अपने विवेक पर क्या आप भरोसा कर सकते हैं?
सामान्य स्थितियों में, कंपास एक भरोसेमंद यंत्र है। पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र द्वारा चलनेवाली इसकी सूई हमेशा उत्तर दिशा की ओर ठहरी रहती है। इस प्रकार जब यात्रियों को दिशा दिखाने के लिए कोई भी लैंडमार्क नज़र नहीं आता तब वे दिशा जानने के लिए इस कंपास पर भरोसा कर सकते हैं। लेकिन तब क्या होता है जब कंपास के पास कोई चुंबकीय वस्तु रख दी जाती है? सूई उत्तर दिशा के बजाय चुंबक की तरफ घूम जाती है। अब तो यह एक भरोसेमंद मार्गदर्शक नहीं रहा।
हमारे विवेक के साथ भी कुछ ऐसा ही हो सकता है। हमारे बनानेवाले ने हमें यह क्षमता दी ताकि यह एक भरोसेमंद मार्गदर्शक के तौर पर कार्य करे। चूँकि हमें परमेश्वर के स्वरूप में बनाया गया है, सो जब हमें फैसले करने पड़ते हैं तो विवेक को हमेशा हमें सही दिशा दिखाना चाहिए। इससे हमें परमेश्वर के नैतिक स्तरों को अपनी ज़िंदगी में दर्शाने के लिए प्रेरित होना चाहिए। (उत्पत्ति १:२७) अकसर ऐसा ही होता है। मसलन, मसीही प्रेरित पौलुस ने लिखा कि कुछ ऐसे लोग जिनके पास परमेश्वर की प्रकट व्यवस्था नहीं है, वे “स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं।” भला क्यों? क्योंकि “उन के विवेक भी गवाही देते हैं।”—रोमियों २:१४, १५.
मगर, ऐसा नहीं होता कि विवेक हमेशा सही वक्त पर टोकता है। मानवी असिद्धता के कारण, ऐसे काम करने के प्रति हमारा झुकाव रहता है जिनके बारे में हम जानते हैं कि वे गलत हैं। पौलुस ने कबूल किया, “मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूं। परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था [के] बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है।” (रोमियों ७:२२, २३) यदि हम बार-बार विवेक के खिलाफ जाकर अपने पापमय शरीर की रुझान को मानते हैं, तो हमारा विवेक आहिस्ते-आहिस्ते सुस्त हो जाएगा और अंततः हमें बताना ही बंद कर देगा कि फलाना आचरण गलत है।
लेकिन असिद्ध होने के बावजूद, हम अपने विवेक को परमेश्वर के स्तरों के अनुरूप कर सकते हैं। वाकई, ऐसा करना ज़रूरी भी है। एक साफ, ठीक तरह से सिखाया हुआ विवेक न केवल परमेश्वर के साथ एक स्नेहिल, व्यक्तिगत संबंध की ओर ले जाता है, बल्कि यह हमारे उद्धार के लिए ज़रूरी भी है। (इब्रानियों १०:२२; १ पतरस १:१५, १६) और तो और, एक अच्छा विवेक हमें ज़िंदगी में बिलकुल सही फैसले करने में मदद देगा, और इससे हमारी शांति और खुशी बढ़ेगी। ऐसे विवेकशील व्यक्ति के बारे में भजनहार ने कहा: “उसके परमेश्वर की व्यवस्था उसके हृदय में बनी रहती है, उसके पैर नहीं फिसलते।”—भजन ३७:३१.
विवेक को सिखाना
विवेक को सिखाने का मतलब नियमों की सूचि को बस रट लेना और फिर सख्ती से उनका पालन करना नहीं है। यीशु के समय के फरीसियों ने यही तो किया था। ये धार्मिक अगुवे, व्यवस्था को जानते थे और उन्होंने हर छोटी बात के लिए नियम बनाए थे। और माना जाता था कि ऐसे नियम इस बात में मदद करते थे कि लोगों से व्यवस्था का उल्लंघन न हो। अतः, जब यीशु के शिष्य सब्त के दिन गेहूँ की बालें तोड़कर उसे खाने लगे तो इन अगुवों ने फौरन विरोध किया। और सब्त के दिन जब यीशु ने सूखे हाथवाले एक आदमी को चंगा किया तो उन्होंने आपत्ति उठायी। (मत्ती १२:१, २, ९, १०) फरीसियों के नियमों के मुताबिक ये दोनों ही कार्य, दस आज्ञाओं की चौथी आज्ञा का उल्लंघन था।—निर्गमन २०:८-११.
ज़ाहिर है कि फरीसियों ने व्यवस्था का अध्ययन किया था। लेकिन क्या उनका विवेक परमेश्वर के स्तरों के अनुरूप था? बिलकुल भी नहीं! उनके अनुसार यह सब्त के नियम का घोर उल्लंघन था। इस उल्लंघन के बारे में नुकताचीनी करने के तुरंत बाद ही, फरीसियों ने यीशु के खिलाफ सम्मति की ‘कि उसे नाश करें।’ (मत्ती १२:१४) ज़रा सोचिए—सब्त के दिन ताज़ी-ताज़ी बालें तोड़कर खाने और चंगा करने के विचार से ही इन आत्म-धर्मी अगुवों की आँखों में खून उतर आया था; लेकिन यीशु की हत्या करने की साज़िश करते वक्त उनके विवेक ने उफ तक नहीं किया!
महायाजकों का भी इसी तरह का विकृत विचार था। इन भ्रष्ट लोगों को रत्ती भर भी दोष-भावना महसूस नहीं हुई जब उन्होंने मंदिर के भंडार से यीशु को पकड़वाने के लिए यहूदा को चाँदी के ३० सिक्के दिए। लेकिन उनकी अपेक्षा के विपरीत जब यहूदा पैसे वापस करने आया, और मंदिर में सिक्के फेंक दिए, तब इन महायाजकों के विवेक के सामने एक कानूनी दुविधा खड़ी हो गयी। उन्होंने कहा, “इन्हें [सिक्कों को] भण्डार में रखना उचित नहीं, क्योंकि यह लोहू का दाम है।” (मत्ती २७:३-६) ज़ाहिर है, महायाजकों को यह चिंता सताने लगी कि यहूदा का पैसा अब अशुद्ध हो चुका था। (व्यवस्थाविवरण २३:१८ से तुलना कीजिए।) लेकिन, इन्हीं लोगों को परमेश्वर के पुत्र का विश्वासघात करवाने के लिए इन पैसों को खर्च करने में कोई बुराई नज़र नहीं आयी!
परमेश्वर के जैसा सोचना
ऊपर दिए गए उदाहरण दिखाते हैं कि विवेक को सिखाने में ‘यह करो, यह न करो’ के नियमों की सूचि को मन में रट लेना ही काफी नहीं है। माना कि परमेश्वर के नियमों की जानकारी ज़रूरी है, और उनका पालन करना उद्धार के लिए और भी ज़रूरी है। (भजन १९:७-११) लेकिन परमेश्वर के नियमों के बारे में सीखने से बढ़कर, हमें एक ऐसा हृदय विकसित करना है जो परमेश्वर के सोच-विचार के अनुरूप हो। तब हम यशायाह के ज़रिए दी गयी यहोवा की भविष्यवाणी को पूरा होते हुए देख सकते हैं, जो कहती है: “तुम अपनी आंखों से अपने [महान उपदेशक] को देखते रहोगे। और जब कभी तुम दहिनी वा बाई ओर मुड़ने लगो, तब तुम्हारे पीछे से यह वचन तुम्हारे कानों में पड़ेगा, मार्ग यही है, इसी पर चलो।”—यशायाह ३०:२०, २१; ४८:१७.
इसका यह मतलब नहीं कि जब हमें कोई गंभीर फैसला करना होता है तब असल में एक आवाज़ हमसे कहेगी कि हमें करना क्या है। फिर भी, किसी भी मामले में जब हमारे विचार परमेश्वर के सोच-विचार के अनुरूप होते हैं, तब हमारा विवेक ऐसे फैसले करने में हमारी मदद बेहतर रूप से कर पाएगा जिससे कि यहोवा खुश हो।—नीतिवचन २७:११.
यूसुफ को लीजिए जो सा.यु.पू. १८वीं सदी में जीता था। जब पोतीपर की पत्नी ने उसे अपने साथ परस्त्रीगमन करने के लिए उकसाया, तो यूसुफ ने इंकार करते हुए कहा: “मैं ऐसी बड़ी दुष्टता करके परमेश्वर का अपराधी क्योंकर बनूं?” (उत्पत्ति ३९:९) यूसुफ के ज़माने में, परमेश्वर की ओर से परस्त्रीगमन की निंदा करनेवाला कोई लिखित नियम मौजूद नहीं था। और तो और, यूसुफ मिस्र में रहता था, अपने परिवार से मिलनेवाले अनुशासन या कुलपिता के नियमों से कोसों दूर। तो फिर प्रलोभन को ठुकराने में किस बात ने यूसुफ की मदद की? सरल शब्दों में कहें तो यह उसके सिखाए हुए विवेक का कमाल था। यूसुफ ने परमेश्वर की तरह सोचा कि पति और पत्नी को “एक ही तन” होकर रहना है। (उत्पत्ति २:२४) इसी कारण वह यह समझ पाया कि दूसरे पुरुष की पत्नी को ले लेना गलत होगा। इस विषय पर यूसुफ का विचार परमेश्वर के जैसा था। परस्त्रीगमन करने के लिए उसके ज़मीर ने गवाही नहीं दी।
आज, बहुत कम लोग यूसुफ की तरह हैं। चारों तरफ लैंगिक अनैतिकता फैली हुई है। ऐसी हालत में, नैतिक रूप से शुद्ध बने रहने के लिए अनेक लोग खुद को अपने सृष्टिकर्ता के, अपने, यहाँ तक कि अपने विवाह-साथी के प्रति जवाबदेह महसूस नहीं करते। यह स्थिति काफी हद तक उस तरह है जिसका वर्णन यिर्मयाह की पुस्तक में किया गया है: “इन में से किसी ने अपनी बुराई से पछताकर नहीं कहा, हाय! मैं ने यह क्या किया है? जैसा घोड़ा लड़ाई में वेग से दौड़ता है, वैसे ही इन में से हर एक जन अपनी ही दौड़ में दौड़ता है।” (यिर्मयाह ८:६) अतः, अपने विचारों को परमेश्वर के सोच-विचार के अनुरूप करने की ज़रूरत अब पहले से कहीं ज़्यादा है। ऐसा करने में हमारी मदद करने के लिए हमारे पास एक अद्भुत प्रबंध है।
विवेक को सिखाने में एक मदद
ईश्वर-प्रेरित शास्त्र “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए।” (२ तीमुथियुस ३:१६, १७) बाइबल का अध्ययन करने से हमें उस चीज़ को प्रशिक्षित करने में मदद मिलेगी जिसे बाइबल “ज्ञानेन्द्रिय” कहती है, ताकि हम सही-गलत में फर्क कर सकें। (इब्रानियों ५:१४) यह हमें उन चीज़ों के लिए प्रेम विकसित करने में, जिनसे परमेश्वर प्रेम करता है और उन चीज़ों से नफरत करने में मदद करेगा जिनसे परमेश्वर घृणा करता है।—भजन ९७:१०; १३९:२१.
तो फिर बाइबल अध्ययन का मकसद है कि सत्य की गहरी समझ और उसका पूरा अर्थ जानना, न कि मात्र सतही ज्ञान लेना। सितंबर १, १९७६ के अंक में प्रहरीदुर्ग (अंग्रेज़ी) में लिखा था: “शास्त्र के अपने अध्ययन में हमें परमेश्वर के न्याय, प्रेम व धार्मिकता की समझ प्राप्त करने की और इन्हें अपने दिलों में गहराई से बिठाने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि ये खाने व साँस लेने की तरह हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाएँ। सही और गलत क्या है, इसका तीव्र बोध विकसित करने के द्वारा हमें अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी के प्रति और भी सतर्क होने की कोशिश करनी चाहिए। इससे भी बढ़कर, हमें आदर्श व्यवस्था-देनेवाले और न्यायी, यानी परमेश्वर के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को गंभीरता से लेने के लिए अपने विवेक की ओर ध्यान देना चाहिए। (यशा. ३३:२२, NHT) सो परमेश्वर के बारे में सीखने के साथ-साथ, हमें अपने जीवन के हर पहलू में उसकी नकल करने की कोशिश करनी चाहिए।”
“मसीह का मन” पाना
बाइबल का अध्ययन हमें “मसीह का मन”—अर्थात् यीशु द्वारा दिखायी गयी आज्ञाकारिता व नम्रता की भावना—पाने में भी मदद करेगा। (१ कुरिन्थियों २:१६) अपने पिता की इच्छा पूरी करना उसके लिए खुशी की बात थी, न कि बिना सोचे-विचारे, अपने-आप की गयी मात्र कोई रूटीन। उसकी मनोवृत्ति को भजनहार दाऊद ने पहले ही भविष्यवाणी के तौर पर वर्णन किया था। उसने लिखा: “हे मेरे परमेश्वर मैं तेरी इच्छा पूरी करने से प्रसन्न हूं; और तेरी व्यवस्था मेरे अन्तःकरण में बसी है।”a—भजन ४०:८.
विवेक को सिखाने में “मसीह का मन” पाना बहुत ज़रूरी है। एक सिद्ध इंसान के तौर पर जब यीशु ज़मीन पर था, तब उसने अपने पिता के गुणों व व्यक्तित्व को हू-ब-हू प्रदर्शित किया। अतः वह कह सका: “जिस ने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है।” (यूहन्ना १४:९) ज़मीन पर चाहे यीशु के सामने जो भी स्थिति आयी, उसने वही किया जो उसका पिता चाहता था। इसीलिए, जब हम यीशु के जीवन का अध्ययन करते हैं, तब हमें यहोवा परमेश्वर की एक स्पष्ट तस्वीर मिलती है।
हम पढ़ते हैं कि यहोवा “दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करुणामय” है। (निर्गमन ३४:६) यीशु ने अपने प्रेरितों के साथ व्यवहार करते वक्त कई बार इन गुणों को प्रकट किया। जब वे बार-बार इसी मसले पर लड़ते थे कि उनमें बड़ा कौन है, तब यीशु ने उन्हें अपनी बातों और उदाहरण के द्वारा धीरज के साथ सिखाया कि “जो कोई तुम में बड़ा होना चाहे, वह तुम्हारा सेवक बने। और जो तुम में प्रधान होना चाहे, वह तुम्हारा दास बने।” (मत्ती २०:२६, २७) यह तो बस एक नमूना है जो दिखाता है कि यीशु की ज़िंदगी पर विचार करने के द्वारा हम परमेश्वर के सोच-विचार के अनुरूप हो सकते हैं।
जितना ज़्यादा हम यीशु के बारे में सीखते हैं, उतना ही बेहतर रूप से हम स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता, यहोवा का अनुकरण कर सकेंगे। (इफिसियों ५:१, २) ऐसा विवेक जो परमेश्वर के सोच-विचार के अनुरूप है, वह हमें सही दिशा में ले चलेगा। जो यहोवा पर भरोसा करते हैं, उनसे वह प्रतिज्ञा करता है: “मैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपादृष्टि रखूंगा और सम्मति दिया करूंगा।”—भजन ३२:८.
सिखाए हुए विवेक से लाभ पाना
असिद्ध इंसानों के हठीलेपन को जानते हुए, मूसा ने इस्राएलियों को आगाह किया: “जितनी बातें मैं आज तुम से चिताकर कहता हूं उन सब पर अपना अपना मन लगाओ, और उनके अर्थात् इस व्यवस्था की सारी बातों के मानने में चौकसी करने की आज्ञा अपने लड़केबालों को दो।” (व्यवस्थाविवरण ३२:४६) हमें भी यहोवा की व्यवस्था को अपने दिलों पर लिख लेना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं, तो हमारा विवेक हमें सही दिशा पर ले चलेगा और सही फैसले करने में हमारी मदद करेगा।
बेशक हमें होशियार रहने की ज़रूरत है। बाइबल की एक कहावत है: “ऐसा मार्ग है, जो मनुष्य को ठीक देख पड़ता है, परन्तु उसके अन्त में मृत्यु ही मिलती है।” (नीतिवचन १४:१२) ऐसा अकसर क्यों होता है? क्योंकि बाइबल यूँ कहती है: “मन तो सब वस्तुओं से अधिक धोखा देनेवाला होता है, उस में असाध्य रोग लगा है; उसका भेद कौन समझ सकता है?” (यिर्मयाह १७:९) सो, हम सब के लिए यह ज़रूरी है कि हम नीतिवचन ३:५, ६ की सलाह को अमल में लाएँ: “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण करके सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा।”
[फुटनोट]
a इब्रानियों को लिखी अपनी पत्री में, प्रेरित पौलुस ने ४०वें भजन को यीशु मसीह पर लागू किया था।—इब्रानियों १०:५-१०.
[पेज 7 पर तसवीर]
एक कंपास की तरह, बाइबल द्वारा सिखाया हुआ विवेक हमें सही दिशा दिखा सकता है
[चित्र का श्रेय]
कंपास: सौजन्य, Peabody Essex Museum, Salem, Mass.