूदी व्यवस्था वाचा के बिलकुल विपरीत था, जो लोगों पर समर्पण थोपती थी, और उन्हें चुनने की आज़ादी नहीं देती थी।
९, १०. (क) यिर्मयाह ने कैसे सूचित किया कि समर्पण के सिलसिले में तबदीली आएगी? (ख) आप क्यों कहेंगे कि आज सभी समर्पित मसीही परमेश्वर के इस्राएल के सदस्य नहीं हैं?
९ भविष्यवक्ता यिर्मयाह ने समर्पण के सिलसिले में एक तबदीली को पहले से बताया और कहा: “यहोवा की यह भी वाणी है, सुन, ऐसे दिन आनेवाले हैं जब मैं इस्राएल और यहूदा के घरानों से नई वाचा बान्धूंगा। वह उस वाचा के समान न होगी जो मैं ने उनके पुरखाओं से उस समय बान्धी थी जब मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें मिस्र देश से निकाल लाया, क्योंकि यद्यपि मैं उनका पति था, तौभी उन्हों ने मेरी वह वाचा तोड़ डाली। परन्तु जो वाचा मैं उन दिनों के बाद इस्राएल के घराने से बान्धूंगा, वह यह है: मैं अपनी व्यवस्था उनके मन में समवाऊंगा, और उसे उनके हृदय पर लिखूंगा; और मैं उनका परमेश्वर ठहरूंगा, और वे मेरी प्रजा ठहरेंगे।”—यिर्मयाह ३१:३१-३३.
१० परमेश्वर की व्यवस्था परमेश्वर के इस्राएल के सदस्यों के ‘मन में समाई हुई’ है, मानो “उनके हृदय पर” लिखी हुई हो, और इसलिए वे अपने समर्पण के अनुसार जीने के लिए प्रेरित होते हैं। उनकी प्रेरणा उन जन्मजात इस्राएलियों की तुलना में ज़्यादा प्रबल है, जो जन्म की वज़ह से समर्पित थे, मर्ज़ी की वज़ह से नहीं। आज, दुनिया भर में पचास लाख से भी ज़्यादा संगी उपासकों के पास परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की वैसी ही प्रबल प्रेरणा है, जो परमेश्वर के इस्राएल दिखाते हैं। उसी तरह उन संगी उपासकों ने अपने जीवन को यहोवा परमेश्वर को समर्पित किया है ताकि उसकी इच्छा पूरी करें। हालाँकि इन लोगों के पास स्वर्ग के जीवन की आशा नहीं है, जो परमेश्वर के इस्राएल के पास है, फिर भी वे परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य के शासन के तहत धरती पर हमेशा-हमेशा तक जीने की उम्मीद से खुश हैं। “जिस ने [उन्हें] अन्धकार में से अपनी अद्भुत ज्योति में बुलाया है, उसके गुण प्रगट” करने के बचे हुए सदस्यों के काम को पूरा करने में उनकी दिलोजान से मदद करने के द्वारा वे लोग आत्मिक इस्राएल की क़दर करते हैं।
परमेश्वर द्वारा दी गयी आज़ादी का बुद्धिमानी से इस्तेमाल करना
११. इंसानों को किस हैसियत के साथ बनाया गया था, और उसका इस्तेमाल कैसे किया जाना चाहिए?
११ परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाया ताकि वे आज़ादी को अज़ीज़ समझें। उसने उन्हें स्वतंत्र इच्छा दी। पहले मानव दंपत्ति ने अपनी चुनने की आज़ादी का इस्तेमाल किया। मगर, उन्होंने बग़ैर प्रेम और बुद्धिमानी के ऐसा चुनाव किया जिससे ख़ुद उनका और उनके बच्चों का सत्यानाश हुआ। फिर भी, यह साफ़-साफ़ ज़ाहिर करता है कि यहोवा कभी-भी अक़्लमंद सृष्टि को एक ऐसा रास्ता इख्तियार करने पर मज़बूर नहीं करता जो उनकी प्रेरणाओं या इच्छाओं से अलग हो। और क्योंकि “परमेश्वर हर्ष से देनेवाले से प्रेम रखता है,” वह सिर्फ़ उस समर्पण को क़बूल करता है जो प्रेम पर आधारित होता है, जो खुशी से अपनी मर्ज़ी से किया जाता है, जो चुनाव करने की आज़ादी पर टिका होता है। (२ कुरिन्थियों ९:७) वह किसी और तरह के समर्पण को क़बूल नहीं करता।
१२, १३. उचित बाल प्रशिक्षण के लिए तीमुथियुस एक नमूना कैसे है, और उसकी मिसाल से कई जवानों ने क्या किया है?
१२ इस माँग को पूरी तरह समझते हुए, यहोवा के साक्षी खुद को परमेश्वर को समर्पित करने की सिफ़ारिश करते हैं। लेकिन वे ऐसा समर्पण करने के लिए कभी किसी पर ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करते, यहाँ तक कि अपने बच्चों पर भी नहीं। कई गिरजों के विपरीत, साक्षी अपने नन्हें-मुन्ने शिशुओं को बपतिस्मा नहीं देते, मानो व्यक्तिगत चुनाव की गुंजाइश के बिना उन्हें समर्पण के लिए ज़बरदस्ती करना मुमकिन है। जवान तीमुथियुस ने जिस नमूने का पालन किया, वही शास्त्रीय नमूना भी है जिसका पालन किया जाना चाहिए। जब तीमुथियुस बड़ा हुआ, तब प्रेरित पौलुस ने उससे कहा: “तू इन बातों पर जो तू ने सीखीं हैं और प्रतीति की थी [“जिन का यक़ीन तुझे दिलाया गया था,” द न्यू टॆस्टमॆंट, हिंदुस्तानी], यह जानकर दृढ़ बना रह; कि तू ने उन्हें किन लोगों से सीखा था? और बालकपन से पवित्र शास्त्र तेरा जाना हुआ है, जो तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान बना सकता है।”—२ तीमुथियुस ३:१४, १५.
१३ यह ग़ौरतलब है कि तीमुथियुस पवित्र शास्त्र जानता था क्योंकि यह उसे बालकपन से सिखाया गया था। उसकी माँ और उसकी नानी के ज़रिए मसीही शिक्षाओं को मानने के लिए उसे यक़ीन दिलाया गया था—ऐसा करने के लिए उस पर ज़बरदस्ती नहीं की गयी थी। (२ तीमुथियुस १:५) इसका नतीजा यह हुआ कि तीमुथियुस ने मसीह का अनुयायी बनने की बुद्धिमानी को देखा और इस तरह मसीही समर्पण का एक व्यक्तिगत चुनाव किया। आज के दिनों में, ऐसे हज़ारों युवक और युवतियाँ, जिनके माँ-बाप यहोवा के साक्षी हैं, इस मिसाल पर चलें हैं। (भजन ११०:३) दूसरों ने ऐसा नहीं किया है। यह व्यक्तिगत चुनाव का मामला है।
किसके दास बनने का चुनाव?
१४. रोमियों ६:१६ पूरी आज़ादी के बारे में क्या कहता है?
१४ कोई इंसान पूरी तरह आज़ाद नहीं है। हरेक इंसान की आज़ादी पर भौतिक नियमों की बंदिश होती है, जैसे कि गुरुत्वाकर्षण का नियम, और इन्हें नज़रअंदाज़ करने से लाज़िमी है कि नुकसान ही होगा। आध्यात्मिक मायने में भी कोई भी इंसान पूरी तरह आज़ाद नहीं है। पौलुस ने दलील दी: “क्या तुम नहीं जानते, कि जिस की आज्ञा मानने के लिये तुम अपने आप को दासों की नाईं सौंप देते हो, उसी के दास हो: और जिस की मानते हो, चाहे पाप के, जिस का अन्त मृत्यु है, चाहे आज्ञा मानने के, जिस का अन्त धार्मिकता है?”—रोमियों ६:१६.
१५. (क) लोगों को किसी के दास होने के बारे में कैसा लगता है, लेकिन ज़्यादातर लोग आख़िरकार क्या कर बैठते हैं? (ख) हम अपने-आप से कौन-से उपयुक्त सवाल पूछ सकते हैं?
१५ ज़्यादातर लोगों को किसी के दास होने के ख़याल से ही नफ़रत है। फिर भी, आज की दुनिया में हकीकत यह है कि अकसर लोग इतने सारे चालाक तरीक़ों के प्रभाव में आकर काम करते हैं कि वे आख़िर में अपनी मर्ज़ी के बग़ैर वही काम कर बैठते हैं जो दूसरे उनसे करवाना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, एड्वटाइज़िंग इंडस्ट्री और मनोरंजन की दुनिया लोगों को अपने ही साँचे में ढालने की जी-तोड़ कोशिश करती हैं, और उन्हें अपनी ही लीक पर चलाती हैं। राजनैतिक और धार्मिक संगठन लोगों से अपने ही ख़यालों और लक्ष्यों का समर्थन करवाते हैं। ऐसा हमेशा तर्कपूर्ण दलीलों द्वारा नहीं किया जाता, बल्कि अकसर अखंडता या वफ़ादारी के नाम पर किया जाता है। क्योंकि पौलुस ने कहा कि ‘हम जिस की आज्ञा मानते हैं, उसी के दास हैं,’ तो यह अच्छा होगा कि हममें से हरेक व्यक्ति ख़ुद से पूछे, ‘मैं किस का दास हूँ? मेरे फ़ैसलों और मेरी ज़िंदगी पर सबसे ज़्यादा किसका असर होता है? क्या धार्मिक पादरियों, राजनेताओं, पैसेवाले दिग्गजों का, या मनोरंजन की हस्तियों का? मैं किस की आज्ञा मानता हूँ—परमेश्वर की या इंसानों की?’
१६. मसीही किस मायने में परमेश्वर के दास हैं, और इस दासता का सही नज़रिया क्या है?
१६ मसीही यह नहीं समझते कि परमेश्वर की आज्ञा मानने का मतलब उनकी आज़ादी पर बेलगाम बंदिश है। वे अपनी मर्ज़ी से अपनी आज़ादी का उस तरह इस्तेमाल करते हैं जैसे उनके आदर्श, यीशु मसीह ने किया, और वे अपने अरमानों और ज़िंदगी की अहम बातों को परमेश्वर की इच्छा के तालमेल में लाते हैं। (यूहन्ना ५:३०; ६:३८) वे “मसीह का मन” विकसित करते हैं, और कलीसिया के मुखिया के तौर पर उसके अधीन होते हैं। (१ कुरिन्थियों २:१४-१६; कुलुस्सियों १:१५-१८) यह बिलकुल उस औरत की तरह है जो शादी करती है और खुशी-खुशी अपने मर्द का साथ देती है जिससे वह प्यार भी करती है। असल में, अभिषिक्त मसीहियों के समूह को एक पवित्र कुँवारी कहा गया है जिसका हाथ शादी में मसीह को दिया जाएगा।—२ कुरिन्थियों ११:२; इफिसियों ५:२३, २४; प्रकाशितवाक्य १९:७, ८.
१७. सभी यहोवा के साक्षियों ने क्या बनने का चुनाव किया है?
१७ हरेक यहोवा के साक्षी ने परमेश्वर को व्यक्तिगत समर्पण किया है, चाहे उसके पास स्वर्ग की आशा हो या पृथ्वी की, ताकि वह उसकी इच्छा पूरी करे और शासक के तौर पर उसकी आज्ञा माने। हर साक्षी के लिए समर्पण एक व्यक्तिगत चुनाव रहा है कि मनुष्यों का दास बने रहने के बजाय परमेश्वर का दास बने। यह प्रेरित पौलुस की सलाह के सामंजस्य में है: “तुम दाम देकर मोल लिए गए हो, मनुष्यों के दास न बनो।”—१ कुरिन्थियों ७:२३.
अपने लाभ के लिए सीखना
१८. एक भावी साक्षी बपतिस्मे के योग्य कब बनता है?
१८ इससे पहले कि कोई व्यक्ति यहोवा का एक साक्षी बनने के योग्य हो, उसे कुछ शास्त्रीय योग्यताओं को पूरा करना पड़ता है। प्राचीन यह निर्धारित करने में सावधानी बरतते हैं कि क्या एक भावी साक्षी मसीही समर्पण के मायनों को वाक़ई समझता है। क्या वह सचमुच एक यहोवा का साक्षी बनना चाहता है? इस समर्पण का जो मतलब है, क्या वह उसके अनुसार जीने के लिए राज़ी है? अगर नहीं, तो वह बपतिस्मे के लायक नहीं है।
१९. ऐसे किसी भी व्यक्ति की आलोचना करने का कोई कारण क्यों नहीं है जो परमेश्वर का एक समर्पित सेवक बनने का फैसला करता है?
१९ लेकिन, अगर एक व्यक्ति सभी माँगों को पूरा करता है, तो क्या अपनी मर्ज़ी से ऐसा फैसला करने के लिए जिससे वह परमेश्वर और उसके उत्प्रेरित वचन के प्रभाव में आएगा, उसकी आलोचना करना ठीक होगा? खुद को मनुष्य द्वारा प्रभावित होने देने के बजाय, क्या परमेश्वर द्वारा प्रभावित होने देना ज़्यादा अच्छा नहीं है? या क्या इससे कोई कम लाभ मिलेंगे? यहोवा के साक्षियों को ऐसा नहीं लगता। वे पूरे दिल से परमेश्वर के उन वचनों से सहमत हैं जो यशायाह ने लिखे थे: “मैं . . . तेरा परमेश्वर यहोवा हूं जो तुझे तेरे लाभ के लिये शिक्षा देता हूं, और जिस मार्ग से तुझे जाना है उसी मार्ग पर तुझे ले चलता हूं।”—यशायाह ४८:१७.
२०. लोगों को बाइबल सच्चाई द्वारा किन-किन बातों से आज़ाद किया जाता है?
२० बाइबल की सच्चाई लोगों को झूठे धार्मिक सिद्धांतों को मानने से आज़ाद करती है, जैसे कि जलनेवाले नरक में हमेशा-हमेशा की यातना। (सभोपदेशक ९:५, १०) इसके बजाय, यह उनका दिल मरे हुओं के लिए सच्ची आशा, यानी पुनरुत्थान के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है जो यीशु मसीह के छुड़ौती बलिदान के आधार पर मुमकिन किया गया। (मत्ती २०:२८; प्रेरितों २४:१५; रोमियों ६:२३) बाइबल की सच्चाई लोगों को उन राजनैतिक वादों पर निर्भर करने की विफलताओं से आज़ाद करती है जो कभी पूरे नहीं होते। इसके बजाय, यह जानकर उनका दिल खुशी से भर आता है कि यहोवा के राज्य ने स्वर्ग में शासन शुरू कर दिया है और जल्द ही पूरी पृथ्वी पर भी शासन करेगा। बाइबल सच्चाई लोगों को उन कामों से आज़ाद करती है जो, हालाँकि पतित शरीर को मोहक लगते हैं, लेकिन परमेश्वर का अनादर करते हैं और जिनकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह कीमत टूटे हुए रिश्ते, बीमारी, या समय से पहले मौत हो सकती है। चंद शब्दों में कहें तो परमेश्वर का दास होना मनुष्य के दास होने से बहुत ही ज़्यादा फायदेमंद है। दरअसल, परमेश्वर को समर्पण से “इस समय” फायदा होगा और आनेवाली रीति-व्यवस्था में “अनन्त जीवन।”—मरकुस १०:२९, ३०.
२१. यहोवा के साक्षी परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण को किस नज़र से देखते हैं, और उनकी तमन्ना क्या है?
२१ आज यहोवा के साक्षी पुराने ज़माने के इस्राएलियों की तरह जन्म की वज़ह से एक समर्पित जाति का भाग नहीं बने। साक्षी समर्पित मसीहियों की एक कलीसिया का भाग हैं। उनमें से हरेक व्यक्ति समर्पण करने में चुनाव करने की अपनी आज़ादी का इस्तेमाल करके बपतिस्मा-प्राप्त साक्षी बना है। वाक़ई, यहोवा के साक्षियों के लिए समर्पण का नतीजा परमेश्वर के साथ प्यार का एक व्यक्तिगत रिश्ता होता है, जिसकी खासियत है अपनी मर्ज़ी से की गयी उसकी सेवा। वे पूरे दिल से इस खुशनुमा रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं, और हमेशा-हमेशा के लिए उस आज़ादी को थामे रहना चाहते हैं जिसके लिए यीशु मसीह ने उन्हें आज़ाद किया।
आपका जवाब क्या होगा?
◻ इस्राएल को अपने “निज धन” के तौर पर चुनने में यहोवा तरफ़दारी क्यों नहीं कर रहा था?
◻ आप क्यों कहेंगे कि मसीही समर्पण का मतलब आज़ादी खो बैठना नहीं है?
◻ यहोवा परमेश्वर के प्रति समर्पण के फायदे क्या हैं?
◻ मनुष्य का दास होने के बजाय यहोवा का एक सेवक होना क्यों बेहतर है?
[पेज 15 पर तसवीर]
प्राचीन इस्राएल में, परमेश्वर के प्रति समर्पण जन्म पर निर्भर था
[पेज 16 पर तसवीर]
मसीही समर्पण चुनाव पर निर्भर है