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  • अपने क्रोध पर क़ाबू क्यों रखें?

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  • अपने क्रोध पर क़ाबू क्यों रखें?
  • सजग होइए!–1997
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g97 7/8 पेज 28-30

बाइबल का दृष्टिकोण

अपने क्रोध पर क़ाबू क्यों रखें?

वह एक अशुभ शुरूआत थी। “अब जब मैं इस घर का मालिक हूँ, तो तुम देर से आकर मुझे शर्मिंदा नहीं करोगी,” अनिल अपनी नयी-नवेली दुलहन, शीलाa पर चिल्लाया। ४५ मिनट से ज़्यादा, वह उस पर चीखा-चिल्लाया और इस दौरान उसे सोफ़े से हिलने नहीं दिया। गाली-गलौज उनके विवाह में नियम-सा बन गया था। दुःख की बात है कि अनिल का क्रुद्ध बर्ताव बढ़ता चला गया। वह धड़ाम से दरवाज़े बंद करता, खाने की मेज़ पर ज़ोरों से घूँसे मारता, और स्टियरिंग व्हील पर हाथ मारते हुए अंधाधुंध गाड़ी चलाता, इस तरह दूसरों का जीवन ख़तरे में डालता।

दुःख की बात है, जैसा कि आप जानते हैं, ऐसे दृश्‍य कई बार दोहराए जाते हैं। क्या इस आदमी का क्रोध करना उचित था, या वह बेक़ाबू हो रहा था? क्या कैसा भी क्रोध करना ग़लत है? क्रोध कब बेक़ाबू हो जाता है? और यह कब हद से ज़्यादा हो जाता है?

जिस क्रोध पर क़ाबू हो उसे शायद न्यायोचित ठहराया जाए। उदाहरण के लिए, सदोम और अमोरा के प्राचीन, अनैतिक नगरों के ख़िलाफ़ परमेश्‍वर का क्रोध भड़का। (उत्पत्ति १९:२४) क्यों? क्योंकि उन नगरों में रहनेवाले हिंसक और घिनौनी लैंगिक आदतों में लगे हुए थे, जैसा कि उस पूरे क्षेत्र में मशहूर था। उदाहरण के लिए, जब स्वर्गीय संदेशवाहक धर्मी व्यक्‍ति लूत के पास आए, जवानों से लेकर बूढ़ों तक की एक भीड़ ने लूत के मेहमानों के साथ सामूहिक बलात्कार करने की कोशिश की। यहोवा परमेश्‍वर उनकी घोर अनैतिकता पर उचित रीति से क्रोधित हुआ था।—उत्पत्ति १८:२०; १९:४, ५, ९.

अपने पिता की तरह, परिपूर्ण मनुष्य यीशु मसीह के पास क्रोधित होने का अवसर था। यरूशलेम के मंदिर को परमेश्‍वर के चुने हुए लोगों के लिए उपासना का केंद्र होना था। उसे “प्रार्थना का घर” होना चाहिए था, जहाँ लोग परमेश्‍वर को व्यक्‍तिगत बलिदान और चढ़ावे चढ़ा सकते थे और उन्हें परमेश्‍वर के मार्गों में शिक्षित किया जा सकता था और उनके पापों की क्षमा हो सकती थी। मंदिर में, वे मानो यहोवा के साथ मेल कर सकते थे। इसके बजाय, यीशु के दिनों के धार्मिक नेताओं ने उस मंदिर को “ब्योपार का घर” और “डाकुओं की खोह” बना दिया। (मत्ती २१:१२, १३; यूहन्‍ना २:१४-१७) जिन जानवरों को बलिदान के रूप में इस्तेमाल किया जाना था उनकी बिक्री से उन्होंने ख़ुद मुनाफ़ा कमाया। सही मायने में वे अपने झुण्ड की खाल उधेड़ रहे थे। इस प्रकार, परमेश्‍वर का पुत्र पूर्ण रीति से न्यायोचित था जब उसने अपने पिता के घर से उन लुटेरों को खदेड़ा। ज़ाहिर तौर पर यीशु क्रोधित था!

जब अपरिपूर्ण मनुष्य क्रोधित होते हैं

अपरिपूर्ण मनुष्य भी उचित रूप से कभी-कभी क्रोधित हो सकते हैं। मूसा के साथ जो हुआ उस पर ग़ौर कीजिए। इस्राएल राष्ट्र को हाल ही में चमत्कारिक ढंग से मिस्र से छुड़ाया गया था। दस विपत्तियों को मिस्र पर लाने के द्वारा यहोवा ने प्रभावशाली रूप से मिस्र के झूठे देवताओं पर अपनी शक्‍ति प्रदर्शित की थी। इसके बाद उसने लाल समुद्र को विभाजित करने के द्वारा इस्राएलियों के बच निकलने का मार्ग बनाया। बाद में, उन्हें सीनै पर्वत की तलहटी पर ले जाया गया, जहाँ उन्हें एक राष्ट्र के रूप में संगठित किया गया। एक मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए, मूसा परमेश्‍वर के नियम प्राप्त करने के लिए ऊपर पहाड़ पर गया। बाक़ी सभी नियमों के साथ, यहोवा ने मूसा को दस आज्ञाएँ दीं, जिन्हें ‘परमेश्‍वर की उंगली’ द्वारा उन पत्थर की तख़्तियों पर लिखा गया था, जिन्हें परमेश्‍वर ने ख़ुद पहाड़ से तराशकर बनाया था। लेकिन, जब मूसा नीचे उतरा तो उसने क्या पाया? लोग सोने के एक बछड़े की मूर्ति की उपासना करने लगे थे! कितनी जल्दी वे भूल गए थे! चंद सप्ताह ही बीते थे। उचित रूप से “मूसा का कोप भड़क उठा।” उसने पत्थर की तख़्तियों को पटककर तोड़ डाला और उसके बाद बछड़े की मूर्ति को नष्ट किया।—निर्गमन ३१:१८; ३२:१६, १९, २०.

बाद में एक अवसर पर, मूसा का क्रोध भड़का जब लोगों ने पानी की कमी के बारे में शिकायत की। उत्तेजित होकर, वह अपनी जानी-मानी नम्रता, या ठंडे मिज़ाज को पल-भर के लिए खो बैठा। यह एक गंभीर ग़लती की ओर ले गया। इस्राएल के प्रबंधक के रूप में यहोवा की बढ़ाई करने की बजाय, मूसा ने लोगों से कटु वचन कहे और अपने भाई और अपनी ओर उनका ध्यान आकर्षित किया। इसलिए, परमेश्‍वर ने मूसा को अनुशासन देना उचित समझा। उसे प्रतिज्ञा के देश में जाने की अनुमति नहीं दी जाती। मरीबा में इस घटना के बाद, मूसा के भड़कने का आगे कोई भी ज़िक्र नहीं किया गया। प्रत्यक्षतः उसने सबक़ सीख लिया था।—गिनती २०:१-१२; व्यवस्थाविवरण ३४:४; भजन १०६:३२, ३३.

अतः, परमेश्‍वर और मनुष्य में एक फर्क़ है। यहोवा अपने ‘क्रोध करने में विलम्ब’ कर सकता है और “कोप करने में धीरजवन्त” के रूप में उसका उचित रीति से वर्णन किया गया है, क्योंकि प्रेम उसका प्रमुख गुण है न कि क्रोध। उसका क्रोध हमेशा धर्मी, हमेशा न्यायोचित, हमेशा क़ाबू में होता है। (निर्गमन ३४:६; यशायाह ४८:९; १ यूहन्‍ना ४:८) परिपूर्ण मनुष्य यीशु मसीह हमेशा अपने क्रोध के प्रदर्शन पर क़ाबू पाने में समर्थ था; उसका वर्णन “नम्र” होने के रूप में किया गया है। (मत्ती ११:२९) दूसरी ओर, अपरिपूर्ण मनुष्य, यहाँ तक कि मूसा जैसे विश्‍वासी पुरुषों को भी अपने क्रोध पर क़ाबू पाने में कठिनाई हुई है।

साथ ही, मनुष्य आम तौर पर इसके परिणामों के बारे में नहीं सोचते। एक व्यक्‍ति को अपने क्रोध पर क़ाबू खोने की क़ीमत चुकानी पड़ सकती है। उदाहरण के लिए, इसके कौन-से ज़ाहिर परिणाम होंगे यदि एक पति अपनी पत्नी पर इस हद तक क्रोधित हो जाता है कि वह घूँसा मारकर दीवार में एक छेद कर देता है? संपत्ति का नुक़सान होता है। उसके हाथ में शायद चोट लगे। लेकिन इससे भी ज़्यादा, उसकी जलजलाहट का उसकी पत्नी के उस प्रेम और आदर पर क्या प्रभाव होगा, जो वह उसके लिए रखती है? दीवार की थोड़े दिनों में मरम्मत की जा सकती है, और उसका हाथ शायद कुछ सप्ताहों में ठीक हो जाए; लेकिन अपनी पत्नी का भरोसा और आदर वापस हासिल करने में उसे कितना समय लगेगा?

वास्तव में, बाइबल ऐसे मनुष्यों के उदाहरणों से भरी हुई है जो अपने क्रोध पर क़ाबू पाने में असफल हुए थे और जिन्होंने उसके परिणाम भुगते। उनमें से कुछेक पर ग़ौर कीजिए। अपने भाई को घात करने के बाद कैन को देश निकाला दे दिया गया था। शिमोन और लेवी को उनके पिता द्वारा शकेम के लोगों को घात करने के लिए शाप दिया गया था। यहोवा ने उज्जियाह को कोढ़ी बना दिया जब उसने याजकों पर क्रोध किया जो उसे सुधारने की कोशिश कर रहे थे। जब योना का “क्रोध भड़का,” तब यहोवा ने उसे ताड़ना दी। इन सभों को अपने क्रोध के लिए जवाब देना पड़ा।—उत्पत्ति ४:५, ८-१६; ३४:२५-३०; ४९:५-७; २ इतिहास २६:१९; योना ४:१-११.

मसीही जवाबदेह हैं

इसी तरह, मसीहियों को अपने कामों के लिए परमेश्‍वर और, कुछ हद तक अपने संगी विश्‍वासी, दोनों को जवाब देना ज़रूरी है। इसे बाइबल द्वारा क्रोध को सूचित करनेवाली यूनानी अभिव्यक्‍तियों के प्रयोग से स्पष्ट रीति से देखा जा सकता है। अधिकतर प्रयोग होनेवाले दो शब्दों में से एक है ऑर्गे। इसे आम तौर पर “क्रोध” अनुवादित किया गया है और इसमें कुछ हद तक जागरूकता और यहाँ तक कि जानबूझकर कार्य करने का भाव है, अकसर बदला लेने के दृष्टिकोण से। अतः, पौलुस ने रोमी मसीहियों से आग्रह किया: “हे प्रियो अपना पलटा ने लेना; परन्तु क्रोध [ऑर्गे] को अवसर दो, क्योंकि लिखा है, पलटा लेना मेरा काम है, प्रभु कहता है मैं ही बदला दूंगा।” अपने भाइयों के लिए बुरी मंशा रखने के बजाय उन्हें ‘भलाई से बुराई को जीतने’ के लिए प्रोत्साहित किया गया।—रोमियों १२:१९, २१.

अकसर प्रयोग की जानेवाली एक अन्य अभिव्यक्‍ति है थुमॉस। मूल शब्द “मूल रूप से हवा, पानी, भूमि, पशुओं, या मनुष्यों की प्रचण्ड गतिविधि को सूचित करता है।” इस प्रकार, इस शब्द का “शत्रुतापूर्ण भावनाओं का क्रोधी निकास,” “माथा झल्लाना,” या “मन के संतुलन को बिगाड़नेवाले, और घरेलू और नागरिक हंगामे और अशांति पैदा करनेवाले हिंसक क्रोध,” के रूप में विभिन्‍न प्रकार से वर्णन किया गया है। एक ज्वालामुखी की तरह जो शायद बिना चेतावनी दिए फूट जाए और गर्म राख़, चट्टान, और लावा उगले, जो शायद घायल, अपंग कर दे, या जान ले ले, वैसा ही वह पुरुष या स्त्री है जो अपने क्रोध को क़ाबू में नहीं रख सकता। थुमॉस का बहुवचन रूप गलतियों ५:२० में प्रयोग किया गया है, जहाँ पौलुस “क्रोध” को अन्य “शरीर के काम” (वचन १९) जैसे व्यभिचार, लुचपन मतवालेपन की सूची में रखता है। वाक़ई, अनिल का बर्ताव—जिसका वर्णन शुरू में किया गया है—“क्रोध” को सही रूप से सचित्रित करता है।

इसलिए मसीही कलीसिया का, उसके साथ संगति करनेवाले ऐसे लोगों के बारे में क्या दृष्टिकोण होना चाहिए जो दूसरे व्यक्‍तियों या दूसरे की संपत्ति के ख़िलाफ़ बार-बार हिंसक कार्य करते हैं? बेक़ाबू क्रोध विनाशकारी है और आसानी से हिंसा की ओर ले जाता है। फिर, उचित कारणों से यीशु ने कहा था: “मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा।” (मत्ती ५:२१, २२) पतियों को सलाह दी जाती है: “अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, और उन से कठोरता न करो।” जो “क्रोधी” है वह कलीसिया में एक ओवरसियर बनने के लिए योग्य नहीं है। अतः, वे लोग जो अपने क्रोध पर क़ाबू नहीं कर सकते उन्हें कलीसिया में एक आदर्श नहीं समझा जाना चाहिए। (कुलुस्सियों ३:१९; तीतुस १:७; १ तीमुथियुस २:८) वास्तव में, एक व्यक्‍ति जो अपने क्रोध पर क़ाबू नहीं रख पाता उसकी मनोवृत्ति, बर्ताव का तरीक़ा, और दूसरों के जीवन पर उसके नुक़सान की गंभीरता को देखने के बाद, उसे कलीसिया से निकाला जा सकता है—सचमुच एक गंभीर परिणाम।

क्या अनिल, जिसके बारे में शुरू में बताया गया था, कभी अपनी भावनाओं पर क़ाबू पा सका? क्या वह कभी तेज़ी से विनाश के गड़हे में डुबने से ख़ुद को रोक सका? दुःख की बात है, चिल्लाना बढ़कर धक्का-मुक्की बन गया। उँगली दिखाना, सचमुच का, पीड़ादायक उँगली चुभोना बन गया। अनिल शरीर के उन भागों पर चोट पहुँचाने में सतर्क था जो आसानी से देखे जा सकते थे और उसने अपने सलूक को छिपाने की कोशिश की। लेकिन, आख़िरकार वह, लात, घूँसे, बाल खींचने और इससे भी बदतर पर उतर आया। शीला अब अनिल से अलग हो चुकी है।

ऐसा होने की ज़रूरत नहीं थी। ऐसी ही परिस्थितियों में कई लोग अपने क्रोध पर क़ाबू पाने में समर्थ हुए हैं। इसलिए, यीशु मसीह के परिपूर्ण उदाहरण का अनुकरण करना कितना महत्त्वपूर्ण है। वह बेक़ाबू क्रोध के एक भी दौरे का दोषी नहीं था। उसका क्रोध हमेशा धर्मी था; वह कभी-भी आपे से बाहर नहीं हुआ। बुद्धिमत्ता से, पौलुस ने हम सभी को सलाह दी: “क्रोध तो करो, पर पाप मत करो; सूर्य अस्त होने तक तुम्हारा क्रोध न रहे।” (इफिसियों ४:२६) विनम्रतापूर्वक यह स्वीकार करते हुए कि मनुष्यों के तौर पर हमारी सीमाएँ हैं और कि हम वही काटेंगे जो हम बोते हैं, हमारे पास क्रोध को क़ाबू में रखने के अनेक कारण हैं।

[फुटनोट]

a नाम बदल दिए गए हैं।

[पेज 28 पर चित्र का श्रेय]

शाऊल दाऊद की जान लेने की कोशिश करता है/The Doré Bible Illustrations/Dover Publications, Inc.

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