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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—1992
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धर्म—क्यों दिलचस्पी की कमी?

“धर्म के बिना आदमी खिड़कियों के बिना घर के समान है।” इस प्रकार एक जापानी आदमी ने अपने बेटे, मिटसुओ, को धार्मिक प्रबोधन की ज़रूरत के बारे में व्यक्‍त किया। बहरहाल, मिटसुओ ने अपने पिता के शब्दों को संजीदगी से नहीं लिया। और जापान में बढ़ती हुई संख्या में लोग, जैसे और कहीं है, उसी तरह महसूस करते हैं। अपनी ज़िंदगी में धार्मिक रोशनी चमकाने में वे कम दिलचस्पी के साथ ‘खिड़कियों के बिना घर’ रहने में संतुष्ट हैं।

इसलिए, जब जापान ने एक राष्ट्रीय चरित्र अध्ययन किया, ६९ प्रतिशत नागरिकों ने घोषित किया कि वे अपने आप को धार्मिक नहीं समझते। युवजनों में, अनुपात और भी अधिक था। वैसे ही, किसी समय पर धर्मनिष्ठ बौद्ध थाइलैंड देश में, नगरपालिका इलाक़ों में रहनेवाले ७५ प्रतिशत जन बौद्ध मंदिरों में नहीं जाते। इंग्लैंड में लगभग एक अष्टम ऐंग्लिकन गिरजाघर पिछले ३० सालों में अनुपयोग के वजह से बंद हुए हैं।

ख़ैर, जापान में, धार्मिक साज़-सामान अभी भी दिखायी देते हैं। लेकिन चीनीमिट्टी के बरतनों के जैसे, इन्हें सिर्फ़ विरल अवसर, जैसे शादियाँ और दफ़न, पर बाहर निकाला जाता है। धर्म को उसके आध्यात्मिक प्रबोधन से ज़्यादा स्थानीय संस्कृति और पारिवारिक परम्परा को बनाए रखने की भूमिका के लिए क़दर किया जाता है। अनेक जन धर्म को दुःखी और कमज़ोरों के ख़ातिर सिर्फ़ एक शामक समझते हैं; उससे प्राप्त कोई ठोस फ़ायदा देखने में चुकते हैं। ‘अगर आपके पास धर्म के लिए वक़्त हो या उसकी ज़रूरत महसूस करते हैं, तो वह ठीक है,’ कई कहते हैं, ‘लेकिन जीवन-निर्वाह करने और रसीद अदा करने में आपको ख़ुद पर भरोसा करना चाहिए।’

इस उदासीनता के पीछे क्या है? अनेक कारण दिए जा सकते हैं। पहला, सामाजिक वातावरण है। कई युवकों को थोड़ासा या कुछ धार्मिक तालीम प्राप्त हुआ ही नहीं है। फिर, कोई ताज्जूब नहीं कि भौतिक पेशे पर बड़ी क़ीमत लगानेवाली समाज में जीने से वे भौतिकवादी वयस्क बन जाते हैं।

कई राष्ट्रों में लोभी और अनैतिक टी.वी सुसमाचारक और अन्य प्रमुख धार्मिक नेता के कलंककर चालचलन, धर्म का राजनीतिक मामले और युद्ध कोशिशों में दख़लंदाज़ी ने लोगों का मुँह धर्म से मोड़ा है। इसे जापान में शिन्टो धर्म के विषय में चित्रित किया गया है। ऐंसाइक्लपीडिया ऑफ दी जॅपनीस्‌ रिलिजन्स्‌ (Encyclopaedia of the Japanese Religions) अवलोकन करता है, “युद्ध [दूसरा विश्‍व युद्ध] अगस्त १९४५ में हार में समाप्त होने से, शिन्टो मंदिरों को कड़ा संकट का सामना करना पड़ा।” शिन्टो, जिसने युद्ध का जोश भड़काया और जीत की प्रतिज्ञा की थी, लोगों की आशा पर पानी फेरा। वह तत्त्वज्ञान कि कोई ईश्‍वर या बुद्ध नहीं फौरन फैल गया।

फिर भी, कया हम स्वार्थी, सीमित दृष्टिकोण—यहाँ और अब—से असल में तृप्त होना चाहिए? बहुत इंसानों में एक जिज्ञासु मन है। वे जानना चाहते हैं कि वे कहाँ से आए, कहाँ जा रहे हैं, क्यों जी रहे हैं, और कैसे जीना चाहिए। वे उम्मीद पर ख़ूब बढ़ते हैं। ज़िंदगी के बारे में सवालों को हटाना, या “यह बातें अज्ञेय हैं” का भावना से उन्हें दबाना संतोषजनक नहीं। नास्तिक बर्ट्रन्ड रस्सल “एक विचित्र ऊटपटाँग वेदना” होने के बारे में बात करते थे, “किसी चीज़ के लिए खोज जो इस संसार से परे है।” सच्चा धर्म उस खोज को समाप्त कर सकता है। पर कैसे? क्या सबूत है कि कोई धर्म संजीदगी से लेने लायक़ है?

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