मौखिक व्यवस्था—इसे लिखा क्यों गया?
पहली सदी के अनेक यहूदियों ने यीशु को मसीहा के तौर पर क्यों नहीं अपनाया? एक चश्मदीद गवाह कहता है: “[यीशु] मन्दिर में जाकर उपदेश कर रहा था, कि महायाजकों और लोगों के पुरनियों ने उसके पास आकर पूछा, तू ये काम किस के अधिकार से करता है? और तुझे यह अधिकार किस ने दिया है?” (मत्ती २१:२३) वे मानते थे कि परमप्रधान परमेश्वर ने यहूदी जाति को तोराह (नियम) दिया था और इसके ज़रिए परमेश्वर ने कुछ खास लोगों को ही अधिकार दिया था। क्या यीशु के पास ऐसा अधिकार था?
यीशु ने तोराह व इसके ज़रिए जिन लोगों को सच्चा अधिकार मिला था उनके प्रति पूरा आदर दिखाया। (मत्ती ५:१७-२०; लूका ५:१४; १७:१४) लेकिन उसने परमेश्वर की आज्ञाओं को तोड़नेवालों की बार-बार निंदा भी की। (मत्ती १५:३-९; २३:२-२८) ये लोग ऐसी परंपराओं को मानते थे जो आगे चलकर मौखिक व्यवस्था कहलाने लगी। यीशु ने इस मौखिक व्यवस्था के अधिकार को स्वीकार नहीं किया। बदले में कई लोगों ने यीशु को मसीहा के रूप में स्वीकारने से इंकार कर दिया। वे मानते थे कि परमेश्वर केवल उसी व्यक्ति का साथ देगा जो उनके धर्म के अधिकारियों की परंपराओं पर चलेगा।
इस मौखिक व्यवस्था की शुरूआत कहाँ से हुई? यहूदी यह विश्वास कैसे करने लगे कि मौखिक व्यवस्था का उतना ही अधिकार है जितना कि बाइबल में लिखित व्यवस्था का है? और अगर इसे मौखिक परंपरा ही होना था, तो फिर इसे अंततः लिखा क्यों गया?
इन परंपराओं की शुरूआत कहाँ से हुई?
सा.यु.पू. १५१३ में सीनै पर्वत पर इस्राएली लोग यहोवा परमेश्वर के साथ एक वाचा के रिश्ते में बँध गए। मूसा के ज़रिए उन्हें उस वाचा के नियम दिए गए। (निर्गमन २४:३) इन नियमों को मानने से वे ‘अपने आप को शुद्ध करके पवित्र बने रह सकते थे क्योंकि उनका परमेश्वर यहोवा पवित्र है।’ (लैव्यव्यवस्था ११:४४) व्यवस्था वाचा के तहत, एक खास चुने हुए याजकवर्ग द्वारा बलि चढ़ाना यहोवा की उपासना में शामिल था। और इसमें माँग की गयी थी कि उपासना करने के लिए एक खास स्थान चुना जाए। आगे चलकर यरूशलेम का मंदिर उपासना का वह खास स्थान बना।—व्यवस्थाविवरण १२:५-७; २ इतिहास ६:४-६.
मूसा की व्यवस्था में मोटे तौर पर यह बताया गया था कि इस्राएल की पूरी जाति को यहोवा की उपासना कैसे करनी चाहिए। लेकिन, इसमें हर छोटी-छोटी बात के बारे में साफ-साफ नहीं बताया गया था। मसलन, व्यवस्था के अनुसार उन्हें सब्त के दिन काम करने की मनाही थी, लेकिन कौन-कौन-से काम किए जा सकते थे और कौन-कौन-से काम नहीं किए जा सकते थे, इनके बीच का फरक साफ-साफ नहीं बताया गया था।—निर्गमन २०:१०.
अगर यहोवा चाहता तो वह उठ सकनेवाले हर प्रकार के सवाल के लिए साफ-साफ नियम दे सकता था। लेकिन परमेश्वर ने मनुष्यों को बनाते वक्त उनको विवेक दिया और उसकी सेवा करने का चुनाव खुद करने का मौका दिया। इस सेवा में उन्हें परमेश्वर के नियमों के दायरे में रहकर कुछ हद तक खुद फैसले करने की छूट दी गयी थी। व्यवस्था में यह प्रबंध था कि याजक, लेवी और न्यायी मुकदमा सुनकर फैसला करें। (व्यवस्थाविवरण १७:८-११) जैसे-जैसे ये मुकदमे बढ़ते गए, कुछ फैसलों को मिसाल के तौर पर कायम किया गया जिनके आधार पर दूसरे मुकदमों का फैसला किया जाता था। और इसमें कोई संदेह नहीं कि इनमें से कुछ फैसले पीढ़ी-दर-पीढ़ी बतलाए गए। और यहोवा के मंदिर में जिस तरीके से याजक अपना काम करते थे, वह भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़ुबानी तौर पर बाप अपने बेटे को बताता था। जैसे-जैसे राष्ट्र के लोगों का अपने-अपने काम में अनुभव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनकी परंपराएँ भी बढ़ती गयीं।
लेकिन इस्राएल की उपासना की बुनियाद मूसा को दी गयी लिखित व्यवस्था ही थी। निर्गमन २४:३, ४ कहता है: “मूसा ने लोगों के पास जाकर यहोवा की सब बातें और सब नियम सुना दिए; तब सब लोग एक स्वर से बोल उठे, कि जितनी बातें यहोवा ने कही हैं उन सब बातों को हम मानेंगे। तब मूसा ने यहोवा के सब वचन लिख दिए।” (तिरछे टाइप हमारे।) इन लिखित आज्ञाओं के आधार पर ही परमेश्वर ने इस्राएलियों के साथ अपनी वाचा बाँधी। (निर्गमन ३४:२७) दरअसल मौखिक व्यवस्था के बारे में शास्त्र में कहीं भी ज़िक्र नहीं किया गया है।
“तुझे यह अधिकार किस ने दिया है?”
मूसा की व्यवस्था के मुताबिक हारून के वंशज यानी याजकों को ही धार्मिक बातों में फैसला करने का अधिकार और धर्म की शिक्षा देने की मुख्य ज़िम्मेदारी थी। (लैव्यव्यवस्था १०:८-११; व्यवस्थाविवरण २४:८; २ इतिहास २६:१६-२०; मलाकी २:७) लेकिन कुछ सदियाँ गुज़रने के बाद कुछ याजक वफादार नहीं रहे और भ्रष्ट हो गए। (१ शमूएल २:१२-१७, २२-२९; यिर्मयाह ५:३१; मलाकी २:८, ९) उस युग में जब यूनान का राज चल रहा था, अनेक याजकों ने धर्म के मामलों में समझौते किए। सा.यु.पू. दूसरी सदी में, यहूदी धर्म के अंदर ही फरीसियों का एक नया दल शुरू हुआ जो याजकवर्ग पर भरोसा नहीं करता था। इन फरीसियों ने नयी-नयी परंपराएँ शुरू कीं जिनके द्वारा आम आदमी अपने आपको याजक की तरह ही पवित्र समझ सकता था। कई लोगों को ये परंपराएँ पसंद आयीं मगर इन परंपराओं का व्यवस्था में जोड़ा जाना सही नहीं था।—व्यवस्थाविवरण ४:२; १२:३२ (यहूदी संस्करणों में १३:१)।
फरीसियों को लगा कि याजक अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहे थे, सो उन्होंने व्यवस्था को समझाने का याजकों का काम अपने हाथों में ले लिया और खुद को व्यवस्था के नए अधिकारी बना लिया। लेकिन मूसा की व्यवस्था से उन्हें ऐसा अधिकार नहीं मिला था। इसीलिए अपने विचारों को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपने हिसाब से शास्त्र का अर्थ समझाने के नए-नए तरीके निकाले जिसे समझने में लोगों को कठिनाई होती थी।a इन परंपराओं के रखवालों और बढ़ावा देनेवालों के तौर पर उन्होंने इस्राएल में अधिकार की एक नयी बुनियाद डाली। सा.यु. पहली सदी तक, यहूदी धर्म में फरीसी लोगों की ही तूती बोलती थी।
मौजूदा मौखिक परंपराओं के अलावा फरीसी, अपनी और भी परंपराएँ बनाने के लिए शास्त्र में सबूत ढूँढ़ने लगे और तब उन्होंने यह समझा कि उन्हें यह काम करने के अपने अधिकार को ज़ायज ठहराने की ज़रूरत है। ऐसा करने के लिए उन्होंने इन परंपराओं की शुरूआत कैसे हुई, इसके बारे में एक नयी कहानी बतानी शुरू की। रब्बी सिखाने लगे: “मूसा को सीनै पर तोराह मिला और उसने इसे यहोशू को दिया, यहोशू ने प्राचीनों को और प्राचीनों ने भविष्यवक्ताओं को। और भविष्यवक्ताओं ने इसे बड़ी सभा के लोगों [रब्बियों] को दे दिया।”—एवॉट १:१, मिशनाह।
‘मूसा को तोराह मिला’ कहने के द्वारा रब्बी न केवल लिखित नियमों की ओर बल्कि अपनी सारी मौखिक परंपराओं की ओर इशारा कर रहे थे। उन्होंने दावा किया कि सीनै पर परमेश्वर ने मूसा को ये परंपराएँ दीं, लेकिन असल में इंसानों ने इन परंपराओं की शुरूआत की थी और इन्हें विकसित किया था। और उन्होंने सिखाया कि तोराह में जो बातें नहीं थीं, उन्हें समझाने का ज़िम्मा परमेश्वर ने इंसानों को नहीं दिया है लेकिन जो बातें लिखित व्यवस्था में अनकही रह गयी थीं, उन्हें परमेश्वर ने ज़ुबानी तौर पर बता दिया था। उनका कहना था कि मूसा ने यह मौखिक व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी, याजकों को नहीं बल्कि दूसरे अगुवों को दी थी। और फरीसियों ने दावा किया कि अगुवों के तौर पर आज वे ही इस अधिकार के असली वारिस हैं।
मूसा की व्यवस्था का अंत और एक नया हल
यहूदी धार्मिक अगुवों ने यीशु को परमेश्वर द्वारा दिए गए अधिकार पर सवाल उठाया था। और यीशु ने ही मंदिर के नाश के बारे में पहले से ही बताया था। (मत्ती २३:३७-२४:२) सा.यु. ७० में जब रोमी आकर मंदिर को तहस-नहस कर गए, तब मूसा की व्यवस्था द्वारा माँग किए गए बलिदान चढ़ाना और याजकों द्वारा सेवा करना अब मुमकिन नहीं रहा। परमेश्वर ने यीशु के छुड़ौती बलिदान के आधार पर एक नयी वाचा स्थापित की थी। (लूका २२:२०) मूसा की व्यवस्था-वाचा अब खत्म कर दी गयी थी।—इब्रानियों ८:७-१३.
ये घटनाएँ सबूत थीं कि यीशु ही मसीहा था, फिर भी इस सबूत को मानने के बजाय फरीसियों ने दूसरा रास्ता ढूँढ़ निकाला। पहले ही उन्होंने याजकों का काफी अधिकार हथिया लिया था। अब चूँकि मंदिर का नाश हो चुका था, वे एक कदम और आगे बढ़ सकते थे। जाबनॆह की रब्बीनी अकादमी, फिर से संगठित की गयी महासभा अर्थात् यहूदी उच्च न्यायालय का केंद्र बन गयी। जाबनॆह में योहानान बॆन ज़ाकाई और गमैलियल II की अगुवाई में यहूदी धर्म का ढाँचा नए सिरे से बनाया गया। सभा के घर में रब्बियों के निरीक्षण में की जानेवाली उपासना ने मंदिर में याजकों के निरीक्षण में होनेवाली उपासना की जगह ले ली। प्रार्थनाओं ने, खासकर प्रायश्चित दिन पर होनेवाली प्रार्थनाओं ने बलिदानों की जगह ले ली। फरीसियों ने तर्क किया कि सीनै पर मूसा को जो मौखिक व्यवस्था दी गयी थी, उसमें इसका पहले से ही अंदाज़ा लगा लिया गया था और इसके लिए इंतज़ाम भी कर दिया था।
देखते-देखते रब्बीनी अकादमियों की अहमियत बढ़ती गयी। इन अकादमियों में खासकर मौखिक व्यवस्था पर तर्क-वितर्क किया जाता था, उसे रटा जाता और उसे समझाया जाता था। पहले, मिडरैश जो शास्त्र को समझाने का तरीका था, मौखिक व्यवस्था का आधार था। लेकिन अब बढ़ती जा रही परंपराओं को अलग-अलग भागों में बाँटकर सिखाया जाने लगा। मौखिक व्यवस्था के हर नियम को छोटे-छोटे, संगीत के ताल पर आसानी से याद किए जा सकनेवाले वाक्यों में लिख दिया गया था।
मौखिक व्यवस्था को क्यों लिखें?
रब्बीनी अकादमियों की भरमार ने और सदा बढ़ रहे रब्बीनी नियमों ने एक नयी समस्या खड़ी कर दी। रब्बीनी विद्वान एडॆन स्टाइनसॉल्ट्स कहता है: “हर शिक्षक का अपना ही तरीका होता था और वह अपने ही खास अंदाज़ से मौखिक नियमों को व्यक्त करता था। . . . सिर्फ अपने शिक्षक की शिक्षाओं को जानना अब काफी न रहा और विद्यार्थी अब दूसरे विद्वानों की शिक्षाओं को जानने के लिए भी बाध्य था . . . इस प्रकार विद्यार्थी ‘ज्ञान की अति भरमार’ के कारण ढेर सारे विषयों को रटने के लिए मजबूर थे।” बेढंगे तरीके से बतायी गयी जानकारी के इस समुद्र में विद्यार्थी को इस कदर गोते खाने पड़ते थे कि वह थककर पस्त हो जाता था।
सा.यु. दूसरी सदी में बार कोकबा के नेतृत्व में यहूदियों ने रोम के खिलाफ बगावत की। इससे रब्बीनी विद्वानों पर सताहटों का पहाड़ टूट पड़ा। बार कोकबा को समर्थन देनेवाला सबसे मुख्य रब्बी अकीवा को, साथ ही अनेक प्रमुख विद्वानों को मौत के घाट उतार दिया गया। रब्बियों के दिल में डर समा गया कि अगर सताहट फिर से शुरू होती है तो उनकी मौखिक व्यवस्था का नामो-निशान मिट जाने का खतरा पैदा हो सकता है। उनका यह विश्वास था कि मौखिक व्यवस्था को ज़िंदा रखने का सबसे बढ़िया तरीका है गुरू अपने शिष्य को ज़ुबानी तौर पर परंपरा बताए, लेकिन बदल रही परिस्थितियों की वज़ह से उन्हें डर था कि कहीं ज्ञानियों की शिक्षा हमेशा-हमेशा के लिए गुमनामी के अंधेरे में न खो जाए। इसीलिए उन्होंने इन शिक्षाओं को बचाए रखने के लिए इन्हें व्यवस्थित रूप दिया।
सा.यु. दूसरी सदी के आखिर में और तीसरी सदी की शुरूआत में जुडाह हा-नसी प्रमुख रब्बी था। जब रोम के साथ कुछ हद तक शांति बनी रही, तब जुडाह हा-नसी ने अनेक विद्वानों को एकत्रित किया और ढेर सारी ज़ुबानी परंपराओं को छः खंडों में बाँटकर व्यवस्थित तरीके से लिखवाया। इनमें से हर खंड को और भी छोटे-छोटे भागों में विभाजित किया गया जो कुल मिलाकर ६३ थे। इस रचना को मिशनाह नाम दिया गया। मौखिक व्यवस्था का एक अधिकारी इफ्राइम उर्बाख कहता है: “मिशनाह को . . . ऐसी मान्यता व अधिकार मिला जो तोराह को छोड़ किसी और पुस्तक को कभी नहीं मिला था।” मसीहा को ठुकराया गया था, मंदिर तहस-नहस हो चुका था लेकिन मिशनाह के रूप में लिखी हुई मौखिक व्यवस्था बची रही जिसकी वज़ह से यहूदी धर्म में एक नए युग ने जन्म लिया।
[फुटनोट]
a इस तरीके से शास्त्र का अर्थ समझाने को मिडरैश कहते हैं।
[पेज 26 पर तसवीर]
अनेक यहूदियों ने यीशु के अधिकार को क्यों ठुकराया?