वॉचटावर ऑनलाइन लाइब्रेरी
वॉचटावर
ऑनलाइन लाइब्रेरी
हिंदी
  • बाइबल
  • प्रकाशन
  • सभाएँ
  • be अध्याय 11 पेज 118-पेज 120 पैरा. 5
  • स्नेह और भावना

इस भाग के लिए कोई वीडियो नहीं है।

माफ कीजिए, वीडियो डाउनलोड नहीं हो पा रहा है।

  • स्नेह और भावना
  • परमेश्‍वर की सेवा स्कूल से फायदा उठाइए
  • मिलते-जुलते लेख
  • उत्साह और स्नेह-भाव व्यक्‍त करना
    अपनी वक्‍तव्य क्षमता और शिक्षण क्षमता कैसे सुधारें
  • प्यार और हमदर्दी
    पढ़ने और सिखाने में जी-जान लगाएँ
  • अपने संयम को बने रहने और उमड़ने दीजिए
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1993
  • एक-दूसरे का दर्द महसूस करें!
    प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है (अध्ययन)—2019
और देखिए
परमेश्‍वर की सेवा स्कूल से फायदा उठाइए
be अध्याय 11 पेज 118-पेज 120 पैरा. 5

अध्याय 11

स्नेह और भावना

आपको क्या करने की ज़रूरत है?

इस तरह बोलिए कि आपके अंदर की भावनाएँ खुलकर ज़ाहिर हों और आप जो कह रहे हैं, उसके मुताबिक हों।

इसकी क्या अहमियत है?

अगर आप अपने सुननेवालों के दिल तक पहुँचना चाहते हैं, तो ऐसा करना बहुत ज़रूरी है।

भावनाएँ, इंसान की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं। जब वह अपनी भावनाओं का इज़हार करता है, तो वह अपनी दिल की बात कह रहा होता है। वह कैसे स्वभाव का इंसान है, उसकी भावनाओं से यह जानने को मिलता है। उसकी भावनाओं से यह भी पता चलता है कि वह अलग-अलग हालात और लोगों के बारे में कैसा महसूस करता है। बहुत-से लोग अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही दबा लेते हैं, क्योंकि वे शायद ज़िंदगी के कड़वे अनुभवों से गुज़रे हों, या फिर अपनी संस्कृति की वजह से वे ऐसे हों। दूसरी तरफ, यहोवा हमें उकसाता है कि हम अपने अंदर अच्छे-अच्छे गुण पैदा करें, और फिर उन्हें सही ढंग से ज़ाहिर करें।—रोमि. 12:10; 1 थिस्स. 2:7, 8.

जब हम बात करते हैं, तब हमारे शब्दों से पता लग सकता है कि हमारी भावनाएँ क्या हैं। लेकिन अगर हम अपनी भावनाएँ अपने बोलने के तरीके से ज़ाहिर न करें, तो लोग हमें गंभीरता से नहीं लेंगे। दूसरी तरफ, अगर शब्दों को सही भावना के साथ बोलेंगे, तो हमारी बोली सुनने में इतनी सुहावनी और मधुर लगेगी कि हम अपने सुननेवालों के दिल तक पहुँच पाएँगे।

स्नेह ज़ाहिर करना। स्नेह की भावनाएँ उन लोगों के लिए पैदा होती हैं जो हमारे अज़ीज़ होते हैं। इसलिए जब भी हम यहोवा के मनभावन गुणों के बारे में बात करते हैं और उसके उपकारों के लिए कदरदानी ज़ाहिर करते हैं, तब हमारी आवाज़ स्नेह भरी होनी चाहिए। (यशा. 63:7-9) यही नहीं, जब हम अपने संगी मनुष्यों से बात करते हैं, तब हमारी आवाज़ में स्नेह होना चाहिए ताकि वे अपनापन महसूस करें।

एक कोढ़ी यीशु के पास आया और उससे गिड़गिड़ाकर बिनती करने लगा कि वह उसे चंगा करे। कल्पना कीजिए कि जब यीशु ने कहा कि “मैं चाहता हूं तू शुद्ध हो जा,” तो उसकी आवाज़ कितने स्नेह से भरी होगी। (मर. 1:40, 41) अब इस दृश्‍य की कल्पना कीजिए, एक स्त्री जिसको 12 साल से लहू बहने का रोग है, चुपचाप पीछे से आकर यीशु के वस्त्र का छोर छूती है। जब उस स्त्री को यह एहसास होता है कि उसने जो किया उसका पता चल चुका है, तब वह थर-थर काँपती हुई यीशु के सामने आती है और उसके पैरों पर गिर पड़ती है। फिर वह, सब लोगों के सामने कबूल करती है कि उसने यीशु के वस्त्र को क्यों छुआ और वह कैसे चंगी हो गयी। ज़रा कल्पना कीजिए कि यीशु ने यह बात उससे किस अंदाज़ में कही होगी: “बेटी तेरे विश्‍वास ने तुझे चंगा किया है, कुशल से चली जा।” (लूका 8:42ख-48) यीशु ने उन मौकों पर जैसा स्नेह दिखाया, वह आज भी हमारे दिल को छू जाता है।

यीशु की तरह, जब हमें लोगों पर तरस आता है और हम दिल से उनकी मदद करना चाहते हैं, तो ये भावनाएँ हमारे बात करने के अंदाज़ से साफ दिखायी देती हैं। स्नेह की यह भावना बनावटी नहीं, बल्कि सच्ची होती है। यह स्नेह देखकर लोग हमारे संदेश को स्वीकार कर सकते हैं। प्रचार में हम जो संदेश देते हैं, उसकी ज़्यादातर बातें ऐसी हैं जिन्हें बोलते वक्‍त स्नेह ज़ाहिर किया जा सकता है। खासकर जब हम दलीलें देकर लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं, उनका हौसला बढ़ाते हैं, उन्हें कदम उठाने के लिए उकसाते हैं और उनसे हमदर्दी जताते हैं।

अगर दूसरों के लिए आपके दिल में स्नेह है, तो यह आपके चेहरे पर दिखायी देना चाहिए। जिस तरह सर्दियों की रात में लोग आग के पास बैठना पसंद करते हैं, उसी तरह अगर आपके चेहरे पर स्नेह झलकेगा, तो आपके सुननेवाले आपकी बात दिलचस्पी के साथ सुनेंगे। लेकिन अगर आपके चेहरे पर स्नेह नज़र नहीं आएगा, तो लोगों को इस बात पर यकीन नहीं होगा कि आपको सचमुच उनकी परवाह है। स्नेह कोई नकाब नहीं है जिसे जब चाहे चेहरे पर पहना जा सके, इसे सचमुच अंदर से उभरना चाहिए।

आपकी आवाज़ में भी स्नेह झलकना चाहिए। अगर आपकी आवाज़ कड़क और रूखी है, तो अपनी बोली में स्नेह का इज़हार करना आपके लिए शायद मुश्‍किल हो। लेकिन वक्‍त के साथ, बार-बार कोशिश करते रहने से आप इस कमज़ोरी पर काबू पा सकते हैं। इसमें तकनीकी नज़र से जुड़ी एक बात आपकी मदद कर सकती है, यह याद रखिए कि छोटे और कटे-कटे स्वर में बात करना, बोली को कठोर बना देता है। इसलिए शब्दों में जो मृदु स्वर हैं, उन्हें लंबा खींचते हुए बोलना सीखिए। इस तरह आप अपनी आवाज़ से स्नेह ज़ाहिर कर पाएँगे।

लेकिन इससे भी ज़रूरी बात यह है कि आपका ध्यान किस पर है। अगर आप अपने सुननेवालों पर ध्यान लगाए हुए हैं और दिल से चाहते हैं कि उन्हें कुछ ऐसा बताएँ जिससे उन्हें फायदा हो, तब आपकी यह भावना आपके बोलने के अंदाज़ में भी नज़र आएगी।

माना एक सजीव भाषण, लोगों में जोश भर देता है। मगर कोमलता से बात करने की अहमियत भी कुछ कम नहीं। हर वक्‍त लोगों को सिर्फ दिमागी तौर पर कायल करना काफी नहीं होता; हमें उनके दिल को भी उभारने की ज़रूरत है।

दूसरी भावनाएँ ज़ाहिर करना। चिंता, डर और निराशा जैसी भावनाएँ अकसर एक दुःखी इंसान ज़ाहिर करता है। खुशी एक ऐसी भावना है जिसकी हमारी ज़िंदगी में खास जगह होनी चाहिए और दूसरों से बात करते समय हमें यह खुलकर ज़ाहिर करनी चाहिए। मगर कुछ ऐसी भी भावनाएँ हैं जिन पर हमें काबू करना चाहिए क्योंकि ये मसीही व्यक्‍तित्व को शोभा नहीं देतीं। (इफि. 4:31, 32; फिलि. 4:4) हम अपने शब्दों से, बोलने के लहज़े से, जितना बल देकर हम बात करते हैं, चेहरे और शरीर के हाव-भाव से हर तरह की भावनाएँ ज़ाहिर कर सकते हैं।

बाइबल में, इंसान की कई तरह की भावनाओं का ज़िक्र पाया जाता है। कभी-कभी यह भावनाओं का सीधा ज़िक्र करती है, तो कभी ऐसी घटनाएँ और लोगों के कहे शब्द बताती है जिनसे अलग-अलग भावनाओं का पता चलता है। जब आप बाइबल से ऐसी जानकारी ज़ोर से पढ़ते हैं, तो अपनी आवाज़ में उन्हीं भावनाओं को लाने की कोशिश कीजिए। इससे आप पर और आपके सुननेवालों पर ज़बरदस्त असर होगा। ऐसा करने के लिए आपको कल्पना करनी होगी कि आप ही वह किरदार हैं जिसके बारे में आप पढ़ रहे हैं। मगर याद रखिए कि भाषण देना, नाटक पेश करना नहीं है, इसलिए हद-से-ज़्यादा भावनाएँ ज़ाहिर करने से दूर रहिए। अपने भाषण को इतने सजीव तरीके से पेश करने की कोशिश कीजिए कि आपके सुननेवाले अपने मन में इसकी जीती-जागती तसवीर खींच पाएँ।

जानकारी के मुताबिक। जैसे जोश के मामले में है, आप अपनी बातचीत में किस हद तक स्नेह की भावना या कोई और भावना ज़ाहिर करेंगे, यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस विषय पर बोल रहे हैं।

अपनी बाइबल में मत्ती 11:28-30 खोलकर पढ़िए और ध्यान दीजिए कि उसमें क्या लिखा है। उसके बाद, मत्ती अध्याय 23 में दर्ज़ फरीसियों और सदूकियों की कड़ी निंदा में कहे गए यीशु के शब्द पढ़िए। क्या ऐसा हो सकता है कि तिरस्कार के ये कड़वे शब्द, यीशु ने नीरस और मरियल अंदाज़ में कहे होंगे? हरगिज़ नहीं।

आपको क्या लगता है कि उत्पत्ति के 44वें अध्याय में लिखे वृत्तांत को किस अंदाज़ में पढ़ा जाना चाहिए जिसमें यहूदा अपने भाई, बिन्यामीन की रिहाई के लिए गिड़गिड़ाकर भीख माँगता है? गौर कीजिए कि आयत 13 में क्या भावना दिखायी गयी है। यह भी कि आयत 16 में यहूदा इस विपत्ति के लिए किसे ज़िम्मेदार समझता है। और फिर उत्पत्ति 45:1 में दर्ज़ यूसुफ के जज़्बात पर ध्यान दीजिए।

इसलिए हम चाहे पढ़कर सुना रहे हों या किसी से बात कर रहे हों, अगर हम यह असरदार तरीके से करना चाहते हैं, तो हमें सिर्फ शब्दों और विचारों के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए बल्कि इनके साथ जो भावनाएँ जुड़ी हैं, उन पर भी ध्यान देना चाहिए।

कैसे ज़ाहिर करें

  • आप कौन-से शब्द इस्तेमाल करेंगे, इस बारे में हद-से-ज़्यादा परेशान होने के बजाय, इस बात पर ध्यान दीजिए कि आप सुननेवालों की मदद कैसे कर सकते हैं।

  • आपकी जानकारी को जिस भावनाओं के साथ पेश करना है, वही आपके बात करने के लहज़े और आपके चेहरे से ज़ाहिर होनी चाहिए।

  • जो लोग बात करते वक्‍त अपनी भावनाएँ खुलकर व्यक्‍त करते हैं, उनको बोलते हुए ध्यान से सुनिए और सीखिए।

अभ्यास: मत्ती 20:29-34 और लूका 15:11-32 ज़ोर से पढ़िए और पढ़ते वक्‍त ज़रूरत के हिसाब से भावनाएँ व्यक्‍त कीजिए।

    हिंदी साहित्य (1972-2025)
    लॉग-आउट
    लॉग-इन
    • हिंदी
    • दूसरों को भेजें
    • पसंदीदा सेटिंग्स
    • Copyright © 2025 Watch Tower Bible and Tract Society of Pennsylvania
    • इस्तेमाल की शर्तें
    • गोपनीयता नीति
    • गोपनीयता सेटिंग्स
    • JW.ORG
    • लॉग-इन
    दूसरों को भेजें