अविश्वास से चौकस रहो
“हे भाइयो, चौकस रहो, कि कहीं तुम में से किसी में, जीवते परमेश्वर से दूर हट जाने से दुष्ट, अविश्वासी हृदय न पैदा हो।”—इब्रानियों ३:१२, NW.
१. इब्रानी मसीहियों को लिखी पौलुस की बातें किस खौफनाक हकीकत की ओर हमारा ध्यान खींचती हैं?
कितना खौफनाक खयाल—कि जो लोग कभी यहोवा के साथ निजी रिश्ते का मज़ा लेते थे, वे लोग एक ‘दुष्ट हृदय’ विकसित करके “जीवते परमेश्वर से दूर हट” सकते हैं! यह कितनी बड़ी चेतावनी भी है! प्रेरित पौलुस ने ये बातें अविश्वासियों से नहीं कही थीं, मगर उन लोगों से कही थीं जिन्होंने यीशु मसीह के छुड़ौती बलिदान में विश्वास के आधार पर यहोवा को अपना जीवन समर्पित किया था।
२. हमें किन सवालों पर गौर करना चाहिए?
२ ये कैसे हो सकता है कि इतनी बड़ी आध्यात्मिक आशीष पाया हुआ व्यक्ति “दुष्ट, अविश्वासी हृदय” पैदा कर ले? और, कैसे वो इंसान जिसने परमेश्वर के प्रेम और उसके अपात्र अनुग्रह को आज़माया है, जानबूझकर उससे दूर हट सकता है? क्या हममें से किसी के भी साथ ऐसा हो सकता है? ये सचमुच गंभीर बातें हैं, और ये हमें इस चेतावनी की वज़ह जानने के लिए मजबूर कर देते हैं।—१ कुरिन्थियों १०:११.
इतनी सख्त सलाह क्यों?
३. यरूशलेम में और उसके आस-पास के पहली-सदी के मसीहियों को प्रभावित करनेवाले हालात का वर्णन कीजिए।
३ ऐसा लगता है कि पौलुस ने यह चिट्ठी सा.यु. ६१ में यहूदिया के इब्रानी मसीहियों के नाम लिखी थी। एक इतिहासकार ने कहा कि यह वही समय था जब “किसी भी गंभीर, शरीफ आदमी के लिए कोई शांति या सुरक्षा नहीं थी, न तो यरूशलेम के शहर में और न ही पूरे ज़िले में।” यह वही आलम था जब न तो अपराध पर और न हिंसा पर लगाम थी, जिसे ज़ालिम रोमी सेना की मौजूदगी ने, रोम के खिलाफ लड़नेवाले यहूदी कट्टरपंथियों के बहादुरों ने, और उन डकैतों के अपराधी कारनामों ने भड़काया था, जो उन गड़बड़ीवाले समयों का फायदा उठा रहे थे। इन सब की वज़ह से मसीहियों के सिर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, और उन्होंने जी-तोड़ कोशिश की कि इन मामलों में न उलझें। (१ तीमुथियुस २:१, २) दरअसल, ऐसे किसी भी मामले में उनके भाग न लेने की वज़ह से यह समझा गया कि वे समाज में उठने-बैठने के लायक नहीं हैं, और यहाँ तक कि वे राज-द्रोही हैं। अकसर मसीहियों के साथ बदसलूकी की जाती थी, और उनके जान-ओ-माल को भी नुकसान हुआ।—इब्रानियों १०:३२-३४.
४. इब्रानी मसीहियों पर धार्मिक किस्म का कैसा दबाव आया था?
४ इब्रानी मसीहियों पर धार्मिक किस्म का भी बहुत बड़ा दबाव था। यीशु के वफादार चेलों के जोश ने और इसके नतीजतन मसीही कलीसिया में हुई तेज़ बढ़ोतरी ने यहूदियों में—खासकर उनके धर्म-गुरुओं में—जलन और क्रोध की आग भड़का दी। यीशु मसीह के अनुयायियों को तकलीफ देने और सताने के लिए उन्होंने बिलकुल आगे-पीछे नहीं देखा।a (प्रेरितों ६:८-१४; २१:२७-३०; २३:१२, १३; २४:१-९) हालाँकि कुछ मसीहियों पर सीधे-सीधे सताहट नहीं आयी, बहरहाल, यहूदियों ने उनकी बेइज़्ज़ती की और उनका मज़ाक उड़ाया। मसीहियत को नया-नया धर्म बताकर उसे नीचा दिखाया गया, क्योंकि उसमें यहूदीवाद की वो शान नहीं थी, न मंदिर था, न याजकवर्ग, न त्योहार थे, न कुरबानियाँ चढ़ायी जाती थीं, वगैरह-वगैरह। यहाँ तक कि उनके गुरू यीशु को एक दंडित अपराधी की तरह सज़ाए-मौत दी गयी थी। अपने धर्म को मानने के लिए, मसीहियों को विश्वास, हिम्मत और धीरज की ज़रूरत थी।
५. यहूदिया के मसीहियों के लिए आध्यात्मिक तौर पर होशियार रहना क्यों बहुत ही ज़रूरी था?
५ सबसे बढ़कर, यहूदिया में रहनेवाले इब्रानी मसीही उस जाति के इतिहास के बहुत ही महत्त्वपूर्ण समय में जी रहे थे। यहूदी व्यवस्था के अंत की ओर इशारा करनेवाली कई घटनाएँ, जो उनके प्रभु, यीशु मसीह ने बतायी थीं, हो चुकी थीं। अंत शायद ज़्यादा दूर नहीं था। बचने के लिए मसीहियों को आध्यात्मिक रूप से होशियार और “पहाड़ों पर भाग” जाने के लिए तैयार रहना था। (मत्ती २४:६, १५, १६) क्या उनके पास ज़रूरी विश्वास और आध्यात्मिक ताकत होगी ताकि वे फौरी कदम उठाएँ, जैसे यीशु ने कहा था? ऐसा नहीं लगता।
६. यहूदिया के मसीहियों को किस बात की फौरी ज़रूरत थी?
६ सारी यहूदी रीति-व्यवस्था के नाश होने के आखिरी दस सालों के दौरान, ज़ाहिर है कि इब्रानी मसीहियों पर कलीसिया के अंदर से और बाहर से दबाव आ रहा था। उन्हें हौसले की ज़रूरत थी। मगर उन्हें सलाह और मार्गदर्शन की भी ज़रूरत थी जो उन्हें यह समझने में मदद करता कि जो रास्ता उन्होंने अपनाया था, वो सही रास्ता था और जो दुःख-तकलीफ उन्होंने सही थी वो बेकार नहीं थी। और खुशी की बात है कि पौलुस ने ऐसे चुनौती-भरे समय में उनकी ओर मदद का हाथ बढ़ाया।
७. पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को जो लिखा उसमें हमें क्यों दिलचस्पी लेनी चाहिए?
७ पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को जो लिखा, उसमें हमें बेहद दिलचस्पी लेनी चाहिए। क्यों? क्योंकि हम भी उसी तरह के हालात से गुज़र रहे हैं। हर रोज़ हम इस दुनिया के दबाव को महसूस करते हैं जो शैतान की मुठ्ठी में पड़ी है। (१ यूहन्ना ५:१९) और हमारी आँखों के सामने ही अंतिम दिनों और “जगत के अन्त” के सिलसिले में यीशु और उसके प्रेरितों की भविष्यवाणियाँ पूरी हो रही हैं। (मत्ती २४:३-१४; २ तीमुथियुस ३:१-५; २ पतरस ३:३, ४; प्रकाशितवाक्य ६:१-८) सबसे बढ़कर, हमें आध्यात्मिक तौर पर होशियार रहना है ताकि हम ‘इन सब आनेवाली घटनाओं से बच’ पाएँ।—लूका २१:३६.
मूसा से बड़ा
८. इब्रानियों ३:१ की बात कहकर पौलुस संगी मसीहियों से क्या करने के लिए आग्रह कर रहा था?
८ एक बहुत ही ज़रूरी बात का ज़िक्र करते हुए, पौलुस ने लिखा: “उस प्रेरित और महायाजक यीशु पर जिसे हम अंगीकार करते हैं ध्यान करो।” (इब्रानियों ३:१) “ध्यान करो” का मतलब है “साफ-साफ बोध करना . . . पूरी तरह से समझना, बारीकी से ध्यान देना।” (वाईन्स एक्सपोज़िटरी डिक्शनरी ऑफ ओल्ड ऎंड न्यू टॆस्टमॆन्ट वड्र्स) सो पौलुस अपने साथी विश्वासियों से कह रहा था कि उनके विश्वास और उद्धार में यीशु ने जो किरदार अदा किया था उसे अच्छी तरह समझने के लिए कड़ा प्रयास करें। ऐसा करने से विश्वास में मज़बूत खड़े रहने का उनका संकल्प और पक्का होगा। तो फिर, यीशु ने कौन-सा किरदार अदा किया, और हमें उस पर क्यों ‘ध्यान करना’ चाहिए?
९. पौलुस ने यीशु को “प्रेरित” और “महायाजक” क्यों कहा?
९ पौलुस ने यीशु के लिए शब्द, “प्रेरित” और “महायाजक” इस्तेमाल किए। “प्रेरित” वो होता है जिसे भेजा गया हो और यहाँ वो इंसानों के साथ बात करने के परमेश्वर के ज़रिए को सूचित करता है। “महायाजक” वो होता है जिसके द्वारा इंसान परमेश्वर तक जा सकते हैं। ये दोनों ही प्रबंध सच्ची उपासना के लिए ज़रूरी हैं, और यीशु इन दोनों का साकार रूप है। यीशु ही वो व्यक्ति है जिसे इंसानों को परमेश्वर के बारे में सच्चाई सिखाने के लिए स्वर्ग से भेजा गया। (यूहन्ना १:१८; ३:१६; १४:६) पाप की माफी के लिए यहोवा के आध्यात्मिक मंदिर की व्यवस्था में यीशु को प्रतिरूपी महायाजक के तौर पर भी नियुक्त किया गया है। (इब्रानियों ४:१४, १५; १ यूहन्ना २:१, २) अगर हम उन आशीषों की सचमुच कदर करें जो हमें यीशु के ज़रिए मिलती हैं, तो हमारे पास विश्वास में मज़बूत खड़े रहने के लिए साहस और संकल्प होगा।
१०. (क) मसीहियत यहूदीवाद से श्रेष्ठ है यह समझने में पौलुस ने इब्रानी मसीहियों की मदद कैसे की? (ख) इस बात पर ज़ोर देने के लिए पौलुस ने किस हकीकत का ज़िक्र किया?
१० मसीही विश्वास की अहमियत पर ज़ोर देने के लिए पौलुस ने यीशु की तुलना मूसा से की, जिसे यहूदी अपने पूर्वजों में सबसे बड़ा भविष्यवक्ता मानते थे। अगर इब्रानी मसीही पूरे दिल से यह बात इकरार कर लेते कि यीशु मूसा से बड़ा है, तो फिर उनके पास शक करने की कोई गुंजाइश नहीं होती कि मसीहियत यहूदीवाद से श्रेष्ठ है। पौलुस ने बताया कि जबकि मूसा को इस लायक समझा गया कि परमेश्वर के ‘घराने,’ यानी इस्राएल की जाति या कलीसिया का ज़िम्मा सँभाले, फिर भी वो महज़ एक वफादार दास या सेवक था। (गिनती १२:७) दूसरी ओर, यीशु बेटा है, उस घर का मालिक है। (१ कुरिन्थियों ११:३; इब्रानियों ३:२, ३, ५) अपनी बात पर और ज़ोर देने के लिए, पौलुस ने एक बात कही जो सोलह आने सच थी: “हर एक घर का कोई न कोई बनानेवाला होता है, पर जिस ने सब कुछ बनाया वह परमेश्वर है।” (इब्रानियों ३:४) इसमें कोई दो राय नहीं कि परमेश्वर सबसे बड़ा है, क्योंकि वो सभी कुछ का बनानेवाला है, सृजनहार है। सो अगर यीशु परमेश्वर का सहकर्मी है, तो लाज़िमी है कि वो बाकी सभी सृष्टि से बड़ा है, मूसा से भी।—नीतिवचन ८:३०; कुलुस्सियों १:१५-१७.
११, १२. पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को किस बात को “अन्त तक दृढ़ता” से थामे रहने का आग्रह किया, और हम उसकी सलाह को कैसे लागू कर सकते हैं?
११ सचमुच, इब्रानी मसीही एक बहुत ही खास स्थिति में थे। पौलुस ने उन्हें याद दिलाया कि वे लोग “स्वर्गीय बुलाहट में भागी” हैं। (इब्रानियों ३:१) और ये एक ऐसा विशेषाधिकार था जो यहूदी व्यवस्था में किसी भी विशेषाधिकार से बढ़कर था। पौलुस की इन बातों से उन अभिषिक्त मसीहियों ने शुक्रगुज़ार महसूस किया होगा, क्योंकि यहूदी विरासत से संबंधित बातों को छोड़ने का अफसोस करने के बजाय, अब वे लोग नयी विरासत हासिल करने की स्थिति में थे। (फिलिप्पियों ३:८) पौलुस ने उन्हें उस विशेषाधिकार को थामे रहने और उसे हलका न समझने का आग्रह किया, और कहा: “मसीह पुत्र की नाईं [परमेश्वर के] घर का अधिकारी है, और उसका घर हम हैं, यदि हम साहस पर, और अपनी आशा के घमण्ड पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें।”—इब्रानियों ३:६.
१२ जी हाँ, अगर इब्रानी मसीहियों को यहूदी रीति-व्यवस्था के नज़दीकी विनाश से बच निकलना था, तो उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गयी आशा को “अन्त तक दृढ़ता से” थामे रहना था। आज हमें भी ऐसा ही करना चाहिए अगर हम इस व्यवस्था के अंत से बच निकलना चाहते हैं। (मत्ती २४:१३) ज़िंदगी की चिंताओं की वज़ह से, लोगों की बेरूखी की वज़ह से या हमारी अपनी असिद्धताओं की वज़ह से परमेश्वर के वादों में हमारा विश्वास डगमगाना नहीं चाहिए। (लूका २१:१६-१९) ये देखने के लिए कि हम खुद को मज़बूत कैसे कर सकते हैं, आइए हम पौलुस की आगे की बातों पर ध्यान दें।
“अपने मन [हृदय] को कठोर न करो”
१३. पौलुस ने कौन-सी चेतावनी दी, और उसने भजन ९५ को कैसे लागू किया?
१३ इब्रानी मसीहियों की अच्छी स्थिति पर गौर करने के बाद, पौलुस ने यह चेतावनी दी: “जैसा पवित्र आत्मा कहता है, कि यदि आज तुम उसका शब्द सुनो। तो अपने मन [हृदय] को कठोर न करो, जैसा कि क्रोध दिलाने के समय और परीक्षा के दिन जंगल में किया था।” (इब्रानियों ३:७, ८) पौलुस यहाँ भजन के ९५ अध्याय से कुछ बातें उद्धृत कर रहा था, और इसलिए कह सकता था कि “पवित्र आत्मा कहता है।”b (भजन ९५:७, ८; निर्गमन १७:१-७) शास्त्र परमेश्वर द्वारा उसकी पवित्र आत्मा के ज़रिए प्रेरित किया गया है।—२ तीमुथियुस ३:१६.
१४. यहोवा ने इस्राएलियों के लिए जो कुछ किया था, उसके प्रति उन्होंने कैसी प्रतिक्रिया दिखायी, और क्यों?
१४ मिस्र की गुलामी से छुड़ाए जाने के बाद, इस्राएलियों को यहोवा के साथ वाचा के रिश्ते में लाकर उन्हें बड़ी इज़्ज़त बख्शी गयी। (निर्गमन १९:४, ५; २४:७, ८) उनके लिए परमेश्वर ने जो कुछ किया था, उसके लिए कदरदानी दिखाने के बजाय, उन्होंने जल्द ही बगावत करनी शुरू कर दी। (गिनती १३:२५-१४:१०) मगर ऐसा कैसे हुआ होगा? पौलुस ने इसकी वज़ह बतायी: हृदय का कठोर होना। मगर वे हृदय जो परमेश्वर के वचन के प्रति संवेदनशील और प्रतिक्रियाशील हैं, कठोर कैसे बन सकते हैं? और इससे बचने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
१५. (क) बीते हुए समय में और आज ‘परमेश्वर के अपने शब्द’ कैसे सुने जा रहे हैं? (ख) ‘परमेश्वर के शब्द’ के सिलसिले में हमें खुद से कौन-से सवाल पूछने चाहिए?
१५ पौलुस ने इस चेतावनी की शुरुआत इस शर्त के साथ की ‘यदि तुम उसका शब्द सुनो।’ परमेश्वर ने अपने लोगों के साथ मूसा और बाकी नबियों के ज़रिए बात की। बाद में यहोवा ने उनके साथ अपने बेटे, यीशु मसीह के ज़रिए बात की। (इब्रानियों १:१, २) आज हमारे पास परमेश्वर का पूरा प्रेरित वचन, पवित्र बाइबल है। हमारे साथ “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” भी है, जिसे यीशु ने ‘समय पर भोजन देने’ के लिए नियुक्त किया है। (मत्ती २४:४५-४७) सो परमेश्वर अब भी बात कर रहा है। मगर क्या हम सुन रहे हैं? मिसाल के तौर पर, हम कपड़ों और बनाव-श्रंगार या मनोरंजन और संगीत के चुनाव के बारे में दी गयी सलाह पर कैसी प्रतिक्रिया दिखाते हैं? क्या हम ‘सुनते’ हैं, यानी जो कुछ कहा गया है उस पर ध्यान देकर उसका पालन करते हैं? अगर हमें बहाने बनाने या सलाह पर एतराज़ करने की आदत पड़ गयी है, तो हम अपने हृदय को कठोर करने के धूर्त खतरे में पड़ रहे हैं।
१६. कौन-सा एक तरीका है जिससे हमारे हृदय कठोर बन सकते हैं?
१६ हमारे हृदय तब भी कठोर हो सकते हैं अगर हम उस काम से कन्नी काटने लगें जिसे हम कर सकते हैं और जो हमें करना चाहिए। (याकूब ४:१७) यहोवा ने इस्राएलियों के लिए जो कुछ किया था, उन सब के बावजूद उन्होंने विश्वास नहीं किया, मूसा के खिलाफ बगावत की, कनान के बारे में बुरी रिपोर्ट पर कान दिया, और प्रतिज्ञात देश में कदम रखने से इंकार कर दिया। (गिनती १४:१-४) सो यहोवा ने हुक्म दिया कि वो लोग वीराने में ४० साल बिताएँगे—इतना समय जो उस पीढ़ी के अविश्वासी लोगों के मर जाने के लिए काफी था। उनसे चिढ़कर, परमेश्वर ने कहा: “इन के मन [हृदय] सदा भटकते रहते हैं, और इन्हों ने मेरे मार्गों को नहीं पहिचाना। तब मैं ने क्रोध में आकर शपथ खाई, कि वे मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाएंगे।” (इब्रानियों ३:९-११) क्या इसमें आज हमारे लिए कोई सबक है?
हमारे लिए सबक
१७. इस्राएली अविश्वासी क्यों थे, हालाँकि उन्होंने यहोवा के पराक्रमों को देखा था और उसकी घोषणाओं को सुना था?
१७ मिस्र से बाहर आनेवाली इस्राएल की पीढ़ी ने यहोवा के पराक्रमों को अपनी आँखों से देखा था और उसकी घोषणाओं को अपने कानों से सुना था। फिर भी उन्हें विश्वास नहीं था कि परमेश्वर उन्हें प्रतिज्ञात देश में सही-सलामत ले जा सकता है। क्यों? यहोवा ने कहा कि “इन्हों ने मेरे मार्गों को नहीं पहिचाना।” वे जानते थे कि यहोवा ने क्या कहा था और क्या किया था, मगर उन्होंने उसकी इस क्षमता में विश्वास और भरोसा नहीं बढ़ाया था कि वह उनकी देखभाल कर सकता है। वे अपनी ही ज़रूरतों में इतने उलझे हुए थे कि उन्होंने परमेश्वर के मार्गों और उद्देश्य की ओर शायद ही ध्यान दिया। जी हाँ, उन्होंने उसके वादे पर विश्वास नहीं किया।
१८. पौलुस के अनुसार, किस काम का नतीजा “दुष्ट, अविश्वासी हृदय” हो सकता है?
१८ इब्रानियों को लिखी ये आगे की बातें हमारे लिए भी उतनी ही अहमियत रखती हैं: “हे भाइयो, चौकस रहो, कि कहीं तुम में से किसी में, जीवते परमेश्वर से दूर हट जाने से दुष्ट, अविश्वासी हृदय न पैदा हो।” (इब्रानियों ३:१२, NW) पौलुस इन बातों की तह तक गया, और कहा कि “दुष्ट, अविश्वासी हृदय” “जीवते परमेश्वर से दूर हट जाने” का नतीजा है। इस खत में पहले उसने ध्यान न देने की वज़ह से ‘बह जाने’ के बारे में बात की। (इब्रानियों २:१) मगर, “दूर हट जाने” अनुवादित किए गए यूनानी शब्द का मतलब है “अलग खड़े होना” और यह शब्द “धर्मत्याग” से संबंधित है। यह जानबूझकर और पूरे होशो-हवास में विरोध करने, पीछे हट जाने और अलग हो जाने को सूचित करता है, जिसमें अवज्ञा का गुण भी शामिल है।
१९. सलाह को न मानना गंभीर परिणामों की ओर कैसे ले जा सकता है? समझाइए।
१९ सो फिर, सबक यह है कि अगर हम ‘उसका शब्द न सुनने’ की आदत डाल लेते हैं, और बाइबल और विश्वासयोग्य दास वर्ग के ज़रिए आनेवाली यहोवा की सलाह को नज़रअंदाज़ करते हैं, तो जल्द ही हमारे हृदय कठोर, और निष्ठुर हो जाएँगे। मिसाल के तौर पर, शायद एक अविवाहित जोड़ा कुछ ज़्यादा ही करीब आ जाए। अगर वे इस बात को बस नज़रअंदाज़ कर देंगे तो क्या होगा? क्या यह उन्हें यही गलती दोबारा करने से बचाएगा या क्या वे फिर एक बार आसानी से वही गलती कर बैठेंगे? उसी तरह, जब दास वर्ग हमें संगीत और मनोरंजन, वगैरह-वगैरह के बारे में चुनिंदा होने की सलाह देता है, तो क्या हम शुक्रगुज़ार होकर उसे कबूल कर लेते हैं और जहाँ ज़रूरी है वहाँ सुधार करते हैं? पौलुस ने हमसे आग्रह किया कि “एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना न छोड़ें।” (इब्रानियों १०:२४, २५) इस सलाह के बावजूद, कुछ लोग मसीही सभाओं को हलकी बात समझते हैं। शायद उन्हें लगे कि कुछेक सभाओं को मिस करने या फलानी सभाओं में जाना पूरी तरह से बंद कर देने से कोई फरक नहीं पड़ेगा।
२०. ये क्यों ज़रूरी है कि हम शास्त्रीय सलाह को मानें?
२० अगर हम शास्त्र और बाइबल पर आधारित पुस्तकों में साफ-साफ व्यक्त किए गए यहोवा के “शब्द” को न मानें, तो जल्द ही हम ‘जीवते परमेश्वर से दूर हटने’ लगेंगे। सो शुरू-शुरू में जिस सलाह को हम दिल-ही-दिल में नज़रअंदाज़ करते हैं, बाद में आसानी से उसे तुच्छ समझने, सरेआम उसकी आलोचना करने और उसका विरोध करने लगेंगे। अगर इसका इलाज नहीं किया गया, तो इसका नतीजा “दुष्ट, अविश्वासी हृदय” हो सकता है, जिससे ठीक होना आम तौर पर बहुत ही मुश्किल होता है। (इफिसियों ४:१९ से तुलना कीजिए।) यिर्मयाह ने सही-सही लिखा: “मन [हृदय] तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देनेवाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है; उसका भेद कौन समझ सकता है?” (यिर्मयाह १७:९) इसीलिए, पौलुस ने साथी इब्रानी विश्वासियों से आग्रह किया: “जिस दिन तक आज का दिन कहा जाता है, हर दिन एक दूसरे को समझाते रहो, ऐसा न हो, कि तुम में से कोई जन पाप के छल में आकर कठोर हो जाए।”—इब्रानियों ३:१३.
२१. हम सभी को क्या करने के लिए कहा गया है, और हमारे लिए कौन-सी आशाएँ हैं?
२१ हम कितने खुश हैं कि यहोवा अब भी हमसे बातें कर रहा है, अपने वचन के ज़रिए और अपने संगठन के ज़रिए! हम शुक्रगुज़ार हैं कि “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” हमारी मदद करता रहता है कि “हम अपने प्रथम भरोसे पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें।” (इब्रानियों ३:१४) अभी समय है कि हम यहोवा के प्रेम और मार्गदर्शन को कबूल करें। और ऐसा करते समय, हम यहोवा की एक और शानदार प्रतिज्ञा का आनंद ले सकते हैं—उसके विश्राम “में प्रवेश” करने की प्रतिज्ञा। (इब्रानियों ४:३, १०) पौलुस ने इब्रानी मसीहियों के साथ इसी अगले विषय पर बात की, और हम भी अगले लेख में इसी पर गौर करेंगे।
[फुटनोट]
a जोसीफस ने रिपोर्ट किया कि फॆस्टस की मौत के कुछ ही समय बाद, सदूकियों के पंथ का एननस (हनन्याह) महायाजक बना। उसने यीशु के सौतेले भाई, याकूब और दूसरे चेलों को महासभा के सामने बुलवाकर पत्थरवाह करके मरवा देने की दंडाज्ञा दी।
b ज़ाहिर है, पौलुस ने यहाँ यूनानी सॆप्टूजिंट से उद्धृत किया, जो “मरीबा” और “मस्सा” के लिए इब्रानी शब्दों को “झगड़ा करना” और “परीक्षा करना” अनुवादित करता है। वॉचटावर बाइबल एंड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित इंसाइट ऑन द स्क्रिप्चर्स् का खंड २, पेज ३५० और ३७९ देखिए।
क्या आप समझा सकते हैं?
◻ पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को इतनी सख्त सलाह क्यों लिखी?
◻ पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को यह समझने में कैसे मदद की कि उनके पास यहूदी-धर्म में जीवन से बढ़कर कुछ है?
◻ किसी व्यक्ति का हृदय कठोर कैसे हो सकता है?
◻ हमें “दुष्ट, अविश्वासी हृदय” पैदा करने से दूर रहने के लिए क्या करना चाहिए?
[पेज 10 पर तसवीर]
क्या आप यीशु, यानी महान मूसा में विश्वास कर रहे हैं?