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बेरोज़गारी की महामारी

इटली में सजग होइए! संवाददाता द्वारा

यह अनेक विकसित देशों में एक आपात्‌-स्थिति है—परन्तु विकासशील राष्ट्र भी इससे चिन्तित हैं। इसका प्रभाव वहाँ हुआ है जहाँ कभी लगता था कि वह अस्तित्व में नहीं है। यह करोड़ों लोगों को प्रभावित करती है—जिनमें से अनेक माता और पिता हैं। दो-तिहाई इतालवियों के लिए यह “ख़तरा नम्बर एक” है। यह नए सामाजिक रोग पैदा करती है। कुछ हद तक, यह ऐसे अनेक युवा लोगों की समस्याओं की जड़ है जो नशीले पदार्थों में उलझ जाते हैं। यह लाखों लोगों की नींद हराम कर देती है, और अन्य लाखों लोग शायद जल्द ही इसके शिकार हों . . .

“हमारे समय में शायद बेरोज़गारी एक ऐसी सच्चाई है जिसका डर सबसे अधिक व्याप्त है,” आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओ.ई.सी.डी.)। “इस अनुभव का विस्तार और इसके परिणाम ज्ञात हैं,” यूरोपीय समुदायों का आयोग लिखता है, लेकिन “उससे निपटना दुष्कर है।” एक विशेषज्ञ कहता है, यह “एक साया” है, जो “यूरोप की सड़कों पर छाने के लिए वापस आ रहा है।” यूरोपीय संघ (ई.यू.) में, बेरोज़गारों की संख्या अब क़रीब दो करोड़ है, और अक्‍तूबर १९९४ में, केवल इटली में सरकारी आँकड़ों के अनुसार उनकी संख्या २७,२६,००० थी। यूरोपीय संघ के आयुक्‍त पॉदरिग फ्लिन के अनुसार, “बेरोज़गारी से निपटना, हमारे सम्मुख सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक चुनौती है।” अगर आप बेरोज़गार हैं या अपनी नौकरी खोने के ख़तरे में हैं, तो आप जानते हैं कि इससे कैसा डर पैदा होता है।

लेकिन बेरोज़गारी केवल एक यूरोपीय समस्या नहीं है। इससे सभी अमरीकी देश पीड़ित हैं। इसने अफ्रीका, एशिया या प्रशान्त सागर के द्वीपों को भी नहीं बख़्शा है। पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों को हाल के वर्षों में इस समस्या का सामना करना पड़ा है। सच है, यह सब जगहों को समान रीति से प्रभावित नहीं करती। लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार, यूरोप और उत्तर अमरीका में बेरोज़गारी दर, पिछले दशकों की तुलना में, लम्बे समय तक काफ़ी ऊँची रहेगी।a और स्थिति “अल्प रोज़गार में वृद्धि से और उपलब्ध नौकरियों की गुणवत्ता में सामान्य गिरावट से बदतर” हो गयी है, अर्थशास्त्री रेनाटो ब्रूनॆटा स्पष्ट करते हैं।

बेरोक वृद्धि

बेरोज़गारी ने एक के बाद एक, अर्थ-व्यवस्था के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है: पहले कृषि को, जिसमें मशीनीकरण में वृद्धि हुई है, जो लोगों को काम से निकाल देता है; उसके बाद उद्योग, जो १९७० के दशक से ऊर्जा संकट से प्रभावित हुआ है; और अब, सेवा क्षेत्र—वाणिज्य, शिक्षा—ऐसा क्षेत्र जिसे पहले अपराजेय समझा जाता था। बीस साल पहले २ या ३ प्रतिशत से अधिक की बेरोज़गारी दर बड़ी चिन्ता का कारण होती। आज एक औद्योगीकृत राष्ट्र स्वयं को सफल समझता है अगर बेरोज़गारी दर को ५ या ६ प्रतिशत के नीचे रखा जाता है, और अनेक विकसित राष्ट्रों की दर काफ़ी ऊँची है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइ.एल.ओ.) के अनुसार, एक बेरोज़गार व्यक्‍ति वह होता है जिसके पास काम नहीं है, काम करने के लिए तैयार है और क्रियाशील रीति से काम की खोज में है। लेकिन उस व्यक्‍ति के बारे में क्या जिसके पास पक्की पूर्ण-कालिक नौकरी नहीं है या जो एक सप्ताह में केवल कुछ घंटे काम करने का प्रबंध कर पाता है? अंशकालिक काम को भिन्‍न-भिन्‍न देशों में भिन्‍न रूप से लिया जाता है। कुछ राष्ट्रों में ऐसे कुछेक व्यक्‍ति जो वास्तव में बेरोज़गार हैं उन्हें सरकारी तौर पर रोज़गारशुदा माना जाता है। रोज़गार और बेरोज़गारी के बीच अपर्याप्त रूप से परिभाषित स्थितियाँ यह निर्धारित करना मुश्‍किल कर देती हैं कि कौन वास्तव में बेरोज़गार है, और इस कारण आँकड़े वास्तविकता का केवल एक अंश वर्णित करते हैं। “यहाँ तक कि ३ करोड़ ५० लाख बेरोज़गारों की सरकारी संख्या भी [ओ.ई.सी.डी. देशों में] नौकरी के अभाव के पूरे विस्तार को नहीं दिखाती,” एक यूरोपीय अध्ययन कहता है।

बेरोज़गारी की ऊँची क़ीमत

लेकिन ये संख्याएँ पूरी कहानी नहीं बतातीं। “बेरोज़गारी की आर्थिक और सामाजिक क़ीमत बहुत बड़ी है,” यूरोपीय समुदायों का आयोग कहता है, और इसका कारण “न केवल बेरोज़गारों के लिए सहायता अदायगी का सीधा ख़र्च है बल्कि कर-सम्बन्धी आमदनी का नुक़सान भी है जिसमें बेरोज़गार योगदान देते अगर वे काम कर रहे होते।” और बेरोज़गारी भत्ते न सिर्फ़ सरकारों के लिए बल्कि रोज़गारशुदा लोगों के लिए भी ज़्यादा भारी होते जा रहे हैं, जिन्हें ज़्यादा कर देने पड़ते हैं।

बेरोज़गारी महज़ तथ्यों और संख्याओं का मामला नहीं है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्‍तिगत तौर पर नाटकीय घटनाएँ घटती हैं, क्योंकि यह महामारी लोगों को—हर सामाजिक वर्ग के पुरुषों, स्त्रियों और युवाओं को प्रभावित करती है। इन “अन्तिम दिनों” की अन्य सभी समस्याओं के साथ मिलकर, बेरोज़गारी एक भारी बोझ साबित हो सकती है। (२ तीमुथियुस ३:१-५; प्रकाशितवाक्य ६:५, ६) विशेषकर अगर “दीर्घ-कालिक बेरोज़गारी” से पीड़ित हों, और स्थिति को प्रभावित करनेवाले अन्य कोई तत्व न हों, तो वह व्यक्‍ति जिसने लम्बे समय से काम नहीं किया है वह एक नौकरी ढूँढना और ज़्यादा मुश्‍किल पाएगा। दुःख की बात है कि कुछ व्यक्‍ति शायद फिर कभी रोज़गार न पाएँ।b

मनोवैज्ञानिक पाते हैं कि आज के बेरोज़गारों में मनोविकृति-सम्बन्धी और मनोविज्ञानी समस्याएँ साथ ही भावात्मक अस्थिरता, कुण्ठा, बढ़ती उदासीनता, और आत्म-सम्मान की कमी बढ़ रही है। जब एक ऐसा व्यक्‍ति नौकरी खो देता है जिसे बच्चों की देखभाल करनी होती है, तो यह एक भयानक व्यक्‍तिगत त्रासदी है। दुनिया उनके सामने ढह गयी है। सुरक्षा ग़ायब हो चुकी है। वास्तव में, आज कुछ विशेषज्ञ एक व्यक्‍ति के नौकरी खोने की संभावना से सम्बन्धित एक “पूर्वाभासी चिन्ता” के उभार को नोट करते हैं। यह चिन्ता पारिवारिक रिश्‍तों पर गहरा असर डाल सकती है और इससे और अधिक दुःखद परिणाम निकल सकते हैं, जैसे बेरोज़गार व्यक्‍तियों की हाल की आत्महत्याएँ शायद सूचित करें। इसके अलावा, अपनी पहली नौकरी ढूँढने की मुश्‍किल, युवा लोगों की हिंसा और समाज से टूटकर अलग होने के संभावित कारणों में एक है।

“एक विकृत व्यवस्था के क़ैदी”

सजग होइए! ने ऐसे अनेक लोगों से भेंट की है जिन्होंने अपनी नौकरियाँ खो दी हैं। पचास-वर्षीय आर्मान्डो ने कहा कि उसके लिए इसका अर्थ था “३० वर्षों के काम की मेहनत को व्यर्थ होते देखना, और एक नयी शुरूआत करना,” और “एक विकृत व्यवस्था के क़ैदी की तरह” महसूस करना। फ्रॉनचेस्को ने ‘देखा कि दुनिया उस पर टूट पड़ी।’ स्टॆफानो को “वर्तमान जीवनावस्था में निराशा का एक गहरा भाव महसूस हुआ।”

दूसरी ओर, लूचानो ने, जिसे एक महत्त्वपूर्ण इतालवी वाहन उद्योग में क़रीब ३० वर्ष तक तकनीकी प्रबंध में काम करने के बाद निकाल दिया गया, “यह देखने पर कि काम के इतने वर्षों में उसकी मेहनत, ईमानदारी और विश्‍वसनीयता का कोई मूल्य नहीं था, गुस्से और विश्‍वासघात का अनुभव किया।”

पूर्वानुमान और निराशाएँ

कुछ अर्थशास्त्रियों ने बहुत ही भिन्‍न कल्पनाएँ की थीं। १९३० में अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्ज़ ने अगले ५० वर्षों में “सबके लिए काम” का आशावादी रूप से पूर्वानुमान लगाया, और दशकों तक पूर्ण रोज़गार को एक साध्य लक्ष्य माना गया है। १९४५ में संयुक्‍त राष्ट्र संगठन के घोषणा-पत्र ने पूर्ण रोज़गार की तेज़ प्राप्ति को एक लक्ष्य के तौर पर निर्धारित किया। कुछ ही समय पहले तक यह माना जाता था कि प्रगति का अर्थ होता सभी के लिए एक नौकरी और पहले से कम काम के घंटे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। पिछले दशक की भारी मन्दी, “तीसादि की महा मन्दी के बाद सबसे बदतर जागतिक रोज़गार संकट” का कारण बनी है, आइ.एल.ओ. का कहना है। दक्षिण अफ्रीका में कम-से-कम ३०.६ लाख लोग बिना काम के हैं, जिनमें कुछ ३० लाख अश्‍वेत अफ्रीकी भी शामिल हैं। जापान भी—पिछले वर्ष ऐसे २० लाख से अधिक लोगों सहित जिनके पास काम नहीं है—एक संकट-स्थिति से गुज़र रहा है।

बेरोज़गारी इतनी व्यापक महामारी क्यों है? उससे निपटने के लिए कौन-से समाधानों का प्रस्ताव रखा गया है?

[फुटनोट]

a बेरोज़गारी दर, कुल श्रम-बल जो बेरोज़गार है उसकी प्रतिशतता है।

b ये “दीर्घ-कालिक बेरोज़गार” वे हैं जो १२ महीनों से अधिक समय से काम नहीं कर रहे हैं। ई.यू. में क़रीब आधे बेरोज़गार इस श्रेणी में आते हैं।

[पेज 2, 3 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

कनाडा ९.६ प्रतिशत

अमरीका ५.७ प्रतिशत

कोलम्बिया ९ प्रतिशत

आयरलैंड १५.९ प्रतिशत

स्पेन २३.९ प्रतिशत

फिनलैंड १८.९ प्रतिशत

अल्बानिया ३२.५ प्रतिशत

दक्षिण अफ्रीका ४३ प्रतिशत

जापान ३.२ प्रतिशत

फिलीपींस ९.८ प्रतिशत

ऑस्ट्रेलिया ८.९ प्रतिशत

[चित्र का श्रेय]

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