वे माफी क्यों माँग रहे हैं?
यह धारणा कि चर्चों को अपनी गलतियों के लिए पछताना चाहिए और खुद में सुधार लाना चाहिए, कोई नयी बात नहीं। धर्म का शब्दकोश, रेलीजोनी ए मीटी (धर्म और मिथ्य कथाएँ) कहता है कि मध्ययुग के दौरान, आरंभिक चर्चों की तथाकथित अखंडता ने सुधार के लिए लोगों में रुचि जगाई और कइयों को उकसाया।
सन् १५२३ में मार्टिन लूथर के रोम से अलग हो जाने के बाद, पोप एड्रियन VI ने नुरमबर्ग की विधान-सभा को यह संदेश भेजकर दरार मिटाने की कोशिश की: “हम अच्छी तरह जानते हैं कि कई सालों से घृणित बातें होली सी [पोप के अधिकार क्षेत्र] में इकट्ठी हो गई हैं . . . हम सबसे पहले पोप मंत्री-मंडल में सुधार लाने के लिए पूरी मेहनत करेंगे, संभवतः जहाँ से ये सारी दुष्टता का उद्गम हुआ था।” फिर भी, यह स्वीकृति न ही मतभेद सुलझा पायी, न ही यह पोप मंत्री-मंडल के भ्रष्टाचार निकालने में सफल हो पायी है।
अभी हाल ही में, यहूदी जनसंहार के मामले में अपनी चुप्पी के कारण चर्चों की कड़ी निंदा की गई। उन पर यह भी इलज़ाम लगाया गया कि युद्ध में हिस्सा न लेने के लिए उन्होंने अपने सदस्यों को नहीं रोका। सन् १९४१ में जब दूसरा विश्व युद्ध बड़े तैश में था, प्रीमो मात्ज़ोलारी नामक पादरी ने पूछा: “कैथोलिक शिक्षाओं के परास्त होने पर रोम ने क्यों कोई ज़बरदस्त प्रतिक्रिया नहीं दिखायी, जैसा की वह हमेशा दिखाता था और वैसे तो कम खतरनाक सिद्धांतों के मामलों में वह अब भी दिखाने का आदी है?” सिद्धांत कम खतरनाक, किसकी तुलना में? पादरी उस युद्ध भड़कानेवाले राष्ट्रवाद सिद्धांत के बारे में बोल रहा था जो उस समय सभ्यता को क्षति पहुँचा रहा था।
फिर भी यह हकीकत है कि हाल के समय तक धर्म द्वारा दोष की स्वीकृति असामान्य बात थी। सन् १८३२ में जब कुछ लोगों ने कैथोलिक चर्च से ‘अपने आपको पुनःनवीन’ करने का आग्रह किया तब उसके जवाब में ग्रॆगरी XVI ने कहा: “[चर्च की] सुरक्षा और बढ़ौतरी के लिए किसी तरह के ‘पुनःस्थापन और पुनःनवीकरण’ करने की बात तो बिलकुल ही बेतुकी और हानिकारक है, मानो उसमें कुछ त्रुटियाँ हों।” ऐसी त्रुटियों के बारे में क्या जिन्हें नकारा नहीं जा सकता? इनकी सफाई में कई तरह के दाँवपेंच अपनाये गए थे। उदाहरण के लिए कुछ धर्मशास्त्रियों का दावे के साथ कहना है कि चर्च पवित्र और पापपूर्ण, दोनों ही है। किसी भी त्रुटि से परमेश्वर द्वारा सुरक्षित—चर्च अपने आपमें पवित्र कहा गया है। फिर भी, उसके सदस्य पापी हैं। इसलिए जब चर्च के नाम पर क्रूर अत्याचार किए जाते हैं, तब स्वयं चर्च को नहीं वरन् चर्च के सदस्यों को ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए। क्या यह तर्कसंगत लगता है? रोमन कैथोलिक धर्मशास्त्री, हान्स कूएन को तो नहीं, जिसने लिखा: “असिद्ध मानवी सदस्यों से अलग ऐसा कोई भी सिद्ध चर्च नहीं हो सकता।” उसने समझाया: “ऐसा चर्च अस्तित्व में नहीं है जिसमें कोई पाप न हो।”
अखिल चर्च एकतावाद और नैतिक स्थिति
आप शायद हैरत करें कि ऐसी किस बात ने चर्चों को अब माफी माँगने के लिए प्रेरित किया है। सबसे पहले प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स ने कबूल किया कि वे विभिन्न संप्रदायों के बीच हुए “अतीत के विभाजनों” के लिए ज़िम्मेदार हैं। इन्होंने १९२७ में लोज़ान, स्विट्ज़रलैंड में हुए “विश्वास और व्यवस्था” अखिल चर्च एकता सम्मेलन में इसे कबूल किया था। अंत में, रोमन कैथोलिक चर्च ने भी उनका अनुकरण किया। खासकर वैटिकन IIa से, उच्च धर्माधिकारी, जिनमें पोप शामिल हैं, मसीहीजगत में हुए विभाजनों के लिए कई बार माफी माँगने लगे हैं। किस उद्देश्य से? स्पष्टतः उन्हें मसीहीजगत में अधिक एकता चाहिए। कैथोलिक इतिहासकार नीकोलीनो साराले ने कहा कि जॉन पॉल II के “‘मेया कुल्पा’ की योजना में जो एक परियोजना है, वह है अखिल चर्च एकतावाद।”
बहरहाल, इसमें अखिल चर्च एकतावाद से अधिक शामिल है। मसीहीजगत के अकीर्तिकर इतिहास से आज कोई अनजान नहीं है। “कैथोलिक अपने सारे इतिहास को बस यूँ नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता,” धर्मशास्त्री हान्स उर्स फॉन बालटाझार ऐसा कहते हैं। “पोप जिस चर्च का है, उसी चर्च ने ऐसे काम किए या होने दिए हैं, आजकल जिसकी मान्यता हम हरगिज़ नहीं दे सकते।” इसीलिए पोप ने आयोग का गठन किया है कि “चर्च के काले पन्नों पर प्रकाश डाला जाए जिससे कि . . . माफी माँगी जा सके।” और फिर आत्म-आलोचना के लिए चर्च का यूँ स्वयं राज़ी होने का दूसरा कारण लगता है कि वह फिर से अपनी नैतिक स्थिति अपनाने की चाह रखता है।
इसी तरह माफी माँगने के चर्च के निवेदनों पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार आलबर्टो मेलोनी लिखता है: “हकीकत में, कभी-कभी ऐसा दोषारोपण की ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाने के लिए किया जाता है।” जी हाँ, ऐसा प्रतीत होता है कि कैथोलिक चर्च अपने अतीत के पापों को हलका दिखाने की कोशिश कर रहा है ताकि जनता की नज़रों में फिर से अपनी विश्वसनीयता हासिल कर सके। हालाँकि, पूरी ईमानदारी से कहा जाए तो ऐसा लगता है कि उसे परमेश्वर की अपेक्षा संसार के साथ शांति बनाने की चिंता अधिक है।
ऐसे आचरण हमें इस्राएल के पहले राजा, शाऊल की याद दिलाते हैं। (१ शमूएल १५:१-१२) उसने गंभीर गलती की थी और जब उसका खुलासा हुआ तो उसने परमेश्वर के वफादार भविष्यवक्ता शमूएल को पहले सफाई देने—अपनी गलती के लिए बहाना बनाने—की कोशिश की। (१ शमूएल १५:१३-२१) आखिरकार, राजा को शमूएल से कबूल करना ही पड़ा: “मैं ने पाप किया है; . . . यहोवा की आज्ञा . . . का उल्लंघन किया है।” (१ शमूएल १५:२४, २५) जी हाँ, उसने अपनी गलती कबूल की। लेकिन, शाऊल के मन में जो सबसे प्रमुख बात थी, वह उसके आगे के शब्द प्रकट करते हैं: “मैं ने पाप तो किया है; तौभी मेरी प्रजा के पुरनियों और इस्राएल के साम्हने मेरा आदर कर।” (१ शमूएल १५:३०) स्पष्टतः, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप करने से भी ज़्यादा चिंता शाऊल को इस्राएल में अपनी इज़्ज़त की थी। इस मनोवृत्ति की वज़ह से शाऊल परमेश्वर से क्षमा नहीं पा सका था। क्या आपको लगता है कि वही मनोवृत्ति चर्चों को परमेश्वर से क्षमा दिला पाएगी?
सभी सहमत नहीं होते
चर्चों के यूँ सरेआम माफी माँगने के बारे में सभी सहमत नहीं होते। उदाहरण के लिए, बहुत से रोमन कैथोलिक असहज महसूस करते हैं जब उनका पोप गुलामी के लिए माफी माँगता है या हस और कैल्विन जैसे “अपधर्मियों” की पुनःप्रतिष्ठा करता है। वैटिकन स्रोतों के अनुसार पिछले हज़ारों वर्षों के कैथोलिकवाद के इतिहास पर “अंतःकरण की जाँच” के प्रस्ताव का जो दस्तावेज़ कार्डिनल को भेजा गया था, कार्डिनलों ने जून १९९४ में हुई धर्म-सभा में उसकी निंदा की। फिर भी जब पोप उस प्रस्ताव की विषयवस्तु को पोप परिपत्र में शामिल करना चाहता था तो इतालवी कार्डिनल जाकोमो बीफ्फी ने एक पास्टरी नोट प्रकाशित किया जिसमें उसने दृढ़तापूर्वक कहा: “चर्च में कोई पाप नहीं।” इसके बावजूद उसने इतना तो मान लिया: “बीती सदियों में धर्म-संबंधी गलतियों के लिए माफी माँगने से . . . शायद हमें और बेहतर रूप से स्वीकृति मिले।”
वैटिकन समालोचक लूईजी आकाटीली कहता है: “कैथोलिक चर्च में पाप-स्वीकृति एक सबसे विवादास्पद विषय है। जब पोप मिशनरियों की गलतियों को कबूल करता है तब कुछ मिशनरी उचित ही नाराज़ हो जाते हैं।” और रोमन कैथोलिक पत्रकार ने आगे लिखा: “पोप अगर वास्तव में चर्च के इतिहास के बारे में ऐसी भयानक धारणा रखता है तो यह समझना बड़ा मुश्किल है कि कैसे वह अब उसी चर्च को ‘मानव अधिकार’ का उल्लेखनीय अगुवा अर्थात् ऐसी ‘माता और गुरु’ के रूप में प्रस्तुत कर सकता है जो मानवता को सचमुच उज्जवल तीसरी सहस्राब्दी की ओर मार्गदर्शित कर सकता है।”
बाइबल ऐसे दिखावटी पश्चाताप से सावधान करती है जो मात्र गलती के पकड़े जाने की शर्मिंदगी की वज़ह से हो। इस प्रकार का पश्चाताप बमुश्किल ही किसी पश्चातापी को हमेशा के सुधार की ओर ले जाता है। (२ कुरिन्थियों ७:८-११ से तुलना कीजिए।) परमेश्वर की नज़रों में उसी पश्चाताप का महत्त्व है जो ‘मन फिराव के योग्य फल लाए’—मतलब, पश्चाताप की निष्कपटता का प्रमाण।—लूका ३:८.
बाइबल कहती है कि जो पश्चाताप और पाप-स्वीकार करता है उसे आईंदा से गलत कार्य करना छोड़ देना चाहिए यानी बिलकुल नहीं करना चाहिए। (नीतिवचन २८:१३) क्या ऐसा हुआ है? देखिए, रोमन कैथोलिक चर्च और अन्य चर्चों द्वारा गलतियों के लिए पाप-स्वीकृति करने के बाद, केंद्रिय अफ्रीका और पूर्वी यूरोप के हाल के गृह युद्ध में क्या हुआ जिसमें बड़ी संख्या में “मसीही” शामिल थे? शांति के लिए क्या चर्च ने प्रेरक-शक्ति के रूप से काम किया? उन सभी क्रूर अत्याचारों के लिए जो उसके सदस्य कर रहे थे क्या उनके गुरुओं ने एक होकर उसका विरोध किया? जी नहीं। क्या कहने, कुछ धार्मिक सेवकों ने तो हत्याकांड में भी हिस्सा लिया!
ईश्वरीय न्यायदंड
पोप द्वारा बारंबार मेया कुल्पा मानने पर व्यंग करते हुए कार्डिनल बीफ्फी ने कहा: “अतीत में किए गए पापों के लिए क्या बेहतर न होगा कि हम सभी विश्वव्यापी न्यायदंड के लिए इंतज़ार करें?” वैसे तो सारी मानवजाति का न्याय सन्निकट है। यहोवा परमेश्वर धार्मिक इतिहास के काले पन्नों से खूब अच्छी तरह वाकिफ है। जल्दी ही वह कसूरवारों से लेखा लेगा। (प्रकाशितवाक्य १८:४-८) इस दरमियान क्या एक ऐसी किस्म की उपासना को पाना संभव है जो रक्तदोष से, हत्यारे स्वभाव से और दूसरे अपराधों से बेदाग हो जिसके लिए मसीहीजगत के चर्च माफी माँग रहे हैं? जी, बिलकुल है।
हम उसे कैसे पा सकते हैं? यीशु मसीह द्वारा दिए गए नियम पर ध्यान देने के द्वारा: “उन के फलों से तुम उन्हें पहचान लोगे।” ऐतिहासिक रिकॉर्ड, जिसे कुछ धर्म भूल जाना पसंद करेंगे, न केवल उन्हें पहचानने में हमारी मदद करता है जिन्हें यीशु ने “झूठे भविष्यद्वक्ताओं” कहा था वरन् उन्हें भी जिन्होंने “अच्छा फल” उत्पन्न किया है। (मत्ती ७:१५-२०) ये कौन हैं? हम आपको आमंत्रित करते हैं कि यहोवा के साक्षियों के साथ बाइबल की जाँच कर आप खुद इसका पता लगाएँ। देखिए कि कौन संसार पर प्रभाव डालने की खातिर एक पद पाने की कोशिश करने के बजाय, आज वास्तव में परमेश्वर के वचन का अनुकरण करने की कोशिश करते हैं।—प्रेरितों १७:११.
[फुटनोट]
a २१वीं अखिल चर्च एकता परिषद् जो रोम में १९६२-६५ के दौरान चार सत्रों में हुई थी।
[पेज 5 पर तसवीर]
इस प्रकार के क्रूर कार्यों के लिए चर्च माफी माँग रहा है
[चित्र का श्रेय]
The Complete Encyclopedia of Illustration/J. G. Heck