क्या अफ्रीकी ढोल सचमुच बोलते हैं?
नाइजीरिया में सजग होइए! संवाददाता द्वारा
खोजकर्ता हॆनरी स्टैनली ने १८७६-७७ में कॉन्गो नदी से होकर यात्रा की, परंतु इस यात्रा के दौरान उसे स्थानीय ढोल वादन के गुणों पर विचार करने का अवसर नहीं मिला। उसको और उसके संगी यात्रियों को ढोल से क्या संदेश मिला यह आम तौर पर एक शब्द में बताया जा सकता है: युद्ध। उन्होंने जो धीमी धूम-धूम की आवाज़ सुनी उसका यही अर्थ था कि भाले लिए हुए खूँख़ार योद्धा उन पर हमला करने ही वाले थे।
बाद में, ज़्यादा शांतिपूर्ण समय में जाकर कहीं स्टैनली ने जाना कि ढोल लड़ाई की पुकार के अलावा भी कितना कुछ व्यक्त कर सकते हैं। कॉन्गो के तट पर रहनेवाले एक नृजातीय समूह का वर्णन करते हुए, स्टैनली ने लिखा: “[उन्होंने] अब तक विद्युत संकेत नहीं अपनाए हैं, परंतु उनके पास संचार की उतनी ही प्रभावकारी व्यवस्था है। उनके बड़े-बड़े ढोलों के अलग-अलग हिस्सों को बजाने से ढोल-भाषा जाननेवालों को बात उतनी ही स्पष्ट समझ आती है जितनी स्पष्ट हमारे गले की आवाज़ होती है।” स्टैनली को समझ आया कि ढोल सिर्फ़ तुरही या भोंपू का काम नहीं, उससे कहीं अधिक करते हैं; ढोल विशिष्ट संदेश व्यक्त कर सकते हैं।
ऐसे संदेश गाँव-गाँव भेजे जा सकते हैं। कुछ ढोल आठ से ग्यारह किलोमीटर की दूरी तक सुने जा सकते थे, ख़ासकर यदि वे रात को एक तैरती नाव या पहाड़ी के ऊपर से बजाए जाते थे। दूरवाले ढोलकिये सुनते थे, समझते थे, और दूसरों को संदेश पहुँचा देते थे। अंग्रेज़ यात्री ए. बी. लॉइड ने १८९९ में लिखा: “मुझे बताया गया कि एक गाँव से दूसरे गाँव तक, १६० किलोमीटर से अधिक दूरी तक, एक संदेश को दो घंटे से कम समय में भेजा जा सकता है, और मैं मानता हूँ कि यह उससे भी कम समय में हो सकता है।”
इस २०वीं शताब्दी में भी काफ़ी समय तक, जानकारी पहुँचाने में ढोल एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे। १९६५ में प्रकाशित पुस्तक अफ्रीका के संगीत वाद्य (अंग्रेज़ी) ने कहा: “बोलते ढोल टॆलिफ़ोन और टॆलिग्राफ़ की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। सभी तरह के संदेश भेजे जाते हैं—जन्म, मृत्यु, और विवाह की घोषणा; खेल समाचार, नृत्य, और दीक्षा संस्कार, सरकारी संदेश, और युद्ध। कभी-कभी ढोल से गप्पें या चुटकुले भी भेजे जाते हैं।”
लेकिन ढोल कैसे बोलते थे? यूरोप और अन्य स्थानों में, संदेश टॆलिग्राफ़ तारों पर विद्युत तरंगों के द्वारा भेजे जाते थे। वर्णमाला के हर अक्षर को एक कोड दिया जाता था ताकि शब्द और वाक्य एक-एक अक्षर करके बनाए जा सकें। लेकिन, केंद्रीय अफ्रीका के लोगों के पास कोई लिखित भाषा नहीं थी, सो ढोल शब्दों की पहचान नहीं कराते थे। अफ्रीकी ढोलकिये एक अलग ढंग इस्तेमाल करते थे।
ढोल की भाषा
अफ्रीकी भाषाओं को समझना ही ढोल संचार समझने की कुंजी है। केंद्रीय और पश्चिम अफ्रीका की अनेक भाषाएँ मूलतः द्विस्वर-संबंधी हैं—प्रत्येक मौखिक शब्द के हर अक्षर का दो मूल स्वरों में से एक स्वर होता है, या तो ऊँचा या नीचा। स्वर में बदलाव शब्द को बदल देता है। उदाहरण के लिए, शब्द लीसाका पर विचार कीजिए जो ज़ाएर की कलि भाषा से है। जब तीनों अक्षर नीचे स्वर में उच्चारित किए जाते हैं तब शब्द का अर्थ है “कीचड़ या दलदल”; अक्षरों के नीचे-नीचे-ऊँचे उच्चारण का अर्थ “प्रतिज्ञा” है; नीचे-ऊँचे-ऊँचे स्वर का अर्थ है “ज़हर।”
संदेश पहुँचाने के लिए इस्तेमाल किए गए अफ्रीकी विदर-ढोल में भी दो स्वर होते हैं, ऊँचा और नीचा। उसी तरह, जब चमड़ा-मढ़े ढोल एक संदेश भेजते हैं, तब उन्हें जोड़े में इस्तेमाल किया जाता है। एक ढोल का ऊँचा स्वर होता है और दूसरे का स्वर नीचा। अतः, एक कुशल ढोलकिया शब्दों की उस स्वर-शैली की नक़ल करने के द्वारा संचार करता है जिससे मौखिक भाषा बनी है। पुस्तक अफ्रीका के बोलते ढोल (अंग्रेज़ी) कहती है: “यह तथाकथित ढोल भाषा मूलतः उस जाति की मौखिक भाषा के समान है।”
निःसंदेह, द्विस्वर-संबंधी भाषा में सामान्यतः अनेक ऐसे शब्द होते हैं जिनके स्वर और अक्षर समान होते हैं। उदाहरण के लिए, कलि भाषा में, क़रीब १३० संज्ञाओं की वही स्वर-शैली (ऊँचा-ऊँचा) है जो शान्गो (पिता) की है। २०० से अधिक शब्दों की वही शैली (नीचा-ऊँचा) है जो न्यान्गो (माता) की है। गड़बड़ी से बचने के लिए, ढोलकिये ऐसे शब्दों का संदर्भ बताते हैं। वे उन्हें किसी ऐसे जाने-पहचाने संक्षिप्त पद में सम्मिलित करते हैं जिसमें काफ़ी उतार-चढ़ाव हो जिससे कि सुननेवाले को समझ में आए कि क्या कहा जा रहा है।
विदर-ढोल से बोलना
एक क़िस्म का बोलता ढोल है लकड़ी का विदर-ढोल। (पृष्ठ २३ पर तसवीर देखिए।) ऐसे ढोल पेड़ के एक लट्ठे को खोखला करके बनाए जाते हैं। उसके दोनों सिरों पर चमड़ा नहीं चढ़ा होता। हालाँकि इस तसवीर के ढोल में दो विदर हैं, अनेक ढोलों में सिर्फ़ एक लंबा विदर होता है। विदर के एक सिरे पर चोट करने से ऊँचा स्वर उत्पन्न होता है; दूसरे सिरे पर चोट नीचा स्वर उत्पन्न करती है। विदर-ढोल आम तौर पर क़रीब एक मीटर लंबे होते हैं, जबकि वे आधे मीटर के या दो मीटर के भी हो सकते हैं। उनका व्यास २० सॆंटीमीटर से लेकर एक मीटर तक हो सकता है।
विदर-ढोल सिर्फ़ गाँव-गाँव संदेश भेजने के लिए नहीं, और भी बातों के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। कैमरून के एक लेखक, फ्रानसिस बिबे ने दंगल में इन ढोलों की भूमिका का वर्णन किया। जब दो विरोधी दल गाँव के अखाड़े में भिड़ने की तैयारी करते, तब उस्ताद विदर-ढोल की धुनों पर नाचते और ढोल उनकी स्तुति गा रहे होते। एक पक्ष का ढोल कहता: “उस्ताद, क्या आपको कभी अपनी बराबरी का कोई मिला है? कौन ठहर सकता है आपके सामने, हमें बताइए कौन? ये बेचारे . . . सोचते हैं कि किसी लल्लू से जिसे वे उस्ताद मानते हैं, आपको हरा सकते हैं . . . लेकिन आपको कोई कभी नहीं हरा सकता।” विपक्ष के खेमे में संगीतकार इस हलकी-फुलकी तानाकशी को समझ जाते और जल्दी से एक कहावत-जैसे जवाब का ढोल बजाते: “यह छोटा बंदर . . . , यह छोटा बंदर . . . यह पेड़ पर चढ़ना चाहता है लेकिन सब लोग सोचते हैं कि यह गिर जाएगा। लेकिन यह छोटा बंदर ज़िद्दी है, यह पेड़ से नहीं गिरेगा, यह एकदम ऊपर चढ़ जाएगा, यह छोटा बंदर।” जब तक दंगल चलता, ढोल मनोरंजन करते रहते।
वे ढोल जो सबसे अच्छा बोलते हैं
दबाव ढोल एक क़दम बढ़कर हैं। जो ढोल आपको दायीं ओर की तसवीर में दिखता है उसे डूनडून कहा जाता है; यह नाइजीरिया से, विख्यात योरूबा बोलता ढोल है। यह ढोल रेतघड़ी के आकार का होता है और इसके दोनों सिरों पर बकरी का पतला चमड़ा चढ़ा होता है। सिरों को चमड़े की पट्टियों से जोड़ा जाता है। जब पट्टियों को दबाया जाता है तब ढोल-सिरों पर तनाव बढ़ता है जिससे कि यह आठ या अधिक स्वर उत्पन्न कर सकता है। एक टेढ़ी डंडी का इस्तेमाल करने और ध्वनियों के सुर-ताल को बदलने के द्वारा, एक कुशल ढोलकिया मानव स्वर के उतार-चढ़ाव की नक़ल कर सकता है। इस प्रकार ढोलकिये दूसरे ढोलकियों के साथ “बातचीत” कर सकते हैं जो ढोल भाषा को समझ सकते और बजा सकते हैं।
ढोल का इस्तेमाल करके संचार करने की ढोलकियों की उल्लेखनीय क्षमता को मई १९७६ में एक योरूबा मुखिया के दरबारी संगीतकारों ने प्रदर्शित किया। दर्शकों में से कुछ लोगों ने मुख्य ढोलकिये को फुसफुसाकर अनेक निर्देश दिए और फिर ढोलकिये ने वे निर्देश दरबार से दूर बैठे दूसरे संगीतकार को ढोल बजाकर बता दिए। बजाए गए निर्देशों का पालन करते हुए, वह संगीतकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर गया और उसने वही काम किए जो उससे करने के लिए कहे गए थे।
ढोल बजाकर संदेश भेजना सीखना आसान नहीं है। लेखक आइ. लाओयी ने कहा: “योरूबा ढोल बजाना एक जटिल और कठिन कला है जो अनेक वर्षों के अध्ययन की माँग करती है। ढोलकिये के पास न केवल बड़ा हस्त-कौशल और ताल का बोध होना चाहिए, परंतु कविता और नगर के इतिहास की अच्छी याददाश्त भी होनी चाहिए।”
हाल के दशकों में अफ्रीकी ढोल उतना नहीं बोलते जितना कि वे बोला करते थे, हालाँकि संगीत में अभी-भी उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पुस्तक अफ्रीका के संगीत वाद्य कहती है: “ढोल पर संदेश बजाना सीखना अत्यधिक कठिन है; इसलिए, यह कला अफ्रीका से तेज़ी से लुप्त हो रही है।” समाचार विशेषज्ञ रॉबर्ट निकल्स इसी पर आगे कहता है: “अतीत के बड़े-बड़े ढोल, जिनकी आवाज़ मीलों तक जाती थी और जिनका एकमात्र काम था संदेश पहुँचाना, अवश्य ही लुप्त होनेवाले हैं।” आजकल अधिकतर लोग टॆलिफ़ोन का इस्तेमाल करना अधिक सुविधाजनक पाते हैं।
[पेज 19 पर तसवीरें]
विदर-ढोल
[पेज 19 पर तसवीरें]
योरूबा बोलता ढोल