दुनिया का रुख़ बदल देनेवाले स्वाद
तेरहवीं शताब्दी में, मार्को पोलो ने उन्हें बहुतायत में देखा। क्रिस्टोफर कोलम्बस उन्हें ढूँढ़ने जलयात्रा पर निकल पड़ा लेकिन उसके बजाय नई दुनिया खोज निकाली। पंद्रहवीं शताब्दी में, वास्को डि गामा आख़िरकार समुद्र यात्रा द्वारा भारत पहुँच गया और उन्हें यूरोप में उत्सुक ख़रीदारों के लिए वापस ले गया। सचमुच, उस समय मसाले इतने मूल्यवान समझे जाते थे कि उन्हें प्राप्त करने के लिए लोग अपनी जान का ख़तरा मोल लेते थे!
जब राजनीतिक परिवर्तनों के कारण काफ़िलों के लिए स्थल मार्ग बंद कर दिए गए, तब वास्को डि गामा ने पुर्तगाल से लेकर अफ्रीका की छोर से होते हुए भारत और फिर वापस दो साल की ३९,००० किलोमीटर समुद्रयात्रा की। उसके दो जहाज़ यात्रा पूरी कर पाए, और मसालों तथा दूसरे सामानों के एक नौभार के साथ लौटे जिनकी कीमत यात्रा के खर्च से ६० गुना थी! लेकिन उसकी यात्रा की सफलता ने यूरोपीय राष्ट्रों को संघर्ष में डाल दिया। अगली तीन शताब्दियों तक पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, हॉलैंड, और ग्रेट ब्रिटेन मसालों के स्रोतों पर नियंत्रण पाने के लिए मुक़ाबला करते रहे।
एक लेखक ने मसालों के इतिहास का सार प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह “साहसिक कार्य, खोज, विजय और प्रबल नौसैनिक दुश्मनी की कहानी है।” फ्रेडरिक रोज़नगार्टन, जू., ने अपनी पुस्तक मसालों की पुस्तक (The Book of Spices) में कहा: “राजनीतिक और आर्थिक रूप से, मसाले इतने उपयोगी, सचमुच इतने अनिवार्य थे कि राजाओं ने उनकी खोज में अभियान भेजे, व्यापारियों ने उनके व्यापार में जान और सम्पत्ति को दाँव पर लगाया, उनके पीछे युद्ध लड़े गए, पूरे के पूरे जनसमुदाय दासत्व में ले लिए गए, भूमंडल की खोज की गई, और इस बेचैन, बेरहम मुक़ाबले के द्वारा नवजागरण जैसे व्यापक परिवर्तन लाए गए।”
जब डच लोगों का मसालों पर नियंत्रण था, तब ब्रिटेन को बेचते समय वे मिर्च के दाम को एक पाउन्ड पर पाँच शिलिंग बढ़ा देते थे। इससे क्रुद्ध होकर, लंदन व्यापारियों का एक दल १५९९ में स्वयं अपनी व्यापारिक कम्पनी बनाने के लिए एकत्रित हुआ, जो बाद में ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से जानी गई। इस कम्पनी के प्रभाव से आख़िरकार भारत ३०० साल से ज़्यादा समय के लिए ब्रिटिश शासन के अधीन रहा।
प्रबल मुक़ाबला तो समाप्त हो गया, लेकिन मसालों के लिए विश्वव्याप्त स्वाद अभी भी है। और मसालों का आनन्द शायद जितना यहाँ भारत में लिया जाता है उतना और कहीं नहीं लिया जाता।
मसालों से प्रेम
मसाले और भारतीय भोजन इतने अविच्छेद्य हैं कि कोई कह सकता है कि इस देश को मसालों से प्रेम है। किसने भारतीय करी के बारे नहीं सुना—सब्जियों, अण्डों, लाल मांस, मछली, या मुर्गी का स्टू समान व्यंजन, जिसमें अनेक स्वादिष्ट मसालों का छौंक लगा होता है? इनमें से कुछ मसालों के स्वाद मिठाइयों में भी पाए जाते हैं, जो इस बात की पुष्टि करता है कि “मसालेदार” होना “झाल” होने का पर्यायवाची नहीं है। यहाँ की इतनी लोकप्रिय दूधवाली मीठी चाय का भी स्वाद अक़सर थोड़ी-सी इलायची, लवंग, अदरक, या कुछ मसालों के मिश्रण से बढ़ाया जाता है। जबकि भारत को ऐसे स्वादों के लिए चाह है, क्या इसमें कोई आश्चर्य की बात है कि प्रतिव्यक्ति मसालों के उपभोग में यह सबसे आगे है?
सिर्फ़ एक भारतीय रसोइए की रसोई में जाइए, सीधे ही आँख तरह-तरह के रंग और आकार के दर्जनों मसालों पर जाएगी। उनमें से कुछ हैं, छोटे-छोटे काले सरसों के दाने; ख्प्ताशबूदार, भूरी दालचीनी की लकड़ियाँ; छोटी इलायची; चमकीली, सुनहरी हल्दी; फीके रंग की गाँठदार अदरक; और सिंदूरी लाल-मिर्च। बहुत से देशों में पंसारी की दुकान पर मिलनेवाले करी पाउडर की एक बोतल से इस मिश्रण का मुक़ाबला कीजिए। बेशक, करी पाउडर में विभिन्न मसालों का मिश्रण होता है, और इससे काम चल जाता है। लेकिन यह भारत में इस्तेमाल किए जानेवाले मसालों के मिश्रण के सामने कुछ भी नहीं है।
विभिन्न व्यंजनों के लिए, जिनमें सब्जियाँ, मछली, मुर्गी, और लाल माँस सम्मिलित हैं, ख़ास, बने-बनाए मसाले मिलाए जाते हैं। लेकिन ज़्यादातर, पकाते समय ही अलग-अलग मसालों को मिलाया जाता है, और इनकी क़िस्म और मात्रा ख़ास व्यंजन पर निर्भर करती है। निपुण भारतीय गृहणी पकाने की प्रक्रिया में सुनिश्चित क्रम से और ठीक क्षण पर हर मसाले को डालना जानती है। वह भूनने, पीसने, गरम तेल में साबुत डालने, या दूसरे मसालों के साथ मिलाने के द्वारा एक ही मसाले से तरह-तरह के स्वाद निकाल सकती है।
भारत आनेवाले पर्यटक अक़सर भोजनों में इतनी ज़्यादा विविधता देखकर हैरान हो जाते हैं। उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय भोजनों के मुख्य विभाजन के अलावा, देश की प्रादेशिक संस्कृतियों, जैसे कि बंगाली, गोअन, गुजराती, और पंजाबी, के अपने ख़ास भोजन हैं। धार्मिक विश्वास भी भोजन के स्वाद पर प्रभाव डालते हैं। अतः, गुजरात राज्य में, शायद एक व्यक्ति पारंपरिक हिन्दु शाकाहारी भोजन खाए, लेकिन भारत के उत्तरी भाग में वह मांसाहारी मुगलई भोजन का आनन्द ले सकता है, जो मुसलमानों के विजय के दिनों की एक यादगार है। इसलिए अलग-अलग रातों को हिन्दु, मुसलमान, सिक्ख, जैन, पारसी, और मसीही परिवारों के साथ भोजन करने में कोई भी दो भोजन एक समान नहीं होंगे।
मसालों के लिए उपयुक्त
जबकि मसाले संसार भर में उगाए जाते हैं, भारत सब देशों से ज़्यादा—६० से भी अधिक क़िस्म उत्पन्न करता है। और यह मसाले और मसालों के उत्पादन खड़े और पिसे हुए रूप में १६० से भी ज़्यादा देशों को निर्यात करता है। देश के मसाला उत्पादन में दक्षिण भारत सबसे आगे है। अरब सागर के किनारे, कोचिन, जो अपनी सुन्दरता और प्रचुर नहरों के कारण अक़सर “पूर्व का वेनिस” कहलाता है, मसालों तक सीधी पहुँच कराता है, जो मलाबार तट के किनारे हरे-भरे उष्णकटिबंधी जलवायु में लम्बे समय से फले-फूले हैं।
कोचिन के बंदरगाह ने प्राचीन समयों से फिनीसी, मिस्री, फारसी, चीनी, रोमी, यूनानी, और अरबी लोगों के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार बाज़ार के रूप में काम किया है। रुचि की बात यह है कि बाइबल की पुस्तक, प्रकाशितवाक्य ‘पृथ्वी के व्योपारियों’ का ज़िक्र करती है, जिनके व्यापार में “हाथीदांत की हर प्रकार की वस्तुएँ . . . और दारचीनी, [भारतीय, NW] मसाले” सम्मिलित थे।—प्रकाशितवाक्य १८:११-१३.
काली मिर्च, ‘मसालों के राजा’ के रूप में विशिष्ट, वह पहली चीज़ थी जिसकी व्यापारियों को बहुत लालसा थी। यह केवल भोजन का मसाला ही नहीं बल्कि मांस और दूसरे ख़राब होनेवाले भोजनों के लिए अत्यावश्यक परिरक्षक भी था। उन भोजनों में, जो वैसे ख़राब होकर व्यर्थ हो जाते, मसाले मिला देने से उनको एक साल या ज़्यादा समय के लिए बिना प्रशीतन के सुरक्षित रखा जा सकता था। मिर्च के साथ-साथ, बाद के व्यापारियों ने दूसरे मसालों की लालसा की—इलायची, धनिया, सौंफ, और मेथी उनमें से कुछेक थे।
फिर भी, भारत में उगाए जानेवाले सभी मसालों की शुरुआत यहाँ नहीं हुई। उदाहरण के लिए, लाल मिर्च का परिचय दक्षिण अमरीका द्वारा कराया गया था। भौतिकी के लिए भारतीय नोबेल उपाधि प्राप्त, डॉ. च. व. रामन ने एक बार कहा कि ‘मिर्च के बिना सारे भोजन स्वादहीन और अखाद्य हैं।’ अनेक जन जो अलग-क़िस्म के आहार पर बड़े हुए हैं शायद इस बात से असहमत हों। लेकिन, शुक्र है कि एक प्रेममय सृष्टिकर्ता द्वारा पृथ्वी का भंडार बड़े पैमाने पर विविध प्रकार की वस्तुओं से भली-भाँति भर दिया गया था, जो बिलकुल भिन्न पसन्दों को संतुष्ट करता है।
सिर्फ़ स्वाद बढ़ानेवाले ही नहीं
मसालों का एक सम्मोहक इतिहास है। बाइबल में, अभिषिक्त करने के तेलों, लोबान, और इत्रों में मसालों की भूमिका लिखी गई है। यह अभिषिक्त करने के पवित्र तेल में, और यरूशलेम में यहोवा के मंदिर में प्रयोग की जानेवाली लोबान में मसालों के प्रयोग का ज़िक्र करती है, और बताती है कि मसालों को दाखरस में मिलाया जाता था। (निर्गमन ३०:२३-२५, ३४-३७; श्रेष्ठगीत ८:२) इसके अतिरिक्त, बाइबल प्रकट करती है कि यीशु की देह को दफ़नाने के लिए तैयार करने को प्रारंभिक मसीही मसाले लाए।—यूहन्ना १९:३९, ४०.
इस देश में, पीढ़ियों से भारतीय लड़कियों ने अदरक से संबन्धित पौधे—हल्दी की चमकीली सुनहरी जड़ का इस्तेमाल किया है। त्वचा को निखारने के लिए इस पर हल्दी का उपटन लगाया जाता है। आज, इत्र और अंगराग उद्योग वाष्पशील और अवाष्पशील तेल बनाने में मिर्च, काला जीरा, दालचीनी, अमलतास, लवंग, जयफल, जावित्री, रोज़मेरी, और इलायची के तेलों के मिश्रण का प्रयोग करते हैं और फिर इनसे दर्जनों आकर्षक इत्र बनाते हैं। इन सामग्रियों को साबुन, टेलकम पाउडर, आफ़टर-शेव लोशन, कोलोन, माउथ फ्रेशनर्स्, और अनगिनत दूसरी वस्तुओं में भी मिलाया जाता है।
इसके साथ ही, औषधीय प्रयोजनों में एक लम्बे अरसे से मसालों का प्रयोग किया जा रहा है। हिन्दु संस्कृत लेखों, अर्थात् वेदों में प्रस्तुत दवाइयों के विज्ञान, आयुर्वेद द्वारा अदरक, हल्दी, लहसुन, इलायची, मिर्च, लवंग, और केसर जैसे मसालों की सलाह दी जाती है। एक भारतीय औषधालय में भेंट करनेवाले व्यक्ति को आज भी कटे और जले के लिए हल्दी का मरहम, १३ मसालों का दंतमंजन, और तरह-तरह की बीमारियों के लिए अन्य मसालों के अनेकों उत्पादन मिलेंगे।
अतः, मसालों के इतिहास का पुनर्विचार दिखाता है कि उनके बिना, भोजन की पसन्द भिन्न होतीं, आज की दवा ऐसी न होती, और इतिहास अन्य प्रकार से लिखा जाता। मसालों के लिए स्वाद ने सचमुच अनेक तरीक़ों से—हमारी दुनिया का रुख़ बदल दिया।
[पेज 25 पर तसवीरें]
दुनिया भर में लोकप्रिय अनेक मसालों का एक छोटा-सा नमूना
ग्राहक के लिए मसाले तौलती हुई सड़क पर बेचनेवाली स्त्री
कोचिन की एक दुकान में ख़रीदारों के इन्तज़ार में मसाले