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सजग होइए!–1997
g97 11/8 पेज 20-24

एक हाँडी चरबी से सबक़

युद्ध की खौफ़नाक बातें मेरी कुछ पहली यादें हैं, ख़ासकर उस समय की जब दूसरे विश्‍वयुद्ध के अंत के समय हम अपनी जान बचाकर भाग रहे थे, और तब मैं केवल चार बरस का था। सात जनों का हमारा परिवार पूर्वी प्रशया में रह रहा था जो उस समय जर्मनी का एक भाग था।

मैं डरावने अंधेरे को ताक रहा था, और पास आ रहे रूसी बमवर्षकों के सैन्य दस्ते को सुन रहा था। अचानक, कुछ सौ गज दूर चकाचौंध करनेवाली कौंधों तथा कानफोड़ू विस्फोटों ने ईंधन से भरे टैंकों को आग लगा दी। जिस रेलगाड़ी पर हम सवार थे, वह अपनी पटरियों पर हिलने लगी, और लोग चीखने-चिल्लाने लगे। लेकिन जल्द ही बमवर्षक लौट गए, और हमारा सफ़र आगे बढ़ चला।

एक अन्य मौक़े पर मैं झपकी ले रहा था और उठकर देखा कि एक स्त्री चीख रही थी और माल-डिब्बे से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी जिस पर हम सवार थे। पिताजी ने उसे रोका और उसे फिर से अंदर खींच लिया। वह औरत दरवाज़े के पास ही अपनी गोद में अपने बच्चे को लिए हुए सो गयी थी। उठने पर उसने पाया कि उसका बच्चा अत्यधिक ठंड से जमकर मौत के आग़ोश में सो चुका था। लोगों ने लाश को हिम में फेंक दिया, और अत्यधिक दुःख के मारे, वह माँ अपने बच्चे के साथ अपनी जान दे देने के लिए दरवाज़ा खोलकर बाहर कूदने की कोशिश कर रही थी।

कड़ाके की ठंड से बचने के लिए, हमारे माल-डिब्बे के बीचोंबीच एक गोलाकार स्टोव रखा गया था। डिब्बे के एक कोने पर रखे गए लकड़ियों के छोटे-से ढेर को आलू पकाने के लिए ज़रूरत के मुताबिक़ इस्तेमाल किया जाता था। आलू से भरी थैलियाँ हमारे लिए बिस्तर के तौर पर भी काम आतीं, क्योंकि उन पर सोने से डिब्बे के ठंडे फ़र्श से थोड़ी-बहुत सुरक्षा मिलती थी।

हम अपनी जान बचाने की ख़ातिर क्यों भाग रहे थे? शरणार्थियों के तौर पर हमारा परिवार महीनों कैसे जीवित रहा? मेरी कहानी सुनोगे?

यहूदी धरोहर

मेरा जन्म लिक, पूर्वी प्रशया (अब एल्क, पोलैंड) में दिसंबर २२, १९४० को हुआ—मैं पाँच बच्चों में सबसे छोटा हूँ। सन्‌ १७०० के अंतिम भाग में, धार्मिक सताहट ने मेरे यहूदी पूर्वजों को जर्मनी छोड़ने पर मज़बूर किया। वे इतिहास के एक बड़े समूह प्रव्रजन में रूस आए। फिर, १९१७ में, उस समय रूस की यहूदी जाति के विरुद्ध सताहट से बचने के लिए, मेरे यहूदी दादाजी ने वोल्गा नदी के पास अपने गाँव से पूर्वी प्रशया को प्रव्रजन किया।

दादाजी ने जर्मन नागरिकता प्राप्त की, और उन्हें पूर्वी प्रशया एक सुरक्षित आशियाना लगा। जिनका पहला नाम यहूदी था उन्होंने आर्य नाम अपनाया। इस प्रकार, मेरे पिताजी फ्रीडरिक ज़ॉलोमॉन, फ्रिट्‌ज़ के नाम से जाने जाने लगे। दूसरी ओर, मेरी माँ प्रशयावासी थीं। उनका और मेरे पिताजी का, जो कि एक संगीतकार थे, विवाह १९२९ में संपन्‍न हुआ।

मेरे माता-पिता की ज़िंदगानी ख़ुशियों और उमंगों से भरी हुई थी। दादीमाँ फ्रेडॆरीका और परनानीमाँ विलहॆलमीना के पास एक अच्छा-ख़ासा फ़ार्म था। यह फ़ार्म मेरे माता-पिता तथा हम बच्चों के लिए एक और घर साबित हुआ। हमारे पारिवारिक जीवन में संगीत ने ख़ासी भूमिका निभायी। माँ, पिताजी के नृत्य टोली में ड्रम बजाती थीं।

नात्सी क़ब्ज़ा

सन्‌ १९३९ में, राजनैतिक क्षितिज पर काले बादल छाने लगे। यहूदी समस्या के लिए एडॉल्फ हिटलर का तथाकथित अंतिम हल मेरे माता-पिता को बेचैन करने लगा। हम बच्चों को अपनी यहूदी धरोहर का इल्म नहीं था, और हमने १९७८ में माँ की मौत तक—पिताजी के गुज़र जाने के नौ साल बाद—इसके बारे में नहीं जाना।

कोई यह न शक करे कि पिताजी यहूदी थे, इसलिए वे जर्मन सेना में भर्ती हो गए। शुरू-शुरू में उन्होंने संगीत दल में काम किया। लेकिन, किसी ऐसे व्यक्‍ति ने जो स्पष्टतया उनकी पृष्ठभूमि से वाक़िफ़ था, कहा कि वे यहूदी थे, और इसलिए हमारे पूरे परिवार से सवालात किए गए तथा हमारी तसवीर खींची गयी। नात्सी अधिकारियों ने यह निर्धारित करने की कोशिश की कि हम यहूदी दिखते थे या नहीं। हम शायद बहुत-कुछ आर्यों की तरह दिखे होंगे, सो ख़ुशी की बात है कि हमें न तो गिरफ़्तार किया गया ना ही क़ैद में रखा गया।

सितंबर १, १९३९ के रोज़ जब जर्मनी ने पोलैंड पर हमला बोल दिया, तब हमारे पहले के शांतिपूर्ण क्षेत्र में डर का माहौल छाने लगा। माँ तत्काल किसी ज़्यादा सुरक्षित इलाक़े में जाना चाहती थीं, लेकिन नात्सी अधिकारियों ने हमारे परिवार को ऐसा करने से जबरन रोका। फिर, सन्‌ १९४४ की गर्मियों में जब रूसी सेना पूर्वी प्रशया की ओर कूच करने लगी, तब जर्मनवासियों ने लिक और उसके आस-पास के इलाक़े को खाली करने की ठान ली। जुलाई में एक रोज़, हमें अपना घर खाली करने के लिए बस छः घंटे दिए गए।

आतंकित होकर सामूहिक पलायन

माँ स्तब्ध थीं। क्या लेकर जाएँ? कहाँ जाएँ? कैसे सफ़र करें? क्या हम कभी वापस आएँगे? हरेक परिवार को कितना लेकर जाना था, इस पर कड़ा प्रतिबंध था। माँ ने बुद्धिमानी से मूल वस्तुएँ चुनीं—जिसमें बेकन के टुकड़ों के साथ बीफ़ की चरबी का एक बड़ा मरतबान शामिल था—बस इतना जितना कि हम आराम से साथ ले जा सकें। दूसरे परिवारों ने अपनी क़ीमती भौतिक संपत्ति लेने का चुनाव किया।

अक्‍तूबर २२, १९४४ के रोज़, रूसी सैन्य दलों ने पूर्वी प्रशया में प्रवेश किया। एक लेखक ने समझाया: “यह बहुत स्वाभाविक था कि रूसी सेना की रग-रग में बदले की भावना दौड़ रही थी, क्योंकि उन्होंने अपने परिवारों का क़त्ल होते हुए तथा अपने घर-बार और फसलों को ख़ाक में मिलते हुए देखा था।” विध्वंस से तमाम पूर्वी प्रशया को प्रघाती झटके लगे और लोग आतंक के मारे आनन-फ़ानन भागे।

तब तक हम शरणार्थी हो गए थे, और पूर्वी प्रशया के सुदूर पश्‍चिम में रहते थे। एकमात्र बचाव मार्ग अब बाल्टिक सागर से ही नज़र आता था, सो लोग डॉनसिग के बंदरगाह शहर (अब गडॉनस्क, पोलैंड) की ओर भागे। वहाँ, अपातकालीन बचाव कार्यों के लिए जहाज़ों पर क़ब्ज़ा किया गया। हमसे वह रेलगाड़ी छूट गयी जो हमारे परिवार को विलहॆल्म गुस्टलोफ नामक जर्मन सवारी जहाज़ पर चढ़ने के लिए ले जानेवाली थी। यह जर्मन सवारी जहाज़ डॉनसिग के पास के गडिनीया से जनवरी ३०, १९४५ को रवाना हुआ। हमें बाद में मालूम हुआ कि रूसी टारपीडो ने उस जहाज़ को डूबो दिया और कुछ ८,००० सवारियों ने उस बर्फीले पानी में जलसमाधि ली।

समुद्र से बचाव मार्ग के बंद पड़ जाने के कारण, हमने पश्‍चिम की ओर रुख किया। सेना से कुछ समय के लिए अवकाश के वक़्त, रेल से कुछ सफ़र के लिए पिताजी हमारे साथ हो लिए, जैसे की आरंभ में वर्णन किया गया है। जल्द ही उन्हें सैन्य सेवा के लिए लौटना पड़ा, और हम लंबे, जोखिम-भरे सफ़र को अपने आप ही तय करने लगे। माँ ने चरबी की हाँडी की रखवाली की, और हर बार थोड़ा-थोड़ा करके हमें देतीं। रास्ते में जो भी बचा-खुचा खाना हम बटोर लिया करते, उसके साथ इसको मिला लिया करते और इसने हमें लंबे, ठंडे जाड़े के दौरान ज़िंदा रखा। चरबी की वह हाँडी किसी भी सोने-चाँदी से कहीं ज़्यादा मूल्यवान साबित हुई!

आख़िरकार, हम स्टारगार्ड नगर पहुँचे, जहाँ जर्मन सैनिक और रेड क्रॉस ने रेलवे स्टेशन के नज़दीक एक सूप किचन खड़ा किया था। भूख से तिलमिला रहे किसी बच्चे के लिए यह सूप मानो अमृत था। कुछ समय बाद, हम भूखे-प्यासे और थके-मांदे हैमबर्ग, जर्मनी पहुँचे लेकिन शुक्रगुज़ार थे कि हम जीवित थे। हमें एलबॆ नदी के पासवाले फ़ार्म में रूसी व पोलिश युद्ध-बंदियों के साथ रखा गया। जब यूरोप में मई ८, १९४५ को युद्ध समाप्त हो गया, तब हमारी स्थिति बहुत ही विकट थी।

शरणार्थियों के रूप में ज़िंदगी

पिताजी को अमरीकियों ने बंदी बना लिया था, और उन्होंने उनकी अच्छी ख़ातिरदारी की, ख़ासकर जब उन्हें मालूम हुआ कि वे एक संगीतकार थे। उन्होंने उनकी संगीत कुशलता को अपने स्वतंत्रता दिवस समारोह में इस्तेमाल किया। उसके कुछ समय बाद, वे फ़रार होकर हैमबर्ग पहुँच पाए, जहाँ हमारा सुखद पुनर्मिलन हुआ। हम एक छोटे-से घर में बस गए, और जल्द ही हमारी दादीमाँ व नानीमाँ सही-सलामत पहुँच गयीं और हमारे साथ रहने लगीं।

लेकिन समय के गुज़रते, स्थानीय निवासी, जिनमें हमारा अपना लूथरॆन चर्च भी शामिल था, अनेक शरणार्थियों से चिढ़ने लगे। एक शाम पादरी हमारे परिवार से मिलने आए। ऐसा लगा कि उन्होंने शरणार्थियों के रूप में हमारी दीन स्थिति के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने के द्वारा जानबूझकर नाराज़गी पैदा की। पिताजी, जिनका बलिष्ठ शरीर था, बौखला गए और प्रचारक पर टूट पड़े। हमारी माँ तथा दादीमाँ व नानीमाँ ने पिताजी को रोका। लेकिन तब वे उस पादरी को ज़मीन से उठाकर दरवाज़े तक ले गए, और उसे बाहर ढकेल दिया। तब से उन्होंने अपनी छत तले धर्म की किसी भी चर्चा को वर्जित कर दिया।

इस वाक़िये के कुछ ही समय बाद, पिताजी को जर्मन रेलवे में रोज़गार मिला और हम हैमबर्ग के पास स्थानांतरित हो गए, जहाँ हम एक बेकार पड़े रेलगाड़ी के डिब्बे में रहने लगे। बाद में, पिताजी ने हमारे लिए एक छोटा-सा मकान बनाया। लेकिन शरणार्थियों के प्रति नफ़रत जारी रही, और एक बालक के रूप में, मैं स्थानीय बच्चों का निशाना बना जो मुझसे काफ़ी शारीरिक और भावात्मक दुर्व्यवहार करते।

हमारे परिवार ने जो धर्म चुना

बालक के तौर पर, मैं कमरे में अपनी दादीमाँ व नानीमाँ के साथ सोता। पिताजी के आदेश के बावजूद, जब पिताजी आस-पास नहीं होते, तो वे दोनों अकसर परमेश्‍वर के बारे में मेरे साथ बात करतीं, स्तोत्र-गीत गातीं, और अपनी बाइबलें पढ़तीं। मेरी आध्यात्मिक अभिरुचि जग गयी। सो जब मैं दस बरस का था, मैं रविवार को गिरजे में उपस्थित होने के लिए एक तरफ़ा लगभग ग्यारह किलोमीटर तय करने लगा। लेकिन, मुझे कहना होगा कि मैं निरुत्साहित हो गया जब मेरे अनेक सवालों के संतुष्टिदायक जवाब नहीं मिले।

फिर, सन्‌ १९५१ की गर्मियों में, अच्छे कपड़े पहने एक भद्र व्यक्‍ति ने हमारे दरवाज़े पर दस्तक दी और माँ को प्रहरीदुर्ग पत्रिका की एक प्रति पेश की। “प्रहरीदुर्ग परमेश्‍वर के राज्य के बारे में अंतर्दृष्टि देती है,” उन्होंने कहा। मैं उछल पड़ा, क्योंकि मैंने इसी की तमन्‍ना की थी। माँ ने शिष्टतापूर्वक नकार दिया, बेशक धर्म के प्रति पिताजी के विरोध को मद्देनज़र रखते हुए। लेकिन, मैंने उनसे इतनी याचना की कि वे मान गयीं और उन्होंने मेरे लिए एक प्रति ले ली। कुछ समय बाद, एरनॆस्ट हिबिंग लौटे और “परमेश्‍वर सच्चा ठहरे” (अंग्रेज़ी) पुस्तक छोड़ गए।

लगभग इसी समय, कार्यस्थल पर पिताजी की दुर्घटना हो गयी और उनका पैर टूट गया। इसका मतलब था कि वे घर की चारदीवारी में क़ैद हो गए, जो उन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं था। हालाँकि उनके पैर पर पलस्तर चढ़ा हुआ था, वे थोड़ा-बहुत चल पाते। हम हैरान थे कि वे दिन के दौरान ग़ायब रहते, और केवल भोजन के वक़्त हाज़िर हो जाते। पूरा सप्ताह यूँ ही चलता रहा। मैंने ग़ौर किया कि जब-जब पिताजी नदारद होते, तब-तब मेरी पुस्तक भी नदारद होती। फिर एक दिन भोजन के वक़्त पिताजी ने मुझसे कहा: “यदि वह व्यक्‍ति फिर से आए, तो मैं उससे मिलना चाहता हूँ!”

जब भाई हिबिंग लौटे, तो हम हैरान हो गए क्योंकि पिताजी ने पुस्तक को मेज़ पर धम्म्‌ से रखा और कहा: “इस पुस्तक में ही सच्चाई है!” फ़ौरन एक बाइबल अध्ययन की शुरूआत हुई, और समय के गुज़रते परिवार के अन्य सदस्य भी अध्ययन में शामिल हो गए। भाई हिबिंग मेरे भरोसेमंद सलाहकार और सच्चे दोस्त बन गए। अपने नवप्राप्त विश्‍वासों को बाँटने की कोशिश करने के लिए मुझे जल्द ही संडे स्कूल से निकाल दिया गया। सो मैंने लूथरॆन चर्च से इस्तीफ़ा दे दिया।

जुलाई सन्‌ १९५२ में, मैं अपने प्रिय मित्र के साथ घर-घर परमेश्‍वर के राज्य के सुसमाचार के प्रचार में हिस्सा लेने लगा। हर रविवार, भाई हिबिंग मुझे सलाह देते कि मैं यह ध्यान से सुनूँ कि वे गृहस्वामियों को किस प्रकार संदेश प्रस्तुत करते हैं। कुछ सप्ताहों के बाद, उन्होंने मुझे कुछ इमारतों की ओर इशारा करते हुए कहा: “वे सब तुम्हारी हैं, अपने आप काम करो।” समय के गुज़रते, मैंने अपनी घबराहट पर जीत हासिल की और लोगों से बात करने तथा उन्हें बाइबल साहित्य देने में अच्छी क़ामयाबी पायी।

जल्द ही, मैं यहोवा के प्रति अपने समर्पण के प्रतीक में बपतिस्मा लेने के क़ाबिल हो गया। पिताजी और मैंने, दोनों मार्च २९, १९५३ के रोज़ बपतिस्मा लिया, और बाद में उसी साल माँ ने भी बपतिस्मा लिया। आख़िरकार, हमारे परिवार के सभी सदस्यों ने बपतिस्मा लिया, जिसमें मेरी दीदी एरीका; मेरे भैय्या हाइन्ट्‌स, हर्बर्ट, और वरनर; और हमारी अति प्रिय दादीमाँ व नानीमाँ शामिल थीं जो तब तक अपनी ८० आदि के अंत में थीं। फिर, जनवरी सन्‌ १९५९ में मैं पायनियर बना, जैसे पूर्ण-समय सेवकों को कहा जाता है।

एक नए देश में सेवकाई

पिताजी ने जर्मनी छोड़ने के लिए मुझसे हमेशा आग्रह किया था, और विचार करने पर मैं मानता हूँ कि ऐसा यहूदी जाति के ख़िलाफ़ नफ़रत के बारे में उनके लगातार डर की वज़ह से था। मैंने ऑस्ट्रेलिया जाने की अर्जी दी, इस आशा में कि यह पपुआ न्यू गिनी या प्रशांत महासागर के किसी अन्य द्वीप में मिशनरी के तौर पर सेवा करने की ओर पहला क़दम होगा। मेरा भाई वरनर और मैं जुलाई २१, १९५९ के रोज़ साथ में मॆलबर्न, ऑस्ट्रेलिया पहुँचे।

कुछ ही सप्ताहों के अंदर, मेरी मुलाक़ात मॆलवा पीटर्स से हुई, जो फुट्‌सक्रे कलीसिया में पूर्ण-समय के सेवक के तौर पर सेवा कर रही थीं, और हम १९६० में विवाहसूत्र में बंध गए। हमें परमेश्‍वर की बदौलत दो बेटियाँ हुईं। ये दोनों भी यहोवा परमेश्‍वर से प्रेम करने लगीं और अपना जीवन उसे समर्पित किया। हमने अपने जीवन को सीधा-सादा रखने की लाख कोशिश की है ताकि एक परिवार के तौर पर हम आध्यात्मिक लक्ष्यों में पूरी तरह लगे रह सके। कई सालों तक, मॆलवा ने पायनियर के तौर पर सेवा की जब तक कि स्वास्थ्य समस्याएँ उसके आड़े न आयीं। फ़िलहाल मैं कैनबर्रा शहर की बॆलकोनॆन कलीसिया में एक प्राचीन और पायनियर हूँ।

मेरे बचपन के अनुभवों से, मैंने यहोवा के प्रबंधों से ख़ुश और संतुष्ट रहना सीखा है। जैसे माँ की एक हाँडी चरबी द्वारा सचित्रित किया गया, मैंने इस बात को समझा है कि जीवन, सोने-चाँदी से नहीं, बल्कि मूलभूत भौतिक ज़रूरतों से, और सबसे बढ़कर, परमेश्‍वर के वचन, बाइबल के अध्ययन और इसके शिक्षणों के अनुप्रयोग से क़ायम रहता है।—मत्ती ४:४.

यीशु की माँ, मरियम के अर्थपूर्ण शब्द वाक़ई सच हैं: “[यहोवा] ने भूखों को अच्छी वस्तुओं से तृप्त किया, और धनवानों को छूछे हाथ निकाल दिया।” (लूका १:५३) ख़ुशी की बात है, मेरे परिवार के ४७ सदस्य बाइबल सच्चाई के मार्ग पर चल रहे हैं, जिसमें सात पोते-पोतियाँ शामिल हैं। (३ यूहन्‍ना ४) इन सब के साथ, साथ ही अपने अनेक आध्यात्मिक बच्चों व पोते-पोतियों के साथ, मॆलवा और मैं यहोवा की कोमल परवाह में एक सुरक्षित बढ़िया भविष्य की, और अपने अन्य प्रिय मृतजनों के पुनरुत्थान पर उनसे बढ़िया पुनर्मिलन का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं।—कुर्ट हान द्वारा बताया गया।

[पेज 21 पर तसवीर]

पूर्वी प्रशया में १९४४ में कूच कर रहे रूसी सैन्य दल

[चित्र का श्रेय]

Sovfoto

[पेज 23 पर तसवीर]

मेरे भैय्या हाइन्ट्‌स, दीदी एरीका, माँ, भैय्या हर्बर्ट और वरनर, और मैं आगे में

[पेज 24 पर तसवीर]

अपनी पत्नी, मॆलवा के संग

[पेज 24 पर तसवीर]

चरबी से भरी इस तरह की एक हाँडी ने हमें ज़िंदा रखा

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