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  • धीरज—मसीहियों के लिए अत्यावश्‍यक
    प्रहरीदुर्ग—1993 | सितंबर 1
    • धीरज—मसीहियों के लिए अत्यावश्‍यक

      “अपने विश्‍वास को . . . धीरज . . . प्रदान करते जाओ।”—२ पतरस १:५-७, NW.

      १, २. क्यों हम सब को अंत तक धीरज धरना चाहिए?

      सफ़री ओवरसियर और उसकी पत्नी एक ९०-१०० वर्षीय संगी मसीही से भेंट कर रहे थे। उसने कई दशकों तक पूर्ण-समय की सेवकाई की थी। बात करते समय, उस वृद्ध भाई ने कुछ विशेषाधिकारों को याद किया जिनका आनन्द उसने सालों से उठाया था। “पर अब मैं कुछ भी काम ज़्यादा नहीं कर सकता हूँ,” उसने विलाप किया जैसे ही उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। सफ़री ओवरसियर ने अपनी बाइबल खोली और मत्ती २४:१३ को पढ़ा, जहाँ यीशु मसीह को यूँ कहते हुए उद्धृत किया गया है: “जो अन्त तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा।” फिर ओवरसियर ने उस प्रिय भाई की ओर देखते हुए कहा: “चाहे हम कितना ज़्यादा कर सकते हैं या कितना कम, हम सब की अंतिम कार्य-नियुक्‍ति यही है कि हम अन्त तक धीरज धरें।”

      २ जी हाँ, मसीही होने के नाते हम सब को इस रीति-व्यवस्था के अंत या हमारे जीवन के अंत तक धीरज धरना है। उद्धार के लिए यहोवा का अनुग्रह प्राप्त करने का और कोई तरीक़ा नहीं है। हम जीवन की दौड़ में हैं, और जब तक हम समाप्ति रेखा पार न कर लें, हमें ‘धीरज से दौड़ना’ चाहिए। (इब्रानियों १२:१) प्रेरित पतरस ने इस गुण के महत्त्व पर ज़ोर दिया जब उसने संगी मसीहियों से आग्रह किया: “अपने विश्‍वास को . . . धीरज . . . प्रदान करते जाओ।” (२ पतरस १:५-७, NW) लेकिन वास्तव में धीरज है क्या?

      धीरज—इसका अर्थ

      ३, ४. धीरज धरने का क्या अर्थ है?

      ३ धीरज धरने का क्या अर्थ है? “धीरज धरने” के लिए यूनानी क्रिया (हाइपोमेनो, hy·po·meʹno) का शाब्दिक अर्थ है “के अधीन बने रहना या स्थिर रहना।” यह बाइबल में १७ बार आती है। कोशकार डब्ल्यू. बाउअर, एफ़. डब्ल्यू. गिंगरिच और एफ़. डैंकर, के अनुसार इसका अर्थ है, “भागने के बजाय बने रहना . . . , डटे रहना, कायम रहना।” “धीरज” के लिए यूनानी संज्ञा (hy·po·mo·neʹ) ३० से अधिक बार आती है। इसके बारे में, विलियम बार्कले द्वारा लिखित अ न्यू टेस्टामेंट वर्डबुक कहती है: “यह वह मनोदशा है जो बातों को सहन कर सकती है, केवल वश्‍यता के साथ नहीं, पर उत्साही आशा के साथ . . . यह वह गुण है जो एक व्यक्‍ति को वायु दिशा में मुख घुमाकर उसे उसके पैरों पर खड़ा रखता है। यह वह सद्‌गुण है जो सबसे कठिन परीक्षा को भी महिमा में रूपांतरित कर सकता है क्योंकि पीड़ा के आगे यह अपने लक्ष्य को देखता है।”

      ४ तो फिर, धीरज हमें डटे रहने और रुकावटों अथवा कठिनाइयों के मुख में आशा न खोने के लिए समर्थ बनाता है। (रोमियों ५:३-५) यह वर्तमान पीड़ा के आगे उस लक्ष्य को देखता है—अनन्त जीवन का पुरस्कार, या देन, चाहे यह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर।—याकूब १:१२.

      धीरज—क्यों?

      ५. (क) क्यों सब मसीहियों के लिए “धीरज धरना अवश्‍य है”? (ख) हमारी परीक्षाओं को किन दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है?

      ५ मसीही होने के नाते, हम सब के लिए “धीरज धरना अवश्‍य है।” (इब्रानियों १०:३६) क्यों? मूलतः क्योंकि हम ‘नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ते’ हैं। यहाँ याकूब १:२ में दिया गया यूनानी मूलपाठ एक आकस्मिक या अवांछित भेंट को सूचित करता है, जैसे कि जब एक व्यक्‍ति का एक डाकू के साथ सामना होता है। (लूका १०:३० से तुलना कीजिए.) हम ऐसी परीक्षाओं का सामना करते हैं जिन्हें दो वर्ग में विभाजित किया जा सकता है: वे जो वंशागत पाप के कारण मनुष्य के लिए सामान्य हैं, और वे जो हमारी ईश्‍वरीय भक्‍ति के कारण विकसित होती हैं। (१ कुरिन्थियों १०:१३; २ तीमुथियुस ३:१२) इन में से कुछ परीक्षाएँ क्या हैं?

      ६. एक गवाह ने कैसे धीरज धरा जब उसे एक कष्टप्रद बीमारी का सामना करना पड़ा?

      ६ गम्भीर बीमारी। तीमुथियुस की तरह, कुछ मसीहियों को “बार बार बीमार होने” के कारण दुःख सहना पड़ता है। (१ तीमुथियुस ५:२३) ख़ासकर जब एक जीर्ण, सम्भवतः अति कष्टप्रद बीमारी का सामना करते हैं, तब हमें आवश्‍यकता है कि परमेश्‍वर की सहायता के साथ धीरज धरें, डटे रहें और अपनी मसीही आशा को नहीं भूलें। पचास-पचपन की उम्र के एक गवाह का उदाहरण लीजिए जिसने एक तेज़ी-से-बढ़-रहे दुर्दम ट्यूमर के विरुद्ध लम्बा, कठिन संघर्ष किया। दो आपरेशनों के दौरान वह रक्‍ताधान न लेने के अपने संकल्प पर कायम रहा। (प्रेरितों १५:२८, २९) लेकिन वह ट्यूमर उसके उदर में पुनः प्रकट हुआ और उसकी रीढ़ के निकट बड़ा होता गया। जैसे-जैसे यह बढ़ता गया, उसे ऐसी अकल्पनीय पीड़ा का अनुभव हुआ जिसे अधिक से अधिक उपचार भी कम न कर सका। तो भी, वह वर्तमान पीड़ा के आगे एक नए संसार में जीवन के पुरस्कार की ओर देखता रहा। वह अपनी उत्साही आशा को डाक्टरों, नर्सों, और मुलाकातियों के साथ बाँटता रहा। उसने ठीक अंत तक—अपने जीवन के अंत तक धीरज धरा। आपकी स्वास्थ्य समस्या शायद प्राण-घातक न हो या शायद उस प्रिय भाई द्वारा अनुभव की गई समस्या जितनी कष्टप्रद न हो, पर यह फिर भी धीरज की एक बड़ी परीक्षा पेश कर सकती है।

      ७. हमारे कुछ आध्यात्मिक भाई-बहनों के लिए धीरज में किस प्रकार की पीड़ा सम्मिलित है?

      ७ भावात्मक पीड़ा। समय-समय पर, यहोवा के कुछ लोग “मन के दुःख” का सामना करते हैं जो एक ‘निराश आत्मा’ में परिणित होता है। (नीतिवचन १५:१३) इस “कठिन समय” में तीव्र हताशा असामान्य बात नहीं है। (२ तीमुथियुस ३:१) दिसम्बर ५, १९९२, की साइंस न्यूस ने रिपोर्ट किया: “तीव्र, अकसर अक्षम करनेवाली हताशा के दर, सन्‌ १९१५ के समय से जन्मी प्रत्येक अनुक्रमिक पीढ़ी में बढ़ते चले गए हैं।” ऐसी हताशा के कारण विविध हैं, शारीरिक तत्त्वों से लेकर दर्दनाक अप्रिय अनुभवों तक। कुछ मसीहियों के लिए, धीरज धरने में एक दैनिक संघर्ष सम्मिलित है, कि वे भावात्मक पीड़ा के बावजूद डटे रहें। तो भी, वे हार नहीं मानते। वे आँसुओं के बावजूद यहोवा के प्रति वफ़ादार रहते हैं।—भजन १२६:५, ६ से तुलना कीजिए.

      ८. हमारे सामने कौन-सी आर्थिक परीक्षा आ सकती है?

      ८ हमारे सामने आनेवाली विविध परीक्षाओं में गम्भीर आर्थिक कठिनाई सम्मिलित हो सकती है। जब न्यू जर्सी, यू.एस.ए., में एक भाई ने अचानक अपने आपको बिना नौकरी के पाया, तो वह उचित रीति से अपने परिवार को खिलाने और अपने घर को न खोने के बारे में चिन्तित था। लेकिन, वह राज्य आशा को नहीं भूला। जिस दौरान वह दूसरी नौकरी ढूँढ़ रहा था, उसने अवसर का फ़ायदा उठाकर एक सहयोगी पायनियर के तौर पर सेवा की। आख़िरकार, उसे एक नौकरी मिल गई।—मत्ती ६:२५-३४.

      ९. (क) एक प्रिय जन को मृत्यु में खो देने पर धीरज की आवश्‍यकता कैसे पड़ सकती है? (ख) कौन-से शास्त्रवचन दिखाते हैं कि शोक के आँसू बहाना ग़लत नहीं है?

      ९ यदि आपने एक प्रिय जन को मृत्यु में खो देने का अनुभव किया है, तो आपको ऐसे धीरज की आवश्‍यकता है जो, आपके आस-पास के लोगों के अपने जीवनचर्या में लौट जाने के काफ़ी देर बाद भी कायम रहे। आपको शायद हर साल उस समय के लगभग खासकर कठिन लगे जिस समय आपके प्रिय जन की मृत्यु हुई थी। ऐसी कमी में धीरज धरने का यह अर्थ नहीं कि दुःख के आँसू बहाना ग़लत है। अपने एक प्रिय जन की मृत्यु पर शोक करना स्वाभाविक है, और यह किसी भी रीति से पुनरुत्थान की आशा में विश्‍वास की कमी का संकेत नहीं देता है। (उत्पत्ति २३:२; साथ ही इब्रानियों ११:१९ से तुलना कीजिए.) लाजर के मरने के बाद यीशु के “आंसू बहने लगे,” जबकि उसने विश्‍वास के साथ मरथा से कहा था: “तेरा भाई जी उठेगा।” और लाजर निश्‍चय ही जी उठा!—यूहन्‍ना ११:२३, ३२-३५, ४१-४४.

      १०. यहोवा के लोगों को धीरज की एक अनन्य आवश्‍यकता क्यों है?

      १० जो परीक्षाएँ सब मनुष्यों के लिए सामान्य हैं उन में धीरज धरने के अतिरिक्‍त, यहोवा के लोगों को धीरज की एक अनन्य आवश्‍यकता है। “मेरे नाम के कारण सब जातियों के लोग तुम से बैर रखेंगे,” यीशु ने चेतावनी दी। (मत्ती २४:९) उसने यह भी कहा: “यदि उन्हों ने मुझे सताया, तो तुम्हें भी सताएंगे।” (यूहन्‍ना १५:२०) यह सब बैर और सताहट क्यों? क्योंकि परमेश्‍वर के सेवकों के तौर पर हम इस पृथ्वी पर चाहे कहीं भी रहें, शैतान यहोवा के प्रति हमारी ख़राई को तोड़ने की कोशिश कर रहा है। (१ पतरस ५:८; साथ ही प्रकाशितवाक्य १२:१७ से तुलना कीजिए.) इस उद्देश्‍य को पूरा करने के लिए, शैतान ने अकसर ज़बरदस्त सताहटों को भड़काया है, जिससे हमारे धीरज की सख़्त परीक्षा हुई है।

      ११, १२. (क) यहोवा के गवाहों और उनके बच्चों ने १९३० के दशक में और १९४० के दशक के आरम्भ में, धीरज की कौन-सी परीक्षा का सामना किया? (ख) यहोवा के गवाह राष्ट्रीय प्रतीक को सलामी क्यों नहीं देते?

      ११ उदाहरण के लिए, १९३० के दशक में और १९४० के दशक के आरम्भ में, अमरीका और कनाडा में यहोवा के गवाह और उनके बच्चे सताहट के निशाने बन गए क्योंकि उन्होंने अंतःकरण के कारणों से राष्ट्रीय प्रतीक को सलामी नहीं दी। गवाह जिस राष्ट्र में रहते हैं, वे वहाँ के प्रतीक का आदर करते हैं, लेकिन वे निर्गमन २०:४, ५ में दी गई परमेश्‍वर की व्यवस्था के सिद्धांत के अनुसार चलते हैं: “तू अपने लिये कोई मूर्ति खोदकर न बनाना, न किसी कि प्रतिमा बनाना, जो आकाश में, वा पृथ्वी पर, वा पृथ्वी के जल में है। तू उनको दण्डवत्‌ न करना, और न उनकी उपासना करना; क्योंकि मैं तेरा परमेश्‍वर यहोवा जलन रखने वाला ईश्‍वर हूं।” अपनी उपासना केवल यहोवा परमेश्‍वर को देने के लिए इच्छुक होने के कारण जब कुछ गवाह विद्यार्थियों को स्कूल से निकाल दिया गया, तब गवाहों ने उनके शिक्षण के लिए राज्य स्कूलों को स्थापित किया। जब अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी धार्मिक स्थिति को स्वीकार किया, जैसे कि आज के प्रबुद्ध राष्ट्र करते हैं, ये विद्यार्थी सार्वजनिक स्कूलों में वापस चले गए। फिर भी, इन युवाओं का साहसी धीरज एक उत्तम उदाहरण के तौर पर काम करता है, ख़ासकर उन मसीही युवजनों के लिए जो अब बाइबल स्तरों के अनुसार जीने की कोशिश करने के कारण उपहास का सामना कर सकते हैं।—१ यूहन्‍ना ५:२१.

      १२ हम जिन विभिन्‍न परीक्षाओं का सामना करते हैं—वे जो मनुष्यों के लिए सामान्य हैं और जिनका सामना हम अपने मसीही विश्‍वास के कारण करते हैं—संकेत देती हैं कि हमें क्यों धीरज की आवश्‍यकता है। लेकिन हम कैसे धीरज धर सकते हैं?

      अंत तक धीरज धरिए—कैसे?

      १३. यहोवा कैसे धीरज प्रदान करता है?

      १३ जो लोग यहोवा की उपासना नहीं करते हैं उनकी तुलना में परमेश्‍वर के लोगों की निश्‍चित ही एक लाभदायक स्थिति है। सहायता के लिए, हम ‘धीरज के दाता,’ परमेश्‍वर से निवेदन कर सकते हैं। (रोमियों १५:५) लेकिन, यहोवा धीरज कैसे प्रदान करता है? एक तरीक़ा जिसके द्वारा वह ऐसा करता है, वह है उसके वचन, बाइबल में लेखबद्ध धीरज के उदाहरण। (रोमियों १५:४) जैसे-जैसे हम इन पर विचार करते हैं, न केवल हम धीरज धरने के लिए प्रोत्साहित होते हैं बल्कि कैसे धीरज धरना है इसके बारे में भी हम काफ़ी कुछ सीखते हैं। दो उत्कृष्ट उदाहरणों पर ध्यान दीजिए —अय्यूब का साहसी धीरज और यीशु मसीह का परिशुद्ध धीरज।—इब्रानियों १२:१-३; याकूब ५:११.

      १४, १५. (क) अय्यूब ने कौन-सी परीक्षाओं में धीरज धरा? (ख) अय्यूब ने जिन परीक्षाओं का सामना किया, वह उन में कैसे धीरज धर सका?

      १४ किस प्रकार की परिस्थितियों ने अय्यूब के धीरज की परीक्षा ली? उसे आर्थिक कठिनाई का दुःख भोगना पड़ा जब उसने अपनी अधिकतर सम्पत्ति खो दी। (अय्यूब १:१४-१७; साथ ही अय्यूब १:३ से तुलना कीजिए.) अय्यूब ने कमी की पीड़ा का अनुभव किया जब उसके दस के दस बच्चे एक तूफ़ान में मारे गए। (अय्यूब १:१८-२१) उसने एक गम्भीर, अति कष्टप्रद बीमारी का अनुभव किया। (अय्यूब २:७, ८; ७:४, ५) उसकी अपनी पत्नी ने परमेश्‍वर से मुख फेरने के लिए उस पर दबाव डाला। (अय्यूब २:९) घनिष्ठ साथियों ने ऐसी बातें कहीं जो पीड़ाकर, कठोर, और झूठी थीं। (अय्यूब १६:१-३ और अय्यूब ४२:७ से तुलना कीजिए.) फिर भी, इन सब के बावजूद अय्यूब ख़राई रखते हुए, डटा रहा। (अय्यूब २७:५) जिन बातों में उसने धीरज धरा, वे उन्हीं परीक्षाओं के समान हैं जिनका सामना आज यहोवा के लोग करते हैं।

      १५ अय्यूब उन सभी परीक्षाओं के अधीन धीरज धरने में कैसे समर्थ था? ख़ासकर एक चीज़ जिसने अय्यूब को कायम रखा वह थी आशा। “वृक्ष की तो आशा रहती है,” उसने कहा। “चाहे वह काट डाला भी जाए, तौभी फिर पनपेगा।” (अय्यूब १४:७) अय्यूब के पास क्या आशा थी? जैसे कि कुछ आयतों के बाद लिखा गया है, उसने कहा: “यदि मनुष्य मर जाए तो क्या वह फिर जीवित होगा? . . . तू मुझे बुलाता, और मैं बोलता; तुझे अपने हाथ के बनाए हुए काम की अभिलाषा होती [अथवा, उसके लिए तरसता]।” (अय्यूब १४:१४, १५) जी हाँ, अय्यूब ने अपनी वर्तमान पीड़ा के आगे देखा। वह जानता था कि उसकी परीक्षाएँ हमेशा तक नहीं रहेंगी। अधिक से अधिक उसे मृत्यु तक धीरज धरना पड़ेगा। उसकी आशापूर्ण प्रत्याशा थी कि यहोवा, जो प्रेममय रीति से मृत जनों को पुनरुत्थित करने की इच्छा रखता है, उसे दुबारा जीवित करेगा।—प्रेरितों २४:१५.

      १६. (क) हम अय्यूब के उदाहरण से धीरज के बारे में क्या सीखते हैं? (ख) राज्य आशा हमारे लिए कितनी वास्तविक होनी चाहिए, और क्यों?

      १६ हम अय्यूब के धीरज से क्या सीखते हैं? अंत तक धीरज धरने के लिए, हमें अपनी आशा को कभी नहीं भूलना चाहिए। साथ ही, याद रखिए कि राज्य आशा की निश्‍चितता का यह अर्थ है कि हमारे सामने आनेवाला कोई भी दुःख तुलनात्मक रीति से “पल भर” का है। (२ कुरिन्थियों ४:१६-१८) हमारी अनमोल आशा निकट भविष्य में उस समय की यहोवा की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रीति से आधारित है जब “वह [हमारी] आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा; और इस के बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी।” (प्रकाशितवाक्य २१:३, ४) उस आशा से, जिससे “लज्जा नहीं होती,” हमारी विचार-पद्धति सुरक्षित रहनी चाहिए। (रोमियों ५:४, ५; १ थिस्सलुनीकियों ५:८) यह हमारे लिए वास्तविक होनी चाहिए—इतनी वास्तविक कि विश्‍वास की आँखों के द्वारा, हम अपने आप को उस नए संसार में—फिर कभी भी बीमारियों और हताशा से संघर्ष न करते हुए बल्कि हर दिन अच्छे स्वास्थ्य और एक सुस्पष्ट मन के साथ जागते हुए; फिर कभी भी गम्भीर आर्थिक दबावों की चिन्ता न करते हुए बल्कि सुरक्षा में जीते हुए; प्रिय जनों की मृत्यु का शोक न करते हुए बल्कि उन्हें पुनरुत्थित देखने के रोमांच का अनुभव करते हुए देख सकते हैं। (इब्रानियों ११:१) ऐसी आशा के बिना हम अपनी वर्तमान परीक्षाओं से इतने अभिभूत हो सकते हैं कि हम हार मान जाएँ। अपनी आशा के होते हुए, हमें लड़ते रहने के लिए, ठीक अंत तक धीरज धरने के लिए क्या ही ज़बरदस्त प्रोत्साहन मिलता है!

      १७. (क) यीशु ने कौन-सी परीक्षाओं में धीरज धरा? (ख) यीशु ने जो तीव्र कष्ट सहा, उसे संभवतः किस तथ्य से देखा जा सकता है? (फुटनोट देखिए.)

      १७ बाइबल हम से आग्रह करती है कि हम यीशु की ओर “ताकते रहें” और ‘उस पर ध्यान करें।’ उसने कौन-सी परीक्षाओं में धीरज धरा? कुछ तो दूसरों के पाप और अपरिपूर्णता के कारण थीं। यीशु ने न केवल ‘पापियों के वाद-विवाद’ में बल्कि उन समस्याओं में भी धीरज धरा जो उसके शिष्यों के बीच उठीं, जिनमें सम्मिलित थे उनके निरंतर विवाद कि कौन सर्वश्रेष्ठ था। इससे भी अधिक, उसने विश्‍वास की एक अद्वितीय परीक्षा का सामना किया। उसने “क्रूस [यातना स्तंभ, NW] का दुख सहा।” (इब्रानियों १२:१-३; लूका ९:४६; २२:२४) उस मानसिक और शारीरिक कष्ट की कल्पना करना भी कठिन है जो सूलारोपण की पीड़ा और एक ईश-निंदक के तौर पर मारे जाने की बदनामी में सम्मिलित था।a

      १८. प्रेरित पौलुस के अनुसार, किन दो बातों ने यीशु को कायम रखा?

      १८ किस बात ने यीशु को अंत तक धीरज धरने के लिए समर्थ किया? प्रेरित पौलुस दो बातों का ज़िक्र करता है जिन्होंने यीशु को कायम रखा: “प्रार्थनाएं और बिनती” और साथ ही ‘वह आनन्द जो उसके आगे धरा था।’ यीशु, परमेश्‍वर का परिपूर्ण पुत्र सहायता माँगने के लिए लज्जित नहीं था। उसने “ऊंचे शब्द से पुकार पुकारकर, और आंसू बहा बहाकर” प्रार्थना की। (इब्रानियों ५:७; १२:२) ख़ासकर जब उसकी परम परीक्षा निकट आ रही थी, उसने शक्‍ति के लिए बार-बार और गम्भीर रीति से प्रार्थना करना आवश्‍यक समझा। (लूका २२:३९-४४) यीशु की प्रार्थनाओं के उत्तर में, यहोवा ने परीक्षा को दूर नहीं किया, लेकिन उसने यीशु को उस परीक्षा में धीरज धरने की शक्‍ति दी। यीशु ने इसलिए भी सहन किया क्योंकि उसने उस यातना स्तंभ के आगे अपने पुरस्कार को देखा—यहोवा के नाम के पवित्रीकरण को योग देने और मानव परिवार को मृत्यु से छुड़ाने में उसे जो आनन्द मिलता।—मत्ती ६:९; २०:२८.

      १९, २०. धीरज में क्या सम्मिलित है, इस पर एक यथार्थवादी दृष्टिकोण रखने में यीशु का उदाहरण हमें कैसे सहायता करता है?

      १९ यीशु के उदाहरण से हम कई बातें सीखते हैं जो हमें एक यथार्थवादी दृष्टिकोण रखने में सहायता करेंगी कि धीरज में क्या सम्मिलित है। धीरज का मार्ग एक आसान मार्ग नहीं है। यदि हमें किसी ख़ास परीक्षा को सहन करना कठिन लग रहा है, तो इस ज्ञान से सांत्वना मिलती है कि यीशु के लिए भी ऐसा ही था। अंत तक धीरज धरने के लिए, हमें शक्‍ति के लिए बार-बार प्रार्थना करनी चाहिए। परीक्षा के अधीन हम शायद कभी-कभी प्रार्थना करने के अयोग्य महसूस करें। लेकिन यहोवा हमें अपने दिल खोलकर उससे प्रार्थना करने के लिए आमंत्रित करता है क्योंकि ‘उसको हमारा ध्यान है।’ (१ पतरस ५:७) और जो यहोवा ने अपने वचन में प्रतिज्ञा की है, उसके कारण उसने अपने आपको बाध्य बनाया है कि उन लोगों को “असीम सामर्थ” दे जो विश्‍वास के साथ उसे पुकारते हैं।—२ कुरिन्थियों ४:७-९.

      २० कभी-कभी हमें आँसुओं के साथ सहन करना पड़ेगा। यीशु के लिए यातना स्तंभ की पीड़ा ख़ुद में आनन्द मनाने का एक कारण नहीं थी। इसके बजाय, आनन्द उस पुरस्कार में था जो उस के आगे धरा हुआ था। हमारे मामले में यह आशा करना यथार्थवादी नहीं कि हम परीक्षा का सामना करते समय हमेशा हँसमुख और आनन्दित महसूस करेंगे। (इब्रानियों १२:११ से तुलना कीजिए.) फिर भी, आगे पुरस्कार की ओर देखते हुए, हम शायद अत्यधिक कष्टदायी परिस्थितियों का सामना करते हुए भी ‘इन को पूरे आनन्द की बात समझ’ सकेंगे। (याकूब १:२-४; प्रेरितों ५:४१) महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि हम दृढ़ रहें—चाहे यह आँसुओं के साथ ही क्यों न हो। आखिर, यीशु ने यह तो नहीं कहा, ‘जो सबसे कम आँसू बहाएगा, उसी का उद्धार होगा’ बल्कि, “जो अंत तक धीरज धरे रहेगा, उसी का उद्धार होगा।”—मत्ती २४:१३.

      २१. (क) दूसरा पतरस १:५, ६ में हमें धीरज को क्या चीज़ प्रदान करने के लिए आग्रह किया जाता है? (ख) अगले लेख में कौन-से प्रश्‍नों पर चर्चा की जाएगी?

      २१ इस प्रकार उद्धार के लिए धीरज अत्यावश्‍यक है। लेकिन २ पतरस १:५, ६ में, हमें अपने धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करने के लिए आग्रह किया जाता है। ईश्‍वरीय भक्‍ति क्या है? यह धीरज से कैसे सम्बन्धित है, और आप इसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इन प्रश्‍नों पर अगले लेख में चर्चा की जाएगी।

      [फुटनोट]

      a यीशु ने जो तीव्र कष्ट सहा, उसे संभवतः इस तथ्य से देखा जा सकता है कि उसका परिपूर्ण शरीर सूली पर कुछ ही घंटों के पश्‍चात्‌ मर गया, जबकि उसके साथ सूली पर चढ़ाए गए पापियों की जल्दी मृत्यु करवाने के लिए उनकी टाँगों को तोड़ना पड़ा। (यूहन्‍ना १९:३१-३३) उन्होंने उस मानसिक और शारीरिक कष्ट का अनुभव नहीं किया था जो सूलारोपण से पहले पूरी-रात की निद्रारहित कठिन परीक्षा के दौरान यीशु पर लाया गया, संभवतः इस हद तक कि वह अपना यातना स्तंभ भी न उठा सका।—मरकुस १५:१५, २१.

  • अपने धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करते जाओ
    प्रहरीदुर्ग—1993 | सितंबर 1
    • अपने धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करते जाओ

      “अपने विश्‍वास को . . . धीरज, और धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति . . . प्रदान करते जाओ।”—२ पतरस १:५-७, NW.

      १, २. (क) दशक १९३० में आरम्भ होते हुए, नात्सी नियंत्रण के अधीन देशों में यहोवा के गवाहों के साथ क्या हुआ, और क्यों? (ख) यहोवा के लोगों ने इस कठोर व्यवहार का सामना कैसे किया?

      यह २०वीं सदी के इतिहास में एक अन्धकारपूर्ण समय था। दशक १९३० में आरम्भ होते हुए, नात्सी नियंत्रण के अधीन देशों में हज़ारों यहोवा के गवाहों को अन्यायी रीति से गिरफ़्तार करके नज़रबंदी शिविरों में डाल दिया गया। क्यों? क्योंकि उन्होंने तटस्थ रहने का साहस किया और हाइल हिट्‌लर बोलने से इनकार किया। उनके साथ कैसा व्यवहार किया गया? “किसी अन्य कैदियों के समूह . . . को इस प्रकार एस.एस.-सैनिक वर्ग के परपीड़न रति का विषय नहीं बनाया गया जिस प्रकार बाइबल स्टूडेंटस्‌ [यहोवा के गवाहों] को बनाया गया था। यह ऐसी परपीड़न रति थी जिसकी विशेषता थी शारीरिक और मानसिक उत्पीड़नों की एक अन्तहीन लड़ी, जिसको इस संसार की कोई भी भाषा व्यक्‍त नहीं कर सकती।”—कार्ल विटिख, भूतपूर्व जर्मन सरकारी अफ़सर।

      २ गवाहों ने कैसे सामना किया? अपनी पुस्तक नात्सी राष्ट्र और नए धर्म: परंपरा-विरोध में पाँच व्यक्‍ति अध्ययन (The Nazi State and the New Religion: Five Case Studies in Non-Conformity) में, डॉ. क्रिस्टीन ई. किंग ने कहा: “[अन्य धार्मिक समूहों की विषमता में] सरकार केवल गवाहों के विरुद्ध ही असफल रही।” जी हाँ, यहोवा के गवाह एक समूह के तौर पर डटे रहे, जबकि उन में से सैकड़ों व्यक्‍तियों के लिए, इसका अर्थ था मृत्यु तक धीरज धरना।

      ३. किस बात ने यहोवा के गवाहों को कठोर परीक्षाओं में धीरज धरने के लिए समर्थ किया?

      ३ किस बात ने यहोवा के गवाहों को ऐसी परीक्षाओं में धीरज धरने के लिए समर्थ किया, न केवल नात्सी जर्मनी में बल्कि पूरे संसार में? उनके स्वर्गीय पिता ने उनकी ईश्‍वरीय भक्‍ति के कारण उन्हें धीरज धरने में सहायता की। “प्रभु भक्‍तों को परीक्षा में से निकाल लेना . . . भी जानता है,” प्रेरित पतरस समझाता है। (२ पतरस २:९) पहले उसी पत्री में, पतरस ने मसीहियों को सलाह दी थी: “अपने विश्‍वास को . . . धीरज, और धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति . . . प्रदान करते जाओ।” (२ पतरस १:५-७, NW) इस प्रकार धीरज नज़दीकी रूप से ईश्‍वरीय भक्‍ति से जुड़ा हुआ है। वास्तव में, अंत तक धीरज धरने के लिए, हमें ‘ईश्‍वरीय भक्‍ति का पीछा करना’ और इसे प्रकट करना है। (१ तीमुथियुस ६:११, NW) लेकिन वास्तव में ईश्‍वरीय भक्‍ति है क्या?

      ईश्‍वरीय भक्‍ति क्या है

      ४, ५. ईश्‍वरीय भक्‍ति क्या है?

      ४ “ईश्‍वरीय भक्‍ति” के लिए यूनानी संज्ञा (यूसेबिआ, eu·seʹbei·a) का शाब्दिक अनुवाद “उचित-श्रद्धा” किया जा सकता है।a (२ पतरस १:६, किङ्‌गडम इंटरलीनियर) यह परमेश्‍वर के प्रति एक स्नेही हार्दिक भावना का अर्थ रखती है। डब्ल्यू. ई. वाइन के अनुसार, विशेषण यूसेबेस, जिसका शाब्दिक अर्थ “उचित-श्रद्धापूर्ण” है, उस “कार्य-शक्‍ति” को सूचित करता है “जो परमेश्‍वर के पवित्र विस्मय द्वारा निर्देशित होकर, भक्‍तिपूर्ण कार्यविधियों द्वारा अभिव्यक्‍त की जाती है।”—२ पतरस २:९, Int.

      ५ तो फिर, यह “ईश्‍वरीय भक्‍ति” अभिव्यक्‍ति यहोवा के लिए उस श्रद्धा या भक्‍ति को सूचित करती है जो हमें वह कार्य करने के लिए प्रेरित करती है जो उसे प्रिय लगते हैं। यह कठिन परीक्षाओं के बावजूद भी किया जाता है क्योंकि हम हृदय से परमेश्‍वर से प्रेम करते हैं। यह यहोवा के साथ एक निष्ठ, व्यक्‍तिगत संलग्न है जो हमारे जीवन व्यतीत करने के ढंग द्वारा अभिव्यक्‍त होता है। सच्चे मसीहियों से प्रार्थना करने के लिए आग्रह किया जाता है कि वे “विश्राम और चैन के साथ सारी भक्‍ति . . . से जीवन बिताएं।” (१ तीमुथियुस २:१, २) कोशकार जे. पी. लो तथा ई. ए. नाइडा के अनुसार, “कई भाषाओं में १ तीमु. २.२ में [यूसेबिआ] का अनुवाद उपयुक्‍त रीति से यूँ किया जा सकता है, ‘वैसे जीना जैसे परमेश्‍वर हम से चाहता है’ या ‘वैसे जीना जैसे परमेश्‍वर ने हमें जीने के लिए कहा है।’”

      ६. धीरज और ईश्‍वरीय भक्‍ति के बीच क्या सम्बन्ध है?

      ६ अब हम धीरज और ईश्‍वरीय भक्‍ति के बीच सम्बन्ध को बेहतर तरीक़े से समझ सकते हैं। क्योंकि हम वैसे ही जीते हैं जैसे परमेश्‍वर हम से चाहता है—ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ—हम संसार की शत्रुता अपने ऊपर लाते हैं, जिससे निरपवाद रूप से विश्‍वास की परीक्षाएँ आती हैं। (२ तीमुथियुस ३:१२) लेकिन हम इन परीक्षाओं में धीरज धरने के लिए किसी रीति से प्रेरित नहीं होते यदि हमारा अपने स्वर्गीय पिता के साथ व्यक्‍तिगत संलग्न न होता। इसके अलावा, यहोवा इस प्रकार की हार्दिक भक्‍ति की ओर अनुक्रिया दिखाता है। ज़रा कल्पना कीजिए कि वह कैसा महसूस करता होगा जब वह स्वर्ग से नीचे उन लोगों को देखता है जो, उसके प्रति अपनी भक्‍ति के कारण, हर प्रकार के विरोध के बावजूद उसे प्रसन्‍न करने की कोशिश कर रहे हैं। यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि वह ‘भक्‍तों को परीक्षा में से निकाल लेने’ के लिए प्रवण है!

      ७. ईश्‍वरीय भक्‍ति को क्यों विकसित करना पड़ता है?

      ७ लेकिन, हम ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ नहीं जन्मे हैं, न ही यह हमें ईश्‍वर परायण माता-पिता से अपने-आप ही मिल जाती है। (उत्पत्ति ८:२१) इसके बजाय, इसे विकसित करना पड़ता है। (१ तीमुथियुस ४:७, १०) हमें अपने धीरज और अपने विश्‍वास को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करने के लिए परिश्रम करना पड़ेगा। पतरस कहता है कि इसके लिए “यत्न” की ज़रूरत है। (२ पतरस १:५) तो फिर, हम कैसे ईश्‍वरीय भक्‍ति प्राप्त कर सकते हैं?

      हम ईश्‍वरीय भक्‍ति कैसे प्राप्त करते हैं?

      ८. प्रेरित पतरस के अनुसार, ईश्‍वरीय भक्‍ति प्राप्त करने की कुँजी क्या है?

      ८ प्रेरित पतरस ने ईश्‍वरीय भक्‍ति प्राप्त करने की कुँजी को स्पष्ट किया। उसने कहा: “परमेश्‍वर के और हमारे प्रभु यीशु की पहचान के द्वारा अनुग्रह और शान्ति तुम में बहुतायत से बढ़ती जाए। क्योंकि उसके ईश्‍वरीय सामर्थ ने सब कुछ जो जीवन और भक्‍ति से सम्बन्ध रखता है, हमें उसी की पहचान के द्वारा दिया है, जिस ने हमें अपनी ही महिमा और सद्‌गुण के अनुसार बुलाया है।” (२ पतरस १:२, ३) इसलिए अपने विश्‍वास और धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करने के लिए, हमें यहोवा परमेश्‍वर और यीशु मसीह के यथार्थ, यानी पूरे, या संपूर्ण ज्ञान में बढ़ने की ज़रूरत है।

      ९. इसे उदाहरण द्वारा कैसे समझाया जा सकता है कि परमेश्‍वर और मसीह का यथार्थ ज्ञान होने में केवल यह जानने से अधिक कुछ सम्मिलित है, कि वे कौन हैं?

      ९ परमेश्‍वर और मसीह का यथार्थ ज्ञान होने का क्या अर्थ है? स्पष्टतः, इसमें केवल यह जानने से अधिक कुछ सम्मिलित है कि वे कौन हैं। उदाहरण के तौर पर: आप शायद जानते हों कि आपका पड़ोसी कौन है और आप उसे शायद नाम से भी नमस्कार करते हैं। लेकिन क्या आप उसको एक बड़ी रक़म उधार देंगे? तब तक नहीं जब तक आप यह नहीं जानते कि वह कैसा व्यक्‍ति है। (नीतिवचन ११:१५ से तुलना कीजिए.) उसी तरह, यहोवा और यीशु को यथार्थ रीति से, या पूरी तरह से जानने का अर्थ केवल यह विश्‍वास करना कि वे अस्तित्व में हैं और उनके नामों का बोध होना ही नहीं है। उनकी ख़ातिर मृत्यु तक भी परीक्षाओं में धीरज धरने के लिए तैयार होने के लिए, हमें वास्तव में उन्हें घनिष्ठ तरीक़े से जानना चाहिए। (यूहन्‍ना १७:३) इसमें क्या सम्मिलित है?

      १०. यहोवा और यीशु का यथार्थ ज्ञान होने में कौन-सी दो बातें सम्मिलित हैं, और क्यों?

      १० यहोवा और यीशु का यथार्थ, या संपूर्ण ज्ञान रखने में दो बातें सम्मिलित हैं: (१) उन्हें व्यक्‍तिगत रूप से जानना—अर्थात्‌, उनके गुणों, भावनाओं, और तरीक़ों को जानना—और (२) उनके उदाहरण का अनुकरण करना। ईश्‍वरीय भक्‍ति में सम्मिलित है यहोवा के साथ एक हार्दिक, व्यक्‍तिगत संलग्न और यह हमारे जीवन व्यतीत करने के ढंग से स्पष्ट होता है। इसलिए, इसे प्राप्त करने के लिए हमें यहोवा को व्यक्‍तिगत रूप से जानना चाहिए और उसकी इच्छा और मार्गों के साथ पूर्ण रीति से परिचित होना चाहिए जहाँ तक यह मानवीय रूप से संभव है। यहोवा को, जिसके स्वरूप में हमारी सृष्टि हुई, सचमुच जानने के लिए हमें ऐसे ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए और उसकी तरह बनने का यत्न करना चाहिए। (उत्पत्ति १:२६-२८; कुलुस्सियों ३:१०) और क्योंकि यीशु ने जो कहा और जो किया उस में परिपूर्ण रीति से यहोवा का अनुकरण किया, यीशु को यथार्थ रीति से जानना ईश्‍वरीय भक्‍ति को विकसित करने में एक लाभप्रद सहायक है।—इब्रानियों १:३.

      ११. (क) हम परमेश्‍वर और मसीह का यथार्थ ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं? (ख) हम जो कुछ पढ़ते हैं, उस पर मनन करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?

      ११ लेकिन, हम परमेश्‍वर और मसीह का ऐसा यथार्थ ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं? बाइबल और बाइबल-आधारित प्रकाशनों का परिश्रमी रूप से अध्ययन करने के द्वारा।b तो भी, यदि हमारे निजी बाइबल अध्ययन को ईश्‍वरीय भक्‍ति की प्राप्ति में परिणित होना है, तो यह अत्यावश्‍यक है कि हम जो पढ़ते हैं उस पर मनन करने, यानी चिंतन, या विचार करने के लिए समय लगाएँ। (यहोशू १:८ से तुलना कीजिए.) यह क्यों महत्त्वपूर्ण है? याद रखिए कि ईश्‍वरीय भक्‍ति परमेश्‍वर के प्रति एक स्नेही, हार्दिक भावना है। शास्त्रवचन में, मनन का सम्बन्ध बार-बार लाक्षणिक हृदय—आंतरिक व्यक्‍ति—से जोड़ा गया है। (भजन १९:१४; ४९:३; नीतिवचन १५:२८) जब हम जो पढ़ते हैं उस पर मूल्यांकन के साथ चिंतन करते हैं, तब यह आंतरिक व्यक्‍ति में रिस जाता है, इस प्रकार हमारी भावनाओं को उत्तेजित करता, हमारी मनोभावनाओं को छूता, और हमारी विचार-पद्धति को प्रभावित करता है। केवल तब ही वह अध्ययन यहोवा के साथ हमारे व्यक्‍तिगत संलग्न को मज़बूत बनाएगा और हमें चुनौती भरी परिस्थितियों या कठिन परीक्षाओं में भी ऐसी रीति से जीने के लिए प्रेरित करेगा जो परमेश्‍वर को प्रसन्‍न करती है।

      घर में ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ व्यवहार करना

      १२. (क) पौलुस के अनुसार, एक मसीही कैसे अपने घर में ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ व्यवहार कर सकता है? (ख) सच्चे मसीही वृद्ध माता-पिता की देख-भाल क्यों करते हैं?

      १२ सबसे पहले घर में ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ व्यवहार करना चाहिए। प्रेरित पौलुस कहता है: “यदि किसी विधवा के लड़केबाले या नातीपोते हों, तो वे पहिले अपने ही घराने के साथ भक्‍ति का बर्ताव करना, और अपने माता-पिता आदि को उन का हक्क देना सीखें, क्योंकि यह परमेश्‍वर को भाता है।” (१ तीमुथियुस ५:४) जैसे पौलुस कहता है, वृद्ध माता-पिता की देख-भाल करना ईश्‍वरीय भक्‍ति की एक अभिव्यक्‍ति है। सच्चे मसीही ऐसी देख-भाल न केवल कर्तव्य की भावना के साथ करते हैं लेकिन इसलिए कि वे अपने माता-पिता से प्रेम रखते हैं। लेकिन, इससे भी अधिक वे उस महत्त्व को समझते हैं जो यहोवा एक व्यक्‍ति पर अपने परिवार की देख-भाल करने के लिए डालता है। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि ज़रूरत के समय में अपने माता-पिता पर पीठ फेरना ‘विश्‍वास से मुकर जाने’ के बराबर होगा।—१ तीमुथियुस ५:८.

      १३. घर में ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ व्यवहार करना क्यों एक वास्तविक चुनौती हो सकती है, लेकिन अपने माता-पिता की देख-भाल करने से क्या संतुष्टि परिणित होती है?

      १३ यह सच है कि घर में ईश्‍वरीय भक्‍ति के साथ व्यवहार करना हमेशा आसान नहीं होता है। परिवार के सदस्य एक दूसरे से काफ़ी दूर हो सकते हैं। बालिग़ बेटे-बेटी शायद अपने परिवार सम्भाल रहे हैं और आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे हैं। माता-पिता को जिस प्रकार की और जिस हद तक देख-भाल की ज़रूरत है, उससे देख-भाल करनेवाले जनों के शारीरिक, मानसिक, और भावात्मक स्वास्थ्य पर काफ़ी भार पड़ सकता है। फिर भी, यह जानने में सच्ची संतुष्टि हो सकती है कि अपने माता-पिता की देख-भाल करना न केवल ‘हक्क देने’ के बराबर है लेकिन उसको भी प्रसन्‍न करता है “जिस से स्वर्ग और पृथ्वी पर, हर एक घराने का नाम रखा जाता है।”—इफिसियों ३:१४, १५.

      १४, १५. बच्चों द्वारा माता या पिता के लिए ईश्‍वरीय देख-भाल के एक उदाहरण का वर्णन कीजिए।

      १४ हृदय को सचमुच छू लेनेवाले एक उदाहरण पर विचार कीजिए। ऐलस और उसके पाँच भाई-बहन घर पर अपने पिता की देख-भाल करने में एक वास्तविक चुनौती का सामना करते हैं। “मेरे पिताजी को १९८६ में रक्‍ताघात हुआ, जिसके कारण उन्हें पूरी तरह से लकवा हो गया,” ऐलस समझाता है। वे छः बच्चे अपने पिता की ज़रूरतों की देख-भाल करते हैं, उसे नहलाने से लेकर यह निश्‍चित करने तक कि उसे बिस्तर पर नियमित रूप से करवट दिलाई जाए ताकि उसके शरीर पर शय्या-व्रण न हों। “हम उन्हें पढ़कर सुनाते हैं, उन से बात करते हैं, उनके लिए संगीत बजाते हैं। हम निश्‍चित रूप से नहीं जानते कि वे अपने आस-पास हो रही बातों से अवगत हैं या नहीं, लेकिन हम उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे कि वे हर चीज़ से अवगत हैं।”

      १५ जिस प्रकार ये बच्चे अपने पिता की देख-भाल करते हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं? ऐलस आगे कहता है: “१९६४ में हमारी माँ की मृत्यु के बाद, पापा ने हमें अकेले बड़ा किया। उस समय, हमारी उम्र ५ से १४ साल थीं। वे उस समय हमारी सहायता करने के लिए वहाँ थे; अब हम उनकी सहायता करने के लिए यहाँ हैं।” स्पष्टतः, ऐसी देख-भाल का प्रबन्ध करना आसान नहीं है, और बच्चे कभी-कभी निराश हो जाते हैं। “लेकिन हम जानते हैं कि हमारे पिताजी की स्थिति एक अल्पकालिक समस्या है,” ऐलस कहता है। “हम उस समय की राह देखते हैं जब हमारे पिताजी फिर से स्वस्थ हो जाएँगे और हम फिर से अपनी माँ से मिलेंगे।” (यशायाह ३३:२४; यूहन्‍ना ५:२८, २९) निश्‍चित ही, एक माता या पिता के लिए ऐसी निष्ठ देख-भाल उसके हृदय को ज़रूर ख़ुश करेगी जो बच्चों को अपने माता-पिता का आदर करने की आज्ञा देता है!c—इफिसियों ६:१, २.

      ईश्‍वरीय भक्‍ति और सेवकाई

      १६. हम सेवकाई में क्या करते हैं इसका मुख्य कारण क्या होना चाहिए?

      १६ जब हम यीशु के आमंत्रण को स्वीकार करते हैं कि ‘उसके पीछे हो लें,’ तब हम राज्य के सुसमाचार को प्रचार करने और शिष्य बनाने की ईश्‍वरीय आज्ञा के आधीन आते हैं। (मत्ती १६:२४; २४:१४; २८:१९, २०) स्पष्ट रूप से, इन “अन्तिम दिनों” में सेवकाई में भाग लेना एक मसीही बाध्यता है। (२ तीमुथियुस ३:१) फिर भी, हमारा प्रचार करने और सिखाने का हेतु केवल कर्तव्य या बाध्यता के भाव से बढ़कर होना चाहिए। हम सेवकाई में क्या करते हैं और कितना करते हैं इसका मुख्य कारण यहोवा के लिए एक गहरा प्रेम होना चाहिए। “जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है,” यीशु ने कहा। (मत्ती १२:३४) जी हाँ, जब हमारे हृदयों में यहोवा के लिए प्रेम उमड़ता है, तब हम दूसरों को उसके बारे में गवाही देने के लिए प्रेरित होते हैं। जब परमेश्‍वर के लिए प्रेम हमारा हेतु होता है, तब हमारी सेवकाई हमारी ईश्‍वरीय भक्‍ति की एक अर्थपूर्ण अभिव्यक्‍ति होती है।

      १७. हम सेवकाई के लिए सही हेतु कैसे विकसित कर सकते हैं?

      १७ हम सेवकाई के लिए सही हेतु कैसे विकसित कर सकते हैं? उन तीन कारणों पर विचार कीजिए जो यहोवा ने हमें उससे प्रेम करने के लिए दिए हैं। (१) जो कुछ यहोवा हमारे लिए पहले से ही कर चुका है उसके कारण हम उससे प्रेम करते हैं। छुड़ौती का प्रबन्ध करने को छोड़ वह और अधिक प्रेम नहीं दिखा सकता था। (मत्ती २०:२८; यूहन्‍ना १५:१३) (२) इस समय वह जो हमारे लिए कर रहा है उसके कारण हम यहोवा से प्रेम करते हैं। हम यहोवा के साथ, जो हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देता है, हियाव बान्धकर चलते हैं। (भजन ६५:२; इब्रानियों ४:१४-१६) जैसे-जैसे हम राज्य हितों को प्राथमिकता देते हैं, वैसे-वैसे हम जीवन की ज़रूरतों का आनन्द लेते हैं। (मत्ती ६:२५-३३) हम आध्यात्मिक भोजन की नियमित सप्लाई प्राप्त करते हैं जो हमें हमारी समस्याओं का सामना करने के लिए सहायता करती है। (मत्ती २४:४५) और हमारे पास एक विश्‍वव्यापी मसीही भाईचारे का भाग होने की आशिष है जो सचमुच हमें बाक़ी के संसार से अलग रखती है। (१ पतरस २:१७) (३) वह हमारे लिए जो आगे करेगा उसके कारण भी हम यहोवा से प्रेम करते हैं। उसके प्रेम के कारण ही, हम ‘उस अनन्त जीवन को धर लेते’ हैं—अर्थात्‌, भविष्य में अनन्तकालीन जीवन। (१ तीमुथियुस ६:१२, १९) जब हम हमारे लिए यहोवा के प्रेम पर विचार करते हैं, तब निश्‍चय ही हमारा हृदय हमें दूसरों को उसके और उसके अनमोल उद्देश्‍यों के बारे में बताने में निष्ठ भाग लेने के लिए प्रेरित करेगा! दूसरों को ज़रूरत नहीं होगी कि हमें यह बताएँ कि हम सेवकाई में क्या करें और कितना करें। हमारा हृदय हमें जितना हो सके उतना करने के लिए प्रेरित करेगा।

      १८, १९. एक बहन ने सेवकाई में भाग लेने के लिए कौन-सी अड़चन को पार किया?

      १८ चुनौती भरी परिस्थितियों के बावजूद, एक ईश्‍वरीय भक्‍ति द्वारा उत्तेजित हृदय बोलने के लिए प्रेरित होगा। (यिर्मयाह २०:९ से तुलना कीजिए.) यह स्टेला, एक अति संकोची मसीही स्त्री, के उदाहरण से देखा जा सकता है। जब उसने पहले-पहल बाइबल का अध्ययन करना शुरू किया, उसने सोचा, ‘मैं कभी भी घर-घर प्रचार करने नहीं जा सकती!’ वह समझाती है: “मैं हमेशा बहुत चुप रहती थी। बातचीत शुरू करने के लिए मैं कभी भी दूसरों के पास नहीं जा पाती थी।” जैसे-जैसे वह अध्ययन करती गई, यहोवा के लिए उसका प्रेम बढ़ता गया, और उसके बारे में दूसरों से बात करने की उसमें एक तीव्र इच्छा विकसित हुई। “मुझे याद है कि मैंने अपनी बाइबल शिक्षिका से कहा, ‘बात करने की मुझ में इतनी इच्छा है, लेकिन मैं कर ही नहीं पाती, और इससे मैं सचमुच चिन्तित हूँ।’ उसने मुझ से जो कहा वह मैं कभी नहीं भूलूँगी: ‘स्टेला, एहसानमन्द हो कि तुम बात करना चाहती हो।’”

      १९ जल्द ही, स्टेला ने अपने आपको अपनी पड़ोसिन को गवाही देते हुए पाया। फिर उसने एक ऐसा क़दम उठाया जो उसके लिए एक बहुत ही बड़ा क़दम था—उसने घर-घर की सेवकाई में पहली बार भाग लिया। (प्रेरितों २०:२०, २१) वह याद करती है: “मैंने अपना प्रस्तुतीकरण लिख रखा था। लेकिन मैं इतनी घबराई हुई थी कि जबकि काग़ज़ मेरे सामने था, मुझे नीचे उसकी ओर देखने का भी साहस नहीं हुआ!” अब, ३५ साल से अधिक समय बाद, स्टेला अभी भी स्वाभाव से बहुत संकोची है। फिर भी, क्षेत्र सेवकाई उसे अति प्रिय है और वह इस में अभी भी एक अर्थपूर्ण भाग लेती है।

      २०. कौन-सा उदाहरण दिखाता है कि सताहट अथवा क़ैद भी यहोवा के निष्ठ गवाहों के मुँह बंद नहीं कर सकतीं?

      २० सताहट अथवा क़ैद भी यहोवा के निष्ठ गवाहों का मुँह बंद नहीं कर सकतीं। जर्मनी के अर्नस्ट और हिलडेगार्ट ज़ेलीगर के उदाहरण पर विचार कीजिए। अपने धर्म-विश्‍वास के कारण, उन दोनों ने नात्सी नज़रबंदी शिविरों और साम्यवादी क़ैदखानों में कुल मिलाकर ४० से अधिक साल बिताए। क़ैद में भी, वे अन्य कैदियों को गवाही देने में दृढ़ रहे। हिलडेगार्ट ने याद किया: “क़ैदखाने के अफसरों ने मुझे ख़ासकर ख़तरनाक वर्गीकृत किया, क्योंकि, जैसे कि एक महिला गार्ड ने कहा, मैं दिन भर बाइबल के बारे में बात करती थी। इसीलिए मुझे एक तहखाने में रखा गया।” आख़िरकार उन्हें उनकी स्वतंत्रता मिलने के बाद, भाई और बहन ज़ेलीगर ने अपना पूरा समय मसीही सेवकाई में लगाया। उन दोनों ने अपनी मृत्यु तक वफ़ादारी से सेवा की, भाई ज़ेलीगर की मृत्यु १९८५ में और उनकी पत्नी की मृत्यु १९९२ में हुई।

      २१. अपने धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करने के लिए हमें क्या करना होगा?

      २१ परमेश्‍वर के वचन का परिश्रमी रूप से अध्ययन करने और सीखी हुई बातों पर कृतज्ञता से मनन करने के द्वारा, हम यहोवा परमेश्‍वर और यीशु मसीह के यथार्थ ज्ञान में बढ़ेंगे। क्रमशः, यह हमारे उस अनमोल गुण—ईश्‍वरीय भक्‍ति—को अधिक मात्रा में प्राप्त करने में परिणित होगा। ईश्‍वरीय भक्‍ति के बिना हम किसी भी तरीक़े से उन विविध परीक्षाओं में धीरज नहीं धर सकते जो मसीही होने के नाते हम पर आती हैं। इसलिए आइए हम प्रेरित पतरस की सलाह का अनुसरण करें, ‘अपने विश्‍वास को धीरज, और धीरज को ईश्‍वरीय भक्‍ति प्रदान करते जाएँ।’—२ पतरस १:५-७, NW.

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