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  • ज़िंदगी—कीमती या सस्ती?
  • प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2005
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प्रहरीदुर्ग यहोवा के राज्य की घोषणा करता है—2005
w05 2/1 पेज 3-4

ज़िंदगी—कीमती या सस्ती?

“इंसान परमेश्‍वर के स्वरूप में बनाया गया है। इसलिए इंसान का कत्ल करना दुनिया की सबसे बेशकीमती और सबसे पाक चीज़ का खातमा करना है।”—विलियम बार्कले की किताब सही-गलत को समझने के लिए आम इंसान की गाइड, अँग्रेज़ी।

‘दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़।’ क्या आप भी ज़िंदगी के बारे में यही नज़रिया रखते हैं? आज ज़्यादातर लोगों का बर्ताव देखने पर यह साफ ज़ाहिर होता है कि वे ऊपर बताए लेखक की बात से राज़ी नहीं। आज इंसान इतने ज़ालिम हो गए हैं कि वे अपने स्वार्थी लक्ष्यों को पूरा करने की धुन में लाखों लोगों को बेरहमी से मौत के घाट उतार देते हैं, उन्हें दूसरों की खुशहाली की रत्ती-भर भी परवाह नहीं होती।—सभोपदेशक 8:9.

रद्दी और फेंकाऊ

इसकी एक सही मिसाल है, पहला विश्‍वयुद्ध। इतिहासकार ए. जे. पी. टेलर कहते हैं कि उस भयानक लड़ाई के दौरान कितनी ही बार “बिना किसी वजह के ढेर सारे लोगों की बलि चढ़ा दी गयी।” नाम और शोहरत की भूख में सैनिक अफसरों ने अपने फौजियों को ऐसे इस्तेमाल किया मानो वे कोई रद्दी और फेंकाऊ चीज़ हैं। वर्डन नाम की जगह के लिए फ्रांस में हुई लड़ाई की ही बात लीजिए। इस जंग में पाँच लाख से ज़्यादा लोग हताहत हुए। टेलर लिखते हैं: “इस जंग में ऐसा कोई [अहम] इलाका दाँव पर नहीं लगा था जिसे हासिल करने या गँवा देने में किसी की हार या जीत होती। बस शोहरत कमाने के लिए खून की नदियाँ बहायी गयीं।”—पहला विश्‍व युद्ध, अँग्रेज़ी।

आज भी जहाँ देखो वहाँ ज़िंदगी बस दो कौड़ी की मानी जाती है। विद्वान केवन बेल्ज़ कहते हैं कि हाल के सालों में, “आबादी के तेज़ी से बढ़ जाने से दुनिया में काम की तलाश करनेवाले गरीबों और बेसहारा लोगों की भरमार लग गयी है।” आज जहाँ व्यापार जगत लोगों का खून चूस रहा है और “ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं रही,” वहाँ इन गरीबों को बस अपना पेट पालने के लिए ज़िंदगी-भर एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं। बेल्ज़ कहते हैं कि इन गरीबों का नाजायज़ फायदा उठानेवाले उनके साथ गुलामों जैसा सलूक करते हैं, यानी “पैसा कमाने के लिए

उनका पूरा इस्तेमाल करते हैं और फिर उन्हें रद्दी की तरह फेंक देते हैं।”—फेंकाऊ लोग, अँग्रेज़ी।

“वायु को पकड़ना”

इसके अलावा, और भी कई कारणों से लाखों लोग खुद को बिलकुल बेकार और लाचार महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि वे मरें या जीएँ, इससे दूसरों को कोई फर्क नहीं पड़ता। युद्ध और नाइंसाफी के अलावा, सूखे की मार, अकाल, बीमारियाँ, अज़ीज़ों की मौत और ऐसी अनगिनत मुसीबतों से आज पूरी मानवजाति पीड़ित है। इसलिए लोग सोच में पड़ जाते हैं कि क्या यह जीना भी कोई जीना है।—सभोपदेशक 1:8, 14.

माना कि हर कोई ज़िंदगी में ऐसी घोर तंगहाली या बड़ी आफत का शिकार नहीं होता। लेकिन जिन्हें ऐसे भारी संकटों का सामना नहीं करना पड़ता है, वे भी प्राचीन इस्राएल के राजा सुलैमान के इन शब्दों से सहमत होते हैं, जिसने पूछा: “मनुष्य जो धरती पर मन लगा लगाकर परिश्रम करता है उस से उसको क्या लाभ होता है?” बहुत-से लोग जब अपनी ज़िंदगी के बारे में गहराई से सोचते हैं, तो उन्हें एहसास होता है कि उन्होंने जो कुछ किया वह “व्यर्थ और वायु को पकड़ना है।”—सभोपदेशक 2:22, 26.

कई लोग जब अपनी ज़िंदगी के बीते दिन याद करते हैं, तो पूछते हैं: “क्या इसी को ज़िंदगी कहते हैं?” जी हाँ, ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने कुलपिता इब्राहीम की तरह सही मायनों में “संतुष्ट जीवन” बिताया हो? (उत्पत्ति 25:8, NHT) बहुत-से लोगों को हमेशा यही लगता है कि उनकी ज़िंदगी बिलकुल बेकार या बेमतलब की है। लेकिन ज़रूरी नहीं कि आपकी ज़िंदगी भी इन लोगों की तरह हो। यहोवा की नज़र में हर इंसान का जीवन अनमोल है और वह चाहता है कि हममें से हरेक जन सचमुच खुशी और संतोष से भरी ज़िंदगी बिताए। ऐसी ज़िंदगी कैसे मुमकिन है? ध्यान दीजिए कि इस बारे में अगला लेख क्या बताता है।

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