सत्य के परमेश्वर की मिसाल पर चलना
‘प्रिय बालको की नाईं परमेश्वर के सदृश्य बनो।’—इफिसियों 5:1.
1. सच्चाई के बारे में कुछ लोग क्या मानते हैं, और उनकी दलीलें क्यों बेबुनियाद हैं?
“सत्य क्या है?” (यूहन्ना 18:38) यह सवाल करीब 2,000 साल पहले पुन्तियुस पीलातुस ने सत्य का मज़ाक उड़ाते हुए पूछा था। उसके सवाल से ऐसा लगता है कि सच्चाई बहुत रहस्यमयी है और उसे जानने की कोशिश करना बेकार है। आज बहुत-से लोग इस बात से सहमत होंगे। यहाँ तक कि सच्चाई के बारे में लोग अपनी-अपनी परिभाषा देते हैं। आपने शायद ऐसी धारणाएँ सुनी होंगी, जैसे सच्चाई क्या होती है इसका फैसला हर इंसान खुद करता है या कोई भी बात पूरी तरह सच नहीं होती या सच्चाई हमेशा बदलती रहती है। इस तरह की दलीलें बेबुनियाद हैं। क्योंकि इंसान के खोजबीन करने और ज्ञान हासिल करने का आखिरकार मकसद यही है कि वह जिस दुनिया में रहता है उसके बारे में असलियत या सच्चाई जाने। सच्चाई का मतलब, हर इंसान के खुद के विचार नहीं हो सकते। मसलन, इंसान की आत्मा या तो मरती है या फिर अमर रहती है। या तो शैतान सचमुच है या फिर नहीं है। या तो ज़िंदगी का कोई मकसद है या नहीं है। इनमें से हर मामले में एक ही बात सच हो सकती है। एक सच तो दूसरी गलत होगी; दोनों सच नहीं हो सकतीं।
2. किन तरीकों से यहोवा सच्चाई का परमेश्वर है, और अब हम किन सवालों पर चर्चा करेंगे?
2 पिछले लेख में हमने देखा कि यहोवा सच्चाई का परमेश्वर है। वह सभी बातों की सच्चाई जानता है। यहोवा अपने दुश्मन यानी धोखेबाज़ शैतान से बिलकुल अलग है क्योंकि वह हमेशा सत्यवादी है। इतना ही नहीं, यहोवा दूसरों को उदारता से सच्चाई का ज्ञान देता है। प्रेरित पौलुस ने अपने मसीही भाई-बहनों से आग्रह किया: ‘प्रिय बालकों की नाईं परमेश्वर के सदृश्य बनो।’ (इफिसियों 5:1) यहोवा के बारे में साक्षी देनेवालों के नाते, हम सच बोलने और सच्चाई के मुताबिक जीने में उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? ऐसा करना क्यों ज़रूरी है? और हम पूरे यकीन के साथ कैसे कह सकते हैं कि यहोवा, सच्चाई की राह पर चलनेवालों पर अनुग्रह करता है? आइए इन सवालों के जवाब देखें।
3, 4. प्रेरित पौलुस और पतरस ने “अन्तिम दिनों” के बारे में क्या भविष्यवाणी की?
3 आज हम एक ऐसे वक्त में जी रहे हैं जब झूठी धार्मिक शिक्षाएँ चारों तरफ फैली हुई हैं। जैसे प्रेरित पौलुस ने ईश्वर-प्रेरणा से भविष्यवाणी की थी, इन “अन्तिम दिनों” में बहुत-से लोग, ईश्वरीय भक्ति का भेष तो धरते हैं मगर उसके मुताबिक नहीं जीते। कुछ लोगों की “बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है” इसलिए वे सच्चाई का विरोध करते हैं। इसके अलावा, ‘दुष्ट, और बहकानेवाले धोखा देते हुए, और धोखा खाते हुए, बिगड़ते चले जा रहे हैं।’ ऐसे लोग हालाँकि हमेशा सीखते रहते हैं मगर ‘सत्य की पहिचान तक कभी नहीं पहुंचते।’—2 तीमुथियुस 3:1, 5, 7, 8, 13.
4 अंतिम दिनों के बारे में प्रेरित पतरस ने भी ईश्वर-प्रेरणा से लिखा। ठीक जैसे उसने भविष्यवाणी की थी, आज लोग न सिर्फ सच्चाई को ठुकराते हैं बल्कि परमेश्वर के वचन की और उन लोगों की भी खिल्ली उड़ाते हैं जो उसमें लिखी सच्चाई सिखाते हैं। ठट्ठा करनेवाले ये लोग “जान बूझकर” इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करते हैं कि जैसे नूह के दिनों का संसार जलप्रलय से नाश हुआ था, वैसा ही विनाश आनेवाले न्याय के दिन भी होगा। उन्हें लगता है कि उनके साथ कुछ बुरा नहीं होगा। मगर उनकी इस कोरी कल्पना का अंजाम बहुत भयानक होगा क्योंकि जब परमेश्वर का ठहराया हुआ समय आएगा कि वह भक्तिहीन लोगों का नाश करे, तब उन पर विपत्ति टूट पड़ेगी।—2 पतरस 3:3-7.
यहोवा के सेवक सच्चाई जानते हैं
5. भविष्यवक्ता दानिय्येल के मुताबिक, “अन्त समय” में क्या होनेवाला था, और यह भविष्यवाणी कैसे पूरी हो रही है?
5 भविष्यवक्ता दानिय्येल ने “अन्त समय” का ब्योरा देते हुए बताया कि उस दौरान परमेश्वर के लोगों के बीच बिलकुल अलग तरह का बदलाव होगा—वे दोबारा आध्यात्मिक सच्चाई की रोशनी पाएँगे। उसने लिखा: “बहुत लोग पूछ-पाछ और ढूंढ़-ढांढ़ करेंगे, और उस से [‘सच्चा,’ ईज़ी-टू-रीड वर्शन] ज्ञान बढ़ भी जाएगा।” (दानिय्येल 12:4) महाधोखेबाज़ शैतान, यहोवा के लोगों को भ्रम में नहीं डाल सकता, ना ही उन्हें अंधा कर सकता है। उन्होंने बाइबल के पन्नों में खोजबीन करने की वजह से सच्चा ज्ञान पा लिया है। पहली सदी में, यीशु ने अपने चेलों को ज्ञान की रोशनी दी थी। उसने “पवित्र शास्त्र बूझने के लिये उन की समझ खोल दी।” (लूका 24:45) हमारे समय में भी, यहोवा ने कुछ ऐसा ही किया है। उसने अपने वचन, अपनी आत्मा और अपने संगठन के ज़रिए, संसार भर में रहनेवाले लाखों लोगों को सच्चाई की समझ दी है।
6. आज परमेश्वर के लोगों ने बाइबल की किन सच्चाइयों को समझा है?
6 परमेश्वर के लोग होने की वजह से हमें ऐसी कई बातों की समझ मिली है, जो उसके लोग न होने से हमें नहीं मिलती। हमने ऐसे सवालों के जवाब पाए हैं जिन्हें लेकर दुनिया के ज्ञानी हज़ारों सालों से दुविधा में पड़े हैं। मसलन, हम जानते हैं कि ज़िंदगी में दुःख-तकलीफें क्यों हैं, लोग क्यों मरते हैं और इंसान विश्व-शांति और एकता क्यों नहीं ला सकता। हमें इस बात की भी झलक मिली है कि भविष्य में क्या-क्या होगा—परमेश्वर का राज्य, धरती पर फिरदौस और हमेशा-हमेशा की सिद्ध ज़िंदगी। हमने परमप्रधान यहोवा को जाना है। हमने सीखा है कि उसमें कैसे मनभावने गुण हैं और यह भी कि उसकी आशीषें पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए। सच्चाई जानने की वजह से हम झूठ को साफ पहचान सकते हैं। सच्चाई के मुताबिक चलने से हम बेकार की बातों के पीछे भागने से बचते हैं, ज़िंदगी का पूरा-पूरा लुत्फ उठाते हैं और भविष्य के लिए एक उज्ज्वल आशा पाते हैं।
7. बाइबल की सच्चाइयाँ कौन समझ सकते हैं, और कौन नहीं?
7 क्या आप बाइबल की सच्चाई समझते हैं? अगर हाँ, तो इसका मतलब है कि आपने आशीषों का खज़ाना पा लिया है। जब एक लेखक कोई किताब लिखता है, तो वह अकसर किसी खास समूह के लोगों को ध्यान में रखकर लिखता है। कुछ किताबें बहुत पढ़े-लिखे लोगों के लिए लिखी जाती हैं, तो कुछ बच्चों के लिए और कुछ ऐसे लोगों के लिए जिन्हें किसी खास क्षेत्र में महारत हासिल है। हालाँकि बाइबल सभी के लिए आसानी से उपलब्ध है मगर इसे सिर्फ एक खास समूह के लोग ही समझ पाते हैं और उसका आनंद ले पाते हैं। यहोवा ने इस किताब को उन इंसानों के लिए रचा है जो नम्र और मन के दीन हैं। ऐसे लोग बाइबल में लिखी बातों का अर्थ समझ पाते हैं, फिर चाहे उनकी शिक्षा, उनकी संस्कृति, जाति या समाज में हैसियत जो भी हो। (1 तीमुथियुस 2:3, 4) दूसरी तरफ, वे लोग बाइबल की सच्चाई को नहीं समझ सकते जो सही मन नहीं रखते हैं, फिर चाहे वे कितने ही अक्लमंद या पढ़े-लिखे क्यों न हों। घमंडी और ढीठ लोग परमेश्वर के वचन में दी गयी अनमोल सच्चाइयों को कभी नहीं समझ पाएँगे। (मत्ती 13:11-15; लूका 10:21; प्रेरितों 13:48) वाकई, सिर्फ परमेश्वर ही एक ऐसी किताब लिखवा सकता है जिसे सही मन रखनेवाले समझ पाएँ और जो घमंडी लोगों की समझ से परे हो।
यहोवा के सेवक सत्यवादी हैं
8. यीशु सच्चाई का साक्षात् रूप क्यों था?
8 यहोवा की तरह उसके वफादार साक्षी भी सत्यवादी हैं। यहोवा के सबसे महान साक्षी, यीशु ने अपनी शिक्षाओं, अपने जीने के तरीके और मरने के तरीके से सच्चाई को पुख्ता किया। उसने यहोवा के वचन और उसके वादों की सच्चाई के बारे में गवाही दी। यही वजह है कि यीशु सच्चाई का साक्षात् रूप बना, जैसे उसने खुद कहा भी था।—यूहन्ना 14:6; प्रकाशितवाक्य 3:14; 19:10.
9. सच बोलने के बारे में बाइबल क्या कहती है?
9 यीशु “अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण” था और “उसके मुंह से कभी छल की बात नहीं निकली थी।” (यूहन्ना 1:14; यशायाह 53:9) सच्चे मसीही, यीशु के दिखाए नमूने पर चलते हुए दूसरों के साथ सच्चाई से पेश आते हैं। पौलुस ने अपने मसीही भाई-बहनों को यह सलाह दी: “हर एक अपने पड़ोसी से सच बोले, क्योंकि हम आपस में एक दूसरे के अंग हैं।” (इफिसियों 4:25) इससे काफी समय पहले, भविष्यवक्ता जकर्याह ने लिखा: “एक दूसरे के साथ सत्य बोला करना।” (जकर्याह 8:16) मसीही, इसलिए सत्यवादी हैं क्योंकि वे परमेश्वर को खुश करना चाहते हैं। यहोवा सत्यवादी है और जानता है कि झूठ से कितना नुकसान होता है। इसलिए अपने सेवकों से उसका यह उम्मीद करना बिलकुल सही है कि वे हमेशा सच बोलें।
10. लोग झूठ क्यों बोलते हैं और इससे क्या नुकसान होता है?
10 बहुत-से लोग शायद ऐसा सोचें कि झूठ बोलकर अपना काम आसानी से पूरा किया जा सकता है। वे सज़ा से बचने, किसी तरह का मुनाफा कमाने या लोगों की वाह-वाही पाने के लिए झूठ बोलते हैं। लेकिन, झूठ बोलने की आदत एक दुर्गुण है। सबसे गंभीर बात तो यह है कि झूठ बोलनेवाला, परमेश्वर की मंज़ूरी नहीं पा सकता। (प्रकाशितवाक्य 21:8, 27; 22:15) अगर हम हमेशा सच बोलनेवाले के तौर पर नाम कमाएँ, तो दूसरे हमारी बात पर यकीन करेंगे, हम पर भरोसा रखेंगे। लेकिन अगर हम एक बार भी झूठ बोलते हुए पकड़े जाएँ, तो लोग फिर कभी हमारी बात पर भरोसा नहीं करेंगे। अफ्रीका में यह कहावत है: “एक झूठ, हज़ार सच्चाइयों को खाक में मिला देता है।” एक और कहावत है: “झूठे का बोला हुआ सच भी झूठ लगता है।”
11. सत्यवादी होने का मतलब सिर्फ सच बोलना क्यों नहीं है?
11 सत्यवादी होने का मतलब सिर्फ सच बोलना नहीं है। दरअसल हमारे जीने के तरीके से ज़ाहिर होना चाहिए कि हम सत्यवादी हैं। इससे हमारी शख्सियत की पहचान होती है। हम न सिर्फ अपनी बातों से बल्कि अपने कामों से भी दूसरों पर सच्चाई ज़ाहिर करते हैं। प्रेरित पौलुस ने पूछा: “क्या तू जो औरों को सिखाता है, अपने आप को नहीं सिखाता? क्या तू जो चोरी न करने का उपदेश देता है, आप ही चोरी करता है? तू जो कहता है, व्यभिचार न करना, क्या आप ही व्यभिचार करता है?” (रोमियों 2:21, 22) अगर हम दूसरों को सच्चाई सिखाना चाहते हैं, तो हमें अपने सभी कामों में सत्यवादी होना चाहिए। अगर हम सत्यवादी और ईमानदार होने का नाम कमाएँ तो ज़ाहिर है कि लोग हमारी सिखायी बातों पर यकीन करेंगे।
12, 13. सत्यवादी होने के बारे में एक छोटी लड़की ने क्या लिखा और वह क्यों ऊँचे नैतिक स्तरों पर चलती है?
12 यहोवा के सेवकों के बच्चे भी समझते हैं कि सत्यवादी होना कितना ज़रूरी है। जब जॆनी 13 साल की थी, तब उसने स्कूल के एक निबंध में यह लिखा: “ईमानदारी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। अफसोस की बात है कि आज ज़्यादातर लोग पूरी तरह ईमानदार नहीं हैं। मैंने यह कसम खायी है कि मैं ज़िंदगी भर ईमानदार रहूँगी। मैं उस वक्त भी ईमानदार रहूँगी जब सच बोलने से मुझे या मेरे दोस्तों को तुरंत फायदा नहीं होगा। मैं सिर्फ ऐसे लोगों के साथ दोस्ती करती हूँ जो सच बोलते हैं और ईमानदार हैं।”
13 जॆनी के इस निबंध के बारे में उसकी टीचर ने अपनी राय ज़ाहिर करते हुए उससे कहा: “कमाल है, तुमने इतनी छोटी उम्र में ही नैतिक उसूलों पर चलने का अटल फैसला कर लिया! मुझे मालूम है कि तुम हमेशा इस उसूल पर अटल रहोगी क्योंकि तुममें वाकई एक अच्छा चरित्र बनाए रखने की अंदरूनी ताकत है।” स्कूल में पढ़नेवाली इस लड़की ने यह अंदरूनी ताकत कैसे पायी? उसने अपने निबंध की शुरूआत में लिखा कि उसका धर्म “[उसके] जीवन के लिए स्तर कायम करता है।” जॆनी को वह निबंध लिखे सात साल हो गए हैं। ठीक जैसे उसकी टीचर ने कहा था, वह एक यहोवा की साक्षी के तौर पर आज भी ऊँचे नैतिक स्तरों पर चलती है।
यहोवा के सेवक सच्चाई ज़ाहिर करते हैं
14. परमेश्वर के सेवकों पर, जो सही है उसे मानने की खास ज़िम्मेदारी क्यों है?
14 माना कि यहोवा के साक्षियों के अलावा, दूसरे कई लोग भी सच बोलते हैं और ईमानदार रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन परमेश्वर के सेवक होने के नाते, हमारी यह खास तौर पर ज़िम्मेदारी बनती है कि जो सही है, उसे मानने में हम अटल रहें। हमें बाइबल की सच्चाइयाँ दी गयी हैं और ये ऐसी सच्चाइयाँ हैं जो एक इंसान को हमेशा की ज़िंदगी दे सकती हैं। इसलिए हमारा फर्ज़ बनता है कि हम दूसरों को भी यह ज्ञान दें। यीशु ने कहा: “जिसे बहुत दिया गया है, उस से बहुत मांगा जाएगा।” (लूका 12:48) बेशक, उन लोगों से “बहुत मांगा” जाता है जिन्हें परमेश्वर का अनमोल ज्ञान पाने की आशीष मिली है।
15. दूसरों को बाइबल की सच्चाई सिखाने से आपको कैसी खुशी मिलती है?
15 दूसरों को बाइबल की सच्चाई सिखाने से बहुत आनंद मिलता है। जैसे पहली सदी में यीशु के चेलों ने किया था, हम भी एक खुशखबरी या आशा का संदेश सुनाते हैं जो बेहद सुकून देता है। और यह संदेश हम ऐसे लोगों को सुनाते हैं जो “उन भेड़ों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से” हैं और “दुष्टात्माओं की शिक्षाओं” के बहकावे में आकर भ्रम में पड़े हैं। (मत्ती 9:36; 1 तीमुथियुस 4:1) प्रेरित यूहन्ना ने लिखा: “मुझे इस से बढ़कर और कोई आनन्द नहीं, कि मैं सुनूं, कि मेरे लड़के-बाले सत्य पर चलते हैं।” (3 यूहन्ना 4) यूहन्ना के ये “लड़के-बाले” शायद वे लोग थे जिनको उसने सच्चाई से वाकिफ कराया था। उनकी वफादारी देखकर यूहन्ना को बहुत खुशी मिली। आज हमें भी उन लोगों को देखकर बेहद खुशी मिलती है जो एहसान भरे दिल से परमेश्वर के वचन को कबूल करके उस पर चलते हैं।
16, 17. (क) हर कोई सच्चाई को क्यों कबूल नहीं करता? (ख) दूसरों को बाइबल की सच्चाई बताते वक्त आप किस बात से खुशी पा सकते हैं?
16 यह तो मानना पड़ेगा कि सभी लोग सच्चाई को कबूल नहीं करेंगे। यीशु ने लोगों को परमेश्वर के बारे में सच्चाई बतायी, इसके बावजूद कि उनमें से ज़्यादातर को यह रास नहीं आयी। जो यहूदी उसका विरोध करते थे, उनसे उसने कहा: “तुम मेरी प्रतीति क्यों नहीं करते? जो परमेश्वर से होता है, वह परमेश्वर की बातें सुनता है; और तुम इसलिये नहीं सुनते कि परमेश्वर की ओर से नहीं हो।”—यूहन्ना 8:46, 47.
17 यीशु की तरह, हम भी लोगों को यहोवा के बारे में अनमोल सच्चाई बताने से नहीं झिझकते। हम यह उम्मीद नहीं करते कि हम जितने भी लोगों को गवाही देंगे, वे सभी सच्चाई को अपना लेंगे। आखिर, यीशु की बात भी तो हर किसी ने नहीं मानी थी! लेकिन हमें इस बात से खुशी मिलती है कि लोगों को सच्चाई बताकर हम बिलकुल सही काम कर रहे हैं। निरंतर प्रेम-कृपा से भरपूर होने की वजह से, यहोवा चाहता है कि सभी इंसानों पर सच्चाई ज़ाहिर हो। मसीहियों के पास सच्चाई होने की वजह से वे इस अंधकारमय संसार में ज्योति फैलाने का काम करते हैं। हम अपनी बातों और अपने कामों से सच्चाई की रोशनी फैलाकर, दूसरों को भी स्वर्ग में रहनेवाले हमारे पिता की महिमा करने में मदद दे सकते हैं। (मत्ती 5:14, 16) हम सरेआम यह ज़ाहिर करते हैं कि शैतान जिन बातों को सच्चाई का नाम देकर फैलाता है, उन्हें हम ठुकराते हैं और बाइबल की शुद्ध और निर्मल सच्चाइयों को मानने में अटल रहते हैं। हम जो सच्चाई जानते और सिखाते हैं, उसे कबूल करनेवाले सही मायनों में आज़ाद हो सकते हैं।—यूहन्ना 8:32.
सच्चाई की राह पर चलते रहें
18. यीशु ने नतनएल पर क्यों और कैसे अनुग्रह किया?
18 यीशु ने सच्चाई से प्यार किया और हमेशा सच बोला। धरती पर अपनी सेवा के दौरान, उसने ऐसे लोगों पर अनुग्रह किया जो सत्यवादी थे। नतनएल के बारे में उसने कहा: “देखो, यह सचमुच इस्राएली है: इस में कपट नहीं।” (यूहन्ना 1:47) इसके बाद नतनएल को, जो शायद बर-तुल्मै भी कहलाता था, यीशु के 12 प्रेरितों में से एक होने के लिए चुना गया। (मत्ती 10:2-4) सत्यवादी होने का उसे क्या ही बड़ा सम्मान मिला!
19-21. जो आदमी पहले अंधा था, उसे हिम्मत के साथ सच बोलने की वजह से क्या आशीष मिली?
19 यूहन्ना की किताब का एक पूरा अध्याय, एक और ईमानदार आदमी का ब्योरा देता है जिसे यीशु ने आशीष दी। हम उसका नाम नहीं जानते। लेकिन हमें इतना पता है कि वह एक भिखारी था और जन्म से अंधा था। जब यीशु ने उसकी आँखों की रोशनी लौटा दी, तो लोग दंग रह गए। इस चमत्कार की खबर, कुछ फरीसियों तक भी पहुँच गयी जो सच्चाई के दुश्मन थे। उन्होंने आपस में तय कर लिया था कि जो भी यीशु पर विश्वास करेगा, उसे वे आराधनालय से बहिष्कार कर देंगे। चंगा किए गए आदमी के माता-पिता, फरीसियों की इस साज़िश के बारे में जानते थे इसलिए उन्होंने डर के मारे फरीसियों से झूठ बोला कि वे नहीं जानते कि उसके बेटे की आँखें कैसे ठीक हो गयीं या उसे किसने चंगा किया।—यूहन्ना 9:1-23.
20 उस आदमी को दोबारा फरीसियों के सामने हाज़िर किया गया। उसने अंजाम की परवाह किए बिना, पूरी हिम्मत के साथ सच्चाई बतायी। उसने बताया कि उसकी आँखें कैसे ठीक हो गयीं और कि यीशु ने ही उसे चंगा किया था। उस आदमी को यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि ये नामी-गिरामी और पढ़े-लिखे लोग यीशु को परमेश्वर का भेजा हुआ नहीं मानते थे। इसलिए उसने निडर होकर उनसे आग्रह किया कि वे सच्चाई को कबूल कर लें: “यदि यह व्यक्ति परमेश्वर की ओर से न होता, तो कुछ भी नहीं कर सकता।” फरीसियों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था, इसलिए उन्होंने उस आदमी पर गुस्ताखी करने का इलज़ाम लगाकर उसे आराधनालय से निकाल दिया।—यूहन्ना 9:24-34.
21 जब यीशु को यह बात पता चली, तो उसने समय निकालकर उस आदमी को ढूँढ़ा। उसे पाने पर यीशु ने उसके विश्वास को और मज़बूत किया। यीशु ने उस पर यह ज़ाहिर किया कि वह मसीहा है। सच्चाई बताने की वजह से उस आदमी को कितनी बढ़िया आशीष मिली! बेशक, परमेश्वर का अनुग्रह उन्हीं को मिलता है जो सच बोलते हैं।—यूहन्ना 9:35-37.
22. हमें सच्चाई के मार्ग पर क्यों चलना चाहिए?
22 हम सभी को चाहिए कि हम सच्चाई की राह पर चलने की बात को गंभीरता से लें। लोगों और परमेश्वर के साथ अच्छा रिश्ता कायम करने और उसे बनाए रखने के लिए यह बेहद ज़रूरी है। सत्यवादी होने का मतलब है, निष्कपट, सच्चा, मिलनसार और भरोसेमंद होना। जो सत्यवादी होते हैं, वे यहोवा की मंज़ूरी पाते हैं। (भजन 15:1, 2) झूठे होने का मतलब है, धोखेबाज़ और बेईमान होना और सच न बोलना। ऐसे लोगों पर यहोवा का क्रोध भड़कता है। (नीतिवचन 6:16-19) इसलिए हमेशा सच्चाई के मार्ग पर चलने की ठान लीजिए। जी हाँ, सच्चाई के परमेश्वर की मिसाल पर चलने के लिए, ज़रूरी है कि हम सच्चाई को जानें, सच बोलें और उसके मुताबिक जीएँ।
आपका जवाब क्या होगा?
• हम क्यों एहसानमंद हो सकते हैं कि हम सच्चाई जानते हैं?
• हम सत्यवादी होने में यहोवा की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
• दूसरों को बाइबल की सच्चाई सिखाने के क्या फायदे हैं?
• सच्चाई के मार्ग पर बने रहना क्यों ज़रूरी है?
[पेज 17 पर तसवीरें]
मसीहियों को बाइबल की सच्चाई दी गयी है, इसलिए वे पूरे जोश के साथ दूसरों को इसके बारे में बताते हैं
[पेज 18 पर तसवीरें]
जिस अंधे आदमी को यीशु ने चंगा किया था, उसे सच बोलने के कारण बढ़िया आशीष मिली