आज यहोवा हमसे क्या माँग करता है?
“बादल में से यह शब्द निकला, कि यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं प्रसन्न हूं: इस की सुनो।”—मत्ती १७:५.
१. मूसा की व्यवस्था का मकसद कब पूरा हुआ?
यहोवा ने मूसा के ज़रिये इस्राएल जाति को व्यवस्था दी, जिसमें अलग-अलग किस्म के नियम थे। इनके बारे में प्रेरित पौलुस ने लिखा: “वे . . . शारीरिक नियम हैं, जो सुधार के समय तक के लिये नियुक्त किए गए हैं।” (इब्रानियों ९:१०) इस व्यवस्था की मदद से कुछ इस्राएली पहचान सके कि यीशु ही मसीहा है। और इस तरह इस व्यवस्था का मकसद पूरा हुआ। इसीलिए पौलुस ने कहा: “मसीह व्यवस्था का अन्त है।”—रोमियों १०:४; गलतियों ३:१९-२५; ४:४, ५.
२. कौन व्यवस्था के अधीन थे और कब से उनके लिए भी व्यवस्था को मानना ज़रूरी नहीं रहा?
२ क्या इसका मतलब यह है कि आज हमसे व्यवस्था मानने की माँग नहीं की जाती? दरअसल, शुरू से ही व्यवस्था को मानने की माँग सभी इंसानों से नहीं की गयी थी, क्योंकि भजनहार ने कहा: “[यहोवा] याकूब को अपना वचन, और इस्राएल को अपनी विधियां और नियम बताता है। किसी और जाति से उस ने ऐसा बर्ताव नहीं किया; और उसके नियमों को औरों ने नहीं जाना।” (भजन १४७:१९, २०) जब यहोवा ने यीशु के बलिदान के आधार पर एक नयी वाचा बांधी, तो उसके बाद से इस्राएल जाति के लिए भी व्यवस्था को मानना ज़रूरी नहीं रहा। (गलतियों ३:१३; इफिसियों २:१५; कुलुस्सियों २:१३, १४, १६) अगर ऐसा है, तो आज जो यहोवा की सेवा करना चाहते हैं उनसे परमेश्वर क्या माँग करता है?
यहोवा की माँगें क्या हैं?
३, ४. (क) आज यहोवा हमसे क्या माँग करता है? (ख) हमें यीशु के आदर्श पर क्यों चलना चाहिए?
३ पृथ्वी पर यीशु की सेवा के आखिरी साल में, वह और उसके प्रेरित पतरस, याकूब और यूहन्ना एक ऊँचे पहाड़ पर, शायद हर्मोन पर्वत की एक चोटी पर गए। वहाँ चेलों ने एक दर्शन में, राजा के रूप में यीशु का वैभव और उसकी महिमा देखी और उन्होंने खुद परमेश्वर को यह ऐलान करते हुए सुना: “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं प्रसन्न हूं: इस की सुनो।” (मत्ती १७:१-५) आज, यहोवा हमसे भी यही माँग करता है कि हम उसके बेटे की सुनें, उसके आदर्श पर चलें और उसकी शिक्षाओं को मानें। (मत्ती १६:२४) इसलिए, प्रेरित पतरस ने लिखा: “मसीह . . . तुम्हारे लिये दुख उठाकर, तुम्हें एक आदर्श दे गया है, कि तुम भी उसके चिन्ह पर चलो।”—१ पतरस २:२१.
४ हमें यीशु के आदर्श पर क्यों चलना चाहिए? अगर हम यीशु के आदर्श पर चलकर उसके जैसा व्यवहार करते हैं तो हम असल में यहोवा के जैसा व्यवहार करते हैं। यीशु, पिता को बहुत ही करीब से जानता था, क्योंकि पृथ्वी पर आने से पहले स्वर्ग में उसने अपने पिता के साथ अरबों-खरबों साल बिताए थे। (नीतिवचन ८:२२-३१; यूहन्ना ८:२३; १७:५; कुलुस्सियों १:१५-१७) और जब वह पृथ्वी पर आया, तो उसने हर घड़ी अपने पिता की तरह काम किया। उसने कहा: “जैसे मेरे पिता ने मुझे सिखाया, वैसे ही ये बातें कहता हूं।” दरअसल, यीशु ने इस कदर यहोवा की तरह व्यवहार किया कि वह कह सका: “जिस ने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है।”—यूहन्ना ८:२८; १४:९.
५. मसीही किस व्यवस्था के अधीन हैं और यह व्यवस्था कब से लागू होना शुरू हुई?
५ यीशु की सुनने और उसके आदर्श पर चलने के लिए हमें क्या करना होगा? क्या हमें व्यवस्था को मानना होगा? पौलुस ने लिखा: “मैं व्यवस्था के आधीन न[हीं हूँ]।” यहाँ पौलुस “पुरानी वाचा” की या इस्राएल के साथ की गयी व्यवस्था वाचा की बात कर रहा था। लेकिन, पौलुस ने यह भी कहा कि वह “मसीह की व्यवस्था के आधीन” है। (१ कुरिन्थियों ९:२०, २१; २ कुरिन्थियों ३:१४) पुरानी व्यवस्था वाचा के खत्म होने पर, “नई वाचा” लागू हो गयी, जिसमें “मसीह की व्यवस्था” थी। आज यहोवा के सभी सेवकों के लिए ज़रूरी है कि ‘मसीह की इस व्यवस्था’ को मानें।—लूका २२:२०; गलतियों ६:२; इब्रानियों ८:७-१३.
६. “मसीह की व्यवस्था” क्या है और हम इसका पालन कैसे कर सकते हैं?
६ यहोवा ने “मसीह की व्यवस्था” को लिखित रूप में नहीं दिया और पुरानी व्यवस्था वाचा की तरह इसमें अलग-अलग विषयों पर विधियाँ नहीं थीं। मसीह के चेलों के लिए दी गयी इस नई व्यवस्था में ढेर सारे नियम नहीं थे कि उन्हें क्या करना था और क्या नहीं। इसके बजाय, यहोवा ने अपने वचन बाइबल की चार किताबों में अपने बेटे की जीवनी लिखवाई। इन किताबों में यीशु ने जो किया और जो सिखाया उसका पूरा-पूरा ब्यौरा दिया गया है। इसके अलावा, परमेश्वर ने पहली सदी में यीशु के चेलों से अलग-अलग मामलों पर कुछ खास हिदायतें लिखवायीं। इनमें बताया गया कि हमारा चालचलन कैसा होना चाहिए साथ ही कलीसिया में, परिवार में, और दूसरों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए। (१ कुरिन्थियों ६:१८; १४:२६-३५; इफिसियों ५:२१-३३; इब्रानियों १०:२४, २५) जब हम यीशु मसीह के आदर्श पर चलते हैं, उसकी शिक्षाओं के मुताबिक अपना जीवन जीते हैं और पहली सदी के बाइबल के लेखकों की ईश्वर-प्रेरित सलाह मानते हैं, तो हम “मसीह की व्यवस्था” का पालन करते हैं। यहोवा आज अपने सेवकों से इसी की माँग करता है।
प्रेम की अहमियत
७. अपने प्रेरितों के साथ फसह का आखिरी पर्व मनाते वक्त यीशु ने ‘मसीह की व्यवस्था’ के निचोड़ पर कैसे ज़ोर दिया?
७ जहाँ मूसा की व्यवस्था में प्रेम की बहुत अहमियत थी, वहीं मसीह की पूरी-की-पूरी व्यवस्था ही प्रेम पर आधारित है। यीशु ने इस बात पर ज़ोर दिया जब उसने अपने प्रेरितों के साथ सा.यु. ३३ में फसह मनाया। यूहन्ना की किताब के मुताबिक, उस रात यीशु ने चेलों का हौसला बढ़ाने के लिए जो कुछ कहा उसमें उसने २८ बार प्यार का ज़िक्र किया। इससे यीशु के प्रेरितों के दिलो-दिमाग में मसीह की व्यवस्था की अहमियत या उसका निचोड़ अच्छी तरह बैठ गया। गौर करने लायक बात है कि उस खास शाम की घटनाओं के बारे में लिखते वक्त प्रेरित यूहन्ना ने इन शब्दों से शुरूआत की: “फसह के पर्ब्ब से पहिले जब यीशु ने जान लिया, कि मेरी वह घड़ी आ पहुंची है कि जगत छोड़कर पिता के पास जाऊं, तो अपने लोगों से, जो जगत में थे, जैसा प्रेम वह रखता था, अन्त तक वैसा ही प्रेम रखता रहा।”—यूहन्ना १३:१.
८. (क) प्रेरितों के बीच काफी समय से चल रहे विवाद का पता कैसे चलता है? (ख) अपने चेलों को नम्रता का सबक सिखाने के लिए यीशु ने क्या किया?
८ यीशु ने अपने प्रेरितों से प्यार किया, हालाँकि उसे मालूम था कि उनमें अब भी बहुत सारी कमियाँ थीं। उनमें दूसरों पर राज करने और एक खास पद पर बैठने की बहुत बड़ी अभिलाषा थी। यीशु के बार-बार समझाने के बाद भी उनके विचार नहीं बदले। फसह के पर्व के लिए यरूशलेम आने से कुछ महीने पहले की ही बात है जब “उन्हों ने आपस में यह वाद-विवाद किया था, कि हम में से बड़ा कौन है।” और पर्व के लिए यरूशलेम आने से ठीक पहले, उनमें फिर से यह विवाद उठ खड़ा हुआ। (मरकुस ९:३३-३७; १०:३५-४५) और पर्व के वक्त जो हुआ उससे भी उनके बीच काफी समय से चल रहे विवाद का पता चलता है। उस दिन, आखरी फसह मनाने के लिए प्रेरित ऊपरी कोठी में इकट्ठा हुए। उस ज़माने का रिवाज़ था कि मेहमानों का स्वागत करने के लिए उनके पैर धोए जाएँ। हालाँकि चेलों में से कोई भी सबके पैर धोने की पहल कर सकता था मगर किसी ने भी ऐसा नहीं किया। इसलिए उन्हें नम्रता का सबक सिखाने के लिए यीशु ने खुद उनके पैर धोए।—यूहन्ना १३:२-१५; १ तीमुथियुस ५:९, १०.
९. फसह का आखिरी पर्व मनाने के बाद जो हुआ उसके बारे में यीशु ने क्या किया?
९ इस सबक के बावजूद, जब फसह का पर्व मनाया गया और यीशु ने अपनी पास आ रही मौत का स्मारक शुरू किया, तो देखिए एक बार फिर क्या हुआ। लूका का सुसमाचार कहता है: “उन में यह बाद-विवाद भी हुआ; कि हम में से कौन बड़ा समझा जाता है।” प्रेरितों पर गुस्सा होने और उन्हें बुरा-भला कहने के बजाय, यीशु ने प्यार से उन्हें समझाया कि उन्हें इस दुनिया के अधिकारियों जैसा नहीं होना है जो अधिकार पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। (लूका २२:२४-२७) इसके बाद यीशु ने एक ऐसी आज्ञा दी जिसे मसीह की व्यवस्था की बुनियाद कहा जा सकता है। उसने कहा: “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो।”—यूहन्ना १३:३४.
१०. यीशु ने अपने चेलों को कौन-सी आज्ञा दी और इससे यीशु का क्या मतलब था?
१० उसी शाम को यीशु ने अपने प्यार की मिसाल देते हुए साफ-साफ बताया कि उसके चेलों को भी किस हद तक प्यार दिखाना चाहिए। उसने कहा: “मेरी आज्ञा यह है, कि जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं, कि कोई अपने मित्रों के लिये अपना प्राण दे।” (यूहन्ना १५:१२, १३) क्या यीशु का मतलब यह था कि ज़रूरत पड़ने पर उसके चेलों को अपने आध्यात्मिक भाई-बहनों की खातिर जान देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए? उस समय मौजूद यूहन्ना ने तो यही समझा, क्योंकि उसने बाद में लिखा: “हम ने प्रेम इसी से जाना, कि उस [यीशु मसीह] ने हमारे लिये अपने प्राण दे दिए; और हमें भी भाइयों के लिये प्राण देना चाहिए।”—१ यूहन्ना ३:१६.
११. (क) हम मसीह की व्यवस्था को कैसे पूरा करते हैं? (ख) यीशु ने कैसे एक अच्छा आदर्श रखा?
११ तो फिर, मसीह की व्यवस्था को पूरा करने के लिए दूसरों को मसीह के बारे में सिखाना ही काफी नहीं है। हमें खुद भी यीशु की तरह व्यवहार करना है और उसी की तरह जीना है। बेशक, यीशु ने अपने भाषणों में बहुत ही मनमोहक और अच्छी बातें सिखायीं। मगर, उसने अपने कामों से भी एक अच्छा आदर्श रखा। यीशु स्वर्ग में एक बहुत ही शक्तिशाली आत्मिक प्राणी रह चुका था, मगर जब उसे पृथ्वी पर एक इंसान बनकर अपने पिता का उद्देश्य पूरा करने और हमारे लिए एक आदर्श रखने का मौका मिला, तो उसने इसे हाथ से जाने नहीं दिया। वह नम्र, कृपालु था, दूसरों का लिहाज़ करता था और बोझ से दबे हुए और दुःखी लोगों की मदद करता था। (मत्ती ११:२८-३०; २०:२८; फिलिप्पियों २:५-८; १ यूहन्ना ३:८) यीशु ने अपने चेलों से अनुरोध किया कि जैसा प्यार उसने उनसे किया है, वैसा ही प्यार वे एक दूसरे से करें।
१२. हम क्यों कह सकते हैं कि मसीह की व्यवस्था में, यहोवा से प्रेम करने की आज्ञा की अहमियत कम नहीं हो जाती?
१२ लेकिन, मूसा की व्यवस्था की सबसे बड़ी आज्ञा यानी यहोवा से प्रेम करने की आज्ञा मसीह की व्यवस्था में, किस स्थान पर आती है? (मत्ती २२:३७, ३८; गलतियों ६:२) क्या यह दूसरे स्थान पर आती है और इसकी अहमियत कम हो जाती है? हरगिज़ नहीं! दरअसल, यहोवा के लिए प्यार और अपने भाइयों के लिए प्यार, इन दोनों में बहुत गहरा संबंध है। अगर हम अपने भाई से प्यार नहीं करते तो हम सही मायनों में यहोवा से भी प्यार करने का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि प्रेरित यूहन्ना ने कहा: “यदि कोई कहे, कि मैं परमेश्वर से प्रेम रखता हूं; और अपने भाई से बैर रखे; तो वह झूठा है: क्योंकि जो अपने भाई से, जिसे उस ने देखा है, प्रेम नहीं रखता, तो वह परमेश्वर से भी जिसे उस ने नहीं देखा, प्रेम नहीं रख सकता।”—१ यूहन्ना ४:२०. १ यूहन्ना ३:१७, १८ से तुलना कीजिए।
१३. यीशु की नई आज्ञा को जब चेलों ने माना तब इसका क्या असर हुआ?
१३ यीशु ने अपने चेलों को एक नयी आज्ञा दी कि वे भी एक दूसरे से वैसा ही प्यार करें जैसा खुद उसने उनसे किया था। ऐसा करने का क्या असर होगा इसके बारे में बताते हुए यीशु ने कहा: “यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।” (यूहन्ना १३:३५) यीशु की मौत के सौ साल बाद, इतिहासकार तर्तुलियन ने बताया कि पहली सदी के मसीहियों में एक दूसरे के लिए प्यार का ऐसा ही जज़्बा था। तर्तुलियन ने गैर-ईसाइयों के शब्द दोहराए, जो कह रहे थे: ‘देखो, वो एक दूसरे से कितना प्यार करते हैं और कैसे एक दूसरे के लिए मर-मिटने को तैयार रहते हैं।’ तो फिर, हम अपने आप से यह पूछ सकते हैं, ‘क्या मैं भी अपने मसीही भाई-बहनों के लिए ऐसा प्यार दिखाता हूँ, जिससे यह साफ ज़ाहिर हो कि मैं यीशु का एक चेला हूँ?’
हम अपना प्यार कैसे ज़ाहिर करते हैं
१४, १५. मसीह की व्यवस्था को मानना किस वज़ह से मुश्किल लग सकता है, मगर ऐसा करने में किसका आदर्श हमारी मदद कर सकता है?
१४ यहोवा के सेवकों के लिए, मसीह-जैसा प्यार दिखाना बहुत ही ज़रूरी है। लेकिन क्या आपको ऐसे भाई-बहनों को प्यार दिखाना मुश्किल लगता है जिन्हें दूसरों की कोई परवाह नहीं होती और जो सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं? जैसा हमने पहले भी देखा, यीशु के प्रेरित भी बाकी सबसे आगे रहने की कोशिश करते रहते थे और इसलिए उनमें झगड़ा भी होता था। (मत्ती २०:२०-२४) गलतिया की कलीसिया में भी इसी वज़ह से कलह और झगड़ा होता था। यह बताने के बाद कि पड़ोसी से प्रेम करने से ही व्यवस्था पूरी हो जाती है, पौलुस ने उन्हें यह चेतावनी दी: “यदि तुम एक दूसरे को दांत से काटते और फाड़ खाते हो, तो चौकस रहो, कि एक दूसरे का सत्यानाश न कर दो।” परमेश्वर की पवित्र आत्मा के फल और शरीर के कामों के बीच फर्क दिखाने के बाद, पौलुस ने यह सलाह दी: “हम घमण्डी होकर न एक दूसरे को छेड़ें, और न एक दूसरे से डाह करें।” उसके बाद पौलुस ने यह गुज़ारिश की: “तुम एक दूसरे के भार उठाओ, और इस प्रकार मसीह की व्यवस्था को पूरी करो।”—गलतियों ५:१४–६:२.
१५ मसीह की व्यवस्था को पूरा करने की माँग करके, क्या यहोवा हमसे बहुत बड़ी माँग कर रहा है? यह सच है कि ऐसे लोगों को दया दिखाना हमें मुश्किल लग सकता है जिनकी कड़वी बातें हमें तीर की तरह चुभ गयी हों और जिन्होंने हमारी भावनाओं को गहरी ठेस पहुँचायी हो। फिर भी हमसे यही उम्मीद की जाती है कि ‘प्रिय बालकों के सदृश परमेश्वर का अनुकरण करने वाले बनें, और प्रेम में चलें।’ (इफिसियों ५:१, २, NHT) हमें हमेशा परमेश्वर का आदर्श अपनी नज़रों के सामने रखना चाहिए, जो “अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है, कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा।” (रोमियों ५:८) हमें दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहना चाहिए, चाहे इनमें ऐसे लोग ही क्यों न हो जिन्होंने हमारे साथ बुरा सलूक किया था। अगर हम ऐसा करते हैं तो हमें इस बात का संतोष होगा कि हम परमेश्वर की तरह काम कर रहे हैं और मसीह की व्यवस्था पर चल रहे हैं।
१६. परमेश्वर और मसीह के लिए अपने प्यार को हम कैसे ज़ाहिर करते हैं?
१६ परमेश्वर के लिए प्यार हमें अपने कामों से दिखाना है, सिर्फ बातों से नहीं। यीशु ने भी अपने कामों से यह करके दिखाया। अपनी मौत के वक्त यीशु नहीं चाहता था कि वह परमेश्वर के निंदा करनेवाले के रूप में मारा जाए, इसलिए उसने बिनती की: “हे पिता यदि तू चाहे तो इस कटोरे को मेरे पास से हटा ले।” लेकिन उसने तुरंत यह भी कहा: “तौभी मेरी नहीं परन्तु तेरी ही इच्छा पूरी हो।” (लूका २२:४२) सब तकलीफें सहते हुए भी यीशु ने परमेश्वर की आज्ञा मानी और उसकी इच्छा पूरी की, अपनी नहीं। (इब्रानियों ५:७, ८) आज्ञा मानने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने से हम भी अपना प्यार ज़ाहिर करते हैं और यह दिखाते हैं कि परमेश्वर का मार्ग ही सबसे बढ़िया मार्ग है। बाइबल कहती है, “परमेश्वर का प्रेम यह है, कि हम उस की आज्ञाओं को मानें।” (१ यूहन्ना ५:३) और यीशु ने अपने प्रेरितों से कहा: “यदि तुम मुझ से प्रेम रखते हो, तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे।”—यूहन्ना १४:१५.
१७. यीशु ने अपने चेलों को कौन-सी खास आज्ञा दी और हम कैसे जानते हैं कि आज यह हम पर भी लागू होती है?
१७ एक दूसरे से प्रेम करने की आज्ञा देने के अलावा, मसीह ने अपने चेलों को और कौन-सी खास आज्ञा दी थी? यही कि वे प्रचार का काम करें, जिसकी उसने उन्हें ट्रेनिंग भी दी थी। पतरस ने कहा: “उस ने हमें आज्ञा दी, कि लोगों में प्रचार करो; और गवाही दो।” (प्रेरितों १०:४२) यीशु ने साफ शब्दों में यह आज्ञा दी थी: “तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रात्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ।” (मत्ती २८:१९, २०; प्रेरितों १:८) यीशु ने बताया कि ये आदेश उसके चेलों पर आज इस “अन्त समय” में भी लागू होंगे, क्योंकि उसने कहा: “राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जाएगा, कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।” (दानिय्येल १२:४; मत्ती २४:१४) बेशक, परमेश्वर की इच्छा यह है कि हम प्रचार करें। लेकिन, कुछ लोग शायद ऐसा सोचें: ‘हमें यह काम करने की आज्ञा देकर परमेश्वर ने हमारे सामने बहुत मुश्किल माँग रख दी है।’ लेकिन क्या यह सचमुच बहुत मुश्किल है?
यह माँग क्यों मुश्किल लग सकती है
१८. यहोवा की इच्छा पूरी करते हुए अगर हम सताए भी जाते हैं, तो हमें कौन-सी बात हमेशा याद रखनी चाहिए?
१८ जैसा कि हमने अब तक देखा है, यहोवा ने अलग-अलग समय पर अपने सेवकों के सामने अलग-अलग माँगें रखी हैं। और इन माँगों को पूरा करते वक्त उन पर अलग-अलग किस्म की परीक्षाएँ भी आयीं हैं। परमेश्वर का प्यारा बेटा सबसे कठिन परीक्षाओं से गुज़रा और आखिरकार उसे बहुत ही बेरहमी से मार दिया गया। क्यों? क्योंकि उसने वही किया जो परमेश्वर ने चाहा। अगर यहोवा की इच्छा पूरी करते हुए हम भी सताए जाते हैं, तो हमें एक बात हमेशा याद रखनी है कि ये परीक्षाएँ परमेश्वर नहीं लाता। (यूहन्ना १५:१८-२०; याकूब १:१३-१५) परमेश्वर के खिलाफ जाकर शैतान ने ही हम पर पाप, दुःख-तकलीफ और मौत लायी है। उसी ने आज ऐसे हालात पैदा किए हैं कि कई बार यहोवा की माँगों को पूरा करने के लिए उसके सेवकों को बहुत मुसीबतों से गुज़रना पड़ता है।—अय्यूब १:६-१९; २:१-८.
१९. अपने बेटे के ज़रिये परमेश्वर ने हमें जो काम करने को कहा है वह हमारे लिए सम्मान की बात क्यों है?
१९ अपने बेटे के ज़रिये, यहोवा ने कहा है कि इस अंत के समय के दौरान उसके सेवक सारी पृथ्वी पर यह ऐलान करें कि इंसान की तमाम दुःख-तकलीफों का सिर्फ एक ही इलाज है, वह है परमेश्वर का राज्य। परमेश्वर की यह सरकार इस दुनिया की तमाम मुश्किलों का, जैसे कि लड़ाइयों, अपराध, गरीबी, बुढ़ापे, बीमारी और मौत का अंत कर देगी। यह राज्य इस पृथ्वी को एक शानदार हरे-भरे बगीचे का रूप देगा, जिसमें मरे हुओं को भी फिर से ज़िंदा किया जाएगा। (मत्ती ६:९, १०; लूका २३:४३; प्रेरितों २४:१५; प्रकाशितवाक्य २१:३, ४) आज हमारे लिए यह कितने सम्मान की बात है कि इन अच्छी बातों की खुशखबरी सुनाने के लिए परमेश्वर ने हमें भेजा है! यह साफ ज़ाहिर है कि यहोवा हमसे जो करने के लिए कहता है वह मुश्किल नहीं है। मुश्किल तब आती है जब हमें शैतान और उसकी दुनिया की वज़ह से विरोध का सामना करना पड़ता है।
२०. शैतान द्वारा खड़ी की गयी किसी भी मुसीबत का सामना हम कैसे कर सकते हैं?
२० तो फिर, शैतान द्वारा खड़ी की गयी किसी भी मुसीबत का सामना हम कैसे कर सकते हैं? इन शब्दों को हमेशा याद रखकर: “हे मेरे पुत्र, बुद्धिमान होकर मेरा मन आनन्दित कर, तब मैं अपने निन्दा करनेवाले को उत्तर दे सकूंगा।” (नीतिवचन २७:११) यीशु स्वर्ग की अपनी सुरक्षित ज़िंदगी को छोड़कर पृथ्वी पर अपने पिता की इच्छा करने के लिए आया। यीशु की खराई के आधार पर यहोवा परमेश्वर, निंदा करनेवाले शैतान को जवाब दे सका। (यशायाह ५३:१२; इब्रानियों १०:७) पृथ्वी पर आकर, यीशु ने हर ज़ुल्म सहन किया और आखिर में सूली पर अपनी जान भी दी। इसलिए, अगर हम यीशु को अपना आदर्श मानकर चलें, तो हम भी मुसीबतों का सामना कर सकेंगे और यहोवा हमसे जो काम करने की माँग करता है वह हम पूरा कर सकेंगे।—इब्रानियों १२:१-३.
२१. यहोवा और उसके बेटे द्वारा दिखाए गए प्यार के बारे में आप कैसा महसूस करते हैं?
२१ परमेश्वर और उसके बेटे ने हमें कितना प्यार दिया है! यीशु के बलिदान की बदौलत ही, परमेश्वर की आज्ञाएँ माननेवालों को एक सुंदर पृथ्वी पर सदा तक जीने की आशा मिली है। आइए हम इस आशा को किसी भी तरह धुँधला न होने दें। इसके बजाय, यीशु के बलिदान के बारे में हम भी वैसा ही महसूस करें जैसा पौलुस ने किया: “परमेश्वर के पुत्र . . . ने मुझ से प्रेम किया, और मेरे लिये अपने आप को दे दिया।” (तिरछे टाइप हमारे।) (गलतियों २:२०) और हम तहेदिल से अपने प्यारे परमेश्वर यहोवा का भी शुक्रिया अदा करें, जो हमसे कभी-भी बहुत ज़्यादा की माँग नहीं करता।
आप क्या जवाब देंगे?
◻ आज यहोवा हमसे क्या माँग करता है?
◻ अपने प्रेरितों के साथ अपनी आखिरी शाम को, यीशु ने प्यार की अहमियत पर कैसे ज़ोर दिया?
◻ परमेश्वर के लिए अपना प्यार हम कैसे ज़ाहिर कर सकते हैं?
◻ यहोवा ने हमें जो काम दिया है वह करना हमारे लिए सम्मान की बात क्यों है?
[पेज 23 पर तसवीर]
अपने प्रेरितों के पैर धोकर यीशु ने कौन-सा सबक सिखाया?
[पेज 25 पर तसवीर]
चाहे हमारा विरोध ही क्यों न किया जाए, सुसमाचार सुनाना हमारे लिए बहुत बड़ा सम्मान है