यह किस का क़सूर है?
पहले मनुष्य, आदम ने यह प्रवृत्ति शुरू की। पाप करने के बाद उसने परमेश्वर से कहा: “जिस स्त्री को तू ने मेरे संग रहने को दिया है उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे दिया, और मैं ने खाया।” असल में, वह कह रहा था: “यह मेरा क़सूर नहीं है!” पहली स्त्री, हव्वा ने भी वही किया जब उसने कहा: “सर्प ने मुझे बहका दिया तब मैं ने खाया।”—उत्पत्ति ३:१२, १३.
इस तरह, मनुष्य के अपने ख़ुद के कार्यों के लिए ज़िम्मेदारी को अस्वीकार करने की मिसाल अदन की बाटिका में स्थापित हुई। क्या आप कभी इसके दोषी हुए हैं? जब समस्याएँ पैदा होती हैं, तो क्या आप दोष जल्दी से दूसरों पर लगाते हैं? या क्या आप यह देखने के लिए परिस्थिति का विश्लेषण करते हैं कि क़सूर सचमुच किस का है? रोज़मर्रा जीवन में, अपनी ग़लती के लिए दूसरों को दोषी ठहराने के जाल में फँसना और यह कहना कि, “यह मेरा क़सूर नहीं है!” बहुत आसान है। आइए सामान्य परिस्थितियों पर नज़र डालें और देखें कि कुछ लोग क्या करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। ख़ासकर, इस पर ग़ौर कीजिए कि समान स्थितियों में आप क्या करते।
आर्थिक कठिनाई
जब कुछ लोग ख़ुद को गंभीर आर्थिक कठिनाई में फँसा हुआ पाते हैं, तो शायद वे कहें, “यह मेरा क़सूर नहीं है—यह अर्थव्यवस्था, बेईमान व्यापारियों और उच्च निर्वाह व्यय का क़सूर है।” पर क्या ये कारण सचमुच दोषी हैं? शायद अनिश्चित परिस्थितियों के कारण वे संदेहास्पद या जोख़िम भरे सट्टेबाज़ व्यापार में लग गए। कभी-कभी लोभ वास्तविकता को धुँधला कर देता है, और लोग ऐसे जोख़िम भरे व्यापार करने लगते हैं जिनसे वे अनजान हैं, और जिससे वे धोखेबाज़ों का आसान शिकार बनते हैं। वे यह कहावत भूल जाते हैं, “अगर कोई चीज़ ज़्यादा ही अच्छी दिखती है, तो वह शायद ही उतनी अच्छी होती है।” वे ऐसी सलाह ढूँढते हैं जिसे वे सुनना चाहते हैं, लेकिन जब आर्थिक कठिनाई एक अप्रिय हक़ीक़त बन जाती है, तब वे दोष लगाने के लिए किसी और को ढूँढते हैं। अफ़सोस की बात है कि कभी-कभी ऐसा मसीही कलीसिया में भी हो जाता है।
कुछ लोग मूर्खतापूर्ण या जाली निवेश योजनाओं में भी फँसे हैं, जैसे कि ऐसे हीरे ख़रीदना जो अस्तित्त्व में नहीं थे, ऐसे हिट टेलिविज़न कार्यक्रमों के लिए वित्तप्रबंध करना जो जल्द ही असफल हो गए, या ऐसी भू-सम्पत्ति विकासों के लिए पैसा लगाना जो दिवालिया हो गए। धन के लिए अत्यधिक लालसा ने शायद बाइबल सलाह की उनकी याद को धुँधला कर दिया होगा: ‘जो धनी होना चाहते हैं, वे परीक्षा, और फंदे में फंसते हैं, और अपने आप को नाना प्रकार के दुखों से छलनी बना लिया है।’—१ तीमुथियुस ६:९, १०.
अनियंत्रित ख़र्च भी वित्तिय बरबादी की ओर ले जा सकता है। कुछ लोग महसूस करते हैं कि उन्हें नवीनतम फ़ैशन पत्रिका के लोगों की तरह दिखना है, महँगी छुट्टियाँ बितानी हैं, बड़े-बड़े होटलों में खाना है, और वयस्कों के नवीनतम “खिलौने”—मनबहलाव के लिए गाड़ियाँ, नाँव, कैमरे, स्टीरियो उपकरण—ख़रीदने हैं। बेशक, कुछ समय में कुछ लोग ये चीज़ें अच्छी योजना और बचत के द्वारा पा सकेंगे। फिर भी जो उन्हें पाने की हड़बड़ी में हैं, ख़ुद को कर्ज़ में डूबा हुआ पा सकते हैं। अगर वे कर्ज़ में हैं, तो यह किस का क़सूर है? ज़ाहिर है उन्होंने नीतिवचन १३:१८ की ठोस सलाह को नज़रअंदाज़ किया है: “जो शिक्षा को सुनी-अनसुनी करता वह निर्धन होता और अपमान पाता है।”
बच्चों से निराशा
शायद कुछ माता-पिता कहें, “यह प्राचीनों का क़सूर है कि मेरे बच्चों ने सच्चाई को छोड़ दिया। उन्होंने मेरे बच्चों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।”
झुण्ड की रखवाली करने और उसकी देखभाल करने की ज़िम्मेदारी प्राचीनों की ज़रूर है, लेकिन ख़ुद माता-पिता के बारे में क्या? अपने सभी कार्यों में, परमेश्वर की आत्मा के फल प्रदर्शित करने में क्या वे अनुकरणीय हैं? क्या बाइबल का पारिवारिक अध्ययन नियमितता से संचालित किया जाता था? क्या माता-पिता ने यहोवा की सेवा में जोश दिखाया और अपने बच्चों को उसके लिए तैयार होने में मदद की? क्या वे इस बारे में सतर्क थे कि उनके बच्चों के साथी कैसे हैं?
वैसे ही, स्कूल के काम के बारे में एक माता-पिता को यह कहना आसान है: “यह शिक्षकों का क़सूर है कि मेरे बेटे ने स्कूल में अच्छा काम नहीं किया। वो मेरे बेटे को नहीं चाहते थे। और वैसे भी उस स्कूल का शैक्षिक स्तर बहुत घटिया है।” लेकिन क्या माता-पिता ने स्कूल के अधिकारियों के साथ नज़दीकी रूप से संचार किया? क्या माता-पिता बच्चे के पाठ्यक्रम और पढ़ाई में दिलचस्पी रखते थे? क्या उसके गृहकार्य की सारणी बनायी गयी थी, और क्या ज़रूरत पड़ने पर मदद दी गयी थी? क्या मूलभूत समस्या, बच्चे या माता-पिता की ओर से दृष्टिकोण या सुस्ती का एक मसला है?
माता-पिता द्वारा स्कूल व्यवस्था को दोष देने के बजाय, यह निश्चित करने के लिए कि उनके बच्चों के पास सही मनोवृत्ति है और वे उन्हें स्कूल में उपलब्ध सीखने के मौक़ों का फ़ायदा उठाते हैं, सकारात्मक कार्य करना कहीं ज़्यादा फलदायक है।
आध्यात्मिक रूप से फलने-फूलने में असफलता
कभी-कभी हम किसी को यह कहते हुए सुनते हैं: “मैं आध्यात्मिक रूप से ज़्यादा मज़बूत होता, लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ इसमें मेरा कोई क़सूर नहीं है। प्राचीन मेरी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। मेरे पास दोस्त नहीं हैं। इस कलीसिया पर यहोवा की आत्मा नहीं है।” इस दौरान, कलीसिया में दूसरों के पास दोस्त हैं, वे ख़ुश हैं, और अच्छी आध्यात्मिक प्रगति करते हैं; और कलीसिया पर उन्नति और आध्यात्मिक समृद्धि की आशिष है। सो कुछ लोगों के पास समस्याएँ क्यों होती हैं?
थोड़े लोग ही एक नकारात्मक और शिकायती प्रवृत्ति प्रदर्शित करनेवाले लोगों के घनिष्ट साथी बनना चाहते हैं। एक तेज़, काट खानेवाली ज़ुबान और हर समय शिकायत करते रहना बहुत निराश करनेवाली हो सकती है। कुछ लोग शायद ऐसे व्यक्तियों से अपनी सामाजिक संगति सीमित करें, क्योंकि वे आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर नहीं होना चाहते। इस बात को कलीसिया की ओर से रूखापन समझकर एक व्यक्ति, पहले एक कलीसिया, फिर दूसरी, फिर तीसरी कलीसिया में जाने के द्वारा स्थानांतरण शुरू कर सकता है। हमेशा हरियाली की खोज में रहनेवाले अफ्रीका के मैदानों के प्रवासी जानवारों की तरह, ये “प्रवासी” मसीही उन्हें ज़्यादा जँचनेवाली कलीसिया की हमेशा खोज में रहते हैं। इसके बजाय, अगर वे दूसरे लोगों के अच्छे गुणों को देखते और परमेश्वर की आत्मा के फल ख़ुद अपने जीवन में ज़्यादा अच्छी तरह से प्रदर्शित करने की कोशिश करते, तो वे कितने ज़्यादा ख़ुश हो सकते हैं!—गलतियों ५:२२, २३.
कुछ लोग, राज्यगृह की हर सभा में एक अलग व्यक्ति से बात करने की ख़ास कोशिश करने और एक अच्छे मुद्दे पर उसकी निष्कपटता से सराहना करने के द्वारा ऐसा करते हैं। यह सराहना उसके सुशील बच्चों, मसीही सभाओं में नियमितता, प्रहरीदुर्ग अध्ययन में अच्छी तरह तैयार की गयी टिप्पणियों, कलीसिया पुस्तक अध्ययन और क्षेत्र सेवा की सभाओं के लिए उसके अपना घर खुला रखने के द्वारा सत्कार दिखाने, वग़ैरह के लिए हो सकती है। ऐसे अच्छे गुण, जो ऊपरी तौर पर नहीं दिखते हैं, को देखने का अपना लक्ष्य बनाने के द्वारा, आप अपने मसीही भाइयों और बहनों में निश्चय ही उत्कृष्ट गुण पाएँगे। यह आपको उनका प्रिय बनाएगा, और आप पाएँगे की आपके पास वफ़ादार दोस्तों की कोई कमी नहीं है।
आख़री बहाना
“यह परमेश्वर की इच्छा है।” “इब्लीस पर उसका दोष डालो।” अपनी ख़ुद की असफलताओं के लिए परमेश्वर या फिर इब्लीस पर दोष डालना शायद आख़री बहाना है। यह सच है कि परमेश्वर या शैतान शायद हमारे जीवन की कुछ घटनाओं पर प्रभाव डालें। बहरहाल, कुछ लोग विश्वास करते हैं कि उनके जीवन की लगभग हर बात, चाहे अच्छी हो या बुरी, परमेश्वर या शैतान के दख़ल का नतीजा है। यह ऐसा है मानो, उनके साथ जो हुआ है वह कुछ भी उनके अपने कामों का परिणाम नहीं था। “अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं वह नयी गाड़ी लूँ, तो वह उसे लेना मेरे लिए संभव बनाएगा।”
ऐसे लोग अपना जीवन अकसर लापरवाही से जीते हैं, इस पूर्व धारणा पर वित्तीय और अन्य निर्णय लेते हुए कि परमेश्वर उन्हें बचाएगा। अगर उनके बेपरवाह काम, अर्थिक या किसी अन्य विपत्ति में परिणित होते हैं, तो वे इब्लीस पर दोष लगाते हैं। पहले बिना ‘सोचे समझे’ जल्दबाज़ी में कुछ करना, और फिर असफलता के लिए शैतान पर दोष लगाना, या इससे भी बदतर, यहोवा से दख़ल देने की अपेक्षा करना, केवल ढिठाई ही नहीं होगी बल्कि शास्त्रवचन के विपरित भी होगा।—लूका १४:२८, २९.
शैतान ने कोशिश की कि यीशु को इस तरह सोचने में लगाए और यह कि वह अपने कार्यों के लिए ज़िम्मेदारी न ले। दूसरी परीक्षा के बारे में मत्ती ४:५-७ बताता है: “इब्लीस उसे पवित्र नगर में ले गया और मन्दिर के कंगूरे पर खड़ा किया। और उस से कहा यदि तू परमेश्वर का पुत्र है, तो अपने आप को नीचे गिरा दे; क्योंकि लिखा है, कि वह तेरे विषय में अपने स्वर्गदूतों को आज्ञा देगा; और वे तुझे हाथों हाथ उठा लेंगे; कहीं ऐसा न हो कि तेरे पांवों में पत्थर से ठेस लगे।” यीशु इस बात से अवगत था कि अगर वह एक अन्धाधुन्ध, यहाँ तक कि आत्मघातक मार्ग अपनाता, तो वह यहोवा से दख़ल देने की अपेक्षा नहीं कर सकता था। इसलिए उसने जवाब दिया: “यह भी लिखा है, कि तू प्रभु अपने परमेश्वर की परीक्षा न कर।”
अपने संदेहास्पद कार्यों के लिए इब्लीस या परमेश्वर पर दोष लगाने के लिए प्रवृत्त लोग, ज्योतिष-शास्त्र के अनुयायियों से बहुत मिलते-जुलते हैं, जो बस इतना ही करते हैं कि परमेश्वर या इब्लीस की जगह तारों को दे देते हैं। इस बात से पूरी तरह विश्वस्त होकर कि होनेवाली लगभग सभी बातें उनके क़ाबू के बाहर हैं, वे गलतियों ६:७ में बताए गए सरल सिद्धान्त को नज़रअंदाज़ करते हैं: “मुनष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा।”
हक़ीक़त का सामना करना
इसमें कोई दो राय नहीं कि हम एक अपरिपूर्ण संसार में जी रहे हैं। यहाँ पर चर्चा की गयी समस्याएँ वास्तविक हैं। लोग वित्तीय रूप से हमारा फ़ायदा उठाएँगे। कुछ मालिक अन्यायी होंगे। परिचित लोग शायद हमारे बच्चों पर ग़लत रीति से प्रभाव डाल सकते हैं। कुछ शिक्षकों और स्कूलों में सुधार की ज़रूरत है। कभी-कभी प्राचीन ज़्यादा प्रेममय और चिन्तित हो सकते हैं। लेकिन हमें अपरिपूर्णताओं के असर को और, जैसे बाइबल स्पष्ट करती है कि, “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है,” इस बात को स्वीकार करना है। सो यह अपेक्षा करना यथार्थवादी नहीं है कि ज़िन्दगी का हमारा रास्ता हमेशा आसान होगा।—१ यूहन्ना ५:१९.
इसके अतिरिक्त, हमें अपनी ख़ुद की अपरिपूर्णताओं और सीमाओं को पहचानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि कई बार हमारी समस्याएँ हमारी अपनी मूर्खता का ही नतीजा होती हैं। पौलुस ने रोम के मसीहियों को सलाह दी: “मैं . . . तुम में से हर एक से कहता हूं, कि जैसा समझना चाहिए, उस से बढ़कर कोई भी अपने आप को न समझे।” (रोमियों १२:३) वह सलाह आज हमें उतनी ही प्रभावशालिता से लागू होती है। जब हमारे जीवन में कुछ अप्रीतिकर बात हो जाती है, तब जल्दी से हम अपने पूर्वज आदम और हव्वा का अनुकरण करके यह नहीं कहेंगे: “यह मेरा क़सूर नहीं है!” इसके बजाय, हम अपने आप से पूछेंगे, ‘इस दुःखद परिणाम को टालने के लिए मैं कुछ और क्या कर सकता था? क्या मैंने इस विषय में अच्छी समझदारी से काम लिया और एक बुद्धिमान स्रोत से परामर्श लिया? क्या मैंने इसमें शामिल पक्ष या पक्षों को सम्मान देते हुए उन्हें संदेह-लाभ दिया?’
अगर हम मसीही सिद्धान्तों का अनुकरण करेंगे और अच्छी समझदारी का प्रयोग करेंगे, तो हमारे पास ज़्यादा दोस्त और कम समस्याएँ होंगी। हमारी रोज़मर्रा ज़िन्दगी की अनेक अनावश्यक समस्याओं का हल होगा। दूसरों के साथ अपने व्यवहार में हम ख़ुशी पाएँगे और यह सवाल हमें नहीं सताएगा: “यह किस का क़सूर है?”
[पेज 28 पर तसवीरें]
अपने बच्चों को आध्यात्मिक रूप से फलने-फूलने में मदद देने के लिए माता-पिता काफ़ी कुछ कर सकते हैं