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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1995
w95 10/15 पेज 29-31

आत्म-धर्माभिमान से चौकस रहिए!

प्रथम शताब्दी में, फरीसी परमेश्‍वर के धर्मी उपासक होने के लिए सुख्यात थे। वे शास्त्र के गंभीर विद्यार्थी थे और बारंबार प्रार्थना करते थे। कुछ लोग उन्हें सौम्य और कोमल व्यक्‍तियों के तौर पर देखते थे। यहूदी इतिहासकार जोसीफ़स ने लिखा: “फरीसी एक दूसरे के प्रति स्नेही होते हैं और समुदाय के साथ सद्‌भावपूर्ण सम्बन्ध विकसित करते हैं।” इसमें आश्‍चर्य नहीं कि वे उस समय यहूदी समाज में संभवतः सबसे आदरणीय और उच्च सम्मान-प्राप्त व्यक्‍ति थे!

लेकिन, आज शब्द “फरीसी-समान” और सम्बन्धित शब्द अनादरपूर्ण हैं, वे पाखण्डी-भक्‍त, आत्म-धर्माभिमानी, अति-धर्मी, अतिपवित्र समझने और दिखावटी सेवा करने के समानार्थक हैं। फरीसियों ने अपना अच्छा नाम क्यों गवाँ दिया?

ऐसा इसलिए था क्योंकि अधिकांश यहूदियों से भिन्‍न, यीशु मसीह फरीसियों के बाहरी रूप के धोखे में नहीं आ गया। उसने उनकी समानता “चूना फिरी हुई कब्रों” से की “जो ऊपर से तो सुन्दर दिखाई देती हैं, परन्तु भीतर मुर्दों की हड्डियों और सब प्रकार की मलिनता से भरी हैं।”—मत्ती २३:२७.

सच है, वे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े रहकर लंबी प्रार्थनाएँ करते थे, लेकिन जैसे यीशु ने कहा, यह केवल दूसरों को दिखाने के लिए था। उनकी उपासना महज़ एक दिखावा थी। वे रात्रि भोज में मुख्य स्थान और आराधनालयों में आगे के स्थानों पर बैठना चाहते थे। जबकि सभी यहूदी अपने कपड़ों पर झालर लगाने के लिए बाध्य थे, फरीसी ज़रूरत से ज़्यादा लंबी झालर लगाने के द्वारा लोगों को प्रभावित करने की कोशिश करते थे। उन्हें तावीज़ों की तरह पहनी जानेवाली अपनी शास्त्र की बड़ी की गयी डिब्बियों का प्रदर्शन करने में मज़ा आता था। (मत्ती ६:५; २३:५-८) आख़िरकार उनके कपट, उनके लोभ और उनके अक्खड़पन के कारण उनका अपमान हुआ।

यीशु ने फरीसियों के प्रति परमेश्‍वर की अस्वीकृति व्यक्‍त की: “हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक की। कि ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं।” (मत्ती १५:७-९) उनकी धार्मिकता असल में आत्म-धर्माभिमान था। उचित रूप से, यीशु ने अपने चेलों को चिताया: “फरीसियों के . . . खमीर से चौकस रहना।” (लूका १२:१) आज, हमें भी आत्म-धर्माभिमान से “चौकस” या धार्मिक कपटी बनने से सतर्क रहना है।

ऐसा करते वक़्त, हमें यह समझना चाहिए कि एक व्यक्‍ति रातोंरात आत्म-धर्माभिमानी नहीं बन जाता। इसके बजाय, यह प्रवृत्ति कुछ समय के दौरान धीरे-धीरे बढ़ती है। अनजाने में भी एक व्यक्‍ति फरीसियों के अप्रिय लक्षणों को विकसित कर सकता है।

अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति

हमें कौन-से कुछ लक्षणों से “चौकस रहना” है? आत्म-धर्माभिमानी व्यक्‍ति सामान्यतः “ऐसे बोलते, बर्ताव करते और दिखते हैं मानो उन्होंने कभी कोई ग़लती नहीं की,” धर्म और नीतिशास्त्र का विश्‍वकोश (अंग्रेज़ी) समझाता है। आत्म-धर्माभिमानी डींगें हाँकनेवाले और ख़ुद अपनी प्रशंसा करनेवाले भी होते हैं, जो फरीसियों की एक मुख्य समस्या थी।

यीशु ने इस फरीसी मनोवृत्ति का वर्णन एक दृष्टान्त से किया: “दो मनुष्य मन्दिर में प्रार्थना करने के लिये गए; एक फरीसी था और दूसरा चुङ्‌गी लेनेवाला। फरीसी खड़ा होकर अपने मन में यों प्रार्थना करने लगा, कि हे परमेश्‍वर, मैं तेरा धन्यवाद करता हूं, कि मैं और मनुष्यों की नाईं अन्धेर करनेवाला, अन्यायी और व्यभिचारी नहीं, और न इस चुङ्‌गी लेनेवाले के समान हूं। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूं; मैं अपनी सब कमाई का दसवां अंश भी देता हूं।” इसके विपरीत चुङ्‌गी लेनेवाले ने नम्रतापूर्वक अपनी ग़लतियों को मान लिया और डींगें हाँकनेवाले फरीसी से ज़्यादा धर्मी साबित हुआ। यीशु ने यह दृष्टान्त उनके लिए दिया “जो अपने ऊपर भरोसा रखते थे, कि हम धर्मी हैं, और औरों को तुच्छ जानते थे।”—लूका १८:९-१४.

अपरिपूर्ण मनुष्य होने के नाते, हम शायद कभी-कभार महसूस करें कि हम अपनी स्वाभाविक क्षमताओं या अनुकूल स्थिति के कारण दूसरों से बेहतर हैं। लेकिन मसीहियों को ऐसे विचारों को तुरन्त रद्द कर देना चाहिए। आपको शायद मसीही जीवन जीने का अनेक सालों का अनुभव हो। आप शायद एक कुशल बाइबल शिक्षक हों। या शायद आप मसीह के साथ स्वर्ग में शासन करने के लिए अभिषिक्‍त होने का दावा करते हैं। कलीसिया में कुछ पूर्ण-समय सेवकों, प्राचीनों या सहायक सेवकों के तौर पर ख़ास विशेषाधिकारों का आनन्द लेते हैं। अपने आपसे पूछिए, ‘यहोवा कैसा महसूस करेगा अगर उसने जो मुझे दिया है उसका प्रयोग मैं ख़ुद को दूसरों से बड़ा महसूस करने के एक आधार के तौर पर करूँ?’ निश्‍चय ही, यह बात उसे अप्रसन्‍न करेगी।—फिलिप्पियों २:३, ४.

जब एक मसीही अपनी परमेश्‍वर-प्रदत्त क्षमताओं, विशेषाधिकारों या अधिकार के कारण एक अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति प्रदर्शित करता है, तो वह असल में परमेश्‍वर की उस महिमा और श्रेय को लूट रहा है जिसका हक़दार केवल वह है। बाइबल एक मसीही को स्पष्ट रूप से सलाह देती है कि “अपने आप को जितना समझना चाहिए उस से बढ़कर न समझे।” (NHT) यह हम से आग्रह करती है: “आपस में एक सा मन रखो; अभिमानी न हो; परन्तु दीनों के साथ संगति रखो; अपनी दृष्टि में बुद्धिमान न हो।”—रोमियों १२:३, १६.

“दोष मत लगाओ”

एक बाइबल विश्‍वकोश के अनुसार, एक आत्म-धर्माभिमानी व्यक्‍ति “विधिसंगत माँगों के वास्तविक अर्थ की परवाह किए बिना, उनका आक्षरिक रूप से पालन करने के कारण अपने आपको नैतिक रूप से खरा या परमेश्‍वर के सामने सही स्थिति में समझता है।” एक और रचना आत्म-धर्माभिमानी का वर्णन इस प्रकार करती है, “अत्यधिक रूप से धार्मिक व्यक्‍ति जो अपना सारा समय दूसरों में दुष्टता ढूँढने में गवाँ देते हैं।”

फरीसी इसके दोषी थे। कुछ समय बाद उनके मानव-निर्मित नियम परमेश्‍वर की विधियों और सिद्धान्तों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते थे। (मत्ती २३:२३; लूका ११:४१-४४) उन्होंने अपने आपको न्यायी बना लिया और ऐसे किसी भी व्यक्‍ति की निन्दा करने को प्रवृत्त थे जो उनके आत्म-धर्माभिमानी स्तरों पर पूरा नहीं बैठता। उनकी अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति और अत्यधिक स्वाभिमान से उनमें दूसरे लोगों को नियंत्रित रखने की ज़रूरत पैदा हुई। यीशु पर नियंत्रण करने में उनकी असमर्थता से वे क्रोधित हुए, सो उन्होंने उसकी हत्या करने का षड्यंत्र रचा।—यूहन्‍ना ११:४७-५३.

ऐसे व्यक्‍ति की संगति में होना कितना अप्रिय है जो अपने आपको एक न्यायी बना लेता है, हमेशा ग़लतियाँ ढूँढता रहता है, अपने आस-पास प्रत्येक व्यक्‍ति को जाँचता और नियंत्रण में रखता है। सचमुच, कलीसिया में किसी के पास यह अधिकार नहीं है कि अपने विचार और अपने ही बनाए नियमों को दूसरों पर थोपे। (रोमियों १४:१०-१३) संतुलित मसीही समझते हैं कि दैनिक जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रत्येक व्यक्‍ति को अपना निर्णय ख़ुद करना है। विशेषकर उन लोगों को दूसरों पर दोष लगाने से दूर रहना चाहिए जो पूर्णतावादी और अत्यधिक माँग करनेवाले होते हैं।

सच है, मसीही कलीसिया को ऐसे नियम रखने का अधिकार है जो यहोवा के पार्थिव संगठन के बाधारहित संचालन में योगदान दें। (इब्रानियों १३:१७) लेकिन कुछ लोगों ने इन नियमों का ग़लत अर्थ लगाया है या स्वयं अपने नियम जोड़ दिए हैं। एक क्षेत्र में ईश्‍वरशासित सेवकाई स्कूल के लिए सभी विद्यार्थियों को सूट पहनने पड़ते थे और भाषण देते समय अपने कोट के सभी बटन लगाने पड़ते थे। जो विद्यार्थी ऐसा करने से चूक जाता उसे भविष्य में भाषण देने के लिए अयोग्य ठहराया जाता। ऐसे सख़्त नियम बनाने के बजाए क्या ज़रूरत के अनुसार कृपापूर्ण, व्यक्‍तिगत मार्गदर्शन देना ज़्यादा तर्कसंगत और परमेश्‍वर के वचन के वास्तविक अर्थ के सामंजस्य में नहीं होगा।—याकूब ३:१७.

आत्म-धर्माभिमान शायद इस दृष्टिकोण को भी बढ़ावा दे कि अगर एक मसीही अनेक व्यक्‍तिगत कठिनाइयों से गुज़र रहा है, तो उसमें आध्यात्मिक रूप से ज़रूर कोई कमी होगी। ठीक यही आत्म-धर्माभिमानी एलीपज, बिलदद और सोपर ने विश्‍वासी अय्यूब के बारे में सोचा। वे स्थिति को पूरी तरह से नहीं जानते थे, सो अय्यूब पर ग़लत काम करने का दोष लगाना उनकी ओर से अक्खड़पन था। यहोवा ने उनको अय्यूब की परीक्षाओं के उनके विकृत अनुमान के लिए अनुशासित किया।—अय्यूब अध्याय ४, ५, ८, ११, १८, २० देखिए।

अनुचित जोश

आत्म-धर्माभिमान और जोश अकसर एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। प्रेरित पौलुस ने धार्मिक रूप से प्रवृत्त यहूदियों के बारे में कहा कि “उन को परमेश्‍वर के लिये धुन [“जोश,” NW] रहती है, परन्तु बुद्धिमानी के साथ नहीं। क्योंकि वे परमेश्‍वर की धार्मिकता से अनजान होकर, और अपनी धार्मिकता स्थापन करने का यत्न करके, परमेश्‍वर की धार्मिकता के आधीन न हुए।” (रोमियों १०:२, ३) एक फरीसी के तौर पर, पौलुस स्वयं अत्यधिक जोशीला रहा था, यद्यपि उसका जोश अनुचित था, यहोवा की धार्मिकता पर आधारित नहीं था।—गलतियों १:१३, १४; फिलिप्पियों ३:६.

उचित रूप से बाइबल सलाह देती है: “अपने को बहुत धर्मी न बना, और न अपने को अधिक बुद्धिमान बना; तू क्यों अपने ही नाश का कारण हो?” (सभोपदेशक ७:१६) कलीसिया में एक मसीही शायद शुरूआत में कर्तव्यनिष्ठ हो, लेकिन उसकी कर्तव्यनिष्ठा और जोश बिगड़कर आत्म-धर्माभिमान बन सकता है। जब धार्मिक जोश यहोवा की धार्मिकता के बजाय मानव बुद्धि द्वारा नियंत्रित होता है, तब उससे दूसरों को चोट पहुँच सकती है। कैसे?

उदाहरण के लिए, माता-पिता शायद दूसरों की आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा करने में शायद अत्यधिक रूप से व्यस्त हो जाएँ, और ऐसा करते हुए वे शायद स्वयं अपने परिवार की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करें। या माता-पिता शायद बहुत ज़्यादा जोशीले हों, और अपने बच्चों से जितना वे संभवतः कर सकते हैं उससे अधिक की माँग करें। (इफिसियों ६:४; कुलुस्सियों ३:२१) कुछ बच्चे, ऐसी अनुचित माँगों को पूरा करने में असमर्थ, दोहरा जीवन जीने के द्वारा प्रतिक्रिया दिखाते हैं। एक कोमल माता या पिता अपने परिवार की सीमाओं को ध्यान में रखेगा और उपयुक्‍त समायोजन करेगा।—उत्पत्ति ३३:१२-१४ से तुलना कीजिए।

अत्यधिक जोश हमें उस व्यवहार-कुशलता, तदनुभूति और सौम्यता से भी वंचित रख सकता है जो दूसरों के साथ हमारे सम्बन्धों में अत्यावश्‍यक है। एक व्यक्‍ति शायद राज्य हितों को बढ़ावा देने के लिए कड़ी मेहनत करे। लेकिन, ऐसा करते हुए अत्यधिक जोश से वह शायद लोगों को चोट पहुँचाए। पौलुस ने कहा: “यदि मैं भविष्यद्वाणी कर सकूं, और सब भेदों और सब प्रकार के ज्ञान को समझूं, और मुझे यहां तक पूरा विश्‍वास हो, कि मैं पहाड़ों को हटा दूं, परन्तु प्रेम न रखूं, तो मैं कुछ भी नहीं। और यदि मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति कंगालों को खिला दूं, या अपनी देह जलाने के लिये दे दूं, और प्रेम न रखूं, तो मुझे कुछ भी लाभ नहीं।”—१ कुरिन्थियों १३:२, ३.

परमेश्‍वर दीनों पर अनुग्रह करता है

मसीहियों के तौर पर हमें आत्म-धर्माभिमान के ख़तरे को बढ़ने से पहले पहचान लेने की ज़रूरत है। हमें अहंकारपूर्ण मनोवृत्ति से, दूसरों पर दोष लगाने की आदत से और मानव बुद्धि पर आधारित अंधे जोश से दूर रहना चाहिए।

जब हम फरीसी-समान मनोवृत्तियों से ‘चौकस रहते’ हैं, तो दूसरों पर आत्म-धर्माभिमानी होने का दोष लगाने के बजाय, अच्छा होगा कि हम स्वयं अपनी प्रवृत्तियों और झुकावों की ओर ध्यान दें। सच है, यीशु ने फरीसियों पर दोष लगाया और “करैतों के बच्चो” के तौर पर उनकी निन्दा की जो अनन्त विनाश के योग्य हैं। लेकिन यीशु लोगों के हृदय में क्या है जान सकता था। हम नहीं जान सकते।—मत्ती २३:३३.

आइए परमेश्‍वर की धार्मिकता की खोज करें न कि अपनी। (मत्ती ६:३३) केवल तब हम यहोवा का अनुग्रह पा सकते हैं, क्योंकि बाइबल हम सब को सलाह देती है: “एक दूसरे की सेवा के लिये दीनता से कमर बान्धे रहो, क्योंकि परमेश्‍वर अभिमानियों का साम्हना करता है, परन्तु दीनों पर अनुग्रह करता है।”—१ पतरस ५:५.

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