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  • क्या सारे प्राणियों का पूर्वज एक ही है?

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  • क्या सारे प्राणियों का पूर्वज एक ही है?
  • जीवन की शुरूआत, पाँच सवाल—जवाब पाना ज़रूरी
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जीवन की शुरूआत, पाँच सवाल—जवाब पाना ज़रूरी
lf सवाल 4 पेज 22-29

सवाल 4

क्या सारे प्राणियों का पूर्वज एक ही है?

चार्ल्स डार्विन ने “जीवन के पेड़” की शुरूआत की जिसमें दिखाया है कि सारे प्राणियों का पूर्वज एक ही है

डार्विन ने सोचा कि शायद धरती के सारे प्राणियों का पूर्वज एक ही है। इसे समझाने के लिए उसने जीवन के क्रम-विकास की तुलना एक विशाल पेड़ से की। बाद में, दूसरे मानने लगे कि इस “जीवन के पेड़” की शुरूआत सबसे पहले पेड़ के तने यानी सरल कोशिकाओं से हुई। इस तने से मुख्य शाखाएँ यानी नए जीव-जंतु बने। फिर शाखाओं से छोटी-छोटी डालियाँ यानी पेड़-पौधों और जानवरों के कुल बने। उन डालियों से टहनियाँ यानी आज जीवित सारे पेड़-पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ बनीं। क्या असल में यही हुआ था?

कई वैज्ञानिक क्या दावा करते हैं? कई वैज्ञानिक सिखाते हैं कि जीवाश्‍मों या फॉसिल (प्राणियों की हड्डियों के अवशेष) से यह सिद्धांत साबित होता है कि जीवन एक ही पूर्वज से आया है। वे यह भी दावा करते हैं कि सभी जीवित प्राणी एक ही तरह की “कंप्यूटर भाषा” यानी डी.एन.ए. का इस्तेमाल करते हैं, इसलिए यह सच है कि सारे प्राणियों का विकास एक ही पूर्वज से हुआ है।

बाइबल क्या कहती है? उत्पत्ति में दिया ब्यौरा बताता है कि पेड़-पौधे, समुद्री जीव, धरती के जानवर और पक्षी “एक एक की जाति के अनुसार” बनाए गए। (उत्पत्ति 1:12, 20-25) इस ब्यौरे से पता चलता है कि अलग-अलग जातियों के बीच काफी फर्क है, साथ ही हर “जाति” में भी विभिन्‍नता की गुंजाइश है। अगर बाइबल में दिया सृष्टि का ब्यौरा सही है, तो जीवाश्‍मों से यह साबित होना चाहिए कि नए प्रकार के जीव-जंतु एक ही वक्‍त पर पूरी तरह बनाए गए।

सबूत क्या दिखाते हैं? सबूत किसे सही साबित करते हैं, सृष्टि के ब्यौरे को या डार्विन के सिद्धांत को? पिछले 150 सालों में हुई खोज से क्या पता चलता है?

डार्विन का पेड़ औंधे मुँह

हाल के सालों में वैज्ञानिकों ने दर्जनों अलग-अलग एक-कोशिकीय जीवों, पौधों और जानवरों के आनुवंशिक कोड की तुलना की और उन्होंने सोचा कि इससे वे डार्विन के बताए “जीवन के पेड़” की व्याख्या को सही साबित कर पाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

उनकी खोज से क्या पता चला? सन्‌ 1999 में जीव-विज्ञानी मैल्कम एस. गॉर्डन ने लिखा: “ऐसा लगता है कि जीवन की शुरूआत के कई स्रोत हैं। एक ही जड़ से सबकी शुरूआत नहीं हुई।” क्या डार्विन के बताए “जीवन के पेड़” को सच साबित करने का कोई सबूत है? गॉर्डन ने आगे लिखा: “जैसे पहले समझा जाता था कि सभी जीव-जंतु एक ही पूर्वज से आए हैं, लगता है वह सिद्धांत आज की समझ के मुताबिक वनस्पति और प्राणी जगत (किंगडम) पर लागू नहीं होता। यह सिद्धांत शायद कुछ संघ (फाइला) पर लागू हो, मगर सभी पर नहीं और न ही यह संघ के तहत सारे वर्गों (क्लास) पर लागू होता है।”29a

हाल की खोजें भी डार्विन के इस सिद्धांत के खिलाफ हैं। उदाहरण के लिए 2009 में न्यू साइंटिस्ट पत्रिका के एक लेख में विकासवाद को माननेवाले वैज्ञानिक एरिक बापटिस्ट की यह बात लिखी थी: “हमारे पास जीवन के पेड़ की व्याख्या को सच साबित करने का कोई प्रमाण नहीं।”30 उसी लेख में विकासवाद के एक और समर्थक जीव-विज्ञानी माइकल रोज़ की यह बात लिखी थी: “हम सभी जानते हैं कि जीवन के पेड़ की व्याख्या को बड़ी इज़्ज़त के साथ दफनाया जा चुका है। लेकिन यह बात कई लोगों के गले नहीं उतरती कि जीव-विज्ञान की बुनियाद जिस आधार पर पड़ी है, उसे बदलने की ज़रूरत है।”31b

जीवाश्‍मों से क्या साबित होता है?

कई वैज्ञानिक कहते हैं, जीवाश्‍मों से साबित होता है कि जीवन की उत्पत्ति एक ही पूर्वज से हुई है। मिसाल के लिए, उनका तर्क है कि जीवाश्‍मों की खोजों से पता चलता है कि पानी में रहनेवाले जीव मछली से एम्फीबिया (धरती और जल दोनों में रहनेवाले जीव) बने। उसी तरह रेप्टीलिया (रेंगनेवाले जीव) से मैमल (स्तनधारी जीव) बने। लेकिन हकीकत क्या है?

विकासवाद के समर्थक जीवाश्‍म-विज्ञानी डेविड एम. रौप कहते हैं, “इसका सबूत मिलने के बजाय कि जीवन का विकास धीरे-धीरे हुआ, डार्विन के समय के और आज के भूविज्ञानी पाते हैं कि जीवाश्‍म के रिकॉर्ड में बहुत गड़बड़ी है; यानी प्रजातियाँ अचानक एक क्रम में नज़र आती हैं, सालों तक उनमें कोई बदलाव नहीं होता या अगर होता भी है तो न के बराबर और फिर एक दिन वे अचानक लुप्त हो जाती हैं।”32

हकीकत देखी जाए तो ज़्यादातर जीवाश्‍मों की जाँच से पता चलता है कि एक लंबा अरसा बीतने पर भी अलग-अलग प्रकार के जंतुओं में कोई बदलाव नहीं आया। किसी भी जीवाश्‍म से यह साबित नहीं होता कि एक प्रकार के जानवर से दूसरे प्रकार के जानवर का विकास हुआ। सारे जीवाश्‍म यही दिखाते हैं कि अलग-अलग प्रकार के जीव-जंतुओं के शरीर की बनावट एक-दूसरे से अलग है और उनकी नयी खासियतें भी अचानक नज़र आती हैं। उदाहरण के लिए, चमगादड़ों में ध्वनि तरंग और गूँज के सहारे अपना रास्ता ढूँढ़ने की क्षमता होती है। उनकी यह खासियत किसी भी प्राचीन जीव-जंतु में साफ नज़र नहीं आती, ऐसे में हम जीवन के क्रम-विकास में किस जानवर को उनका पूर्वज कहेंगे?

सच्चाई यह है कि प्राणी जगत में जो मुख्य वर्ग हैं, उन वर्गों के ज़्यादातर जानवर कम समय में अचानक उत्पन्‍न हुए हैं। उस समय के दौरान जीवाश्‍म रिकॉर्ड में नए और तरह-तरह के प्राणी इतने अचानक नज़र आते हैं कि जीवाश्‍म विज्ञानी उस काल को “केम्ब्रियन विस्फोट” कहते हैं। यह केम्ब्रियन काल (कल्प) कब शुरू हुआ?

चलिए मान लेते हैं कि खोजकर्ताओं के अनुमान सही हैं। तो उस बिनाह पर (1) धरती के इतिहास को समझने के लिए एक फुटबाल मैदान के जितनी लंबी समय-रेखा लीजिए। (2) अगर आप मैदान को आठ भागों में बाँटें, तो जीवाश्‍म विज्ञानियों के मुताबिक सात भाग पार करने के बाद ही आप केम्ब्रियन काल में पहुँचेंगे। केम्ब्रियन काल के इस छोटे-से दौर में प्राणी जगत के मुख्य वर्गों के जीवाश्‍म मिलते हैं। इन प्राणियों का विकास कितनी तेज़ी से हुआ? केम्ब्रियन काल में आपके एक कदम बढ़ाते ही अचानक ये अलग-अलग जीव-जंतु नज़र आने लगते हैं!

एक फुटबॉल मैदान के जितनी लंबी समय-रेखा जो धरती की शुरूआत से लेकर केम्ब्रियन विस्फोट तक का इतिहास बताती है

इनके इस तरह अचानक उत्पन्‍न होने की वजह से विकासवाद को माननेवाले कुछ खोजकर्ताओं के मन में डार्विन के सिद्धांत पर सवाल उठा है। मिसाल के लिए, सन्‌ 2008 में विकासवाद के समर्थक जीव-विज्ञानी स्टूअर्ट न्यूमेन ने एक साक्षात्कार में कहा कि नए-नए प्रकार के जीव-जंतु अचानक कैसे उत्पन्‍न हो गए, इसे समझाने के लिए अब विकासवाद के नए सिद्धांत की ज़रूरत है। उन्होंने कहा: “विकास के दौरान प्राणियों में आए बड़े-बड़े परिवर्तनों को जब समझाने की बात आती है तो डार्विन का सिद्धांत बिलकुल फीका पड़ जाता है। मेरे हिसाब से जीवन के क्रम-विकास को समझाने के लिए हमें कई सिद्धांतों की ज़रूरत होगी, जिनमें से एक होगा डार्विन का सिद्धांत और उसकी भी अहमियत कुछ खास नहीं होगी।”33

“सबूत” में खामी

कुछ किताबों में दिखाए गए जीवाश्‍म और उनके बदले हुए आकार

कुछ किताबों में जीवाश्‍मों को इस क्रम में रखकर कहा जाता है कि जीव-जंतुओं का विकास इसी क्रम में हुआ, तो फिर उनमें जीवाश्‍मों के आकार क्यों बदल दिए गए?

ऊपर बायीं तरफ: कुछ किताबों में जीवाश्‍मों को इस क्रम में दिखाया जाता है

ऊपर दायीं तरफ: असली तुलनात्मक आकार

उन जीवाश्‍मों के बारे में क्या जिनके आधार पर कहा जाता है कि मछली से एम्फीबिया बने और रेप्टीलिया से मैमल? क्या जीवाश्‍मों से ठोस प्रमाण मिलते हैं कि इनका विकास क्रम में हुआ है? नज़दीकी जाँच करने पर इनमें कई खामियाँ साफ नज़र आती हैं।

पहली खामी, रेप्टीलिया से स्तनधारी जीवों के विकास के बारे में किताबों में जो तसवीरें दी जाती हैं, उनका सही आकार नहीं दिखाया जाता। क्रम में दिए जीव-जंतुओं के जीवाश्‍म का आकार एक-समान दिखाया जाता है, लेकिन हकीकत में कुछ का छोटा है, तो कुछ का बड़ा।

दूसरी खामी तो और भी बड़ी है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि वे जीव-जंतु आपस में किसी तरह मेल खाते हैं। जीवाश्‍म के नमूने जिस क्रम में रखे गए हैं, खोजकर्ता कहते हैं कि उनके बीच का समय लाखों साल हो सकता है। कई जीवाश्‍मों के अंतराल के बारे में जीव-विज्ञानी हेनरी जी कहते हैं: “जीवाश्‍मों के बीच का अंतराल इतना बड़ा है कि कौन किसका पूर्वज या वंशज है, इस बारे में निश्‍चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।”34c

जीव-विज्ञानी मैल्कम एस. गॉर्डन कहते हैं कि हमें मछली और एम्फीबिया समूह के बहुत कम जीवाश्‍म मिले हैं और “वे भी उस दौर के इन दोनों समूहों के हज़ारों प्रकारों में से कुछ जीव-जंतुओं के ही हैं।” वे आगे कहते हैं: “यह पता करने का कोई तरीका नहीं कि क्या उन जीव-जंतुओं से दूसरी तरह के जीव-जंतुओं का विकास हुआ या उनका आपस में किसी तरह का कोई रिश्‍ता था भी या नहीं।”35d

एक रेखाचित्र अलग-अलग किस्म के जानवरों के बीच के रिश्‍ते को दिखाता है

“फिल्म” की असली कहानी

सन्‌ 2004 में नैशनल जियोग्राफिक पत्रिका में छपे एक लेख में बताया गया कि जीवाश्‍म रिकॉर्ड मानो “विकासवाद की एक ऐसी फिल्म की तरह है, जिसकी हर 1,000 तसवीरों में से 999 तसवीरें काट-छाँट के दौरान गुम हो गयीं।”36 गौर कीजिए कि इस मिसाल से क्या समझ में आता है।

फिल्म की एक रील और उसी फिल्म की कुछ तसवीरें

अगर जीवाश्‍म रिकॉर्ड की “95 तसवीरें” दिखाती हैं कि एक जीव दूसरे से उत्पन्‍न नहीं हुआ, तो जीवाश्‍म वैज्ञानिक बची “5 तसवीरों” को इस क्रम में क्यों रखते हैं जिससे लगे कि विकासवाद ही सच है?

कल्पना कीजिए कि आपको किसी फिल्म की 1,00,000 में से 100 तसवीरें मिली हैं। क्या उन 100 तसवीरों के बूते आप फिल्म की सही-सही कहानी बता सकते हैं? शायद आपने पहले से ही अपने मन में फिल्म की कहानी तय कर ली हो और उन 100 तसवीरों में से 5 तसवीरें आपकी सोच के मुताबिक हों। लेकिन अगर बाकी 95 तसवीरें कुछ और ही कहानी बयान करती हों, तब आप क्या कहेंगे? क्या यह दावा करना सही होगा कि 5 तसवीरें आपकी कहानी के मुताबिक हैं, इसलिए वही सही है? क्या हो सकता है कि आपने अपनी कहानी को सही करार देने के लिए उन 5 तसवीरों को अपनी मरज़ी के हिसाब से क्रम में रखा हो? क्या बेहतर यह नहीं होगा कि आप बाकी की 95 तसवीरों पर भी गौर करें ताकि आप सही कहानी का पता लगा सकें?

जीवाश्‍म रिकॉर्ड के आधार पर अपनी बात कहनेवाले विकासवादियों पर यह मिसाल कैसे लागू होती है? 95 तसवीरें, यानी ज़्यादातर जीवाश्‍म यही दिखाते हैं कि जीव-जंतुओं की प्रजातियों में समय के गुज़रते कुछ खास बदलाव नहीं हुआ। मगर कई सालों तक वैज्ञानिकों ने यह सच्चाई कबूल नहीं की। आखिर वे इस सच्चाई से नज़र क्यों चुराते हैं? लेखक रिचर्ड मॉरिस कहते हैं: “लगता है कि जीवाश्‍म वैज्ञानिक पुराने समय से चली आ रही इस धारणा को पकड़े रहे कि जीव-जंतुओं का धीरे-धीरे विकास हुआ और इसीलिए उन्होंने सबूतों को देखकर भी अनदेखा कर दिया। वे विकासवाद की मानी हुई धारणा को सही करार देने के लिए जीवाश्‍मों के सबूतों को अपनी मरज़ी से समझा रहे थे।”37

“कई जीवाश्‍मों को एक क्रम में रखकर यह दावा करना कि एक का विकास दूसरे से हुआ, यह ऐसा वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं जिसे परखा जा सके। यह सिर्फ एक दावा है और उसकी अहमियत बच्चों की कहानी के बराबर ही है, जो दिलचस्प, यहाँ तक कि सबक देनेवाली हो सकती है, लेकिन उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।”—इन सर्च ऑफ डीप टाइम—बियोंड द फॉसिल रिकॉर्ड टू ए न्यू हिस्टरी ऑफ लाइफ, लेखक हेनरी जी, पेज 116-117

आज के विकासवादियों के बारे में क्या कहा जा सकता है? क्या हो सकता है कि वे आज भी जीवाश्‍मों को जिस क्रम में रखते हैं, वह ज़्यादातर जीवाश्‍म और आनुवंशिक सबूतों पर आधारित न हो? कहीं वे विकासवाद की धारणाएँ सही साबित करने के लिए तो ऐसा नहीं करते?e

आप क्या सोचते हैं? सबूत आपको किस नतीजे पर ले जाते हैं? अब तक चर्चा की गयी सच्चाइयों पर गौर कीजिए।

  • धरती पर पहला जीवन “सरल” नहीं था।

  • कोशिका के अलग-अलग अंशों का भी खुद-ब-खुद उत्पन्‍न हो जाना नामुमकिन है।

  • इंसानों ने अभी तक जानकारी जमा करके रखने के लिए जितनी भी चीज़ें या प्रोग्राम बनाए हैं, उन सबसे जटिल है डी.एन.ए. का “कंप्यूटर प्रोग्राम,” जो कोशिका के सारे काम निर्देशित करता है और इससे यही साबित होता है कि इसे बनानेवाले की बुद्धि बेजोड़ है।

  • आनुवंशिक खोज दिखाती है कि जीवन एक पूर्वज से नहीं आया। साथ ही हमने देखा कि जानवरों का बड़ा समूह जीवाश्‍म रिकॉर्ड में अचानक नज़र आता है।

इन सबूतों के मद्देनज़र, क्या यह मानना सही नहीं होगा कि सारे सबूत बाइबल में दिए जीवन की शुरूआत के ब्यौरे से मेल खाते हैं? लेकिन कई लोग दावा करते हैं कि विज्ञान बाइबल में दिए सृष्टि के ब्यौरे की कई बातों को गलत बताता है। क्या यह सच है? बाइबल असल में क्या बताती है?

a जीव-विज्ञान में संघ (एकवचन, फाइलम) ऐसे कई जानवरों के समूह को दर्शाता है, जिनके शरीर की संरचना एक जैसी होती है। प्राणियों और वनस्पति को अलग-अलग वर्गों में विभाजित करने की एक पद्धति है और इसे सात श्रेणियों में किया जाता है। पहली श्रेणी सबसे बड़ी होती है, जिसे जीव जगत (किंगडम) कहा जाता है। उसके तहत होते हैं, फाइलम, वर्ग (क्लास), गण (ऑर्डर), कुल (फेमिली), वंश (जीनस) और जाति (स्पीशीस)। उदाहरण के लिए घोड़े का वर्गीकरण इस तरह किया जाता है: जगत है एनिमेलिया; फाइलम है कॉर्डेटा; वर्ग है मैमेलिया; गण है पेरिसोडेक्टिला; कुल है ईक्विडी; वंश है ईक्वस और जाति है कैबेलस।

b यह गौर करने लायक है कि न तो न्यू साइंटिस्ट पत्रिका का वह लेख, न ही बापटिस्ट और रोज़, विकासवाद के सिद्धांत को गलत साबित करना चाहते हैं। वे सिर्फ यह बताना चाहते हैं कि डार्विन ने विकासवाद के सिद्धांत को समझाने के लिए जो मुख्य आधार लिया यानी जीवन के पेड़ की व्याख्या, उसका अभी तक कोई सबूत नहीं मिला है। ऐसे वैज्ञानिक विकासवाद को साबित करने के लिए आज भी नए-नए तरीके ढूँढ़ रहे हैं।

c हेनरी जी यह नहीं कहना चाहते कि विकासवाद का सिद्धांत गलत है। यहाँ उनकी कही बात यह दिखाने के लिए दी गयी है कि जीवाश्‍म रिकॉर्ड से हमें पूरी जानकारी नहीं मिल सकती।

d मैल्कम एस. गॉर्डन विकासवाद के समर्थक हैं।

e उदाहरण के लिए बक्स “इंसान का क्रम-विकास कितना सच कितना झूठ?” देखिए।

सच्चाई और उस पर उठे सवाल

  • सच्चाई: विकासवाद के दो मूल सिद्धांत हैं, पहला कि जीवन एक ही पूर्वज से आया और दूसरा कि पहले से मौजूद प्राणियों में धीर-धीरे बदलाव हुए जिससे नए प्राणियों का विकास हुआ। इन सिद्धांतों पर वे खोजकर्ता सवाल उठा रहे हैं जो बाइबल में दिए सृष्टि के ब्यौरे से सहमत नहीं हैं।

    सवाल: डार्विन के इन मूल सिद्धांतों पर ही जिस तरह वाद-विवाद हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए क्या यह कहा जा सकता है कि उसके सिद्धांत वैज्ञानिक तौर पर सच हैं?

  • सच्चाई: सारे जीवित प्राणियों में एक ही तरह की “कंप्यूटर भाषा,” यानी डी.एन.ए. होता है, जो उनकी कोशिका या कोशिकाओं का आकार और कार्य निर्धारित करता है।

    सवाल: जो समानता दिखायी देती है वह शायद इसलिए नहीं कि उनका पूर्वज एक है, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह समानता इस वजह से है कि उनका बनानेवाला एक है?

इंसान का क्रम-विकास कितना सच कितना झूठ?

कपाल

इंसान के क्रम-विकास के बारे में कोई भी किताब या एन्साइक्लोपीडिया देखिए, उसमें आपको एक क्रम में कई तसवीरें नज़र आएँगी। पहली तसवीर में बंदर जैसा प्राणी दिखायी देता है जिसके कंधे झुके होते हैं, फिर अगली तसवीर में वह पहले से सीधा खड़ा और बड़े सिर का नज़र आता जाता है और अंत में आज के ज़माने का पुरुष दिखायी देता है। साथ ही, हमें ऐसी सनसनीखेज़ खबरें सुनने को मिलती हैं कि बंदरों और इंसानों के बीच की खोई कड़ी मिल गयी है। ऐसी खबरें और किताबों में दी तसवीरें लोगों को यकीन दिला देती हैं कि इंसान का विकास बंदरों से हुआ है और इसके ढेरों सबूत हैं। क्या इन दावों का वाकई कोई ठोस सबूत है? गौर कीजिए कि आगे दिए मुद्दों पर विकासवादी खोजकर्ता क्या कहते हैं।f

जीवाश्‍म असल में क्या दिखाते हैं

सच्चाई: बीसवीं सदी की शुरूआत में इंसानों और बंदरों के क्रम-विकास को साबित करने के लिए जितने भी जीवाश्‍म मिले, वे इतने कम थे कि उन्हें एक बिलियर्ड मेज़ पर रखा जा सकता था। उसके बाद से और भी कई जीवाश्‍म मिले। दावा किया जाता है कि वे इतने सारे हो गए हैं कि उनसे मालगाड़ी का एक डब्बा भर सकता है।38 लेकिन ज़्यादातर जीवाश्‍म शरीर की एकाध हड्डी और दाँत ही हैं। पूरे कपाल बहुत कम और पूरा कंकाल तो अभी तक मिला ही नहीं।39

सवाल: दावा किया जाता है कि ऐसे कई जीवाश्‍म मिले हैं जिनसे साबित होता है कि इंसानों का विकास बंदरों से हुआ है। तो क्या विकासवादी इस गुत्थी को सुलझा पाए हैं कि इंसान का विकास बंदरों से कब और कैसे हुआ?

जवाब: नहीं, वे अभी तक अधर में लटके हैं। इन जीवाश्‍मों के वर्गीकरण के बारे में न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया के विश्‍वविद्यालय के रॉबिन डेर्रिकोर्ट ने सन्‌ 2009 में लिखा: “हम सब इसी बात पर एकमत हैं कि हम एकमत नहीं हैं।”40 सन्‌ 2007 में विज्ञान की एक पत्रिका नेचर में विकासवाद की एक और कड़ी ढूँढ़ने का दावा करनेवालों का एक लेख छपा। उसमें खोजकर्ताओं ने कहा, इस बारे में कोई जानकारी नहीं कि इंसान का विकास बंदरों से कब और कैसे हुआ।41 हंगरी के इटविश लोरांट विश्‍वविद्यालय के जैविक मानव-विज्ञान विभाग के खोजकर्ता ड्यूला डेनश ने 2002 में लिखा: “इस बात पर बहस होती रही है कि होमिनिड जीवाश्‍म को किस वर्ग में और विकास के क्रम में कहाँ रखा जाए।”g ड्यूलो यह भी कहते हैं कि अभी तक जितने भी जीवाश्‍म मिले हैं, उनसे हमें कोई ठोस सबूत नहीं मिलता कि इंसान बंदरों से कब, कहाँ और कैसे विकसित हुआ।42

“खोई कड़ी” की खोज

सच्चाई: खबरों में अकसर सुनने को मिलता है कि एक “विलुप्त कड़ी” या “खोई कड़ी” मिल गयी है। उदाहरण के लिए, सन्‌ 2009 में एक जीवाश्‍म मिला, जिसे आइडा नाम दिया गया। उसके बारे में खबरें ऐसे ज़ोर-शोर से फैलायी गयीं कि एक पत्रिका ने इसकी तुलना “फिल्मी सितारों के प्रचार-प्रसार” से की।43 ऐसी ही एक खबर संयुक्‍त राज्य (यू.के.) के एक अखबार द गार्डियन में इस शीर्षक के साथ छपी: “गज़ब की खोज: जीवाश्‍म आइडा इंसानों के क्रम-विकास की ‘खोई कड़ी’।”44 लेकिन कुछ ही दिन बाद, संयुक्‍त राज्य की एक विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट में लिखा गया: “आइडा इंसानों के क्रम-विकास की ‘खोई कड़ी’ नहीं है।”45

सवाल: जब किसी “खोई कड़ी” की खोज की जाती है तो उसका प्रचार बड़े ज़ोर-शोर से किया जाता है, लेकिन जब उस कड़ी को क्रम-विकास से हटा दिया जाता है, तो उसका ज़िक्र तक नहीं होता, भला क्यों?

जीवाश्‍म

जवाब: इस तरह की खोज में लगे लोगों के बारे में रॉबिन डेर्रिकोर्ट, जिनका ज़िक्र पहले भी किया गया है, कहते हैं: “खोजकर्ता टीम के प्रमुख को ‘आविष्कार’ की कहानी खूब बढ़ा-चढ़ाकर बतानी होती है और यह भी कि यह अपने आप में एक बेहतरीन खोज है ताकि वे अपने शोध के लिए दूसरी संस्थाओं से भी पैसे बटोर सकें। इस काम के लिए उन्हें पत्रिकाओं, अखबारों और टी.वी. चैनलवालों से काफी बढ़ावा मिलता है जो इसी तरह की दिलचस्प, धमाकेदार कहानी की तलाश में रहते हैं।”46

किताबों में वानरों की तसवीरें और नमूने

सच्चाई: किताबों और संग्रहालयों में जिन प्राणियों को इंसान का पूर्वज कहा जाता है, उन्हें अकसर एक खास शक्ल-सूरत, रंग और बालों के साथ दिखाया जाता है। इंसानों के इस क्रम-विकास की शुरूआत में अकसर उनके “पूर्वजों” को बंदरों जैसा दिखाया जाता है और जैसे-जैसे उनका विकास होता जाता है उनकी शक्ल-सूरत, रंग और बाल इंसान की तरह दिखाए जाते हैं।

सवाल: जीवाश्‍मों के आधार पर क्या वैज्ञानिक उन जीवों के रंग-रूप और शक्ल-सूरत का भरोसेमंद नमूना बना सकते हैं?

जवाब: नहीं। ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ एडिलेड के शरीर-रचना विज्ञान विभाग में काम करनेवाले विधिशास्त्र (फॉरेन्ज़िक) विद्वान कार्ल एन. स्टीवन ने सन्‌ 2003 में लिखा: “इंसानों के शुरूआती पूर्वजों के चेहरे न तो बनाए जा सकते हैं, न ही उनकी जाँच की जा सकती है।” वे कहते हैं आज के बंदरों के आधार पर ऐसी कोशिशें करना “बेबुनियाद और गलत होगा। साथ ही ऐसा करने से ज़ाहिर होगा कि वैज्ञानिकों को सिर्फ अपनी बात साबित करने की पड़ी है।” स्टीवन किस नतीजे पर पहुँचे? “प्राचीन होमिनिड के चेहरों के जितने भी ‘नमूने’ बनाए गए हैं, वे हमें गुमराह कर सकते हैं।”47

मस्तिष्क के आकार के अनुसार बुद्धि का हिसाब लगाना

सच्चाई: जिस जानवर को इंसानों का पूर्वज कहा जाता है, विकासवादी खासकर उस जानवर के मस्तिष्क का आकार देखकर यह तय करते हैं कि वह इंसानों से कितना करीबी से जुड़ा है।

सवाल: क्या मस्तिष्क के आकार से तय किया जा सकता है कि कोई प्राणी कितना बुद्धिमान है?

इंसान और वानरों की खोपड़ियाँ

जवाब: नहीं। जो जीव-जंतु लुप्त हो चुके हैं, उनके मस्तिष्क के आकार से खोजकर्ताओं के एक समूह ने यह पता लगाने की कोशिश की है कि उनमें से कौन-सा प्राणी इंसानों से ज़्यादा करीबी से जुड़ा है। उन्होंने माना कि यह खोज करते वक्‍त वे “अकसर किसी भी ठोस नतीजे पर पहुँच नहीं पाते थे।”48 क्यों? सन्‌ 2008 में साइंटिफिक अमेरिकन माइंड किताब में लिखी इस बात पर गौर कीजिए: “वैज्ञानिक यह पता लगाने में नाकामयाब रहे हैं कि इंसानों और दूसरे जानवरों में मस्तिष्क के आकार और बुद्धिमानी के बीच क्या संबंध है। इसके अलावा उन्हें यह भी नहीं मालूम कि बुद्धि का मस्तिष्क के कुछ खास भागों के आकार से क्या नाता है। उन्हें सिर्फ एक भाग की जानकारी है जिसे ब्रोकास कहते हैं, जो इंसानों में बोलने की क्षमता को निर्धारित करता है।”49

आप क्या सोचते हैं? “बंदर-से-इंसान” का क्रम-विकास साबित करने के लिए वैज्ञानिक क्यों जीवाश्‍मों को मस्तिष्क के आकार के हिसाब से एक क्रम में रखते हैं, जबकि यह जग ज़ाहिर है कि मस्तिष्क के आकार से बुद्धि नहीं मापी जा सकती? क्या वे अपने सिद्धांत को साबित करने के लिए सबूतों को ज़बरदस्ती तोड़-मरोड़कर पेश कर रहे हैं? वैज्ञानिकों में क्यों इस पर बहस होती रहती है कि किन जीवाश्‍मों को इंसान के पूर्वज की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और किन्हें नहीं? क्या मुमकिन है कि अध्ययन किए जा रहे जीवाश्‍म लुप्त वानरों के ही हों क्योंकि दिखने में वे ऐसे ही लगते हैं?

नीऐंडरथल जीवाश्‍मों के बारे में क्या कहा जा सकता है जो इंसानों की तरह दिखते हैं और जिन्हें अकसर यह साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है कि मानव जैसे दिखनेवाले वानर हुआ करते थे? लेकिन अब खोजकर्ता उनकी पहचान के बारे में अपने विचार बदल रहे हैं। सन्‌ 2009 में मिलफर्ड एच. वुलपोफ ने अमेरिकन जर्नल ऑफ फिज़िकल एन्थ्रोपोलॉजी में लिखा कि “हो सकता है, नीऐंडरथल वाकई में इंसानों की ही एक नस्ल हो।”50

जो लोग बिना किसी का पक्ष लिए ईमानदारी से बातों को परखते हैं, वे साफ देख पाते हैं कि पैसा, घमंड और शोहरत पाने के लिए इंसानों के क्रम-विकास के “सबूतों” को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है। क्या आप ऐसे सबूतों पर यकीन करने के लिए तैयार हैं?

f नोट: इस बक्स में जिन खोजकर्ताओं का ज़िक्र किया गया है, उनमें से एक भी बाइबल में दिए सृष्टि के ब्यौरे को नहीं मानता। सभी विकासवाद के समर्थक हैं।

g विकासवादी खोजकर्ता इंसान और प्राचीन समय के इंसानों जैसी दिखनेवाली प्रजातियों को “होमिनिड” कहते हैं।

इस तसवीर में क्या गलत है?

विकासवाद की शिक्षा के मुताबिक एक वानर का इंसान बनने तक का दौर दिखाया गया है
  • इस तरह की तसवीरें कलाकारों और खोजकर्ताओं के अनुमानों और उनकी अपनी सोच पर आधारित होती हैं, न कि सच्चाई पर।51

  • दाँतों का जीवाश्‍म

    ऐसी ज़्यादातर तसवीरें कपाल के कुछ हिस्सों और कुछ दाँतों के अवशेषों के आधार पर बनी होती हैं। पूरे कपाल बहुत कम और पूरा कंकाल तो अभी तक मिला ही नहीं।

  • खोजकर्ताओं में यह बहस होती रहती है कि किस जीवाश्‍म को किस वर्ग में रखा जाना चाहिए।

  • कलाकार ने अपने अनुमान से एक लुप्त प्राणी के चेहरे, रंग और बालों का चित्र बनाया है

    कलाकार इन लुप्त प्राणियों के चेहरे, रंग और बालों की सही-सही तसवीर नहीं बना सकते।

  • हर प्राणी को मस्तिष्क के आकार के हिसाब से इंसानों के क्रम-विकास में रखा गया है। जबकि यह साबित हो चुका है कि मस्तिष्क के आकार से यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि एक प्राणी कितना बुद्धिमान है।

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