जीवन की दौड़ में हिम्मत मत हारिए!
“वह दौड़ जिस में हमें दौड़ना है, धीरज से दौड़ें।” —इब्रानियों १२:१.
१, २. इन अंतिम दिनों में यहोवा के सेवकों को किन रोचक घटनाओं ने रोमांचित किया है?
हम रोचक और कठिनाइयों के समय में जीते हैं। अस्सी साल से भी पहले, यीशु को १९१४ में परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य के राजा के रूप में सिंहासन पर बिठाया गया था। “प्रभु के दिन” के साथ इस रीति-व्यवस्था का “अन्तसमय” भी शुरू हुआ। (प्रकाशितवाक्य १:१०; दानिय्येल १२:९) तब से जीवन के लिए एक मसीही की दौड़ और भी ज़्यादा अत्यावश्यक बन गई है। परमेश्वर के सेवकों ने यहोवा के दिव्य रथ, उसके स्वर्गीय संगठन के साथ-साथ रहने का कड़ा प्रयास किया है, जो यहोवा के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बेरोक आगे बढ़ रहा है।—यहेजकेल १:४-२८; १ कुरिन्थियों ९:२४.
२ अनंत जीवन की अपनी ‘दौड़ में दौड़ते’ हुए क्या परमेश्वर के लोगों को आनंद मिला है? जी हाँ, बेशक मिला है! वे यीशु के शेष भाइयों को इकट्ठा होते देख, ख़ुश हुए हैं और वे यह जानकर और भी आनंदित होते हैं कि १,४४,००० के शेष जनों पर अंतिम मोहर लगाया जाना पूरा होनेवाला है। (प्रकाशितवाक्य ७:३, ४) इसके अलावा, वे यह समझकर ख़ुश हैं कि यहोवा के नियुक्त राजा ने “पृथ्वी की खेती” को लवने के लिए अपना हंसुआ बढ़ा दिया है। (प्रकाशितवाक्य १४:१५, १६) और यह क्या ही पकी फ़सल है! (मत्ती ९:३७, NHT) अभी तक ५० लाख से भी ज़्यादा जानें—“हर एक जाति, और कुल, और लोग और भाषा में से एक ऐसी बड़ी भीड़, जिसे कोई गिन नहीं सकता था”—इकट्ठी की जा चुकी हैं। (प्रकाशितवाक्य ७:९) कोई यह नहीं कह सकता कि आख़िरकार यह भीड़ कितनी बड़ी होगी, क्योंकि कोई भी मनुष्य इसकी गिनती नहीं बता सकता।
३. किन बातों के बावजूद हमें हमेशा एक आनंदपूर्ण आत्मा विकसित करने की कोशिश करते रहना चाहिए?
३ सच है कि शैतान हमें इस दौड़ में गिराना या सुस्त करना चाहता है। (प्रकाशितवाक्य १२:१७) और युद्ध, अकाल, मरी और उन कठिनाइयों को सहते हुए दौड़ते रहना आसान नहीं है जो अंतसमय को चिन्हित करती हैं। (मत्ती २४:३-९; लूका २१:११; २ तीमुथियुस ३:१-५) फिर भी, जैसे-जैसे इस दौड़ का अंत और नज़दीक आता जाता है, वैसे-वैसे हमारा दिल आनंद से उछलने लगता है। हम उस आत्मा को दिखाने का प्रयत्न करते हैं जिसके लिए पौलुस ने अपने समय के संगी मसीहियों से दिखाने का आग्रह किया था: “प्रभु में सदा आनन्दित रहो; मैं फिर कहता हूं, आनन्दित रहो।”—फिलिप्पियों ४:४.
४. फिलिप्पी मसीहियों ने किस तरह की आत्मा दिखायी थी?
४ इसमें कोई शक नहीं कि जिन मसीहियों को पौलुस ने लिखा वे अपने विश्वास में आनंदित हो रहे थे, क्योंकि पौलुस ने उनसे कहा: “प्रभु में आनन्दित [होते] रहो।” (फिलिप्पियों ३:१) फिलिप्पी के लोगों की कलीसिया उदार, प्रेममय थी जिसने जोश और उत्साह के साथ काम किया था। (फिलिप्पियों १:३-५; ४:१०, १४-२०) लेकिन पहली सदी के सभी मसीहियों में यह आत्मा नहीं थी। मिसाल के तौर पर, वे यहूदी मसीही चिंता का कारण बन गए थे जिन्हें पौलुस ने इब्रानियों की पुस्तक लिखी।
‘सामान्य से ज़्यादा ध्यान दीजिए’
५. (क) इब्रानी मसीहियों में कैसी आत्मा थी जब पहली मसीही कलीसिया की स्थापना हुई? (ख) सामान्य युग ६० के लगभग कुछ इब्रानी मसीहियों की आत्मा का वर्णन कीजिए।
५ दुनिया के इतिहास में पहली मसीही कलीसिया जन्मजात यहूदियों और यहूदी-मतधारकों से मिलकर बनी और इसकी स्थापना सा.यु. ३३ में यरूशलेम में हुई थी। इसमें किस तरह की आत्मा पायी जाती थी? प्रेरितों की पुस्तक के बस शुरू के अध्यायों को पढ़ने से ही एक व्यक्ति जान जाता है कि सताहटों के बावजूद इस कलीसिया का उत्साह और आनंद कैसा था। (प्रेरितों २:४४-४७; ४:३२-३४; ५:४१; ६:७) लेकिन समय के साथ, हालत बदल गई और कई यहूदी मसीही जीवन की दौड़ में सुस्त पड़ गए। एक संदर्भ पुस्तक सा.यु. ६० के क़रीब उनकी हालत के बारे में ऐसा कहती है: “आलस और ऊब, अधूरी उम्मीदों, विलंबित आशाओं, जान-बूझकर असफल होने और पल-पल के अविश्वास की हालत। वे मसीही तो थे लेकिन अपनी बुलाहट की महिमा की उन्हें थोड़ी-ही क़दर थी।” अभिषिक्त मसीहियों की ऐसी हालत कैसे बन गई थी? इब्रानियों को (लगभग सा.यु. ६१ में लिखी गई) पौलुस की पत्री के कुछ हिस्सों पर विचार करना इस सवाल का जवाब पाने में हमारी मदद करता है। इस प्रकार विचार करना आज हम सभी को इसी तरह की कमज़ोर आध्यात्मिक स्थिति में पड़ने से दूर रहने में मदद करेगा।
६. मूसा की व्यवस्था के अधीन उपासना और यीशु मसीह में विश्वास पर आधारित उपासना में कुछ भिन्नताएँ क्या थीं?
६ इब्रानी मसीही यहूदीवाद से निकलकर आए थे। यह एक ऐसा प्रबंध था जो यहोवा द्वारा मूसा को दी गई व्यवस्था पर चलने का दावा करता था। लगता था कि यह व्यवस्था तब भी अनेक यहूदी मसीहियों को आकर्षित कर रही थी, शायद इसलिए कि अनेक शताब्दियों तक यहोवा की उपासना करने का यही एकमात्र तरीक़ा रहा था और यह उपासना का एक प्रभावशाली प्रबंध था। याजकवर्ग, नियमित बलिदान और दुनिया भर में मशहूर यरूशलेम का मंदिर इसका हिस्सा थे। लेकिन मसीहियत अलग है। यह आध्यात्मिक नज़रिये की माँग करती है, जैसा मूसा का था, जिसकी “आंखें [भावी] फल पाने की ओर लगी थीं” और जो “अनदेखे को मानो देखता हुआ दृढ़ रहा।” (इब्रानियों ११:२६, २७) ज़ाहिर है कि अनेक यहूदी मसीहियों के पास ऐसे आध्यात्मिक नज़रिए की कमी थी। उद्देश्यपूर्ण तरीक़े से दौड़ने के बजाय, वे दो विचारों में लटके हुए लंगड़ा रहे थे।
७. हम जिस रीति-व्यवस्था से निकलकर बाहर आएँ हैं वह जीवन की दौड़ के हमारे तरीक़े पर कैसे प्रभाव डाल सकती है?
७ क्या आज भी यही हालत पायी जाती है? बेशक, आज परिस्थिति एकदम पहले की तरह नहीं है। फिर भी, मसीही ऐसी रीति-व्यवस्था से निकलकर आते हैं जिसने बहुत कुछ हासिल किया है। यह दुनिया रोमांचक अवसर भी प्रदान करती है, लेकिन साथ ही यह लोगों पर भारी ज़िम्मेदारियाँ भी लादती है। इसके अलावा, हममें से अनेक लोग ऐसे देशों में रहते हैं जहाँ दूसरों पर भरोसा ना करना आम बात है और जहाँ लोग ‘पहले मैं’ का स्वार्थी नज़रिया रखते हैं। अगर हम ऐसी रीति-व्यवस्था को ख़ुद पर हावी होने दें, तो ‘हमारे मन की आँखें’ आसानी से धुँधली पड़ सकती हैं। (इफिसियों १:१८) हम जीवन की दौड़ में कैसे दौड़ते रह सकते हैं अगर हम साफ़-साफ़ देख ही ना पाएँ की हम कहाँ जा रहे हैं?
८. मसीहियत, व्यवस्था के अधीन उपासना से किन तरीक़ों से श्रेष्ठ है?
८ यहूदी मसीहियों को प्रोत्साहित करने के लिए, पौलुस ने उनका ध्यान मूसा की व्यवस्था से हटाकर मसीही व्यवस्था की श्रेष्ठता पर लगाया। सच है कि जब व्यवस्था के अधीन जन्मजात इस्राएली जाति यहोवा के लोग थे, तब यहोवा ने उत्प्रेरित भविष्यवक्ताओं के माध्यम से उनके साथ बात की। लेकिन, पौलुस कहता है कि आज वह ‘पुत्र के द्वारा बातें करता है, जिसे उस ने सारी वस्तुओं का वारिस ठहराया और उसी के द्वारा उस ने सारी सृष्टि रची है।’ (इब्रानियों १:२) इसके अलावा, यीशु दाऊद के वंश के सभी राजाओं, अर्थात् अपने “साथियों” से कहीं ज़्यादा महान है। यहाँ तक कि वह स्वर्गदूतों से भी श्रेष्ठ है।—इब्रानियों १:५, ६, ९.
९. क्यों हमें भी, पौलुस के समय के यहूदी मसीहियों की तरह यहोवा जो कहता है उस पर “सामान्य से ज़्यादा ध्यान देने” की ज़रूरत है?
९ इसलिए, पौलुस ने यहूदी मसीहियों को सीख दी: “हमारे लिए यह ज़रूरी है कि जो बातें हमने सुनी हैं, उन पर सामान्य से ज़्यादा ध्यान दें, ताकि हम बहककर कभी दूर न चले जाएँ।” (इब्रानियों २:१, NW) हालाँकि मसीह के बारे में सीखना एक अद्भुत आशिष थी, लेकिन कुछ और भी चाहिए था। उन्हें परमेश्वर के वचन पर नज़दीकी से ग़ौर करने की ज़रूरत थी ताकि अपने चारों ओर के यहूदी समाज के प्रभावों से लड़ सकें। हमें भी, यहोवा जो कहता है उन बातों पर “सामान्य से ज़्यादा ध्यान” देने की ज़रूरत है क्योंकि हम लगातार उस ग़लत-प्रचार को झेलते हैं जो इस संसार में है। इसका मतलब है अध्ययन की अच्छी आदतें डालना और बाइबल पढ़ने का अच्छा कार्यक्रम रखना। जैसा पौलुस इब्रानियों को अपनी पत्री में आगे कहता है, इसका मतलब यह भी है कि नियमित रूप से सभाओं में हाज़िर होना और दूसरों को अपना विश्वास बताना। (इब्रानियों १०:२३-२५) ऐसी गतिविधि हमें आध्यात्मिक रूप से चौकस रहने में मदद करेगी ताकि हमारी शानदार आशा अपनी आँखों से ओझल न हो जाए। अगर हम अपने मन को यहोवा के विचारों से भरते रहें, तो चाहे यह संसार हमारे साथ कैसा भी सलूक क्यों न करे, यह हमें हरा नहीं सकेगा और ना ही हमें डगमगा सकेगा।—भजन १:१-३; नीतिवचन ३:१-६.
“एक दूसरे को समझाते रहो”
१०. (क) जो व्यक्ति यहोवा के वचन पर सामान्य से ज़्यादा ध्यान नहीं देता उसे क्या हो सकता है? (ख) हम कैसे “एक दूसरे को समझाते” रह सकते हैं?
१० अगर हम आध्यात्मिक बातों पर अच्छी तरह से ध्यान न दें, तो परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ शायद काल्पनिक लगने लगें। ऐसा पहली शताब्दी में भी हुआ था जब पूरी की पूरी कलीसियाएँ अभिषिक्त मसीहियों से बनी थीं और कुछ प्रेरित भी उस वक़्त तक जीवित थे। पौलुस ने इब्रानियों को चेतावनी दी: “हे भाइयो, चौकस रहो, कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी न मन [विश्वास की कमी] हो, जो जीवते परमेश्वर से दूर हट जाए। बरन जिस दिन तक आज का दिन कहा जाता है, हर दिन एक दूसरे को समझाते रहो, ऐसा न हो, कि तुम में से कोई जन पाप के छल में आकर कठोर हो जाए।” (इब्रानियों ३:१२, १३) पौलुस का कहना कि “चौकस रहो,” सावधान रहने की ज़रूरत पर ज़ोर देता है। ख़तरा मँडरा रहा है! हमारे मन में विश्वास की कमी—“पाप”—की शायद शुरूआत हो और यह परमेश्वर के नज़दीक लाने के बजाय हमें उससे दूर ले जा सकती है। (याकूब ४:८) पौलुस हमें ‘एक दूसरे को समझाते रहने’ की याद दिलाता है। हमें भाईचारे की संगति के प्यार की ज़रूरत है। “जो औरों से अलग हो जाता है, वह अपनी ही इच्छा पूरी करने के लिये ऐसा करता है, और सब प्रकार की खरी बुद्धि से बैर करता है।” (नीतिवचन १८:१) ऐसी संगति की ज़रूरत आज मसीहियों को कलीसिया सभाओं, सम्मेलनों और अधिवेशनों में नियमित रूप से हाज़िर होने के लिए प्रेरित करती है।
११, १२. क्यों हमें मसीही धर्म-सिद्धांतों की आदि शिक्षा से ही संतुष्ट नहीं रहना चाहिए?
११ बाद में अपनी पत्री में पौलुस आगे यह अमूल्य सलाह देता है: “समय के विचार से तो तुम्हें गुरू हो जाना चाहिए था, तौभी क्या यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए? और ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए। . . . अन्न सयानों के लिये है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।” (इब्रानियों ५:१२-१४) ज़ाहिर है कि कुछ यहूदी मसीहियों ने अपनी समझ को नहीं बढ़ाया था। वे व्यवस्था और खतना के बारे में ज़्यादा रोशनी को स्वीकार करने में देर लगा रहे थे। (प्रेरितों १५:२७-२९; गलतियों २:११-१४; ६:१२, १३) कुछ लोग शायद अभी भी हर हफ़्ते के सब्त और वार्षिक प्रायश्चित के दिन के लिए श्रद्धा दिखा रहे थे।—कुलुस्सियों २:१६, १७; इब्रानियों ९:१-१४.
१२ इसलिए, पौलुस कहता है: “आओ मसीह की शिक्षा की आरम्भ की बातों को छोड़कर, हम सिद्धता [प्रौढ़ता] की ओर आगे बढ़ते जाएं।” (इब्रानियों ६:१) मैराथन में दौड़नेवाला एक व्यक्ति जो अपने खान-पान का अच्छी तरह ध्यान रखता है, उस लंबी, थका देनेवाली दौड़ को पूरा करने के ज़्यादा क़ाबिल होता है। इसी तरह, एक मसीही जो आध्यात्मिक पोषण पर अच्छी तरह ध्यान देता है—ख़ुद को सिर्फ़ बुनियादी, ‘आरंभ की शिक्षाओं’ तक ही सीमित नहीं रखता—मार्ग पर बने रहने और उसे पूरा करने के ज़्यादा क़ाबिल होगा। (२ तीमुथियुस ४:७ से तुलना कीजिए।) इसका मतलब है कि सच्चाई की “चौड़ाई, और लम्बाई, और ऊंचाई, और गहराई” के लिए दिलचस्पी पैदा करना और इस तरह प्रौढ़ता की ओर बढ़ना।—इफिसियों ३:१८.
“तुम्हे धीरज धरना अवश्य है”
१३. इब्रानी मसीहियों ने बीते समय में अपना विश्वास कैसे ज़ाहिर किया था?
१३ सामान्य युग ३३ के पिन्तेकुस्त के तुरंत बाद, यहूदी मसीही क्रूर विरोध के बावजूद भी दृढ़ बने रहे। (प्रेरितों ८:१) शायद पौलुस के मन में यही बात थी जब उसने लिखा: “उन पहिले दिनों को स्मरण करो, जिन में तुम ज्योति पाकर दुखों के बड़े झमेले में स्थिर रहे।” (इब्रानियों १०:३२) वफ़ादारी से ऐसा धीरज धरने से परमेश्वर के लिए उनका प्रेम ज़ाहिर हुआ और उसके सामने बोलने का उन्हें हियाव मिला। (१ यूहन्ना ४:१७) पौलुस ने उन्हें उकसाया कि विश्वास की कमी की वज़ह से इस हियाव को त्याग न दें। वह उनसे आग्रह करता है: “तुम्हें धीरज धरना अवश्य है, ताकि परमेश्वर की इच्छा को पूरी करके तुम प्रतिज्ञा का फल पाओ। क्योंकि अब बहुत ही थोड़ा समय रह गया है जब कि आनेवाला आएगा, और देर न करेगा।”—इब्रानियों १०:३५-३७.
१४. अनेक वर्ष यहोवा की सेवा करने के बाद भी कौन-से तथ्यों को धीरज धरने में हमारी मदद करनी चाहिए?
१४ आज हमारे बारे में क्या? जब हमने पहली बार मसीही सच्चाई सीखी थी, तब हममें से ज़्यादातर लोग जोशीले थे। लेकिन क्या हमारे अंदर आज भी वही जोश है? या क्या हमने “अपना पहिला सा प्रेम छोड़ दिया है”? (प्रकाशितवाक्य २:४) क्या हम ठंडे पड़ गए हैं, शायद अरमगिदोन का इंतज़ार करते-करते कुछ-कुछ निराश हो चुके हैं या ऊब चुके हैं? लेकिन, थोड़ा ठहरिए और सोचिए। सच्चाई आज भी उतनी ही अद्भुत है जितनी पहले थी। आज भी यीशु हमारा स्वर्गीय राजा है। आज भी हम परादीस पृथ्वी पर अनंत जीवन की आशा रखते हैं और आज भी यहोवा के साथ हमारा संबंध है। और यह कभी-भी मत भूलिए “कि आनेवाला आएगा, और देर न करेगा।”
१५. यीशु की तरह, कुछ मसीहियों ने कैसे कठोर सताहट में भी धीरज धरा है?
१५ इसलिए, इब्रानियों १२:१, २ में लिखे पौलुस के शब्द बहुत सही हैं: “आओ, हर एक रोकनेवाली वस्तु, और उलझानेवाले पाप [विश्वास की कमी] को दूर करके, वह दौड़ जिस में हमें दौड़ना है, धीरज से दौड़ें। और विश्वास के कर्त्ता और सिद्ध करनेवाले यीशु की ओर ताकते रहें; जिस ने उस आनन्द के लिये जो उसके आगे धरा था, लज्जा की कुछ चिन्ता न करके, क्रूस का दुख सहा; और सिंहासन पर परमेश्वर के दहिने जा बैठा।” परमेश्वर के सेवकों ने इन अंतिम दिनों में कई बातों को सहा है। यीशु मसीह की तरह ही, जो दर्दनाक मृत्यु सहने तक वफ़ादार रहा, हमारे कुछ भाई-बहनों ने सबसे निष्ठुर सताहट को वफ़ादारी से सहा है—जेल के कैंप, घोर यातना, बलात्कार, यहाँ तक कि मृत्यु को भी। (१ पतरस २:२१) क्या हमारा दिल उनके लिए प्रेम से उमड़ नहीं पड़ता जब हम उनकी खराई पर विचार करते हैं?
१६, १७. (क) अधिकतर मसीही अपने विश्वास की किन चुनौतियों का सामना करते हैं? (ख) क्या याद रखना हमें जीवन की दौड़ में दौड़ते रहने में मदद करेगा?
१६ लेकिन, ज़्यादातर लोगों पर पौलुस के अगले शब्द लागू होते हैं: “तुम ने पाप से लड़ते हुए उस से ऐसी मुठभेड़ नहीं की, कि तुम्हारा लोहू बहा हो।” (इब्रानियों १२:४) फिर भी, इस व्यवस्था में सच्चाई का मार्ग हममें से किसी के लिए भी आसान नहीं है। कुछ लोग नौकरी की जगह या स्कूलों में ‘पापियों के विरोधी वाद-विवाद से,’ ठट्ठों में उड़ाए जाने से या पाप करने के दबाव का विरोध करने से निरुत्साहित हैं। (इब्रानियों १२:३) भारी प्रलोभन ने परमेश्वर के ऊँचे स्तरों पर क़ायम रहने के कुछ लोगों के इरादे को चकनाचूर कर दिया है। (इब्रानियों १३:४, ५) धर्मत्यागियों ने उन लोगों के आध्यात्मिक संतुलन को गड़बड़ा दिया है जिन्होंने उनके विषैले प्रचार पर ध्यान दिया है। (इब्रानियों १३:९) व्यक्तित्वों में भिन्नता ने अन्य लोगों की ख़ुशी छीन ली है। मनोरंजन और फुर्सत की गतिविधियों पर हद से ज़्यादा ज़ोर देने से कुछ मसीही कमज़ोर पड़ गए हैं। और ज़्यादातर लोग इस रीति-व्यवस्था में ज़िंदगी की समस्याओं का दबाव महसूस करते हैं।
१७ सच है कि इनमें से किसी भी परिस्थिति में ‘लहू बहने जैसी मुटभेड़’ शामिल नहीं है। और कुछ का संबंध हम अपने उन ग़लत फ़ैसलों के साथ जोड़ सकते हैं जो हमने किए थे। लेकिन ये सभी हमारे विश्वास को चुनौती देते हैं। इसीलिए हमें अपनी आँखें यीशु के धीरज के शानदार उदाहरण पर रखनी चाहिए। ऐसा हो कि हम अपनी शानदार प्रत्याशा को कभी न भूलें। ऐसा हो कि हम कभी-भी अपना यह भरोसा न खोएँ कि यहोवा “अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों ११:६) तब हमारे पास जीवन की दौड़ में दौड़ते रहने की आध्यात्मिक शक्ति होगी।
हम धीरज धर सकते हैं
१८, १९. कौन-सी ऐतिहासिक घटनाएँ सूचित करती हैं कि यरूशलेम के इब्रानी मसीहियों ने पौलुस की उत्प्रेरित सलाह को माना था?
१८ पौलुस की पत्री के प्रति यहूदी मसीहियों ने कैसी प्रतिक्रिया दिखायी? इब्रानियों को पत्री लिखे जाने के क़रीब छः साल बाद, यहूदा राज्य युद्ध में शामिल था। सा.यु. ६६ में रोमी सेनाओं ने यरूशलेम की घेराबंदी की, जिससे यीशु के शब्दों की पूर्ति हुई: “जब तुम यरूशलेम को सेनाओं से घिरा हुआ देखो, तो जान लेना कि उसका उजड़ जाना निकट है।” (लूका २१:२०) लेकिन उन मसीहियों के फ़ायदे के लिए जो उस वक़्त यरूशलेम में होते, यीशु ने कहा: “तब जो यहूदिया में हों वह पहाड़ों पर भाग जाएं, और जो यरूशलेम के भीतर हों वे बाहर निकल जाएं; और जो गांवों में हों वे उस में न जाएं।” (लूका २१:२१) अतः रोम के साथ युद्ध ने एक परीक्षा सामने रखी: क्या वे यहूदी मसीही यरूशलेम को छोड़े देंगे जो यहूदी उपासना का और भव्य मंदिर का स्थान था?
१९ अचानक, और बिना किसी ज्ञात कारण से, रोमी लौट गए। संभवतः धार्मिक यहूदियों ने इसे एक सबूत माना कि परमेश्वर उनके पवित्र नगर की रक्षा कर रहा था। लेकिन मसीहियों के बारे में क्या? इतिहास हमें बताता है कि वे भाग निकले थे। तब, सा.यु. ७० में रोमी दोबारा लौटे और यरूशलेम को पूरी तरह नाश किया और असंख्य लोगों की जानें लीं। योएल द्वारा बताया गया ‘यहोवा का दिन’ यरूशलेम पर आ पहुँचा था। लेकिन वफ़ादार मसीही अब वहाँ नहीं थे। उन्होंने ‘छुटकारा पाया।’—योएल २:३०-३२; प्रेरितों २:१६-२१.
२०. इस बात की जानकारी से कि ‘यहोवा का महान दिन’ निकट है, हमें किस तरह प्रेरित होना चाहिए?
२० आज, हम जानते हैं कि ‘यहोवा का एक और महान दिन’ इस पूरी रीति-व्यवस्था पर जल्द ही असर डालेगा। (योएल ३:१२-१४) हम नहीं जानते कि वह दिन कब आएगा। लेकिन परमेश्वर का वचन हमें आश्वस्त करता है कि वह निश्चित ही आएगा! यहोवा कहता है कि इसमें देर न होगी। (हबक्कूक २:३; २ पतरस ३:९, १०) इसलिए आइए “जो बातें हमने सुनी हैं, उन पर सामान्य से ज़्यादा ध्यान दें।” विश्वास की कमी अर्थात् “उलझानेवाले पाप” से बचे रहें। और चाहे कितनी भी देर क्यों न हो धीरज धरे रहने के लिए दृढ़ संकल्प रहें। याद रखिए, यहोवा का महान रथ-समान स्वर्गीय संगठन आगे बढ़ रहा है। यह अपना उद्देश्य पूरा करके रहेगा। सो ऐसा हो कि हम सभी जीवन की इस दौड़ में दौड़ते रहें और हिम्मत न हारें!
क्या आपको याद है?
◻ फिलिप्पियों को दिए पौलुस के कौन-से प्रोत्साहन पर ध्यान देने से हमें जीवन की दौड़ में धीरज धरने में मदद मिलनी चाहिए?
◻ इस संसार में हमें विचलित करने की प्रवृत्ति से लड़ने में क्या चीज़ हमारी मदद करेगी?
◻ दौड़ में धीरज धरने में हम एक दूसरे की कैसे मदद कर सकते हैं?
◻ कौन-सी ऐसी बातें हैं जो एक मसीही को सुस्त कर सकती हैं?
◻ कैसे यीशु का उदाहरण हमें धीरज धरने में मदद कर सकता है?
[पेज 8, 9 पर तसवीर]
धावकों की तरह, मसीहियों को किसी भी बात से विचलित नहीं होना चाहिए
[पेज 10 पर तसवीर]
यहोवा के महान दिव्य रथ को परमेश्वर का उद्देश्य पूरा करने से कोई भी नहीं रोक सकता