कॉन्स्टनटाइन महान—मसीहियत का हिमायती?
रोमी सम्राट कॉन्स्टनटाइन उन चुनिंदा व्यक्तियों में है जिनके नाम को इतिहास ने “महान” शब्द से सँवारा है। मसीहीजगत ने इन पदों को जोड़ा है, “संत,” “तेरहवाँ प्रेरित,” “प्रेरितों की तरह पवित्र,” और ‘सारे संसार में सबसे बड़ा परिवर्तन करने के लिए परमेश्वर की पूर्वदृष्टि से चुना गया।’ लेकिन तसवीर का दूसरा रुख देखें तो, कुछ लोग कॉन्स्टनटाइन का वर्णन यूँ करते हैं, “हत्यारा, बेहिसाब ज़ुल्मों के लिए बदनाम और छल-कपट से भरा हुआ, . . . भयंकर अपराधों का दोषी, ज़ालिम तानाशाह।”
मसीही होने का दावा करनेवाले अनेक लोगों को बताया गया है कि कॉन्स्टनटाइन महान, मसीहियत के सबसे प्रमुख संरक्षकों में एक है। वे उसे मसीहियों को रोमी सताहट के दुःख से छुटकारा दिलाने का और उन्हें धार्मिक आज़ादी देने का श्रेय देते हैं। इसके अलावा, बहुत से लोग यह मानते हैं कि वह यीशु मसीह के पदचिन्हों पर चलनेवाला उसका वफादार अनुयायी था और उसमें मसीहियत को फैलाने की तीव्र इच्छा थी। ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च और कॉप्टिक चर्च ने कॉन्स्टनटाइन और उसकी माँ, हेलॆना दोनों को “संत” घोषित किया है। इनके लिए जून ३ को या चर्च कैलॆंडर के अनुसार, मई २१ को पर्व मनाया जाता है।
असल में कॉन्स्टनटाइन महान था कौन? प्रेरितों के बाद की मसीहियत के विकास में उसकी भूमिका क्या थी? इन सवालों पर इतिहास और विद्वानों के जवाब से ढेर सारी जानकारी मिलती है।
इतिहास में कॉन्स्टनटाइन
कॉन्सटानटियुस ख्लोरस का बेटा, कॉन्स्टनटाइन सर्बिया के नेइसस में लगभग सा.यु. २७५ के साल में पैदा हुआ था। जब उसका पिता सा.यु. २९३ में रोम के पश्चिमी प्रांतों का सम्राट बना, तब वह सम्राट गलिरीयस के हुक्म पर डानयूब नदी के निकट लड़ाई लड़ रहा था। कॉन्स्टनटाइन सा.यु. ३०६ के साल में, ब्रिटॆन में अपने पिता के पास लौट आया जो अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहा था। उसके पिता की मौत के तुरंत बाद, सेना ने कॉन्स्टनटाइन को सम्राट के पद पर बिठा दिया।
उस वक्त, पाँच अन्य व्यक्तियों ने ऑगस्टी (राजा) होने का दावा किया। सामान्य युग ३०६ और ३२४ के बीच के समय में गृहयुद्ध लगातार चलता रहा, उसके बाद कॉन्स्टनटाइन एकमात्र राजा बन गया। दो जंगों में विजय पाने से, रोमी इतिहास में कॉन्स्टनटाइन की जगह पक्की हो गयी और इससे वह रोमी साम्राज्य का एकमात्र शासक बन गया।
सामान्य युग ३१२ में, कॉन्स्टनटाइन ने रोम के बाहर मिल्वियन पुल की लड़ाई में अपने विरोधी माकसॆनटियुस को हराया। मसीही समर्थक दावा करते हैं कि उस अभियान के दौरान, सूरज के नीचे एक ज्वालामयी क्रॉस दिखायी दिया जिस पर लैटिन के शब्द, इन हॉक सीगनो विनकॆस लिखे थे जिनका अर्थ है, “इस चिन्ह से जीत हासिल करो।” यह भी माना जाता है कि एक सपने में कॉन्स्टनटाइन से कहा गया कि अपने सैनिकों की ढालों पर यूनानी में मसीह के नाम के पहले दो अक्षर लिखवाए। लेकिन, इस कहानी में समय को लेकर कई दोष हैं। मसीहियत का इतिहास (अंग्रेज़ी) किताब कहती है: “इस दर्शन के सही समय, जगह और बारीकियों में तालमेल नहीं है।” रोम में कॉन्स्टनटाइन का स्वागत करते हुए, विधर्मी राज्य परिषद् ने उसे प्रमुख ऑगस्टस (राजा) और पॉन्टिफॆक्स मैक्सिमस, यानी उस साम्राज्य के मूर्तिपूजक धर्म का महायाजक घोषित किया।
सामान्य युग ३१३ में, कॉन्स्टनटाइन ने पूर्वी प्रदेशों के शासक, सम्राट लिसिनीयस के साथ साझेदारी करने का प्रबंध किया। मिलान फरमान के ज़रिए, उन्होंने मिलकर सभी धार्मिक समूहों को उपासना की आज़ादी और समान अधिकार दिए। लेकिन, अनेक इतिहासकार इस दस्तावेज़ को ज़्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनका कहना है कि यह केवल एक आम सरकारी पत्र था न कि कोई शाही दस्तावेज़ जिससे मसीहियत के बारे में नीति में फेर-बदल सूचित हो।
अगले दस साल के अंदर, कॉन्स्टनटाइन ने अपने आखिरी विरोधी लिसिनीयस को हराया और रोमी संसार का अकेला शासक बन गया। सामान्य युग ३२५ में, जबकि उसका बपतिस्मा भी नहीं हुआ था, उसने “मसीही” चर्च की पहली बड़ी अखिल-चर्ची धर्मसभा की अध्यक्षता की। इस धर्मसभा ने एकात्मकतावाद (एरियसवाद) की निंदा की और मुख्य विश्वासों का एक मसौदा तैयार किया जिसे नाइसीन धर्ममत कहा जाता है।
सामान्य युग ३३७ के साल में कॉन्स्टनटाइन बहुत बुरी तरह बीमार पड़ गया। उसकी ज़िंदगी की उन आखिरी घड़ियों में उसका बपतिस्मा हुआ और उसके बाद वह मर गया। उसकी मौत के बाद राज्य परिषद् ने उसे रोमी देवता का पद दिया।
कॉन्स्टनटाइन के दाँवपेंच में धर्म की भूमिका
धर्म के प्रति तीसरी और चौथी शताब्दियों के रोमी सम्राटों के आम रवैये के बारे में, इसदॉरीया टू एलिनीकू एथनूस (यूनानी राष्ट्र का इतिहास) किताब कहती है: “शाही तख्त पर बैठनेवाले लोगों की ऐसी गहरी धार्मिक भावनाएँ न होने के बावजूद, उस काल की प्रचलित विचारधारा के अनुसार चलकर उन्होंने यह ज़रूरी समझा कि अपनी राजनीतिक योजनाओं के ढाँचे में ही धर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान दें, अपने कामों पर कम-से-कम धर्म का रंग ही चढ़ा दें।”
बेशक, कॉन्स्टनटाइन अपने ज़माने के हिसाब से चला। अपने कार्यकाल की शुरूआत में, उसे कोई “दिव्य” सहारा चाहिए था और यह रोम के देवताओं से नहीं मिल सकता था जिनका प्रभाव खत्म होता जा रहा था। रोमी साम्राज्य, उसका धर्म और अन्य संस्थाएँ पतन की ओर बढ़ रहे थे और फिर से मज़बूती लाने के लिए कुछ नयी और उत्तेजक बात की ज़रूरत थी। विश्वकोश ईडरीआ (यूनानी) कहता है: “कॉन्स्टनटाइन मसीहियत में खासकर इसलिए दिलचस्पी ले रहा था क्योंकि इसने न केवल उसकी जीत का बल्कि उसके साम्राज्य के पुनर्गठन का भी समर्थन किया। सब जगह मौजूद मसीही चर्च, उसका राजनीतिक सहारा बन गए। . . . उस समय के बड़े-बड़े गिरजाध्यक्ष उसके इर्द-गिर्द रहते थे . . . , और उसने विनती की कि वे अपनी एकता बनाए रखें।”
कॉन्स्टनटाइन ने महसूस किया कि “मसीही” धर्म को—जो भले ही उस समय धर्मत्यागी और बहुत ही दूषित हो चुका था—सरकारी अधिकार की उसकी भव्य योजना का उद्देश्य पूरा करने के लिए जानदार और एकता लानेवाली शक्ति के रूप में बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। अपने राजनीतिक उद्देश्यों को बढ़ावा देने में समर्थन पाने के लिए, धर्मत्यागी मसीहियत की नींव को अपनाकर उसने लोगों को एक “कैथोलिक” अथवा विश्वव्यापी धर्म में एक करने का फैसला किया। विधर्मी रिवाज़ों और उत्सवों को “मसीही” नाम दिए गए। और “मसीही” पादरियों को विधर्मी याजकों का ओहदा, वेतन और रुतबा दिया गया।
राजनीतिक कारणों से धार्मिक एकता बनाए रखने की चाह में, कॉन्स्टनटाइन ने जल्द ही विरोध में उठनेवाली आवाज़ों को खामोश कर दिया। ऐसा उसने धार्मिक सच्चाइयों के आधार पर नहीं, बल्कि ज़्यादातर लोगों की स्वीकृति के आधार पर किया। बुरी तरह से विभाजित “मसीही” चर्च में, शिक्षाओं के बारे में गहरे मतभेदों ने उसे “परमेश्वर की ओर से आए” मध्यस्थ के रूप में हस्तक्षेप करने का अवसर दिया। उत्तर अफ्रीका में डोनेट पंथियों और साम्राज्य के पूर्वी भाग में एरियस के अनुयायियों से व्यवहार करके, उसे जल्द ही पता लग गया कि सिर्फ समझाने-बुझाने से कोई मज़बूत, एकीकृत धर्म नहीं बन सकता।a एरियस से जुड़े विवाद का हल करने की कोशिश में ही उसने चर्च के इतिहास में पहली अखिल-चर्ची धर्मसभा का आयोजन किया।—“कॉन्स्टनटाइन और नाइसिया की सभा” बक्स देखिए।
कॉन्स्टनटाइन के बारे में, इतिहासकार पॉल जॉनसन कहता है: “हो सकता है कि मसीहियत को बर्दाश्त करने का उसका एक मुख्य कारण था कि इससे खुद उसे [कॉन्स्टनटाइन] और सरकार को धार्मिक शिक्षाओं के बारे में चर्च की नीति पर पूरा नियंत्रण रखने का अवसर मिल रहा था।”
क्या वह कभी मसीही बना?
जॉनसन कहता है, “कॉन्स्टनटाइन ने कभी-भी सूर्य की उपासना नहीं छोड़ी और सूर्य को सिक्कों पर रहने दिया।” कैथोलिक एन्साइक्लोपीडिया कहती है: “कॉन्स्टनटाइन ने दोनों धर्मों का समान रूप से समर्थन किया। पॉन्टिफॆक्स मैक्सिमस के नाते उसने अधर्मी उपासना की देखरेख की और उसके अधिकारों की रक्षा की।” “कॉन्स्टनटाइन कभी-भी एक मसीही नहीं बना,” ईडरीआ विश्वकोश कहता है, आगे वह कहता है: “उसकी जीवनी लिखनेवाला, कैसरिया का यूसेबियस कहता है कि वह अपनी ज़िंदगी की आखिरी घड़ियों में मसीही बना। इस बात में कोई वज़न नहीं है, क्योंकि एक दिन पहले ही, [कॉन्स्टनटाइन] ने ज़्यूस को बलि चढ़ायी थी क्योंकि वह पॉन्टिफॆक्स मैक्सिमस के पद पर भी था।”
सामान्य युग ३३७ में उसकी मृत्यु के दिन तक, कॉन्स्टनटाइन पॉन्टिफॆक्स मैक्सिमस के विधर्मी पद पर बना रहा, यानी धार्मिक मामलों का सर्वोच्च मुखिया। उसके बपतिस्मे के बारे में, यह पूछना उचित है, जैसे शास्त्र माँग करता है, क्या उसने पहले सच्चा पश्चाताप और मन-फिराव किया? (प्रेरितों २:३८, ४०, ४१) यहोवा परमेश्वर के प्रति कॉन्स्टनटाइन के समर्पण के चिन्ह के रूप में क्या उसे पूरी तरह पानी के नीचे डुबोया गया था?—प्रेरितों ८:३६-३९ से तुलना कीजिए।
एक “संत”?
एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “अपनी उपलब्धियों के कारण, न कि व्यक्तिगत गुणों के कारण कॉन्स्टनटाइन “महान” कहलाने के योग्य था। अगर उसके चरित्र की जाँच की जाए, तो बेशक, प्राचीन या आधुनिक समय में जिस किसी को यह उपाधि [महान] दी गयी है, उनमें से इसके लिए सबसे कम योग्यता [कॉन्स्टनटाइन की] है।” और मसीहियत का इतिहास किताब हमें बताती है: “बहुत पहले उसके हिंसक क्रोध और गुस्सा होते वक्त उसकी क्रूरता के बारे में बताया जाने लगा। . . . मानव जीवन के लिए उसे कोई आदर नहीं था . . . जैसे-जैसे वह बूढ़ा होता गया उसका निजी जीवन हैवानी होता चला गया।”
साफ है कि कॉन्स्टनटाइन के व्यक्तित्व में बड़ी-बड़ी खामियाँ थीं। इतिहास का एक शोधकर्ता कहता है कि “अकसर उसकी तुनकमिज़ाजी उसके अपराध करने का कारण होती थी।” (“राजवंश में हत्याएँ,” बक्स देखिए।) कॉन्स्टनटाइन का “मसीही चरित्र” नहीं था, इतिहासकार एच. फिशर अपने यूरोप के इतिहास (अंग्रेज़ी) में दावा करता है। वास्तविकताएँ उसके एक सच्चे मसीही होने की पहचान नहीं देतीं, जिसने “नए मनुष्यत्व” को पहन लिया हो और जिसमें परमेश्वर की पवित्र आत्मा का फल, यानी प्रेम, आनंद, मेल, धीरज, कृपा, भलाई, विश्वास, नम्रता और संयम हो।—कुलुस्सियों ३:९, १०; गलतियों ५:२२, २३.
उसकी कोशिशों का फल
विधर्मी पॉन्टिफॆक्स मैक्सिमस—यानी रोमी साम्राज्य के धार्मिक मुखिया—के नाते कॉन्स्टनटाइन ने धर्मत्यागी चर्च के बिशपों को अपनी तरफ करने की कोशिश की। उसने उन्हें रोम के सरकारी धर्म के अधिकारियों के नाते शक्ति, प्रतिष्ठा और धन-दौलत के पद पेश किए। कैथोलिक एन्साइक्लोपीडिया स्वीकार करती है: “कुछ बिशप, दरबार की शानो-शौकत से अंधे होकर इस हद तक गए कि उन्होंने सम्राट का ‘परमेश्वर के दूत,’ ‘पवित्र जन’ के रूप में गुणगान किया, और भविष्यवाणी की कि वह परमेश्वर के पुत्र की तरह, स्वर्ग में शासन करेगा।”
जितना ज़्यादा धर्मत्यागी मसीहियत ने राजनीतिक सरकार का पक्ष लिया, उतना ज़्यादा वह इस संसार का, इस लौकिक रीति-व्यवस्था का भाग बनती चली गयी और यीशु मसीह की शिक्षाओं से दूर होती चली गयी। (यूहन्ना १५:१९; १७:१४, १६; प्रकाशितवाक्य १७:१, २) इसके परिणामस्वरूप, “मसीहियत” में झूठी धार्मिक शिक्षाओं और रीति-रिवाज़ों की मिलावट हो गयी, जैसे त्रिएक, आत्मा का अमरत्व, नरकाग्नि, शोधनस्थान, मृतकों के लिए प्रार्थनाएँ, रोज़री, प्रतिमाओं, मूर्तियों और ऐसी ही वस्तुओं का इस्तेमाल।—२ कुरिन्थियों ६:१४-१८ से तुलना कीजिए।
चर्च ने कॉन्स्टनटाइन से अधिकार चलाने की प्रवृत्ति को भी सीखा। विद्वान हॆंडरसन और बक कहते हैं: “सुसमाचार की सरलता भ्रष्ट हो गयी, दिखावटी रीति-रिवाज़ और रस्में शुरू की गयीं, मसीहियत के सिखानेवालों को सांसारिक उपाधियाँ और पारिश्रमिक दिए जाते थे, और मसीह के राज्य को बदलकर ज़्यादातर इस संसार का राज्य बना दिया गया।”
सच्ची मसीहियत कहाँ है?
ऐतिहासिक सच्चाइयाँ कॉन्स्टनटाइन की “महानता” के पीछे छिपे सत्य को उजागर करती हैं। सच्ची मसीही कलीसिया के सिर, यीशु मसीह के द्वारा स्थापित किए जाने के बजाय, मसीहीजगत कुछ हद तक राजनीतिक मौकापरस्ती और एक विधर्मी सम्राट की धूर्त चालों का नतीजा है। उचित ही, इतिहासकार पॉल जॉनसन पूछता है: “साम्राज्य ने मसीहियत के सामने घुटने टेके या क्या मसीहियत ने साम्राज्य के हाथों भ्रष्ट होना मंज़ूर कर लिया?”
वे सभी लोग जो सचमुच शुद्ध मसीहियत का पालन करना चाहते हैं, उन्हें आज सच्ची मसीही कलीसिया को पहचानने और उसके साथ संगति करने के लिए मदद दी जा सकती है। संसार भर में यहोवा के साक्षी सच्ची मसीहियत पहचानने और स्वीकृत तरीके से परमेश्वर की उपासना करने में सच्चे दिल के लोगों की तन-मन से मदद करना चाहते हैं।—यूहन्ना ४:२३, २४.
[फुटनोट]
a डोनेटिज़्म सामान्य युग चौथी और पाँचवीं शताब्दियों का एक “मसीही” पंथ था। इस पंथ के माननेवाले दावा करते थे कि संस्कारों की प्रामाणिकता, एक पादरी के नैतिक चरित्र पर निर्भर करती है और चर्च को ऐसे सभी सदस्यों को निकाल देना चाहिए जो गंभीर पाप के दोषी हैं। एकात्मकतावाद (एरियसवाद) चौथी शताब्दी का एक “मसीही” आंदोलन था जिसमें यीशु मसीह के ईश्वरत्व से इनकार किया जाता था। एरियस ने सिखाया कि परमेश्वर की उत्पत्ति नहीं हुई और उसकी कोई शुरूआत नहीं है। क्योंकि पुत्र की उत्पत्ति हुई थी, इसलिए वह उसी अर्थ में परमेश्वर नहीं हो सकता जिस अर्थ में पिता है। पुत्र सदा सर्वदा से अस्तित्त्व में नहीं था, बल्कि उसकी सृष्टि की गयी और वह पिता की इच्छानुसार ही जीवित है।
[पेज 28 पर बक्स]
कॉन्स्टनटाइन और नाइसिया की धर्मसभा
बपतिस्मा-रहित सम्राट कॉन्स्टनटाइन ने नाइसिया की धर्मसभा में कौन-सी भूमिका अदा की? एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहती है: “कॉन्स्टनटाइन ने खुद अध्यक्षता की, चर्चाओं को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया . . . सिर्फ दो बिशपों को छोड़ बाकी सबने सम्राट से भयभीत होकर धर्ममत पर हस्ताक्षर कर दिए, और कई अपनी भावनाओं के विरुद्ध ऐसा कर रहे थे।”
दो महीने की गरमागरम धार्मिक बहस के बाद, इस विधर्मी राजनीतिज्ञ ने हस्तक्षेप किया और उन लोगों के पक्ष में फैसला सुनाया जो कह रहे थे कि यीशु परमेश्वर है। लेकिन क्यों? “यूनानी धर्मविज्ञान में से पूछे जा रहे सवालों के बारे में कॉन्स्टनटाइन को मूल रूप से कोई जानकारी नहीं थी,” मसीही धार्मिक शिक्षा का संक्षिप्त इतिहास (अंग्रेज़ी) कहता है। वह यह ज़रूर जानता था कि धार्मिक फूट उसके साम्राज्य के लिए खतरा है, और वह अपने साम्राज्य को मज़बूत करने का संकल्प किए हुए था।
नाइसिया में कॉन्स्टनटाइन की देखरेख में तैयार किए गए आखिरी दस्तावेज़ के बारे में, इसदॉरीया टू एलिनीकू एथनूस (यूनानी राष्ट्र का इतिहास) कहता है: “यह धार्मिक शिक्षाओं के मामलों में [कॉन्स्टनटाइन] की लापरवाही, . . . हर कीमत पर चर्च में एकता वापस लाने की कोशिश करने का उसका हठ और आखिर में उसका यह विश्वास दिखाता है कि ‘चर्च से बाहरवालों के लिए बिशप’ के नाते वह किसी भी धार्मिक मामले पर अंतिम निर्णय कर सकता था।” क्या ऐसा हो सकता है कि उस धर्मसभा में किए गए निर्णयों के पीछे परमेश्वर की आत्मा हो?—प्रेरितों १५:२८, २९ से तुलना कीजिए।
[पेज 29 पर बक्स]
राजवंश में हत्याएँ
इस शीर्षक के नीचे, इसदॉरीया टू एलिनीकू एथनूस (यूनानी राष्ट्र का इतिहास) नामक रचना “कॉन्स्टनटाइन द्वारा परिवार में किए गए घृणित अपराधों” का वर्णन करती है। उसके राजवंश के सत्ता में आने के बाद जल्द ही, वह अचानक मिली सफलता का आनंद उठाना भूल गया और अपने चारों ओर के खतरों के प्रति सचेत हो गया। वह शक्की इंसान था और शायद अपने चमचों के भड़काने पर, उसे सबसे पहले अपने भानजे लिसिनियानुस पर शक हुआ कि वह शायद उसका विरोध करे। वह एक संगी ऑगस्टस (राजा) का बेटा था जिसे कॉन्स्टनटाइन पहले ही मार चुका था। और उसके बाद खुद कॉन्स्टनटाइन के पहले बेटे, क्रिसपस को उसकी सौतेली माँ, फॉस्टा ने मार दिया, क्योंकि वह उसकी संतान के पूरी तरह सत्ता हासिल करने में बाधा लग रहा था।
फॉस्टा का यह काम आखिर में खुद उसकी असामान्य मौत का कारण बना। ऐसा लगता है कि ऑगस्टा (रानी) हेलॆना, जिसका अपने बेटे कॉन्स्टनटाइन पर आखिर तक प्रभाव रहा, इस हत्या में शामिल थी। जिन असंगत भावनाओं के वश में कॉन्स्टनटाइन अकसर रहता था, उनके कारण भी उसके अनेक दोस्त और साथियों का एक-के-बाद-एक वध किया गया। मध्य युगों का इतिहास (अंग्रेज़ी) किताब निष्कर्ष निकालती है: “अपने बेटे और पत्नी को मौत की सज़ा देना, या दूसरे मायनो में उनका खून करना, दिखाता है कि वह मसीहियत के आध्यात्मिक प्रभाव से कोसों दूर था।”
[पेज 30 पर तसवीर]
कॉन्स्टनटाइन को गौरव देने के लिए रोम के इस मेहराब का इस्तेमाल किया गया है
[पेज 26 पर चित्र का श्रेय]
Musée du Louvre, Paris