शांति स्थापित करनेवाले या शांति भंग करनेवाले?
“किसी मसीही को युद्ध में भाग नहीं लेना चाहिए।” युद्ध के बारे में पहले के मसीही क्या सोचते थे इसका सार हमें इस कथन से मिलता है और ऐसा तोको और मालूसी म्पुलवाना ने वर्ल्ड काउंसल ऑफ चर्चस (WCC) द्वारा प्रकाशित होनेवाली एकोस (अंग्रेज़ी) पत्रिका में कहा। वे आगे कहते हैं कि “जब से मसीही चर्च राजनैतिक सरकार के साथ हाथ मिलाने लगे” तब से ही चर्च यह कहकर “युद्ध के लिए हामी भरने लगे कि यह ज़रूरी है।” इसका अंजाम क्या हुआ? सदियों से युद्धों में मसीहीजगत का हाथ रहा है। यह बात इतनी साफ जाहिर हो गयी है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान के यूनाइटड चर्च ऑफ क्राइस्ट ने महसूस किया कि उन्हें एक चर्च के तौर पर यह “स्वीकार करना चाहिए कि वे दूसरे विश्व युद्ध के लिए कसूरवार हैं।”
आज, उस युद्ध के कुछ ५० साल बाद भी, मसीहीजगत की युद्ध करने की प्रवृत्ति में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। चर्च ऑफ इंग्लैंड के लिए काम करनेवाला डॉ. रॉजर विल्यमसन कहता है कि “अगर हम यह पूछें कि युद्ध के लिए जो दलीलें दी गयी थीं, उसका क्या हमने मसीही होने के नाते दृढ़तापूर्वक विरोध किया और मसीह के प्रेम को स्वीकार किया है, तो लगता है कि हमें . . . बहुत-सी बातों के लिए अपने कसूर को स्वीकार करना होगा।” विल्यमसन कहता है कि हालाँकि WCC ने १९४८ में यह घोषणा की कि “युद्ध, विवादों को निपटाने का एक ऐसा तरीका है जो हमारे प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं और आदर्श से मेल नहीं खाता,” फिर भी मसीहीजगत के चर्चों ने “लोगों को कट्टर बनाया है, दूसरे धर्मों को मान्यता नहीं दी है, मानव स्वतंत्रता पर बंदिशें लगायी हैं और लड़ाइयों को और भी घमासान कर दिया है।” इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वह इस नतीजे पर पहुँचता है कि “धर्म . . . अकसर लड़ाई-झगड़ों को मिटाने के बजाय आग में तेल डालता है।”
भूतपूर्व यूगोस्लाविया को बरबाद कर देनेवाला युद्ध इसका अच्छा उदाहरण है। सालों से वहाँ अन्याय और क्रूरताएँ हो रही हैं। फिर भी, वहाँ के चर्चों को इन सब के खिलाफ मिलकर एक बुलंद आवाज़ उठाना बहुत ही मुश्किल लगा है। ऐसा क्यों? डॉ. विल्यमसन कहता है कि हालाँकि वे कहते हैं कि वे मसीही हैं, फिर भी सर्बिया और क्रोएशिया के पादरियों में आपस में उतनी ही फूट है जितनी उनके देश के नेताओं में है। उन देशों में, साथ ही दूसरे देशों में भी मसीहीजगत के पादरी, चाहे वे कैथोलिक, ऑर्थोडॉक्स या प्रोटॆस्टेंट हों, शांति स्थापित करनेवाले नहीं, बल्कि “अपने-अपने धर्म की तरफदारी करनेवाले” बनकर काम करते हैं। हालाँकि अब WCC में ३०० से ज़्यादा चर्च हैं, डॉ. विल्यमसन स्वीकार करता है कि “ताज्जुब की बात है कि ऐसे चर्चों की मिसाल मिलना बहुत ही कठिन है जो असल में . . . शांति स्थापित करते हैं।”
कठिन तो है। लेकिन WCC के सदस्य-चर्चों से भिन्न, जो मेल-मिलाप करने की सिर्फ बात करते हैं, एक ऐसा धर्म मौजूद है जिसने पहले ही अलग-अलग धर्मों के लोगों में मेल-मिलाप करने में सफलता पायी है और वह उन्हें सच्चे मसीही बनने में मदद करता है। आज, २३३ देशों में रहनेवाले ५६ लाख से ज़्यादा यहोवा के साक्षी परमेश्वर से प्रेम करते हैं और ‘सब से मेल मिलाप रखना’ चाहते हैं। इसकी वज़ह से, वे लोग राष्ट्रों के युद्ध में भाग लेने से इंकार करते हैं—चाहे ये लड़ाइयाँ उत्तरी आयरलैंड, एशिया, मध्य पूर्व, भूतपूर्व यूगोस्लाविया, रुवाण्डा जैसे देशों में हों या लैटिन अमरीका में। (इब्रानियों १२:१४; मत्ती २२:३६-३८) इसके बजाय, वे बाइबल की इस भविष्यवाणी को पूरा कर रहे हैं कि ‘वे अपनी तलवारें पीटकर हल के फाल बनाएंगे’ और “आगे को युद्ध-विद्या न सीखेंगे।”—मीका ४:३, ४.
[पेज 31 पर तसवीर]
अफ्रीका में रहनेवाले यहोवा के कुछ साक्षियों को राजनैतिक दल में किसी का पक्ष न लेने के कारण बुरी तरह पीटा गया है या फिर उन्हें शरणार्थी बनना पड़ा है