यहोवा—ईशतन्त्र के द्वारा शासन करता है
“यहोवा सदा के लिये . . . राज्य करता रहेगा।”—भजन १४६:१०.
१, २. (क) शासकत्व के सम्बन्ध में मनुष्य के प्रयास क्यों असफल हुए हैं? (ख) केवल किस प्रकार की सरकार ही असल में सफल हुई है?
निम्रोद के समय से, मनुष्यों ने मानव समाज को चलाने के लिए अलग-अलग तरीक़े अपनाए हैं। तानाशाहियाँ, राजतन्त्र, कुल-तन्त्र, और लोकतन्त्र के विभिन्न प्रकार अपनाए जा चुके हैं। यहोवा ने उन सब को अनुमति दी है। सचमुच, क्योंकि परमेश्वर सभी अधिकार का मूल स्रोत है, एक अर्थ में उसने ही भिन्न शासकों को उनके आपेक्षिक पदों पर रखा। (रोमियों १३:१) फिर भी, सरकार के लिए मनुष्यों के सारे प्रयास असफल रहे हैं। किसी भी मानव शासक ने स्थायी, सुस्थिर, न्यायपूर्ण समाज नहीं उत्पन्न किया है। बारंबार, “एक मनुष्य दूसरे मनुष्य पर अधिकारी होकर अपने ऊपर हानि लाता है।”—सभोपदेशक ८:९.
२ क्या हमें इससे चकित होना चाहिए? निश्चय ही नहीं! अपरिपूर्ण मनुष्य को ख़ुद पर शासन करने के लिए नहीं बनाया गया था। “मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं है, मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं।” (यिर्मयाह १०:२३) इसीलिए, पूरे मानव इतिहास के दौरान, केवल एक ही प्रकार की सरकार सचमुच सफल हुई है। कौनसी? यहोवा परमेश्वर के अधीन ईशतन्त्र। बाइबलीय यूनानी में, “ईशतन्त्र” का अर्थ है परमेश्वर [the·osʹ] द्वारा शासन [kraʹtos]। स्वयं यहोवा परमेश्वर की सरकार को छोड़ और कौनसी बेहतर सरकार हो सकती है?—भजन १४६:१०.
३. पृथ्वी पर अस्तित्व में रहे ईशतन्त्र के कुछ प्रारंभिक उदाहरण क्या थे?
३ अदन में थोड़े समय के लिए, जब तक कि आदम और हव्वा ने यहोवा के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया, ईशतन्त्र का शासन था। (उत्पत्ति ३:१-६, २३) इब्राहीम के समय में, ऐसा प्रतीत होता है कि एक ईशतन्त्र शालेम के शहर में था, जहाँ मेल्कीसेदेक राजा-याजक के रूप में था। (उत्पत्ति १४:१८-२०; इब्रानियों ७:१-३) लेकिन, यहोवा परमेश्वर के अधीन पहला राष्ट्रीय ईशतन्त्र सीनै के वीराने में सा.यु.पू. १६वीं शताब्दी में स्थापित हुआ। वह कैसे हुआ? और उस ईश्वरशासित सरकार ने कैसे कार्य किया?
एक ईशतन्त्र का जन्म हुआ
४. यहोवा ने ईश्वरशासित इस्राएल जाति को कैसे स्थापित किया?
४ सामान्य युग पूर्व १५१३ में, यहोवा ने इस्राएलियों को मिस्र की दासता से छुड़ाया और फिरौन की पीछा करती सेनाओं को लाल समुद्र में नाश किया। फिर वह इस्राएलियों का नेतृत्व करके उन्हें सीनै पर्वत ले गया। जब उन्होंने पर्वत के नीचे डेरा डाला हुआ था, परमेश्वर ने उन्हें मूसा के द्वारा कहा: “तुम ने देखा है कि मैं ने मिस्रियों से क्या क्या किया; तुम को मानो उकाब पक्षी के पंखों पर चढ़ाकर अपने पास ले आया हूं। इसलिये अब यदि तुम निश्चय मेरी मानोगे, और मेरी वाचा को पालन करोगे, तो सब लोगों में से तुम ही मेरा निज धन ठहरोगे।” इस्रालियों ने कहा: “जो कुछ यहोवा ने कहा है वह सब हम नित करेंगे।” (निर्गमन १९:४, ५, ८) एक वाचा बान्धी गई, और इस्राएल की ईश्वरशासित जाति का जन्म हुआ।—व्यवस्थाविवरण २६:१८, १९.
५. कैसे कहा जा सकता था कि यहोवा इस्राएल में शासन करता था?
५ लेकिन यहोवा ने, जो मानव आँखों को अदृश्य है, इस्राएल पर किस प्रकार शासन किया? (निर्गमन ३३:२०) इस प्रकार किया कि उस जाति के क़ानून और याजकपद यहोवा द्वारा दिए गए थे। जिन्होंने क़ानूनों का पालन किया और ईश्वरीय रूप से अनिवार्य प्रबन्धों के अनुसार उपासना की, उन्होंने महान् ईशतन्त्र शासक, यहोवा की सेवा की। इसके अतिरिक्त, महायाजक के पास ऊरीम और तुम्मीम थी, जिनके द्वारा यहोवा परमेश्वर आकस्मिक संकट के समय मार्गदर्शन देता था। (निर्गमन २८:२९, ३०) इसके अलावा, योग्य प्राचीन पुरुष ईशतन्त्र में यहोवा के प्रतिनिधि थे और देखते थे कि परमेश्वर के क़ानून लागू किए जाएँ। यदि हम इन में से कुछ पुरुषों के रिकार्ड पर विचार करें, तो हम बेहतर समझ सकेंगे कि मनुष्यों को किस प्रकार परमेश्वर के शासन के अधीन होना चाहिए।
ईशतन्त्र के अधीन अधिकार
६. एक ईशतन्त्र में मनुष्यों के लिए अधिकार रखना क्यों एक चुनौती था, और इस ज़िम्मेदारी के लिए किस क़िस्म के पुरुषों की ज़रूरत थी?
६ इस्राएल में जो लोग अधिकार के पदों पर थे उनके पास एक बड़ा विशेषाधिकार था, लेकिन उनके लिए अपना संतुलन बनाए रखना एक चुनौती थी। उन्हें सावधान रहना था कि कहीं उनका अपना अहम् यहोवा के नाम के पवित्रीकरण से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण न बन जाए। उत्प्रेरित कथन कि “मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं” इस्राएलियों के लिए भी उतना ही सत्य था जितना कि बाक़ी की मानवजाति के लिए था। इस्राएल केवल तब ही समृद्ध हुआ जब प्राचीनों ने याद रखा कि इस्राएल एक ईशतन्त्र था और कि उन्हें अपनी नहीं बल्कि यहोवा की इच्छा पूरी करनी चाहिए। इस्राएल की स्थापना के थोड़े ही समय बाद, मूसा के ससुर, जेथरो ने भली-भाँति वर्णन दिया कि उन्हें किस प्रकार के पुरुष होना चाहिए, अर्थात्, “जो गुणी, और परमेश्वर का भय मानने वाले, सच्चे, और अन्याय के लाभ से घृणा करने वाले हों।”—निर्गमन १८:२१.
७. किन तरीक़ों से मूसा एक ऐसे व्यक्ति का उत्तम उदाहरण था जिसके पास यहोवा परमेश्वर के अधीन अधिकार था?
७ इस्राएल में उच्च अधिकार चलानेवालों में मूसा पहला था। वह ईश्वरशासित अधिकारी के रूप में एक उत्तम उदाहरण था। यह सच है कि एक अवसर पर मानव कमज़ोरी प्रकट हुई। लेकिन, मूसा हमेशा यहोवा पर निर्भर रहा। जब ऐसे प्रश्न उठे जिसके समाधान पहले नहीं किए गए थे, उसने यहोवा का मार्गदर्शन ढूँढा। (गिनती १५:३२-३६ से तुलना कीजिए.) मूसा ने अपने ऊँचे पद का प्रयोग स्वयं अपनी महिमा के लिए करने के प्रलोभन का विरोध किस प्रकार किया? जबकि उसने लाखों लोगों की एक जाति का नेतृत्व किया, वह “पृथ्वी भर के रहने वाले सब मनुष्यों से बहुत अधिक नम्र स्वभाव का था।” (गिनती १२:३) उसकी अपनी कोई व्यक्तिगत महत्त्वाकांशाएँ नहीं थीं बल्कि वह परमेश्वर की महिमा के बारे में चिन्तित था। (निर्गमन ३२:७-१४) और मूसा का विश्वास मज़बूत था। मूसा के राष्ट्रीय अगुआ बनने से पहले उसके विषय में बोलते हुए, प्रेरित पौलुस ने कहा: “वह अनदेखे को मानो देखता हुआ दृढ़ रहा।” (इब्रानियों ११:२७) स्पष्ट है कि मूसा कभी नहीं भूला कि उस जाति का असली शासक यहोवा था। (भजन ९०:१, २) आज हमारे लिए क्या ही उत्तम उदाहरण!
८. यहोवा ने यहोशू को क्या आज्ञा दी, और यह ध्यान देने योग्य क्यों है?
८ जब इस्राएल की निगरानी अकेले मूसा के लिए बहुत भारी हो गई, तो यहोवा ने उसकी आत्मा ७० प्राचीनों पर डाल दी जो जाति का न्याय करने में उसका समर्थन करते। (गिनती ११:१६-२५) बाद के सालों में हर शहर के पास अपने प्राचीन होते। (व्यवस्थाविवरण १९:१२; २२:१५-१८; २५:७-९ से तुलना कीजिए.) मूसा की मृत्यु के बाद, यहोवा ने यहोशू को जाति का अगुआ बनाया। हम कल्पना कर सकते हैं कि इस विशेषाधिकार के साथ यहोशू के पास काफ़ी कुछ करने को था। फिर भी, यहोवा ने उससे कहा कि एक बात थी जो उसे कभी नहीं भूलनी थी: “व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना, इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे।” (यहोशू १:८) ध्यान दीजिए कि जबकि यहोशू ४० से ज़्यादा साल तक सेवा कर चुका था, उसे व्यवस्था पढ़ते रहने की ज़रूरत थी। हमें भी बाइबल का अध्ययन करने और यहोवा के नियमों और सिद्धान्तों के बारे में अपने मनों को ताज़ा करने की ज़रूरत है—चाहे हमने कितने भी सालों से सेवा क्यों न की हो या हमारे पास कितने भी विशेषाधिकार क्यों न हों।—भजन ११९:१११, ११२.
९. न्यायियों के समय में इस्राएल में क्या हुआ?
९ यहोशू के बाद अनेक न्यायी आए। दुःख की बात है कि उनके समय में इस्राएली अकसर “वह करने लगे जो यहोवा की दृष्टि में बुरा है।” (न्यायियों २:११) न्यायियों के समय के सम्बन्ध में, अभिलेख कहता है: “उन दिनों में इस्राएलियों का कोई राजा न था; जिसको जो ठीक सूझ पड़ता था वही वह करता था।” (न्यायियों २१:२५) हर व्यक्ति आचरण और उपासना के बारे में स्वयं अपने निर्णय करता था, और इतिहास दिखाता है कि अनेक इस्राएलियों ने ग़लत निर्णय लिए। वे मूर्तिपूजा में फँस गए और कभी-कभी उन्होंने भयंकर अपराध किए। (न्यायियों १९:२५-३०) लेकिन, कुछ लोगों ने अनुकरणीय विश्वास दिखाया।—इब्रानियों ११:३२-३८.
१०. शमूएल के समय में इस्राएल में सरकार किस प्रकार आत्यंतिक रूप से बदल गई, और किस कारण ऐसा हुआ?
१० अन्तिम न्यायी, शमूएल के जीवन काल के दौरान, सरकार के सम्बन्ध में इस्राएल एक संकट से गुज़रा। आस-पास की शत्रु जातियों से प्रभावित होकर, जो सबकी-सब राजाओं द्वारा शासित थीं, इस्राएलियों ने तर्क किया कि उन्हें भी एक राजा की ज़रूरत थी। वे भूल गए कि उनके पास पहले ही एक राजा था, कि उनकी सरकार एक ईशतन्त्र थी। यहोवा ने शमूएल से कहा: “उन्हों ने तुझ को नहीं परन्तु मुझी को निकम्मा जाना है, कि मैं उनका राजा न रहूं।” (१ शमूएल ८:७) उनका उदाहरण हमें याद दिलाता है कि अपना आध्यात्मिक दृष्टिकोण खो बैठना और हमारे चारों ओर के संसार द्वारा प्रभावित होना कितना आसान है।—१ कुरिन्थियों २:१४-१६ से तुलना कीजिए.
११. (क) सरकार में परिवर्तन के बावजूद, क्यों कहा जा सकता है कि इस्राएल राजाओं के अधीन एक ईशतन्त्र रहा? (ख) यहोवा ने इस्राएल के राजाओं को क्या आज्ञा दी, और इसका उद्देश्य क्या था?
११ फिर भी, यहोवा ने इस्राएलियों की बिनती स्वीकार की और उनके पहले दो राजा, शाऊल और दाऊद चुने। इस्राएल अभी भी एक ईशतन्त्र था, जो यहोवा द्वारा शासित था। ताकि उसके राजा इस बात को याद रखें, उनका हरेक राजा व्यवस्था की अपनी प्रति बनाने और उसे प्रतिदिन पढ़ने के लिए बाध्य था, “जिस से वह अपने परमेश्वर यहोवा का भय मानना, और इस व्यवस्था और इन विधियों की सारी बातों के मानने में चौकसी करना सीखे; जिस से वह अपने मन में घमण्ड करके अपने भाइयों को तुच्छ न जाने।” (व्यवस्थाविवरण १७:१९, २०) जी हाँ, यहोवा की इच्छा थी कि उसके ईशतन्त्र में जिनके पास अधिकार थे उन्हें अपने आपको ऊँचा नहीं करना चाहिए और कि उनके कार्यों में उसकी व्यवस्था प्रतिबिम्बित होनी चाहिए।
१२. राजा दाऊद ने वफ़ादारी का क्या रिकार्ड बनाया?
१२ राजा दाऊद का यहोवा पर उल्लेखनीय विश्वास था, और परमेश्वर ने वाचा बान्धी की वह राजाओं के एक वंश का पिता होगा जो हमेशा तक रहेगा। (२ शमूएल ७:१६; १ राजा ९:५; भजन ८९:२९) यहोवा के प्रति दाऊद की नम्र अधीनता अनुकरण के योग्य थी। उसने कहा: “हे यहोवा तेरी सामर्थ्य से राजा आनन्दित होगा; और तेरे किए हुए उद्धार से वह अति मगन होगा।” (भजन २१:१) हालाँकि दाऊद कभी-कभी शारीरिक कमज़ोरी के कारण चूक गया, सामान्यतः वह अपनी सामर्थ्य पर नहीं, बल्कि यहोवा की सामर्थ्य पर निर्भर रहा।
ग़ैर-ईश्वरशासित कार्य और मनोवृत्तियाँ
१३, १४. दाऊद के उत्तराधिकारियों द्वारा किए कुछ ग़ैर-ईश्वरशासित कार्य क्या थे?
१३ सारे इस्राएली अगुए मूसा और दाऊद की तरह नहीं थे। अनेकों ने ईश्वरशासित प्रबन्ध के लिए घोर अनादर दिखाया, इस्राएल में झूठी उपासना की अनुमति दी। कुछ वफ़ादार शासकों ने भी कभी-कभी ग़ैर-ईश्वरशासित कार्य किए। सुलैमान का मामला बहुत दुःखद था, जिसे बहुत बुद्धि और समृद्धि दी गई थी। (१ राजा ४:२, ५, २९) फिर भी, यहोवा के नियम की उपेक्षा करते हुए, उसने अनेक विवाह किए और इस्राएल में मूर्तिपूजा की अनुमति दी। स्पष्टतः, उसके बाद के सालों में सुलैमान का शासन अत्याचारी था।—व्यवस्थाविवरण १७:१४-१७; १ राजा ११:१-८; १२:४.
१४ सुलैमान के पुत्र रहूबियाम के सामने एक माँग रखी गई कि वह अपनी प्रजा का बोझ हलका कर दे। स्थिति को नरमी से सम्भालने के बजाय, उसने अत्याचारी रूप से अपना अधिकार चलाया—और १२ में से १० गोत्र खो दिए। (२ इतिहास १०:४-१७) अलग हुए दस-गोत्र राज्य का पहला राजा यारोबाम था। इस प्रयास में कि उसका राज्य कभी दो-गोत्र राज्य के साथ दुबारा न जुड़े, उसने बछड़े की उपासना स्थापित की। यह राजनैतिक रूप से शायद एक चालाक क़दम प्रतीत हुआ हो, लेकिन इसने ईशतन्त्र के लिए घोर अनादर दिखाया। (१ राजा १२:२६-३०) बाद में, लम्बी उम्र तक वफ़ादार सेवा करने के अन्त में, राजा आसा ने घमंड के कारण अपने रिकार्ड पर कलंक लगने दिया। उसने उस भविष्यवक्ता के साथ दुर्व्यवहार किया जो यहोवा की ओर से उसके पास सलाह लेकर आया था। (२ इतिहास १६:७-११) जी हाँ, कभी-कभी बड़ी उम्र के लोगों को भी सलाह की ज़रूरत होती है।
ईशतन्त्र का अन्त
१५. जब यीशु पृथ्वी पर था, तो यहूदी अगुए किस प्रकार एक ईशतन्त्र में पदाधिकारियों के रूप में असफल रहे?
१५ जब यीशु मसीह पृथ्वी पर था, उस समय भी इस्राएल एक ईशतन्त्र था। लेकिन, दुःख की बात है कि उसके अनेक ज़िम्मेदार प्राचीन लोग आध्यात्मिक रूप से प्रवृत्त नहीं थे। वे निश्चय ही उस नम्रता को विकसित करने में असफल रहे जो मूसा ने दिखाई। यीशु ने उनकी आध्यात्मिक भ्रष्टता की ओर संकेत किया जब उसने कहा: “शास्त्री और फरीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं। इसलिये वे तुम से जो कुछ कहें वह करना, और मानना; परन्तु उन के से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं।”—मत्ती २३:२, ३.
१६. किस प्रकार पहली शताब्दी के यहूदी अगुओं ने दिखाया कि उन्हें ईशतन्त्र के लिए कोई आदर नहीं था?
१६ यीशु को पुन्तियुस पीलातुस के हाथ सौंपने के बाद, यहूदी अगुओं ने दिखाया कि वे ईश्वरशासित अधीनता से कितनी दूर भटक गए थे। पीलातुस ने यीशु की जाँच करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि वह निर्दोष व्यक्ति था। यीशु को बाहर यहूदियों के सामने लाकर, पीलातुस ने कहा: “देखो, यही है, तुम्हारा राजा!” जब यहूदी यीशु की मृत्यु की माँग कर रहे थे, तो पीलातुस ने पूछा: “क्या मैं तुम्हारे राजा को क्रूस [यातना स्तम्भ, NW] पर चढ़ाऊं?” महायाजकों ने उत्तर दिया: “कैसर को छोड़ हमारा और कोई राजा नहीं।” (यूहन्ना १९:१४, १५) उन्होंने यीशु को नहीं जो ‘प्रभु [यहोवा, NW] के नाम से आया’ बल्कि कैसर को राजा के रूप में स्वीकार किया!—मत्ती २१:९.
१७. शारीरिक इस्राएल क्यों एक ईश्वरशासित जाति नहीं रही?
१७ यीशु को अस्वीकार करके यहूदियों ने ईशतन्त्र को अस्वीकार किया, क्योंकि भावी ईश्वरशासित प्रबन्धों में उसका मुख्य स्थान होना था। यीशु दाऊद का शाही पुत्र था जो सर्वदा राज्य करेगा। (यशायाह ९:६, ७; लूका १:३३; ३:२३, ३१) अतः, शारीरिक इस्राएल अब परमेश्वर की चुनी हुई जाति नहीं रही।—रोमियों ९:३१-३३.
एक नया ईशतन्त्र
१८. पहली-शताब्दी में कौनसे नए ईशतन्त्र का जन्म हुआ? व्याख्या कीजिए।
१८ लेकिन, परमेश्वर द्वारा शारीरिक इस्राएल को अस्वीकार करना पृथ्वी पर ईशतन्त्र का अन्त नहीं था। यीशु मसीह के द्वारा यहोवा ने एक नया ईशतन्त्र स्थापित किया। यह अभिषिक्त मसीही कलीसिया थी, जो वास्तव में एक नई जाति थी। (१ पतरस २:९) प्रेरित पौलुस ने उसे ‘परमेश्वर का इस्राएल’ कहा, और अन्त में उसके सदस्य “हर एक कुल, और भाषा, और लोग, और जाति में से” आए। (गलतियों ६:१६; प्रकाशितवाक्य ५:९, १०) उन मानव सरकारों के अधीन होते हुए भी जिनके अधीन वे रहते थे, इस नए ईशतन्त्र के सदस्य सचमुच परमेश्वर द्वारा शासित थे। (१ पतरस २:१३, १४, १७) नए ईशतन्त्र के जन्म के तुरन्त बाद, शारीरिक इस्राएल के शासकों ने कुछ शिष्यों को यीशु द्वारा उन्हें दी गई एक आज्ञा को मानने से जबरदस्ती रोकने की कोशिश की। प्रतिक्रिया? “मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही कर्तव्य कर्म है।” (प्रेरितों ५:२९) सचमुच, एक ईश्वरशासित दृष्टिकोण!
१९. किस अर्थ में पहली-शताब्दी मसीही कलीसिया को एक ईशतन्त्र कहा जा सकता था?
१९ लेकिन, नए ईशतन्त्र ने कैसे कार्य किया? इस में राजा था, यीशु मसीह, जो महान् ईशतन्त्र शासक, यहोवा परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। (कुलुस्सियों १:१३) हालाँकि राजा स्वर्ग में अदृश्य था, उसका शासन उसकी प्रजा के लिए वास्तविक था, और उसके शब्दों ने उनके जीवन नियंत्रित किए। दृश्य निगरानी के लिए, आध्यात्मिक रूप से योग्य प्राचीन लोग नियुक्त किए जाते थे। यरूशलेम में ऐसे पुरुषों का एक समूह शासी निकाय के रूप में कार्य करता था। उस निकाय का प्रतिनिधित्व करते थे सफ़री प्राचीन, जैसे कि पौलुस, तीमुथियुस, और तीतुस। और हर कलीसिया की देखरेख पुरनियों, या प्राचीनों का एक निकाय करता था। (तीतुस १:५) जब कोई कठिन समस्या उठती, तो प्राचीन लोग शासी निकाय से या उसके एक प्रतिनिधि, जैसे कि पौलुस से सलाह लेते। (प्रेरितों १५:२; १ कुरिन्थियों ७:१; ८:१; १२:१ से तुलना कीजिए.) इसके अतिरिक्त, कलीसिया का हर सदस्य ईशतन्त्र का समर्थन करने में भूमिका निभाता था। हर व्यक्ति अपने जीवन में शास्त्रीय सिद्धान्तों को लागू करने के लिए यहोवा के सामने ज़िम्मेदार था।—रोमियों १४:४, १२.
२०. प्रेरितों के बाद के समय में ईशतन्त्र के बारे में क्या कहा जा सकता है?
२० पौलुस ने चेतावनी दी कि प्रेरितों की मृत्यु के बाद, धर्मत्याग विकसित होगा, और ठीक वैसा ही हुआ। (२ थिस्सलुनीकियों २:३) जैसे-जैसे समय बीतता गया, मसीही होने का दावा करनेवालों की संख्या लाखों में और फिर करोड़ों में हो गई। उन्होंने भिन्न प्रकार की गिरजा सरकारें विकसित कीं, जैसे कि धर्मतन्त्रीय (hierarchical), पुरोहित-तन्त्रीय (presbyterian), और कलीसियात्मक (congregational)। लेकिन, इन गिरजों के न तो आचरण ने और न ही इनके विश्वास ने यहोवा के शासकत्व को प्रतिबिम्बित किया। वे ईशतन्त्र नहीं थे!
२१, २२. (क) अन्त के समय के दौरान यहोवा ने कैसे ईशतन्त्र पुनःस्थापित किया है? (ख) ईशतन्त्र के बारे में आगे कौनसे प्रश्नों के उत्तर दिए जाएँगे?
२१ इस रीति-व्यवस्था के अन्त के समय के दौरान, सच्चे मसीहियों और झूठे मसीहियों के बीच एक छँटाई होनी थी। (मत्ती १३:३७-४३) यह १९१९ में हुआ, ईशतन्त्र के इतिहास में एक निर्णायक साल। उस समय यशायाह ६६:८ की शानदार भविष्यवाणी पूरी हुई: “किस ने कभी ऐसी बातें देखीं? क्या देश एक ही दिन में उत्पन्न हो सकता है? क्या एक जाति क्षणमात्र में ही उत्पन्न हो सकती है?” उन प्रश्नों का गुंजायमान उत्तर था, हाँ! साल १९१९ में मसीही कलीसिया एक बार फिर एक अलग “जाति” के रूप में अस्तित्व में थी। एक ईश्वरशासित “देश” एक दिन में उत्पन्न हो गया! ज्यों-ज्यों अन्त का समय बढ़ता गया, इस नई जाति के संगठन में समंजन किए गए ताकि जैसे पहली शताब्दी में था इसे जितना संभव हो सके वैसा ही किया जाए। (यशायाह ६०:१७) लेकिन यह हमेशा एक ईशतन्त्र था। आचरण और विश्वास में, इसने हमेशा शास्त्रों में परमेश्वरीय रूप से उत्प्रेरित नियमों और सिद्धान्तों को प्रतिबिम्बित किया। और यह हमेशा सिंहासनारूढ़ राजा, यीशु मसीह के अधीन था।—भजन ४५:१७; ७२:१, २.
२२ क्या आप इस ईशतन्त्र से जुड़े हुए हैं? क्या आपके पास इसमें अधिकार का एक पद है? यदि हाँ, तो क्या आप जानते हैं कि ईश्वरशासित रूप से कार्य करने का क्या अर्थ है? क्या आप जानते हैं कि किन फंदों से बचना है? अन्तिम दो प्रश्नों की चर्चा अगले लेख में की जाएगी।
क्या आप समझा सकते हैं?
▫ ईशतन्त्र क्या है?
▫ किस तरीक़े से इस्राएल एक ईशतन्त्र था?
▫ राजाओं को याद दिलाने के लिए कि इस्राएल एक ईशतन्त्र था यहोवा ने क्या प्रबन्ध किया?
▫ किस तरीक़े से मसीही कलीसिया एक ईशतन्त्र थी, और वह कैसे संगठित थी?
▫ हमारे समय में कौनसा ईश्वरशासित संगठन स्थापित किया गया है?
[पेज 24 पर तसवीरें]
पुन्तियुस पीलातुस के सम्मुख यहूदी शासकों ने यहोवा के ईश्वरशासित रूप से नियुक्त राजा को स्वीकार करने के बजाय कैसर को स्वीकार किया